दयानंद पांडेय
‘जानम समझा करो!’ गाने वाली आशा भोंसले अब गाने के बाद खाना भी परोसने लगी हैं। होटलों की श्रृंखला शुरू कर के। पर गायकी की गमक में सराबोर उनकी जिंदगी के पड़ाव कई हैं जिन्हें वह अपनी आत्मकथा में लिख रही हैं। लगान फ़िल्म में जावेद अख़्तर के लिखे गीत ‘राधा कैसे न जले!’ की गायकी का तार उनकी ज़िंदगी को भी छूता है। अपने इस बार-बार जलने को वह भूलती नहीं और कहती हैं कि, ‘मेरे साथ बहुत अन्याय हुआ है।’ यह कहते हुए उन का चेहरा तकलीफ से भर जाता है। और दोनों आंखें भीग जाती हैं। आशा भोंसले और लता मंगेशकर दोनों सगी बहनें हैं लेकिन दोनों के व्यवहार में बहुत ज़्यादा फ़र्क है। लता मंगेशकर की उपस्थिति एक गरिमा परोसती है तो आशा भोंसले की उपस्थिति खुलापन। लता मंगेशकर से मिलना एक अनुभव है तो आशा भोंसले से मिलना एक खुशनुमा अनुभव है। अब तो उन्हें इतने अवार्ड मिलने लगे हैं कि वह खुद कहती हैं कि जैसे छप्पर फाड़ के मिल रहा है। स्पष्ट है कि वह तमाम अवार्डों के पहले न मिलने का अनकहा गिला भी भूलती नहीं पर ‘निगाहें मिलाने को जी चाहता है/ दिलो जां लुटाने को जी चाहता है’ की गायकी में जैसे सब कुछ भूल भुला देती हैं। ऐसे ही एक अवार्ड ‘अवध-रत्न’ से कुछ समय पहले उन्हें लखनऊ में सम्मानित किया गया था। तभी आशा भोंसले से दयानंद पांडेय ने लंबी बातचीत की थी। इस अंतरंग बातचीत में आशा भोंसले इतना खुलीं कि अपने साथ हुए अन्याय की गठरी खोल बैठीं। पर बाक़ी ब्यौरा देने से कतरा गईं। बोलीं, ‘अभी नहीं, अपनी आत्मकथा में सब का पर्दाफ़ाश करूंगी!’ पेश है बातचीत के मुख्य अंश:
फ़िल्मी दुनिया में रहते हुए भी आप इतनी संवेदनशील कैसे हैं?
संवेदनशील होना बुरी बात तो नहीं है।
जैसा कि अभी अपने कार्यक्रम में आप ने लखनऊ के इमामबाड़े और भूलभुलइया का ज़िक्र किया और बताया कि वहां जा कर आप रो पड़ीं। वाज़िद अली शाह की याद कर के आप रो पड़ीं।
हां, वाज़िद अली शाह के वह बोल, ‘बाबुल मोरा नइहर छूटो ही जाए।’ मुझे याद थे और वहां जा कर मुझे अचानक वाज़िद अली शाह जाते दिखे। मैंने कल्पना की कैसे गए होंगे लखनऊ छोड़ कर वाज़िद अली शाह। कैसे उन्होंने अपना ताज़ सिर से उतार कर रखा होगा। आज मैं लखनऊ से बंबई जाऊंगी तो आंख से आंसू आ जाएंगे। मैं तो फिर भी वापिस आ जाऊंगी। पर वाज़िद अली शाह तो वापस नहीं आएंगे। तो वाज़िद अली शाह का वह दर्द यहां आ कर और ज़्यादा हुआ और मैं रो पड़ी। देखिए आप चाहे अल्ला हो अकबर बोलिए या ॐ नमः शिवाय सुर तो एक ही होता है। और फिर वाज़िद अली शाह की लड़ाई अंगरेज़ों से थी। यह सोच कर भी मैं रो पड़ी कि जिस बोल, ‘बाबुल मोरा नइहर छूटो ही जाए’ को सुन कर हम रो पड़ते हैं। तो इस को लिखने में वाज़िद अली शाह कितना रोए होंगे। यह सोच कर भी मैं रो पड़ी।
आप को क्या लगता है कि उमराव जान फ़िल्म में ग़ज़ल गायकी के बाद आप के कॅरियर का ग्राफ़ परवान चढ़ा?
नहीं, ग़ज़लें मैंने पहले भी गाई हैं। पर यह ज़रूर है कि उमराव जान की ग़ज़लों के बाद मुझे ज़्यादा स्वीकृति मिली। और लोगों ने जाना कि मैं और मेरी गायकी किसी से कमतर नहीं है। वो क्या नाम है मीना कुमारी के पति का?
कमाल अमरोही।
हां, कमाल अमरोही ने कहा कि तुम तो बहुत अच्छी ग़ज़ल गाती हो। और पूछा कि कैसे इतना अच्छा गा दिया?
बताएंगी कि आप ने कैसे गा दिया?
अब यह तो बताना मुश्किल है कि कैसे गा दिया। पर यह ज़रूर है कि मैंने उमराव जान किताब पढ़ी थी और उमराव जान को अपनी जे़हन में बसा लिया था। और शायद उमराव जान की याद में अब की लखनऊ भी आई।
क्या फ़ैज़ाबाद भी जाएंगी? क्यों कि उमराव जान थीं तो फ़ैज़ाबाद की ही।
नहीं फ़ैज़ाबाद नहीं जाऊंगी। कहां टाइम है।
अच्छा, इस बात में कितना दम है कि उमराव जान की जो ग़ज़लें आप ने गाईं, उसे पहले मधु रानी गा रही थीं। और जयदेव जी उस का संगीत दे रहे थे।
सही है। उमराव जान पहले जयदेव जी कर रहे थे और मधु जी गा रही थीं। पर जयदेव जी ने नहीं किया तो मधु जी ने भी नहीं गाया। फिर खय्याम साहब ने मुझ से गवाया।
कहा जाता है कि खय्याम ने जयदेव की ही धुनों को ठीक ठाक कर के काम चला दिया।
नहीं, यह ग़लत बात है। खय्याम जी के लिए मैंने बहुत सारे गीत गाए हैं, उन के लिए मैं बहुत पहले से गाती रही हूं, ‘यों न कीजिए गुस्ताख़ निगाहों का गिला, देखिए आप ने फिर प्यार से देखा मुझ को।’ यह गाना आप को याद होगा।
अभी कुछ अख़बारों में आप का बयान छपा कि मंगेशकर बहनें नहीं चाहतीं तो किसी को गाने नहीं देतीं।
तो क्या ग़लत कहा मैंने। साफ सी बात है अच्छा माल ही बिकेगा। और मंगेशकर बहनों से अच्छा किसी ने गाया नहीं।
लेकिन अब तो मंगेशकर बहनों का वर्चस्व नहीं है!
हां, काम करने की एक सीमा होती है। और हम ने बहुत काम कर लिया। दीदी ने तो एक समय साफ कह दिया था कि जिस को जिस से गवाना हो गवाए मैं तो जा रही हूं। और वह छः महीने के लिए विदेश चली र्गइं। मैं खुद अभी छः महीने सेनफ्रांसिस्को रह कर लौटी हूं।
आज कल जो गानों का स्तर इतना गिर गया है, उसे देख मंगेशकर बहनें चिंतित नहीं होतीं?
चिंतित होती हैं। और हैं। पर हम कर क्या सकती हैं। अब प्रोड्यूसर पैसा लगाता है तो उस की वसूली भी चाहता है। तो गानों का जो स्तर गिरा है, वह इसी नाते गिरा है।
आप को नहीं लगता कि अगर आप का दांपत्य बहुत सहज और सुखमय रहा होता तो आप गायकी का कोई नया कीर्तिमान स्थापित कर सकती थीं? या कि और बेहतर गा सकती थीं?
ऐसा मुझे तो नहीं लगता।
फिर भी आप को शुरू में ज़्यादातर बी ग्रेड और सी ग्रेड के ही गाने मिले।
हां, यह ज़रूर है कि जो गाने मुझे मिलने चाहिए वह नहीं मिले। सेकेंड रोल वाले गाने मिले, नाचने वाले गाने मिले। पर कव्वाली भी मैंने गाई। ‘निगाहें मिलाने को जी चाहता है’ कव्वाली खूब चली थी। शास्त्रीय संगीत वाले गाने भी हमें खूब मिले और मैंने तथा मन्ना डे ने साथ-साथ गाया। और गाने चले भी। आप को बताऊं कि गाने में हंसना सब से पहले मैंने शुरू किया है, सब से पहले भारत में रैप भी मैंने ही गाया। और गाने में हंसी परोसना आसान नहीं था। गानों में सब से पहले अभिनय का पुट मैंने ही दिया, किसी और ने नहीं।
आप को कोई एक गाना ऐसा लगता है जो आप को लगा हो कि यह तो आप को ही गाना चाहिए था।
नहीं, ऐसी तो कोई बात नहीं।
फिर भी ऐसा कुछ तो होगा जो छूट गया हो?
मुझे ऐसा नहीं लगता कि कोई चीज़ छूट गई हो। हां, यह ज़रूर हुआ मुझे हीरोइन वाले गाने नहीं मिलते थे। क्या हुआ कि हीरोइन वाले गाने दीदी गाती थी। दूसरे गाने मैं। लेकिन नया दौर में हीरोइन वाले गाने मैंने गाए तो मज़ा आया। और जो आप बार-बार यह पूछ रहे हैं कि मुझे गाना चाहिए था फलां गाना, ऐसा मैं सोचती नहीं। ईश्वर जो देता है, वह बहुत है। मैं जो हंसती हूं, सब से मिलती हूं तो इस लिए कि साफ हूं। दिल से साफ हूं। जलने से और चिढ़ने से नाम और काम नहीं होता। ठीक है हमारे साथ अन्याय किया है किसी ने तो वह भी हमारे नसीब से मिला है।
आप के साथ अन्याय भी हुआ है?
मेरे साथ अन्याय हुआ है। बहुत हुआ है। पर बताऊंगी नहीं।
फिर भी किस ने किया?
कहा न, बताऊंगी नहीं।
फिर भी यह तो बताएंगी कि फ़िल्म इंडस्ट्री ने आप के साथ अन्याय किया, आप की दीदी ने आप के साथ अन्याय किया, आप के परिवार ने आप के साथ अन्याय किया या समाज ने?
बिल्कुल नहीं बताऊंगी।
फिर इस बात को कहने की ही क्या ज़रूरत है कि अन्याय हुआ है?
नहीं, ऐसा नहीं है कि नहीं बताऊंगी। मैं इन दिनों अपनी आत्म कथा लिख रही हूं। उस में यह सारी बातें लिख रही हूं। पूरे विस्तार से लिख रही हूं कि कब-कब, किस-किस ने और कहां-कहां अन्याय किया। सब का पर्दाफ़ाश करूंगी। जिस भी किसी ने मेरे साथ अन्याय किया है। क्या बताऊं अगर मैं अपनी डायरी लाई होती यहां तो आप को अपनी लिखी आत्म कथा के कुछ हिस्से पढ़ कर सुनाती।
कब से लिख रही हैं आत्मकथा?
मैंने लिखना शुरू किया था सात-आठ साल पहले। फिर बंद कर दिया था। पर मेरे लड़के ने कहा लिखती क्यों नहीं हो, लिखो। तो डेढ़-दो महीने से फिर लिख रही हूं।
रोज़ औसतन कितना लिखती हैं?
रोज़ तो नहीं, पर अगर मैं लिखने बैठती हूं तो पूरी रात निकल जाती है। नहीं बैठ पाती, तो नहीं बैठ पाती।
डिक्टेशन देती हैं या खुद लिखती हैं?
डिक्टेशन नहीं, खुद हाथ से लिखती हूं।
कितना लिख लिया होगा अब तक? मतलब उम्र के किस पड़ाव तक पहुंच गई होंगी?
बस, आधा ही हुआ है। बल्कि आधा भी नहीं हुआ है। कितना लिखा है बताना मुश्किल है। रही बात उम्र के पड़ाव की तो यह भी बताना मुश्किल है। क्यों कि मेरी स्टाइल अलग है। मैं अक्सर फ्लैश बैक में चली जाती हूं।
लेकिन आत्मकथा लिखने की ज़रूरत ही क्यों महसूस की आप ने?
बहुत दिनों से जो मेरे साथ हुआ है, जो मैंने सहा है, वह मैं लोगों को बताना चाहती हूं। अंट-शंट बातें लोग मेरे बारे में कहते रहते हैं। पर सचाई क्या है यह मैं और सिर्फ़ मैं ही बता सकती हूं अपने बारे में।
आप ने अभी फ्लैश बैक की बात कही। तो क्या यह गुलज़ार से आप की दोस्ती का हासिल है? क्यों कि गुलज़ार भी अपनी फ़िल्मों में अक्सर फ्लैश बैक में चले जाते हैं।
नहीं, ऐसी कोई बात नहीं है।
अपनी आत्मकथा लिखने में क्या आप किसी लेखक की मदद भी ले रही हैं, या लेंगी?
नहीं, बिल्कुल नहीं। क्यों कि शुरू से ही मुझे लिखने का शौक है। मैं अच्छा लिख लेती हूं। दीदी पर ‘भूतो न भविष्यति’ शीर्षक आलेख जब मैंने धर्मयुग में लिखा तो कई लोगों ने कहा कि किसी से लिखवा लिया होगा। वो क्या नाम है जिन्होंने रामायण बनाई है, हां, रामानंद सागर ने एक दिन कहा कि, ‘ किसी से लिखवाया होगा।’ पर ऐसी बात नहीं थी। ‘भूतो न भविष्यति’ आलेख में भी मैंने फ्लैश बैक वाली स्टाइल अपनाई थी। बाद में पंचम पर भी मैंने लिखा। एस. डी. वर्मन पर लिखा। और खुद लिखा। आप को शायद पता नहीं होगा मराठी की कोई भी ऐसी किताब नहीं जो मैंने नहीं पढ़ी हो। मराठी के अलावा जो किताबें अंगरेज़ी या हिंदी में मिली, मैंने पढ़ीं। शरत चंद और प्रेमचंद की सारी किताबें मैंने पढ़ी हैं।
किसी पसंदीदा किताब का नाम लेना चाहेंगीं?
पसंदीदा किताबें बहुत हैं। सब एक से एक हैं। किस-किस का नाम लूं।
फिर भी?
शरत साहित्य। उन की कोई भी कादंबरी "उपन्यास" ले लीजिए। आप पढ़ते ही जाएंगे।
आप अपनी आत्मकथा हिंदी में लिख रही हैं कि मराठी में?
हिंदी में। पर बाद में मराठी में भी खुद ही लिखूंगी। और अंगरेज़ी में भी छपवाऊंगी। लेकिन अंगरेज़ी वाली किताब लिखेगा कौन, यह मैं नहीं जानती हूं।
आर. डी. वर्मन से अचानक शादी कर लेने पर आप को चुनौतियां मिलीं कि नहीं?
खूब मिलीं। पर पंचम से शादी का फ़ैसला अचानक नहीं था। शादी किया तो बोलते थे लोग। तरह-तरह की बातें। पर मैंने परवाह नहीं किया। कोई ग़लत बात होती तो परवाह करती। शादी करना ख़राब बात नहीं। पर यह अपना समाज भी अज़ीब है। वैसे घूमते तो ख़राब होता। शादी कर ली तो भी ख़राब हो गया। अजब बात है। पर यह सब बात अब आप क्यों पूछ रहे हैं। छोड़िए इस को।
आप अपने गाए गीतों में जो नशा, जो सुरूर, शोखी और मादकता अनायास ही घोलती हैं, वह कैसे कर लेती हैं आप?
समझ गई मैं। आप खुमार की बात कर रहे हैं। नशा मतलब खुमार। देखिए हम पीते नहीं हैं, कैबरे और मुजरा भी कभी नहीं देखा। पर गानों के बोल देखती हूं। और जैसा जो गाना होता है, जैसा कहा जाता है वैसा गा देती हूं। अंदर से एक्टिंग का रंग भी भर देती हूं।
अपने गाए गानों में से किसी ऐसे गाने का ज़िक्र करेंगी जो आप को बहुत अच्छा लगता हो?
बहुत मुश्किल है। मेरे गाए गाने दस हज़ार समथिंग हैं। नान फ़िल्मी ले कर ग्यारह हज़ार समथिंग। तो इस में से किसी एक गाने का ज़िक्र करना, मुश्किल है। हमारे लिए तो सभी गाने अजीज हैं।
लेकिन कई बार होता है कि कोई न कोई गाना ज़बान पर आ ही जाता है।
तो लीजिए याद आ गया, ‘अब के बरस भेजो भइया को बाबुल सावन में दीजो पठाय रे, आप ने हम को चैन से कभी जीने न दिया, निगाहें मिलाने को जी चाहता है, चंदा मामा दूर के।’
और सब से ख़राब गाना बताएंगी?
गाया होगा। ज़रूर गाया होगा। और कोई एक गाना थोड़े ही ख़राब गाया होगा। हम भी इंसान हैं, हमेशा एक जैसा मूड नहीं होता। अन्याय हो जाता है गानों के साथ। पब्लिक को नहीं पता होता है पर हम को पता होता है।
पर किसी गाने का ज़िक्र नहीं करेंगी? जैसे कि आप की दीदी लता मंगेशकर, ‘बुड्ढा मिल गया’ को सब से ख़राब गाना बताती हैं।
हां, क्यों कि वह गाना अश्लील था। ऐसे ही आप मेरे लिए पूछ रहे हैं तो एक गाना याद आ रहा है, अच्छा नहीं था पर बहुत चला था, ‘बेरी-बेरी के बेर मत तोड़ो, नहीं कांटा चुभ जाएगा।’ दरअसल कई बार होता क्या है कि भाषा की जानकारी न होने से डबल मीनिंग वाले गाने, गाने पड़ गए। अब कि जैसे यही गाना डबल मीनिंग वाला था, पर मुझे पता नहीं था सो गा दिया। जब-जब पता चला कि गाना डबल मीनिंग वाला है तो नहीं गाया। छोड़ना शुरू कर दिया।
पसंदीदा संगीत निर्देशक का नाम लेंगी?
पंचम। इस लिए नहीं कि मेरे पति हैं। सचमुच व मेरे फ़ेवरिट संगीतकार हैं।
और गायक?
मेल में किशोर कुमार और फ़ीमेल में दीदी।
और फ़िल्म निर्देशक?
गुरूदत्त.
फ़िल्म?
गुरूदत्त की ‘प्यासा।’
एक बात यह बताइए कि गुलज़ार की पसंद आप हैं, पर लता मंगेशकर की पसंद गुलज़ार हैं। गुलज़ार को जब गाना गवाना होता है तो वह आप से गवाते हैं। और लता जी को फ़िल्म बनवानी होती है, चाहे वह इज़ाज़त हो या लेकिन, वह गुलज़ार जी को सौंप देती हैं। इस का राज क्या है?
ऐसा नहीं है। दीदी भी गुलज़ार को पसंद करती हैं और मैं भी। पंचम भी पसंद करते थे। रही बात गुलज़ार के हम से गाना गवाने की तो गुलज़ार ने दीदी से ज़्यादा गाना गवाए हैं। आंधी, किनारा और ऐसी गुलज़ार की तमाम फ़िल्मों में दीदी ने ही गाया है।
आप ने कभी गुलज़ार से कहा नहीं?
नहीं-नहीं। मांगने से क्या होता है। मांगने से गाना नहीं मिलता।
आप अपनी पूरी ज़िंदगी में खुश हैं?
देखिए कोई आदमी अपनी ज़िंदगी में पूरा खुश होता है, मैं नहीं पाती। अगर पूरा खुश हो जाए तो भगवान को याद नहीं करेगा।
मतलब आप पूरी तरह से खुश नहीं हैं?
बहुत सी बातें ऐसी होती हैं जो आप चाहते हैं, वो नहीं होती है। पर आन द होल खुश हूं। ईश्वर ने नाम, पैसा, बेटे, बहुएं सब दिया है।
तो ऐसा क्या है जो आप अपनी ज़िंदगी में चाहती थीं वह नहीं मिला?
छोड़ दीजिए इस को।
आप लखनऊ आईं पर लखनऊ में रहते हुए भी मुज़फ्फ़र अली न तो आप के कार्यक्रम में आए, न ही आप से मिलने आए। नौशाद जी भी नहीं आए।
नहीं बुलाया होगा आयोजकों ने। और फिर फ़िल्मी लोगों का क्या भरोसा! ऐसे लोगों के बारे में क्या बात करनी। मुज़फ्फ़र अली नहीं आए तो न आएं। लेकिन नौशाद साहब की बात दूसरी है। उन्होंने तो हमीं पर ग़ज़ल लिखी है।
अच्छा, अगले जनम में आप क्या बनना चाहेंगी?
आशा भोंसले। निश्चित रूप से आशा भोंसले।
(राष्ट्रीय समाचार फ़ीचर्स नेटवर्क से साभार)
(साल १९९४ में लिया गया इन्टरव्यू)
फ़िल्मी दुनिया में रहते हुए भी आप इतनी संवेदनशील कैसे हैं?
संवेदनशील होना बुरी बात तो नहीं है।
जैसा कि अभी अपने कार्यक्रम में आप ने लखनऊ के इमामबाड़े और भूलभुलइया का ज़िक्र किया और बताया कि वहां जा कर आप रो पड़ीं। वाज़िद अली शाह की याद कर के आप रो पड़ीं।
हां, वाज़िद अली शाह के वह बोल, ‘बाबुल मोरा नइहर छूटो ही जाए।’ मुझे याद थे और वहां जा कर मुझे अचानक वाज़िद अली शाह जाते दिखे। मैंने कल्पना की कैसे गए होंगे लखनऊ छोड़ कर वाज़िद अली शाह। कैसे उन्होंने अपना ताज़ सिर से उतार कर रखा होगा। आज मैं लखनऊ से बंबई जाऊंगी तो आंख से आंसू आ जाएंगे। मैं तो फिर भी वापिस आ जाऊंगी। पर वाज़िद अली शाह तो वापस नहीं आएंगे। तो वाज़िद अली शाह का वह दर्द यहां आ कर और ज़्यादा हुआ और मैं रो पड़ी। देखिए आप चाहे अल्ला हो अकबर बोलिए या ॐ नमः शिवाय सुर तो एक ही होता है। और फिर वाज़िद अली शाह की लड़ाई अंगरेज़ों से थी। यह सोच कर भी मैं रो पड़ी कि जिस बोल, ‘बाबुल मोरा नइहर छूटो ही जाए’ को सुन कर हम रो पड़ते हैं। तो इस को लिखने में वाज़िद अली शाह कितना रोए होंगे। यह सोच कर भी मैं रो पड़ी।
आप को क्या लगता है कि उमराव जान फ़िल्म में ग़ज़ल गायकी के बाद आप के कॅरियर का ग्राफ़ परवान चढ़ा?
नहीं, ग़ज़लें मैंने पहले भी गाई हैं। पर यह ज़रूर है कि उमराव जान की ग़ज़लों के बाद मुझे ज़्यादा स्वीकृति मिली। और लोगों ने जाना कि मैं और मेरी गायकी किसी से कमतर नहीं है। वो क्या नाम है मीना कुमारी के पति का?
कमाल अमरोही।
हां, कमाल अमरोही ने कहा कि तुम तो बहुत अच्छी ग़ज़ल गाती हो। और पूछा कि कैसे इतना अच्छा गा दिया?
बताएंगी कि आप ने कैसे गा दिया?
अब यह तो बताना मुश्किल है कि कैसे गा दिया। पर यह ज़रूर है कि मैंने उमराव जान किताब पढ़ी थी और उमराव जान को अपनी जे़हन में बसा लिया था। और शायद उमराव जान की याद में अब की लखनऊ भी आई।
क्या फ़ैज़ाबाद भी जाएंगी? क्यों कि उमराव जान थीं तो फ़ैज़ाबाद की ही।
नहीं फ़ैज़ाबाद नहीं जाऊंगी। कहां टाइम है।
अच्छा, इस बात में कितना दम है कि उमराव जान की जो ग़ज़लें आप ने गाईं, उसे पहले मधु रानी गा रही थीं। और जयदेव जी उस का संगीत दे रहे थे।
सही है। उमराव जान पहले जयदेव जी कर रहे थे और मधु जी गा रही थीं। पर जयदेव जी ने नहीं किया तो मधु जी ने भी नहीं गाया। फिर खय्याम साहब ने मुझ से गवाया।
कहा जाता है कि खय्याम ने जयदेव की ही धुनों को ठीक ठाक कर के काम चला दिया।
नहीं, यह ग़लत बात है। खय्याम जी के लिए मैंने बहुत सारे गीत गाए हैं, उन के लिए मैं बहुत पहले से गाती रही हूं, ‘यों न कीजिए गुस्ताख़ निगाहों का गिला, देखिए आप ने फिर प्यार से देखा मुझ को।’ यह गाना आप को याद होगा।
अभी कुछ अख़बारों में आप का बयान छपा कि मंगेशकर बहनें नहीं चाहतीं तो किसी को गाने नहीं देतीं।
तो क्या ग़लत कहा मैंने। साफ सी बात है अच्छा माल ही बिकेगा। और मंगेशकर बहनों से अच्छा किसी ने गाया नहीं।
लेकिन अब तो मंगेशकर बहनों का वर्चस्व नहीं है!
हां, काम करने की एक सीमा होती है। और हम ने बहुत काम कर लिया। दीदी ने तो एक समय साफ कह दिया था कि जिस को जिस से गवाना हो गवाए मैं तो जा रही हूं। और वह छः महीने के लिए विदेश चली र्गइं। मैं खुद अभी छः महीने सेनफ्रांसिस्को रह कर लौटी हूं।
आज कल जो गानों का स्तर इतना गिर गया है, उसे देख मंगेशकर बहनें चिंतित नहीं होतीं?
चिंतित होती हैं। और हैं। पर हम कर क्या सकती हैं। अब प्रोड्यूसर पैसा लगाता है तो उस की वसूली भी चाहता है। तो गानों का जो स्तर गिरा है, वह इसी नाते गिरा है।
आप को नहीं लगता कि अगर आप का दांपत्य बहुत सहज और सुखमय रहा होता तो आप गायकी का कोई नया कीर्तिमान स्थापित कर सकती थीं? या कि और बेहतर गा सकती थीं?
ऐसा मुझे तो नहीं लगता।
फिर भी आप को शुरू में ज़्यादातर बी ग्रेड और सी ग्रेड के ही गाने मिले।
हां, यह ज़रूर है कि जो गाने मुझे मिलने चाहिए वह नहीं मिले। सेकेंड रोल वाले गाने मिले, नाचने वाले गाने मिले। पर कव्वाली भी मैंने गाई। ‘निगाहें मिलाने को जी चाहता है’ कव्वाली खूब चली थी। शास्त्रीय संगीत वाले गाने भी हमें खूब मिले और मैंने तथा मन्ना डे ने साथ-साथ गाया। और गाने चले भी। आप को बताऊं कि गाने में हंसना सब से पहले मैंने शुरू किया है, सब से पहले भारत में रैप भी मैंने ही गाया। और गाने में हंसी परोसना आसान नहीं था। गानों में सब से पहले अभिनय का पुट मैंने ही दिया, किसी और ने नहीं।
आप को कोई एक गाना ऐसा लगता है जो आप को लगा हो कि यह तो आप को ही गाना चाहिए था।
नहीं, ऐसी तो कोई बात नहीं।
फिर भी ऐसा कुछ तो होगा जो छूट गया हो?
मुझे ऐसा नहीं लगता कि कोई चीज़ छूट गई हो। हां, यह ज़रूर हुआ मुझे हीरोइन वाले गाने नहीं मिलते थे। क्या हुआ कि हीरोइन वाले गाने दीदी गाती थी। दूसरे गाने मैं। लेकिन नया दौर में हीरोइन वाले गाने मैंने गाए तो मज़ा आया। और जो आप बार-बार यह पूछ रहे हैं कि मुझे गाना चाहिए था फलां गाना, ऐसा मैं सोचती नहीं। ईश्वर जो देता है, वह बहुत है। मैं जो हंसती हूं, सब से मिलती हूं तो इस लिए कि साफ हूं। दिल से साफ हूं। जलने से और चिढ़ने से नाम और काम नहीं होता। ठीक है हमारे साथ अन्याय किया है किसी ने तो वह भी हमारे नसीब से मिला है।
आप के साथ अन्याय भी हुआ है?
मेरे साथ अन्याय हुआ है। बहुत हुआ है। पर बताऊंगी नहीं।
फिर भी किस ने किया?
कहा न, बताऊंगी नहीं।
फिर भी यह तो बताएंगी कि फ़िल्म इंडस्ट्री ने आप के साथ अन्याय किया, आप की दीदी ने आप के साथ अन्याय किया, आप के परिवार ने आप के साथ अन्याय किया या समाज ने?
बिल्कुल नहीं बताऊंगी।
फिर इस बात को कहने की ही क्या ज़रूरत है कि अन्याय हुआ है?
नहीं, ऐसा नहीं है कि नहीं बताऊंगी। मैं इन दिनों अपनी आत्म कथा लिख रही हूं। उस में यह सारी बातें लिख रही हूं। पूरे विस्तार से लिख रही हूं कि कब-कब, किस-किस ने और कहां-कहां अन्याय किया। सब का पर्दाफ़ाश करूंगी। जिस भी किसी ने मेरे साथ अन्याय किया है। क्या बताऊं अगर मैं अपनी डायरी लाई होती यहां तो आप को अपनी लिखी आत्म कथा के कुछ हिस्से पढ़ कर सुनाती।
कब से लिख रही हैं आत्मकथा?
मैंने लिखना शुरू किया था सात-आठ साल पहले। फिर बंद कर दिया था। पर मेरे लड़के ने कहा लिखती क्यों नहीं हो, लिखो। तो डेढ़-दो महीने से फिर लिख रही हूं।
रोज़ औसतन कितना लिखती हैं?
रोज़ तो नहीं, पर अगर मैं लिखने बैठती हूं तो पूरी रात निकल जाती है। नहीं बैठ पाती, तो नहीं बैठ पाती।
डिक्टेशन देती हैं या खुद लिखती हैं?
डिक्टेशन नहीं, खुद हाथ से लिखती हूं।
कितना लिख लिया होगा अब तक? मतलब उम्र के किस पड़ाव तक पहुंच गई होंगी?
बस, आधा ही हुआ है। बल्कि आधा भी नहीं हुआ है। कितना लिखा है बताना मुश्किल है। रही बात उम्र के पड़ाव की तो यह भी बताना मुश्किल है। क्यों कि मेरी स्टाइल अलग है। मैं अक्सर फ्लैश बैक में चली जाती हूं।
लेकिन आत्मकथा लिखने की ज़रूरत ही क्यों महसूस की आप ने?
बहुत दिनों से जो मेरे साथ हुआ है, जो मैंने सहा है, वह मैं लोगों को बताना चाहती हूं। अंट-शंट बातें लोग मेरे बारे में कहते रहते हैं। पर सचाई क्या है यह मैं और सिर्फ़ मैं ही बता सकती हूं अपने बारे में।
आप ने अभी फ्लैश बैक की बात कही। तो क्या यह गुलज़ार से आप की दोस्ती का हासिल है? क्यों कि गुलज़ार भी अपनी फ़िल्मों में अक्सर फ्लैश बैक में चले जाते हैं।
नहीं, ऐसी कोई बात नहीं है।
अपनी आत्मकथा लिखने में क्या आप किसी लेखक की मदद भी ले रही हैं, या लेंगी?
नहीं, बिल्कुल नहीं। क्यों कि शुरू से ही मुझे लिखने का शौक है। मैं अच्छा लिख लेती हूं। दीदी पर ‘भूतो न भविष्यति’ शीर्षक आलेख जब मैंने धर्मयुग में लिखा तो कई लोगों ने कहा कि किसी से लिखवा लिया होगा। वो क्या नाम है जिन्होंने रामायण बनाई है, हां, रामानंद सागर ने एक दिन कहा कि, ‘ किसी से लिखवाया होगा।’ पर ऐसी बात नहीं थी। ‘भूतो न भविष्यति’ आलेख में भी मैंने फ्लैश बैक वाली स्टाइल अपनाई थी। बाद में पंचम पर भी मैंने लिखा। एस. डी. वर्मन पर लिखा। और खुद लिखा। आप को शायद पता नहीं होगा मराठी की कोई भी ऐसी किताब नहीं जो मैंने नहीं पढ़ी हो। मराठी के अलावा जो किताबें अंगरेज़ी या हिंदी में मिली, मैंने पढ़ीं। शरत चंद और प्रेमचंद की सारी किताबें मैंने पढ़ी हैं।
किसी पसंदीदा किताब का नाम लेना चाहेंगीं?
पसंदीदा किताबें बहुत हैं। सब एक से एक हैं। किस-किस का नाम लूं।
फिर भी?
शरत साहित्य। उन की कोई भी कादंबरी "उपन्यास" ले लीजिए। आप पढ़ते ही जाएंगे।
आप अपनी आत्मकथा हिंदी में लिख रही हैं कि मराठी में?
हिंदी में। पर बाद में मराठी में भी खुद ही लिखूंगी। और अंगरेज़ी में भी छपवाऊंगी। लेकिन अंगरेज़ी वाली किताब लिखेगा कौन, यह मैं नहीं जानती हूं।
आर. डी. वर्मन से अचानक शादी कर लेने पर आप को चुनौतियां मिलीं कि नहीं?
खूब मिलीं। पर पंचम से शादी का फ़ैसला अचानक नहीं था। शादी किया तो बोलते थे लोग। तरह-तरह की बातें। पर मैंने परवाह नहीं किया। कोई ग़लत बात होती तो परवाह करती। शादी करना ख़राब बात नहीं। पर यह अपना समाज भी अज़ीब है। वैसे घूमते तो ख़राब होता। शादी कर ली तो भी ख़राब हो गया। अजब बात है। पर यह सब बात अब आप क्यों पूछ रहे हैं। छोड़िए इस को।
आप अपने गाए गीतों में जो नशा, जो सुरूर, शोखी और मादकता अनायास ही घोलती हैं, वह कैसे कर लेती हैं आप?
समझ गई मैं। आप खुमार की बात कर रहे हैं। नशा मतलब खुमार। देखिए हम पीते नहीं हैं, कैबरे और मुजरा भी कभी नहीं देखा। पर गानों के बोल देखती हूं। और जैसा जो गाना होता है, जैसा कहा जाता है वैसा गा देती हूं। अंदर से एक्टिंग का रंग भी भर देती हूं।
अपने गाए गानों में से किसी ऐसे गाने का ज़िक्र करेंगी जो आप को बहुत अच्छा लगता हो?
बहुत मुश्किल है। मेरे गाए गाने दस हज़ार समथिंग हैं। नान फ़िल्मी ले कर ग्यारह हज़ार समथिंग। तो इस में से किसी एक गाने का ज़िक्र करना, मुश्किल है। हमारे लिए तो सभी गाने अजीज हैं।
लेकिन कई बार होता है कि कोई न कोई गाना ज़बान पर आ ही जाता है।
तो लीजिए याद आ गया, ‘अब के बरस भेजो भइया को बाबुल सावन में दीजो पठाय रे, आप ने हम को चैन से कभी जीने न दिया, निगाहें मिलाने को जी चाहता है, चंदा मामा दूर के।’
और सब से ख़राब गाना बताएंगी?
गाया होगा। ज़रूर गाया होगा। और कोई एक गाना थोड़े ही ख़राब गाया होगा। हम भी इंसान हैं, हमेशा एक जैसा मूड नहीं होता। अन्याय हो जाता है गानों के साथ। पब्लिक को नहीं पता होता है पर हम को पता होता है।
पर किसी गाने का ज़िक्र नहीं करेंगी? जैसे कि आप की दीदी लता मंगेशकर, ‘बुड्ढा मिल गया’ को सब से ख़राब गाना बताती हैं।
हां, क्यों कि वह गाना अश्लील था। ऐसे ही आप मेरे लिए पूछ रहे हैं तो एक गाना याद आ रहा है, अच्छा नहीं था पर बहुत चला था, ‘बेरी-बेरी के बेर मत तोड़ो, नहीं कांटा चुभ जाएगा।’ दरअसल कई बार होता क्या है कि भाषा की जानकारी न होने से डबल मीनिंग वाले गाने, गाने पड़ गए। अब कि जैसे यही गाना डबल मीनिंग वाला था, पर मुझे पता नहीं था सो गा दिया। जब-जब पता चला कि गाना डबल मीनिंग वाला है तो नहीं गाया। छोड़ना शुरू कर दिया।
पसंदीदा संगीत निर्देशक का नाम लेंगी?
पंचम। इस लिए नहीं कि मेरे पति हैं। सचमुच व मेरे फ़ेवरिट संगीतकार हैं।
और गायक?
मेल में किशोर कुमार और फ़ीमेल में दीदी।
और फ़िल्म निर्देशक?
गुरूदत्त.
फ़िल्म?
गुरूदत्त की ‘प्यासा।’
एक बात यह बताइए कि गुलज़ार की पसंद आप हैं, पर लता मंगेशकर की पसंद गुलज़ार हैं। गुलज़ार को जब गाना गवाना होता है तो वह आप से गवाते हैं। और लता जी को फ़िल्म बनवानी होती है, चाहे वह इज़ाज़त हो या लेकिन, वह गुलज़ार जी को सौंप देती हैं। इस का राज क्या है?
ऐसा नहीं है। दीदी भी गुलज़ार को पसंद करती हैं और मैं भी। पंचम भी पसंद करते थे। रही बात गुलज़ार के हम से गाना गवाने की तो गुलज़ार ने दीदी से ज़्यादा गाना गवाए हैं। आंधी, किनारा और ऐसी गुलज़ार की तमाम फ़िल्मों में दीदी ने ही गाया है।
आप ने कभी गुलज़ार से कहा नहीं?
नहीं-नहीं। मांगने से क्या होता है। मांगने से गाना नहीं मिलता।
आप अपनी पूरी ज़िंदगी में खुश हैं?
देखिए कोई आदमी अपनी ज़िंदगी में पूरा खुश होता है, मैं नहीं पाती। अगर पूरा खुश हो जाए तो भगवान को याद नहीं करेगा।
मतलब आप पूरी तरह से खुश नहीं हैं?
बहुत सी बातें ऐसी होती हैं जो आप चाहते हैं, वो नहीं होती है। पर आन द होल खुश हूं। ईश्वर ने नाम, पैसा, बेटे, बहुएं सब दिया है।
तो ऐसा क्या है जो आप अपनी ज़िंदगी में चाहती थीं वह नहीं मिला?
छोड़ दीजिए इस को।
आप लखनऊ आईं पर लखनऊ में रहते हुए भी मुज़फ्फ़र अली न तो आप के कार्यक्रम में आए, न ही आप से मिलने आए। नौशाद जी भी नहीं आए।
नहीं बुलाया होगा आयोजकों ने। और फिर फ़िल्मी लोगों का क्या भरोसा! ऐसे लोगों के बारे में क्या बात करनी। मुज़फ्फ़र अली नहीं आए तो न आएं। लेकिन नौशाद साहब की बात दूसरी है। उन्होंने तो हमीं पर ग़ज़ल लिखी है।
अच्छा, अगले जनम में आप क्या बनना चाहेंगी?
आशा भोंसले। निश्चित रूप से आशा भोंसले।
(राष्ट्रीय समाचार फ़ीचर्स नेटवर्क से साभार)
(साल १९९४ में लिया गया इन्टरव्यू)
आशा भोंसले का इंटरव्यू लिया, और ओ पी नय्यर का ज़िक्र तक नहीं किया!
ReplyDeleteआशा भोंसले ओ पी नय्यर का नाम नहीं लेना चाहतीं, यह तो समझ में आता है, पर इंटरव्यू लेने वाले के लिए ऐसा करने का कोई कारण नहीं हो सकता।
आत्मकथा में भी आशा भोंसले ओ पी नय्यर के साथ न्याय करेंगी, ऐसा नहीं लगता।
ओ पी नय्यर पर एक ठो अलग लेख लिखें।
आशा भोसले पर यह दिलच्श्प इंटरव्यू है। उनके गाने की रेंज लता से बडी है। उनका जीवन घटनापूर्ण रहा है। यदि वे ईमानदारी से आत्मकथा लिखेगी तो बहुत से तथ्य सामने आयेगे ।
ReplyDeleteदोबारा पढ़ा, दिलचस्प.
ReplyDeleteBahut rochak. Ek adbhut gayika.
ReplyDeleteBahut rochak. Ek adbhut gayika.
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