हिंदी फ़िल्मों के जंपेन जेक यानी जितेंद्र को 40 बरस हो गए अभिनय करते हुए पर वह अब भी ‘थर्टी प्लस’ बने हुए हैं। हालांकि एक बार सहारा शहर में तबस्सुम ने उनका डांस देख कर कहा कि वह ‘ट्वेंटी प्लस’ हैं। खुले मन से, खुली-खुली बात करने वाले जितेंद्र अपने बात व्यवहार में सचमुच एज-गैप नहीं आने देते। बिलकुल ‘टीन-एजरों’ जैसी उनकी ललक और उत्साह आज भी उन्हें जवान बनाए हुए है। पर यह जानना भी दिलचस्प ही है कि ऐसा बनने के लिए जितेंद्र ने 20 बरस तक पका हुआ खाना सिर्फ़ एक प्रतिशत खाया। 99 प्रतिशत ग्रिल किया हुआ यानी ब्वायल खाना खाया। पर रोटी नहीं खाई। चावल नहीं खाया। मीठा और तला खाना नहीं खाया। खाने में हर तरह का परहेज बरता। पेश है कुछ समय पहले हुई जितेंद्र से दयानंद पांडेय की एक अंतरंग बातचीत:
इतने बरसों तक हिंदी फ़िल्मों में रहने के बाद आज भी बतौर हीरो आपकी सक्रियता का क्या अर्थ निकाला जाए ?
- इस सक्रियता का अर्थ है लोगों का प्यार। अगर लोगों का प्यार नहीं मिलता तो मैं हीरो नहीं बना रह पाता। हीरो भी चाहता है कि मरते दम तक हीरो बना रहे। और यह हमारे पिता का आशीर्वाद भी है। जो जेनेटिक "आनुवांशिक" है। जिन्होंने मुझे ऐसा पैदा किया है।
हिंदी फ़िल्मों में आर. डी. बर्मन के संगीत पर कमरतोड़ कर नाचने वाले, शम्मी कपूर के बाद आप दूसरे नायक हैं जिन्होंने फ़िल्मों में इस नृत्य परंपरा को बड़ी तेज़ी से आगे बढ़ाया। नतीजतन आज की फ़िल्मों में ‘नृत्य’ की परिभाषा ही बदल गई है। नृत्य जैसे पी. टी. और दौड़ने जैसे करतबों में फिट हो कर रह गया है। इस पर आपकी टिप्पणी क्या है?
- वक्त के साथ सब चेंज होता है। स्टाइल बदल जाती है। एक जमाने में जब कुक्कू डांस करती थीं तो लोग कहते थे कि कितना तूफ़ानी डांस है, टेरिफिक डांस हो रहा है। ख़ास कर ‘बरसात’ फ़िल्म में ‘पतली कमर है, तिरछी नज़र है’ गीत के डांस पर लोग होठों तले उंगलियां दबा लेते थे। पर जब हम लोगों ने देखा तो कुक्कू का यही तूफ़ानी डांस बहुत स्लो लगता था। पर आजकल के लड़कों को डांस करते हुए देखते हैं तो हमारा डांस बहुत स्लो लगता है। बाकी रही गानों में पी. टी. जैसा नाचने की बात तो हर दौर का अपना स्टाइल होता है। आजकल के दौर में पी. टी. चल रहा है। और कोई स्टाइल तब तक नहीं चल पाती, जब तक लोगों को पसंद न आए। अगर यह पी. टी. डांस लोगों को नापसंद होता तो अब तक यह ‘डिस्कार्ड’ हो गया होता।
पर क्या आपको भी यह पी. टी. डांस पसंद है?
- पसंद है मुझे भी।
आपकी हिंदी फ़िल्मों में शुरूआ व्ही. शांताराम जैसे निर्देशक के साथ हुई। तो आपने अभिनय का एक अलग ही शेड प्रस्तुत किया। फिर आप मसाला फ़िल्मों की ओर आ गए। पर एकाएक आप गुलजार जैसे निर्देशक की ‘खुशबू’, ‘किनारा’ और ‘दुल्हन’ जैसी फ़िल्मों में बिलकुल ‘गुलजार’ हो गए। लेकिन फिर आपने चोला बदला ‘हिम्मतवाला’, ‘तोहफा’ जैसी फ़िल्मों में फिट हो गए। फिर अचानक ‘रंग’ जैसी फ़िल्मों में ‘पिता’ बन कर उपस्थित हो जाते हैं। इस अपनी पूरी अभिनय यात्रा को आप अब कैसे देखते हैं?
- इसका क्या जवाब दूं। कुछ भी प्लैनिंग करके नहीं किया। जैसे-जैसे मौक़ा मिलता गया, करता गया। अब कि जैसे मैंने एक मैथॉलिजिकल "ऐतिहासिक" फ़िल्म ‘लवकुश’ जैसी फ़िल्म की है। जिसके प्रोड्यूसर - दिलीप कांकरिया, निर्देशक मधुसूदन राव और हीरोइन जयाप्रदा हैं। यह फ़िल्म बहुत ऊंचे पैमाने पर बनाई गई है। ग्राफिक्स का काम अभी बाकी है। ग्राफिक्स आप समझ रहे है न! जैसे कि बादल का फटना या और इसी तरह के इफेक्ट्स जोड़े जा रहे हैं। ऐसे ग्राफिक्स जैसे कि ‘टेन कमांडेंट्स’ में थे।
अमूमन आपकी चार नायिकाओं के साथ बेहतर ट्यूनिंग देखी गई है। एक मुमताज, दूसरी रीना राय, तीसरी रेखा और चौथी श्रीदेवी यह चारों नायिकाएं अलग-अलग समय की हैं और चार रंग की हैं। चारों के तेवर और अंदाज भी जुदा-जुदा हैं पर आप इन सबके साथ नृत्य की ट्यूनिंग एक ही रखे मिलते हैं। ऐसा कैसे हो पाता है?
- कैसे हो पाता है यह सवाल नहीं है। यह तो हो जाता है। और फिर इन्हीं नायिकाओं के साथ ही नहीं, जयाप्रदा के साथ भी 20-25 फ़िल्में की हैं। रही बात डांस में ट्यूनिंग की तो जब गाना अच्छा होता है, तो डांस भी अच्छा होता है। पर इसमें सिर्फ़ हीरो-हीरोइन का ही हाथ नहीं होता। डांस डायरेक्टर अच्छा हो, गीत और लोकेशन भी अच्छा हो, फ़ोटोग्राफी अच्छी हो, और ऐसी ही तमाम और बाते जो डांस को अच्छा बनाती हैं। पर अफसोस की बात यह है कि परदे के पीछे के जिन लोगों की डांस को अच्छा बनाने में मेहनत होती है, क्रेडिट उनको नहीं मिलती। क्रेडिट हम लूट ले जाते हैं। पर सही मायने में क्रेडिट उनकी ही होती है।
पर मैं बात ट्यूनिंग की भी कर रहा था?
- ओह, ट्यूनिंग। तो ‘ट्यूनिंग-अप’ करके मैं और अच्छा डांस करूंगा, अपनी बेटी की फ़िल्म में अपनी पूरी ज़िंदगी का निचोड़ डाल दूंगा इस पिक्चर में। बेटी की इस पिक्चर में एक ही गाना करूंगा, पर पूरा करूंगा। आप देखिएगा हमारा डांस कहां से कहां चला जाता है। बहुत फ़र्क़ दिखेगा, मेरे अबके और तबके डांस में।
इन दिनों आपकी बेटी टी. वी. सीरियल बनाने में जोर-शोर से लगी हैं। तो क्या आप टी. वी. सीरियलों में भी आने वाले हैं? अगर हां तो कृपया उनका नाम बताएं?
- अभी तक कोई इरादा नहीं है। इस लिए नहीं कि मैं टी. वी. में काम करने के अगेंस्ट हूं बल्कि इस लिए कि सिनेमा और टी. वी. के काम को मैं गड्मड नहीं करना चाहता। और अभी तो मैं बड़े परदे पर काम कर ही रहा हूं।
फिफ्टी प्लस होने के बावजूद आपके थर्टी प्लस का राज क्या है?
- मैंने आपसे पहले ही कहा कि यह हमारे पिता का आशीर्वाद है। कि यह जेनेटिक है। जिन्होंने मुझे ऐसा पैदा किया।
खाने में क्या परहेज करते हैं और क्या-क्या एक्सरसाइज करते हैं?
- पहले मैं सौ सिगरेट रोज पीता था। लेकिन जब मेरी बेटी पैदा हुई तो सिगरेट ‘छुड़ा दी’ तो लोगों ने कहा सिगरेट छोड़ने से भूख बढ़ जाती है। सो खुराक भी छोड़ दी। बीस साल तक सिर्फ़ एक परसेंट पका खाना खाया। 99 प्रतिशत ग्रिल किया हुआ यानी ब्वायल्ड खाना खाया। 20 बरस तक रोटी नहीं खाई, चावल, ब्रेड, मीठा और तला खाना नहीं खाया। पर अब तो 30 प्रतिशत पका खाना खाने लगा हूं।
और एक्सरसाइज?
- एक्सरसाइज में जॉगिंग करता हूं 40-45 मिनट तक। घर के ही लॉन में।
मद्रासी फ़िल्में तो आप ज़्यादा करते ही हैं, कहा जाता है कि मद्रास के होटलों में जितेंद्र थाली भी खूब बिकती है?
- सवाल सुनकर वह हंसे। और बोले, मतलब जब खाता हूं तो बेशुमार खाता हूं। तो महीने में एक दिन मेरा खाने का दिन होता है। उस दिन मैं सब कुछ खाता हूं। आलू, गोभी का पराठा और तरह-तरह के खाने। तो जब मैं मद्रास में रहता था, तो ताज होटल में ही रहना होता था। तो मैं 14-15 किस्म के डिसेज अपनी थाल में मंगाता था। तो तभी से वहां मेरा ‘थाल’ पॉपुलर हो गया, ‘जीतू थाली’ के नाम से।
आप नॉनवेज भी खाते हैं क्या?
- नॉनवेज थोड़ा कम खाता हूं।
आज की अनाप-शनाप फ़िल्मों के बारे में आपकी टिप्पणी क्या है?
- अनाप-शनाप फ़िल्में हरदम ही बनती रही हैं, सिर्फ़ आज ही थोड़े ही बन रही हैं। और टिप्पणी करने वाला मैं कौन होता हूं? मैंने भी कई अनाप-शनाप फ़िल्में की हैं।
आपके गले में हरदम एक काला धागा दिखता है, इसका राज क्या है? इसके पीछे क्या कोई आस्था है या शौक?
- मेरी मां ने बचपन में ही इसे मेरे गले में डाल दिया था। हनुमान जी के मंदिर का धागा है यह।
"राष्ट्रीय सहारा से साभार"
(यह साक्षात्कार नवम्बर १९९६ में लिया गया था.)
इतने बरसों तक हिंदी फ़िल्मों में रहने के बाद आज भी बतौर हीरो आपकी सक्रियता का क्या अर्थ निकाला जाए ?
- इस सक्रियता का अर्थ है लोगों का प्यार। अगर लोगों का प्यार नहीं मिलता तो मैं हीरो नहीं बना रह पाता। हीरो भी चाहता है कि मरते दम तक हीरो बना रहे। और यह हमारे पिता का आशीर्वाद भी है। जो जेनेटिक "आनुवांशिक" है। जिन्होंने मुझे ऐसा पैदा किया है।
हिंदी फ़िल्मों में आर. डी. बर्मन के संगीत पर कमरतोड़ कर नाचने वाले, शम्मी कपूर के बाद आप दूसरे नायक हैं जिन्होंने फ़िल्मों में इस नृत्य परंपरा को बड़ी तेज़ी से आगे बढ़ाया। नतीजतन आज की फ़िल्मों में ‘नृत्य’ की परिभाषा ही बदल गई है। नृत्य जैसे पी. टी. और दौड़ने जैसे करतबों में फिट हो कर रह गया है। इस पर आपकी टिप्पणी क्या है?
- वक्त के साथ सब चेंज होता है। स्टाइल बदल जाती है। एक जमाने में जब कुक्कू डांस करती थीं तो लोग कहते थे कि कितना तूफ़ानी डांस है, टेरिफिक डांस हो रहा है। ख़ास कर ‘बरसात’ फ़िल्म में ‘पतली कमर है, तिरछी नज़र है’ गीत के डांस पर लोग होठों तले उंगलियां दबा लेते थे। पर जब हम लोगों ने देखा तो कुक्कू का यही तूफ़ानी डांस बहुत स्लो लगता था। पर आजकल के लड़कों को डांस करते हुए देखते हैं तो हमारा डांस बहुत स्लो लगता है। बाकी रही गानों में पी. टी. जैसा नाचने की बात तो हर दौर का अपना स्टाइल होता है। आजकल के दौर में पी. टी. चल रहा है। और कोई स्टाइल तब तक नहीं चल पाती, जब तक लोगों को पसंद न आए। अगर यह पी. टी. डांस लोगों को नापसंद होता तो अब तक यह ‘डिस्कार्ड’ हो गया होता।
- पसंद है मुझे भी।
आपकी हिंदी फ़िल्मों में शुरूआ व्ही. शांताराम जैसे निर्देशक के साथ हुई। तो आपने अभिनय का एक अलग ही शेड प्रस्तुत किया। फिर आप मसाला फ़िल्मों की ओर आ गए। पर एकाएक आप गुलजार जैसे निर्देशक की ‘खुशबू’, ‘किनारा’ और ‘दुल्हन’ जैसी फ़िल्मों में बिलकुल ‘गुलजार’ हो गए। लेकिन फिर आपने चोला बदला ‘हिम्मतवाला’, ‘तोहफा’ जैसी फ़िल्मों में फिट हो गए। फिर अचानक ‘रंग’ जैसी फ़िल्मों में ‘पिता’ बन कर उपस्थित हो जाते हैं। इस अपनी पूरी अभिनय यात्रा को आप अब कैसे देखते हैं?
- इसका क्या जवाब दूं। कुछ भी प्लैनिंग करके नहीं किया। जैसे-जैसे मौक़ा मिलता गया, करता गया। अब कि जैसे मैंने एक मैथॉलिजिकल "ऐतिहासिक" फ़िल्म ‘लवकुश’ जैसी फ़िल्म की है। जिसके प्रोड्यूसर - दिलीप कांकरिया, निर्देशक मधुसूदन राव और हीरोइन जयाप्रदा हैं। यह फ़िल्म बहुत ऊंचे पैमाने पर बनाई गई है। ग्राफिक्स का काम अभी बाकी है। ग्राफिक्स आप समझ रहे है न! जैसे कि बादल का फटना या और इसी तरह के इफेक्ट्स जोड़े जा रहे हैं। ऐसे ग्राफिक्स जैसे कि ‘टेन कमांडेंट्स’ में थे।
अमूमन आपकी चार नायिकाओं के साथ बेहतर ट्यूनिंग देखी गई है। एक मुमताज, दूसरी रीना राय, तीसरी रेखा और चौथी श्रीदेवी यह चारों नायिकाएं अलग-अलग समय की हैं और चार रंग की हैं। चारों के तेवर और अंदाज भी जुदा-जुदा हैं पर आप इन सबके साथ नृत्य की ट्यूनिंग एक ही रखे मिलते हैं। ऐसा कैसे हो पाता है?
- कैसे हो पाता है यह सवाल नहीं है। यह तो हो जाता है। और फिर इन्हीं नायिकाओं के साथ ही नहीं, जयाप्रदा के साथ भी 20-25 फ़िल्में की हैं। रही बात डांस में ट्यूनिंग की तो जब गाना अच्छा होता है, तो डांस भी अच्छा होता है। पर इसमें सिर्फ़ हीरो-हीरोइन का ही हाथ नहीं होता। डांस डायरेक्टर अच्छा हो, गीत और लोकेशन भी अच्छा हो, फ़ोटोग्राफी अच्छी हो, और ऐसी ही तमाम और बाते जो डांस को अच्छा बनाती हैं। पर अफसोस की बात यह है कि परदे के पीछे के जिन लोगों की डांस को अच्छा बनाने में मेहनत होती है, क्रेडिट उनको नहीं मिलती। क्रेडिट हम लूट ले जाते हैं। पर सही मायने में क्रेडिट उनकी ही होती है।
पर मैं बात ट्यूनिंग की भी कर रहा था?
- ओह, ट्यूनिंग। तो ‘ट्यूनिंग-अप’ करके मैं और अच्छा डांस करूंगा, अपनी बेटी की फ़िल्म में अपनी पूरी ज़िंदगी का निचोड़ डाल दूंगा इस पिक्चर में। बेटी की इस पिक्चर में एक ही गाना करूंगा, पर पूरा करूंगा। आप देखिएगा हमारा डांस कहां से कहां चला जाता है। बहुत फ़र्क़ दिखेगा, मेरे अबके और तबके डांस में।
इन दिनों आपकी बेटी टी. वी. सीरियल बनाने में जोर-शोर से लगी हैं। तो क्या आप टी. वी. सीरियलों में भी आने वाले हैं? अगर हां तो कृपया उनका नाम बताएं?
- अभी तक कोई इरादा नहीं है। इस लिए नहीं कि मैं टी. वी. में काम करने के अगेंस्ट हूं बल्कि इस लिए कि सिनेमा और टी. वी. के काम को मैं गड्मड नहीं करना चाहता। और अभी तो मैं बड़े परदे पर काम कर ही रहा हूं।
फिफ्टी प्लस होने के बावजूद आपके थर्टी प्लस का राज क्या है?
- मैंने आपसे पहले ही कहा कि यह हमारे पिता का आशीर्वाद है। कि यह जेनेटिक है। जिन्होंने मुझे ऐसा पैदा किया।
खाने में क्या परहेज करते हैं और क्या-क्या एक्सरसाइज करते हैं?
- पहले मैं सौ सिगरेट रोज पीता था। लेकिन जब मेरी बेटी पैदा हुई तो सिगरेट ‘छुड़ा दी’ तो लोगों ने कहा सिगरेट छोड़ने से भूख बढ़ जाती है। सो खुराक भी छोड़ दी। बीस साल तक सिर्फ़ एक परसेंट पका खाना खाया। 99 प्रतिशत ग्रिल किया हुआ यानी ब्वायल्ड खाना खाया। 20 बरस तक रोटी नहीं खाई, चावल, ब्रेड, मीठा और तला खाना नहीं खाया। पर अब तो 30 प्रतिशत पका खाना खाने लगा हूं।
और एक्सरसाइज?
- एक्सरसाइज में जॉगिंग करता हूं 40-45 मिनट तक। घर के ही लॉन में।
मद्रासी फ़िल्में तो आप ज़्यादा करते ही हैं, कहा जाता है कि मद्रास के होटलों में जितेंद्र थाली भी खूब बिकती है?
- सवाल सुनकर वह हंसे। और बोले, मतलब जब खाता हूं तो बेशुमार खाता हूं। तो महीने में एक दिन मेरा खाने का दिन होता है। उस दिन मैं सब कुछ खाता हूं। आलू, गोभी का पराठा और तरह-तरह के खाने। तो जब मैं मद्रास में रहता था, तो ताज होटल में ही रहना होता था। तो मैं 14-15 किस्म के डिसेज अपनी थाल में मंगाता था। तो तभी से वहां मेरा ‘थाल’ पॉपुलर हो गया, ‘जीतू थाली’ के नाम से।
आप नॉनवेज भी खाते हैं क्या?
- नॉनवेज थोड़ा कम खाता हूं।
आज की अनाप-शनाप फ़िल्मों के बारे में आपकी टिप्पणी क्या है?
- अनाप-शनाप फ़िल्में हरदम ही बनती रही हैं, सिर्फ़ आज ही थोड़े ही बन रही हैं। और टिप्पणी करने वाला मैं कौन होता हूं? मैंने भी कई अनाप-शनाप फ़िल्में की हैं।
आपके गले में हरदम एक काला धागा दिखता है, इसका राज क्या है? इसके पीछे क्या कोई आस्था है या शौक?
- मेरी मां ने बचपन में ही इसे मेरे गले में डाल दिया था। हनुमान जी के मंदिर का धागा है यह।
"राष्ट्रीय सहारा से साभार"
(यह साक्षात्कार नवम्बर १९९६ में लिया गया था.)
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