Sunday, 31 December 2023

राम मंदिर के लिए मोदी की कृष्ण नीति

दयानंद पांडेय 

अयोध्या एयरपोर्ट का नाम महर्षि वाल्मीकि के नाम पर कर देने से कुछ व्याकुल भारत घायल हो गए हैं। बहुत ज़्यादा घायल। इन सब का कहना है कि एयरपोर्ट का नाम अगर राम के नाम से बदल कर कुछ करना ही था तो तुलसीदास करना था। महर्षि वाल्मीकि के नाम क्यों किया ? महर्षि वाल्मीकि क्या तुलसीदास से बड़े हैं ? महर्षि वाल्मीकि का अयोध्या से क्या संबंध है? इन घायलों का बड़ा दुःख यह है कि यह निर्णय राजनीतिक है। वोट के लिए किया गया है। दलित वोट के लिए किया गया है। 

यह बात भी निर्विवाद रुप  से सही है। इस से बिलकुल ऐतराज नहीं है। लेकिन इन व्याकुल भारत टाइप घायलों को कोई बताने वाला नहीं है कि अगर महर्षि वाल्मीकि न होते तो तुलसीदास कहां होते ? कहां होते रामायण के अन्य रचनाकार भी। महर्षि वाल्मीकि रामायण के बीज हैं। बाक़ी सब वृक्ष। बीज है तो वृक्ष है। निर्मम सच यह भी है कि राम मंदिर सिर्फ़ पूजा-पाठ के लिए नहीं बन रहा। राजनीति और इस से जुड़ा वोट भी एक बड़ा फैक्टर है। तो क्या इस बिना पर राम मंदिर बनना ही नहीं चाहिए ? 

तो क्या राम मंदिर बनना ही नहीं चाहिए , यह भी राजनीति नहीं है ? 

सब से ज़्यादा खलबली तो कुछ कुंठित लेखकों , कवियों में मची हुई है। उन्हें लगता है कि उन के प्रतिरोध की रोजी-रोटी , मोदी ने उन से छीन ली है। अब वह कैसे जिएंगे , प्रतिरोध के बिना। अयोध्या में रहने वाले एक कवि तो अपनी एक टिप्पणी में अपनी व्यथा कहते हुए अपना दुःख लिख गए हैं : हमारा हौसला देखिए कि हम अयोध्या में हैं। गोया अयोध्या में नहीं , नरक में रह रहे हों। सोचिए कि विकसित अयोध्या में रहने में अगर तकलीफ है तो भारत में भी रहने की तकलीफ कल होगी ही। यह तो कुछ वैसे ही है जैसे एक लेखक ने 2014 में चुनाव के पहले कह गए कि मोदी अगर प्रधान मंत्री बन गया तो मैं देश छोड़ दूंगा। अलग बात है , मोदी प्रधान मंत्री बने और वह देश में रहे। पूरी बेशर्मी से। 

सच तो यह है कि राम को जब वनवास हुआ था , त्रेता में तो वह भी राजनीति थी। बाबर ने मंदिर ढहा कर मस्जिद बनवाई , वह भी आक्रमणकारी राजनीति थी। बाबरी ढांचा गिराया गया , वह भी राजनीति थी। राम मंदिर बन रहा है , यह भी राजनीति है। राम मंदिर का विरोध भी राजनीति है। दूषित राजनीति। दिक़्क़त यह है कि मोदी विरोध अब राम मंदिर का विरोध के रुप में उपस्थित है। मोदी की यही बड़ी ताकत है। मोदी विरोध , कभी भारत विरोध , कभी राम मंदिर विरोध में उपस्थित कर मोदी को ताक़तवर बनाने का सबब बना गया है। इन घायल मूर्खों को यह अभी तक समझ ही नहीं आ रहा। तब जब कि मोदी ने राम मंदिर के लिए राम की नीति का नहीं , कृष्ण की नीति का उपयोग किया है। क्यों कि मोदी को मालूम था कि राम राज के लिए कृष्ण नीति के बिना कुछ होने वाला नहीं। इतना कि कुछ साल बाद जब मोदी भारत की सत्ता से हटेगा तब तक भारत की जनता की आदत कृष्ण नीति में तब्दील हो चुकी होगी। आंखें , पूरी तरह खुल चुकी होगी। फिर इन घायल व्याकुल भारत लोगों का क्या होगा ? एयरपोर्ट का नाम महर्षि वाल्मीकि और उज्ज्वला गैस की दस करोड़वीं लाभार्थी अयोध्या की मीरा माझी के घर पहुंचना भी राजनीति का ही हिस्सा है। वोटबैंक की बाजीगरी का ही हिस्सा है। मोटर साइकिल बनाने , बढ़ई का काम करने , धान रोपने जैसी प्रायोजित फ़ोटोग्राफ़ी से यह राजनीति नहीं होती। मोहब्बत की दुकान का साइन बोर्ड लगा कर , नफ़रत का सामान बेचने की क़वायद से राजनीति नहीं होती। 

राजनीति तो अब राम या कृष्ण नीति से ही होगी भारत में। ज़्यादा से ज़्यादा चाणक्य नीति से। बाबर या औरंगज़ेब की नीति से हरगिज़ नहीं। मुंह में राम , बगल में छुरी से नहीं। महर्षि वाल्मीकि और मीरा माझी राजनीति की पुरानी सीढ़ी है। प्राथमिकता देखिए और प्रयाग के कुंभ मेले में कभी स्वछ्कारों के चरण धोने का दृश्य याद कीजिए। ग़रीब सुदामा के चरण धो कर ही , कृष्ण , कृष्ण होते हैं। कृष्ण ऐसे ही जीतते हैं। और राम वाया केवट और शबरी। केवट नदी पार करवाता है , शबरी जूठे लेकिन मीठे बेर खिलाती है। इस बेर को उज्ज्वला की लाभार्थी मीरा की मीठी चाय में अगर नहीं देख पाए तो आप बहुत अभागे हैं। 

जैसे कैकेयी राम का पुन: वनवास मांग रही हो !

दयानंद पांडेय 

मस्जिदों और मजारों पर जाना शुरु कीजिए। क्यों कि आप की राय में वह अतिक्रमण कर के नहीं बनाए गए हैं। नाम भले अल्ला है , आख़िर वहां भी तो ईश्वर का ही वास है।


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अयोध्या में राम की जगह गिद्ध देखना , तो अमृत वर्षा करना है l है , न ? कौन विद्वान किस तरह सिद्ध करेगा , यह गिद्ध अयोध्या भूमि पर ही उपस्थित हैं ? विष वमन करने वाले लोग , एकतरफ़ा बात करने वाले लोग , बहुत ऊंचा , बहुत ज़ोर से बोलते हैं l गिद्ध देखने वाले इन गिद्धों को मेरी बात कैसे सुहा सकती है भला , यह तो हम भी जानते हैं l और यह सो काल्ड ज्योतिषी तो घोषित पिट्ठू है , कांग्रेस का l अभी बीते विधान सभा चुनावों में हर जगह कांग्रेस की सरकार बनवाने की घोषणा , अपनी वाल पर किए बैठा है। 


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कहते हैं , नया मुल्ला , प्याज़ ज़्यादा खाने लगता है l जाइए कभी लखनऊ के चारबाग़ में बड़ी लाइन वाले स्टेशन पर l बीच रेल लाइन खम्मन पीर बाबा की मज़ार पर मत्था टेकिए l मैं तो टेक आया हूं कई बार l राणा प्रताप मार्ग पर दैनिक जागरण के सामने मज़ार पर चादर चढ़ाता रहता हूं l सड़क संकरी हो गई है तो क्या ? गोमती नगर , मिठाई वाले चौराहे से गुज़रते हुए फ़्लाई ओवर , के नीचे भी मज़ार के नीचे की मजार को सिर झुकाता हुआ निकलता हूं l अजमेर शरीफ़ में भी चादर चढ़ा आया हूं l दिल्ली में निज़ामुद्दीन औलिया की मज़ार पर भी चादर चढ़ा कर सिर झुका आया हूं l दिल्ली में ही कई जगह नए-नए फ़्लाई ओवर पर मज़ार देख आया हूं l कोयंबतूर में तो फ़्लाई ओवर का चौराहा और उस पर मज़ार देखा है। 


आप ने नहीं देखा होगा , मैं ने अयोध्या में राम परिवार के परिसर में ही बाबरी ढांचा देखा है l सीता रसोई , कनक भवन के बीच बाबरी ढांचा ? यह अतिक्रमण नहीं , श्रद्धा थी ? वह तो विराजमान राम लला , सुप्रीम कोर्ट से मुक़दमा जीत कर आए हैं l फिर भी संविधान का बारंबार नगाड़ा बजाने वाले कुछ बुद्धि पिशाच हज़म नहीं कर पा रहे इसे l कभी गिद्ध दिखा रहे , कभी अतिक्रमण वाले मंदिर l

काशी में ज्ञानवापी अतिक्रमण नहीं , श्रद्धा है ? मथुरा में श्रीकृष्ण जन्म-भूमि और मस्जिद की दीवार एक है l यह अतिक्रमण नहीं , श्रद्धा है ? अनेक उदाहरण हैं l लेकिन वैचारिक हठ इन तथ्यों को देखने नहीं देता l सत्य , तथ्य और तर्क दिखाने वाले लोग विष-वमन करने वाले बता दिए जाते हैं l विष के कुएं में बैठे हुए लोग अमृत वर्षा करने के ठेकेदार l अजब तमाशा है l ग़ज़ब दोगलापन है। 


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वही ईश्वर , जो कण-कण में है l नाम आप चाहे जो ले लीजिए l न भी लीजिए तो भी कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता l केदार नाथ सिंह ने लिखा ही है -


तुम ने जहां लिखा है प्यार

वहां लिख दो सड़क

कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता

यहां कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता। 


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हर पुलिस लाइन में , क्या आज श्रीकृष्ण मंदिर बने हैं ? लखनऊ में पुराने हाईकोर्ट परिसर में ब्रिटिश पीरियड से बड़ा सा मंदिर है। उत्तर प्रदेश विधान सभा , सचिवालय और राजभवन के बीच वाली सड़क पर दोनों तरफ मस्जिद ही है न ! वह भी बड़ी-बड़ी। जिन में दुकानें खुली हुई हैं। मंदिर क्यों नहीं है ? पुराना सही , क्या यह अतिक्रमण नहीं है ? मैं कोई बात तोड़-मरोड़ कर नहीं , तथ्य और तर्क के आलोक में कहता हूं। काशी , अयोध्या , मथुरा की बात बता कर बताया है कि आक्रमणकारी सर्वदा अतिक्रमण करते हैं। रही बात इन दस बरसों की तो योगी राज के उत्तर प्रदेश में तो मेरी जानकारी में धार्मिक अतिक्रमण नहीं हुए हैं। धार्मिक ? अरे बड़े-बड़े माफियाओं के अतिक्रमण ध्वस्त किए गए हैं। यथा अतीक़ अहमद , मुख़्तार अंसारी , विजय मिश्रा , कानपुर का वह दुबे आदि तमाम के अवैध कब्जे , ध्वस्त हो गए हैं। पुराने अतिक्रमण ध्वस्त किए गए हैं। मजारों के भी , मंदिरों के भी। गोरखपुर में भी सड़कों पर कई मंदिर तोड़े गए। और तो और सड़क चौड़ी करने के लिए योगी ने गोरखनाथ मंदिर परिसर की बाउंड्री तक तोड़ कर ज़मीन दे दी है। यह तथ्य है। लफ्फाजी नहीं। प्रायोजित फ़ोटो वाले गिद्ध नहीं। इन गिद्धों को भी प्रणाम करता हूं। क्यों कि त्रेता में इन्हों ने जटायु नाम से मनुष्यता के पक्ष में अपनी उपस्थिति दर्ज की थी , अत्याचारी और अपहरणकर्ता रावण के ख़िलाफ़।


आप की कालोनी बहुत पुरानी है। कम से कम चालीस बरस पुरानी। फिर भी आप को जहां कहीं भी अतिक्रमण लगता है , प्रामाणिक रुप से तथ्य पेश करें। मैं ज़िम्मेदारी लेता हूं , पक्का ध्वस्त हो जाएंगे। मंदिर भी। अगर सरकारी भूमि पर बने हैं। क़ानून अब ऐसा ही है। बस प्रमाण , पुष्ट होने चाहिए। आरोप नहीं , प्रमाण। नहीं रामपुर में जौहर विश्वविद्यालय के नाम पर भी आज़म खान ने सपा कार्यकाल में जाने कितने किसानों , गरीबों की ज़मीनों पर ज़बरदस्ती कब्ज़ा किया , सारे दोगले सेक्यूलर , आज भी ख़ामोश हैं। जब उस जबरिया कब्ज़े को छुड़ाया गया , ध्वस्त किया गया तो इन दोगले सेक्यूलरों ने दबी जुबान , अत्याचार बताना शुरू कर दिया है। अतिक्रमण , अतिक्रमण होता है , अत्याचारी , अत्यचारी। नया-पुराना नहीं। लेकिन अब तो ऐसे-ऐसे कवि हो गए हैं , जो आक्रमणकारी , बर्बर बाबर में अपना आदर्श खोजते हैं। बाबर जैसा पिता बनना चाहते हैं। ऐसी दोगली लालसा भरी कविता लिखते हैं।


आप के मूल प्रश्न से या किसी के मूल प्रश्न से क्यों कतराऊंगा ? आप कतरा रहे हैं। मैं तो सवालों से टकराने वाला आदमी हूं। भागने वाला नहीं। फिर कहा न , नया मुल्ला प्याज़ बहुत खाता है। आप वही नए मुल्ले हैं। तथ्य और तर्क की रोशनी में बात करने का हामीदार हूं। वैचारिक हठ और पूर्वाग्रह के तहत कोई बात नहीं करता। दिन को दिन कहने का अभ्यस्त हूं। रात को रात। हठ और पूर्वाग्रह के तहत दिन को रात कहने की कुलत नहीं है। बाक़ी दिन को रात कहने के अभ्यस्त हो चले स्वप्निल जी ने आप को मशविरा दे ही दिया है , लुत्फ उठाइए। तो लुत्फ उठाइए। मैं तो भरपूर उठा रहा हूं। मौज में रहिए , टेंशन में नहीं। निजी तौर पर ज्योतिष में शायद यक़ीन न करने वाले स्वप्निल जी ने इस पोस्ट में एक साथ दो काज किए हैं। एक तो इन गिद्धों के मार्फ़त अपने दुःख का इजहार किया है। दूसरे , अपने समानधर्मा दोस्तों का ईगो मसाज भी। कि मुट्ठी ताने , कांख छुपाए सही हम भी अभियान में हैं। पर हम जैसों को लुत्फ उठाने का बहाना भी अनजाने ही दे गए हैं। यह भी गुड है !


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आलम यह है कि कुछ तो अपनी अतिशय बौद्धिकता प्रमाणित करने के फेर में साइकेट्रिक वार्ड में भर्ती होने लगे हैं। यह मूर्ख नहीं जानते कि यह सारे गिद्ध असल में अयोध्या के राम मंदिर पर बुरी नज़र लगाने वाले कलयुगी रावणों को चोंच मार-मार कर नष्ट करने के लिए इकट्ठा हो रहे हैं।


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चौदह बरस वनवास के बावजूद राम आजिज नहीं हुए इस अयोध्या से। जिस अयोध्या ने वनवास दिया , लौट कर आए , उस अयोध्या ही। कवि कुंवर नारायण भी इसी अयोध्या के हैं। यतींद्र मिश्र भी यहीं रहते हैं। और भी तमाम लोग। इतना कुछ बदल गया पर स्वप्निल जी की यातना नहीं बदली। हमारा हौसला देखिए कि हम अयोध्या में हैं , ऐसे कह रहे हैं , गोया नरक भोग रहे हों। ध्वनि ऐसी , जैसे कैकेयी राम का पुन: वनवास मांग रही हो। राम का भव्य मंदिर में लौटना , भा नहीं रहा , स्वप्निल जी को। अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्डा , रेलवे स्टेशन , भव्य बस स्टेशन , दुनिया भर से अयोध्या का कनेक्ट होना , अयोध्या का चतुर्दिक विकास सब स्वाहा है , स्वप्निल जी के इस दुःख के आगे। भगवान ऐसा दुःख भी किसी को न दें। किसी कवि को तो हरगिज़ नहीं।


[ एक मित्र की पोस्ट पर विभिन्न मित्रों से वाद-विवाद-संवाद का लुत्फ़।  ]


राम मंदिर और चंपत राय के बहाने कुछ सयाने लोग और उन के निशाने

दयानंद पांडेय 

मोदी वार्ड के मुट्ठी भर मरीज अयोध्या में राम मंदिर के निर्माण से डायरिया के शिकार हो चले हैं। हजम नहीं हो रहा मंदिर। बस मां-बहन की गाली सीधे-सीध नहीं उच्चार पा रहे हैं क्यों कि राम की आस्था से तो वह भी संलग्न हैं। राम उन के भी भगवान हैं। लेकिन उन की भाव-भंगिमा और शब्दों का भाव बिलकुल यही है। एक मित्र की वाल पर उन की पोस्ट पर मेरा प्रतिवाद और प्रतिवाद में आए अन्य प्रतिवाद पर भी मेरे कुछ प्रतिवाद दर्ज हैं। आप अवलोकन कर सकते हैं और आनंद का भान कर सकते हैं :


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चंपत का अर्थ हम सभी जानते हैं , आप भी। लेकिन आप की मंशा जानते हुए , चंपत का शाब्दिक अर्थ भी प्रस्तुत है , रेख्ता के मुताबिक़। फिर जिस चंपत राय की आप ताज़पोशी करते हुए करवाना चाहते हैं , चंद लोग चाह कर भी कर नहीं पा रहे हैं। रामसागर शुक्ल जी भी क्षणिक आनंद ले कर ख़ुश हो गए हैं और फिर खामोश ! इसी से अपने प्रश्न की पावनता की पहचान कर लीजिए। फिर भी उस चंपत राय के जीवन के बारे में कुछ सूचनाएं प्रस्तुत हैं , जो कहीं अन्य से साभार प्रस्तुत है। हालां कि यही सब करते-करवाते कांग्रेस और वामपंथी पार्टियां दफ़्न हो चुकी हैं। आज की तारीख़ में कांग्रेस और वामपंथी पार्टियां अपनी यह बीमारी छुपाती फिर रही हैं। न्यौता मांग रही हैं। गिड़गिड़ा रही हैं। फिर भी शुभकामनाओं सहित , सूचना ग्रहण करें और अपने आनंद का भी आनंद लें। जानें कि बड़े नसीब से चंपत राय , राम काज के लिए उपस्थित होते हैं। जटायु , शबरी और गिलहरी को याद करते हुए इस चंपत राय को भी याद करेंगे तो और आनंद आएगा। जान लेंगे कि चंपत राय हास्य-व्यंग्य का विषय नहीं हैं। कोलकाता के कोठारी बंधु को लोग इतने बरस बाद भी कैसे याद कर रहे हैं , यह जान लेने में भी नुक़सान नहीं है। [ क्रमशः ]


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कौन है ये चम्पतराय.?? 🌷⛳

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1975 इँदिरा गाँधी द्वारा थोपे आपातकाल के समय बिजनौर के धामपुर स्थित आर एस एम डिग्री कॉलेज में एक युवा प्रोफेसर चंपत राय, बच्चों को फिजिक्स पढ़ा रहे थे, तभी उन्हें गिरफ्तार करने वहां पुलिस पहुंची क्योंकि वह संघ से जुड़े थे।

अपने छात्रों के बीच बेहद लोकप्रिय चंपत राय जानते थे कि उनके वहाँ गिरफ्तार होने पर क्या हो सकता है।

पुलिस को भी अनुमान था कि छात्रों का कितना अधिक प्रतिरोध हो सकता है।

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प्रोफ़ेसर चंपत राय ने पुलिस अधिकारियों से कहा, आप जाइये में बच्चों की क्लास खत्म कर थाने आ जाऊँगा।

पुलिस वाले इस व्यक्ति के शब्दों के वजन को जानते थे अतः वे लौट गए।

क्लास खत्म कर बच्चों को शांति से घर जाने के लिए कह कर प्रोफेसर चंपत राय घर पहुँचे, माता पिता के चरण छू आशीर्वाद लिया और लंबी जेल यात्रा के लिए थाने पहुंच गए।

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18 महीने उत्तर प्रदेश की विभिन्न जेलों में बेहद कष्टकारी जीवन व्यतीत कर जब बाहर निकले तो इस दृढ़प्रतिज्ञ युवा के आत्मबल को संघ के सरसंघचालक श्री रज्जू भैया ने पहचाना और श्री राममंदिर की लड़ाई के लिए अयोध्या जी को तैयार करने का जिम्मा उनके कंधों पर डाल दिया।

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चंपत राय ने अपनी सरकारी नौकरी को लात मार दी और राम काज में जुट गए।

वे अवध के गाँव गाँव गये हर द्वार खटखटाया।

स्थानीय स्तर पर ऐसी युवा फौज खड़ी की जो हर स्थिति से लड़ने को तत्पर थी।

अयोध्या के हर गली कूँचे ने चंपत राय को पहचान लिया और हर गली कूंचे को उन्होंने भी पहचान लिया।

उन्हें अवध का इतिहास, वर्तमान, भूगोल की ऐसी जानकारी हो गई कि उनके साथी उन्हें "अयोध्या की इनसाइक्लोपीडिया" उपनाम से बुलाने लगे।

बाबरी ध्वंस से पूर्व से ही चंपत राय जी ने राम मंदिर पर "डॉक्यूमेंटल एविडेंस" जुटाने प्रारम्भ किये।

लाखों पेज के डॉक्यूमेंट पढ़े और सहेजे, एक एक ग्रंथ पढ़ा और संभाला उनका घर इन कागजातों से भर गया, साथ ही हर जानकारी उंन्हे कंठस्थ भी हो गई।

के. परासरण जी और अन्य साथी वकील जब जन्मभूमि की कानूनी लड़ाई लड़ने के लिए मैदान में उतरे तो उन्हें अकाट्य सबूत देने वाले यही व्यक्ति थे।

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6 दिसंबर 1992 को मंच से बड़े बड़े दिग्गज नेता कारसेवकों को अनुशासन का पाठ पढ़ा रहे थे।

तमाम निर्देश दिए जा रहे थे।

बाबरी ढांचे को नुकसान न पहुचाने की कसमें दी जा रहीं थीं, उस समय चंपत राय जी मंच से कुछ दूर स्थानीय युवाओं के साथ थे।

एक पत्रकार ने चंपत राय से पूछा?

"अब क्या होगा?"

उन्होंने हँस कर उत्तर दिया

"ये राम की वानर सेना है, सीटी की आवाज पर पी टी करने यहां नहीं आयी...

ये जो करने आयी है करके ही जाएगी"

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इतना कह उन्होंने एक बेलचा अपने हाथ में लिया और बाबरी ढांचे की ओर बढ़ गये, फिर सिर्फ जय श्री राम का नारा गूंजा और... इतिहास रचा गया।

आदरणीय चंपत राय को यूं ही राम मंदिर ट्रस्ट का सचिव नहीं बना दिया गया है।

उन्होंने रामलला के श्रीचरणों में अपना सम्पूर्ण जीवन अर्पित किया है। प्यार से उन्हें लोग "रामलला का पटवारी" भी कहते हैं। यह व्यक्ति सनातन का योद्धा है। कोई मुंह फाड़ बकवास करता कायर नहीं... [ क्रमश : ]

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बाबरी ध्वंस के मुकदमों में कल्याण सिंह जी के बाद चंपत राय ने ही अदालत और जनसामान्य दोनों के सामने सदैव खुल कर उस घटना का दायित्व अपने ऊपर लिया है। चम्पत राय जी कह चुके हैं, जैसे ही राममंदिर का शिखर देख लेंगे युवा पीढ़ी को मथुरा की ज़िमेदारी निभाने को प्रेरित करने में जुट जाएंगे"।

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चंपत राय जी धर्म की छोटी से छोटी चीजों का ध्यान रखने वाले तपस्वी और विद्वान हैं।

एक बार वे किसी काम से काशी में किन्हीं के यहां रुके, तब रात्रि में देखा तो पाया कि बैड का डायरेक्शन कुछ ऐसा था कि सोते हुए पैर दक्षिण की तरफ हो जा रहे थे, उन्हें एक रात को भी यह स्वीकार नहीं था, रात में ही उन्होंने बैड का डायरेक्शन ठीक करवाया, तभी सोए।

जो धोती कुर्ता पहनकर भारत का गाँव गाँव नापने वाला व्यक्ति अपने निजी जीवन में हिन्दू जीवनचर्या की छोटी छोटी बातों का हठ के साथ पालन करता है वह श्रीराममंदिर के संदर्भ में किस हद तक विचारशील और जुझारू होगा, समझा जा सकता है।

वास्तव में इनपर उंगली उठाने वाले इनकी पाँव की धूल समान भी नहीं....।


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उम्मीद है कि चंपत का अर्थ कुछ समझ आ गया होगा। कुछ कसर रह गई हो तो कृपया बताएं , शंका समाधान आगे भी करने का प्रयास करुंगा।


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आप शायद इन्हीं चंपत राय का आनंद लेने में संलग्न हैं। है न ?


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आडवाणी या जोशी नहीं बुलाए गए हैं , इस बात को कहने का कोई आधार भी है या मोदी वार्ड की सर्वकालिक बीमारी का प्रदर्शन मात्र है। राम तो सब के हैं पर ख़बरों के मुताबिक़ बुलाया तो ऐसे-ऐसे लोगों को भी गया है जो घोषित रुप से राम के नहीं हैं। राम से दिली नफ़रत है , जिन्हें , उन्हें भी बुला लिया गया है। फिर आडवाणी और जोशी तो राम के लिए सर्वस्व लुटा देने वालों में हैं। अधिकृत ख़बरों के मुताबिक़ आडवाणी , जोशी भी बुलाएं गए हैं। ख़बरें बताती हैं कि आठ हज़ार लोगों को बुलाया गया है। सोनिया गांधी को भी। उस सोनिया , जिन से संसद भवन परिसर में रिपोर्टरों ने पूछा , बुलाया गया है , अयोध्या जाएंगी ? सवाल की नोटिस लिए बिना तेज़ी से निकल गईं। ऐसे जैसे पांव नाबदान में पड़ गया हो। ईश्वर , अल्ला तेरो नाम , सब को सन्मति दे भगवान ! सहिष्णुता की इस से बढ़िया मिसाल सोनिया दे भी नहीं सकती थीं। बाक़ी मोदी वार्ड के मरीजों को क्या कहना , क्या सुनना ! हक़ीम लुकमान के पास भी नो इलाज ! एक से एक सीताराम हैं। 2024 ? अरे बीमारी इसी तरह बढ़ती रही तो 2029 में भी कोई वैक्सीन मिलने के आसार नहीं दिखते। बड़ा मासूम सा यह सवाल भी है कि कौन वाले राय हैं ? जाहिर है , बंगाली नहीं हैं तो भूमिहार भी हो सकते हैं और कायस्थ भी। मोदी वार्ड के मरीजों से आर्थिक मदद ले कर एक शोध पीठ बनवाइए , शोध करवा लीजिए। कुछ तो आराम मिलेगा ही। काम भी।

आमीन !


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तथ्य और मोदियापा का फ़र्क़ समझ में आता भी है ? चुनौती दे कर कह रहा हूं , एक भी तथ्य ग़लत साबित कर दीजिए। लिखना और सार्वजनिक जीवन छोड़ दूंगा।


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अपनी बात कहने का अधिकार हर किसी को है। बात तथ्य की , की है। हुज्जत की नहीं। मोदी ने क्या कहा , किस ने क्या सुना , मेरा उस से कोई सरोकार फिलहाल यहां बिलकुल नहीं है। और मैं न मोदी हूं , न मोदी का प्रवक्ता। अपनी बात से मतलब है। मोदियापा के आपत्तिजनक आरोप पर प्रतिवाद किया है। तथ्य से बात करने का हामीदार हूं।


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फ़िलहाल वाद-विवाद-संवाद जारी है !

Friday, 8 December 2023

विश्वास के प्यास की परवाज़ में डूबी सम्मान और समानता का एकांश ढूंढती कविताएं

दयानंद पांडेय 



एक ख़त तुम्हारे नाम में कुछ ख़त हैं। इन ख़तों में तहरीरें हैं। तहरीरें अलग-अलग हैं। पर ख़ता एक ही है : मुहब्बत। ख़त जैसे किसी रेगिस्तान में भटकते हुए जल-जल जाते हैं। पर ख़त की तहरीर नहीं जलती। कभी नहीं जलती। लेकिन मुहब्बत का कोई मुहूर्त फिर भी नहीं है। न इब्तिदा है , न अंजाम। बस प्यार का जाम है। प्यार के पैमाने में छलकते टेढ़े-मेढ़े रास्ते और उलझे हालात हैं। रिश्तों के फ़ैसलों से उपजे फ़ासले हैं। कम से ज़्यादा , ज़्यादा से कम की शरारत और शराफ़त के कंट्रास्ट में डूबा नेह है। नेह की सिलवट में सनी सांस के उच्छवास में लथपथ खिड़की पर चाय की दो प्याली बीच में रख कर मौन की भाषा की पतवार है। कैक्टस को कुचल-कुचल कर कागज़ की सतह पर रातरानी उगाती हुई। हर्फ़-हर्फ़ में महबूब की मुहब्बत को महकाती हुई। आध्यात्मिकता की हद तक जाती प्यार की पुरवाई में बहती माशूक़ा राधा और मीरा का रूपक रचती हुई पहचान लिए जाने की अकुलाहट में अफनाई हुई इन तहरीरों की कोई तरतीब नहीं है। बेतरतीबी की अजीब सी शिनाख़्त है। उबाल है। बदहवासी है। इसी लिए एक ख़त तुम्हारे नाम में सत्या सिंह की यह कविताएं विश्वास के प्यास की परवाज़ में डूबी सम्मान और समानता का एकांश ढूंढती कविताएं हैं। प्रेम की ऊष्मा में आत्मीयता की तलाश करती कविताएं हैं। इन कविताओं में ऊष्मा भी बहुत है। ऊर्जा भी बहुत। बिजली जैसी चमक लिए। सागर जैसी तड़प लिए। बारिश की प्रतीक्षा में विकल ऐसे जैसे कोई धरती हो। 

ख़तनुमा इन कविताओं में समाई प्यास दरअसल चातक की प्यास नहीं है। एक ठगी और लुटी हुई स्त्री की प्यास है। रेगिस्तान में जल की तलाश में भटकती हुई स्त्री की प्यास। रेत पर मचलती सूखी लहरों  को देख यह कविताएं जल तलाशती हुई अहसास कराती हैं कि जल यहीं कहीं हैं। भूल जाती हैं यह कविताएं कि रेत पर लहरें सिर्फ़ जल की ही नहीं , वायु की भी होती हैं। हवाएं भी रेत पर लहरें बनाती-मिटाती रहती हैं। हालां कि हवाएं भी जल लिए हुए होती हैं। पर प्यार है कि मानता ही नहीं। मानता है कि रेत है तो ज़रुर कहीं आस-पास जल भी है। मृगतृष्णा इसे ही तो कहते हैं। प्यार इसे ही तो कहते हैं। सत्या सिंह लिखती हैं :

तुम अभी अपनी 

छत पर आओ ना....

मैं भी अपनी छत पर हूं 

आज शायद पूर्णिमा है 

पूरा चांद नज़र आ रहा है 

चलो साथ में 

चांद देखते हैं 

तुम अपने शहर से 

मैं अपने शहर से 

एक ख़त तुम्हारे नाम की कविताओं में प्रेम की पूर्णमासी ऐसे ही उतरती मिलती रहती है। भरीपुरी। शहर भले अलग-अलग हों पर प्रेम की छत का संयोग बनता रहता है। यह कहती हुई :

मैं तुम्हारे साथ 

दौड़ तो नहीं सकती 

हां 

मगर 

तुम्हारी यादों के सहारे 

ज़रूर चलूंगी 

इश्क़ का नाम एहसास रखती आभास की बारिश में डूबी सत्या की कविताएं बेपरवाही की डोर में सम्मान की सुई से माला गूंथती हुई संतोष के सागर में जैसे डूबने के लिए अभिशप्त हैं। यादों की गुफ़्तगू में मिलने की आरजू में दिल खोल कर बात करने को आतुर मिलती हैं। मृगतृष्णा की मारी हिरनी सी उछाल मारती यह कविताएं बिना किसी वादे , बिना किसी कसम के सिर उठा कर स्वाभिमान से चलने की तहरीर लिखती चलती हैं। 

कविता में ख़त है कि ख़त में कविता। ठीक वैसे ही जैसे भूषण ने लिखा है : "सारी बीच नारी है कि नारी बीच सारी है। नारी ही की सारी है कि सारी ही कि नारी है।" भूषण के यहां यह संदेह अलंकार है पर सत्या सिंह के यहां अगर कहूं कि प्रेम अलंकार है तो अतिश्योक्ति न होगी। प्रेम पाग में पगी कविताएं ख़त में ऐसे खनकती मिलती चलती हैं गोया किसी स्त्री के हाथ में कांच की चूड़ियां हों। किसी स्त्री के दबे पांव में सहसा बज गई पायल हों। अलग बात है कि पायल के गुम होने और चूड़ियों के टूटते रहने का पता भी देती चलती हैं सत्या सिंह की यह कविताएं। ताबीज़ के मानिंद आयतों से बंधी और ज़मीर के ज़ेवर पहने मिलन और विरह से परे एक नया ही वातायन बुनती हैं। 

ऐसे जैसे कोई स्त्री किसी सपने में स्वेटर बुने किसी दुधमुंहे के लिए। और जागने पर न स्वेटर मिले , न दुधमुंहा। अजीब कश्मकश है। अजीब गरमाहट है। अजीब आस और अजीब प्यास है यह। मछली की तरह नहीं , मन की तरह छटपटाती सत्या सिंह की यह कविताएं ख़त की ख़ैरियत में भले हैं पर किसी ख़ैरियत का बयान नहीं बांचतीं।  बल्कि बेकली का गान गाती आंसुओं की आह में काजल बहाती किसी की प्रतीक्षा का आख्यान रचती हैं। प्रतीक्षा इन कविताओं में बहुत प्रबल है। गो कि इस प्रतीक्षा का हासिल फिर भी सिफर है। इसी लिए स्त्री अपने नदी होने की यातना बांचती है कि सागर नहीं थी , सारा दर्द समेटती कैसे ? अमलताश जैसी रंगीन ज़िंदगी की आस में यादों की गुल्लक फोड़ती सत्या सिंह की यह कविताएं प्रेम के इस अंतिम सत्य पर आ कर ठहर जाती हैं : 

बस एक तुम मिले 

और ज़िंदगी 

मुहब्बत बन गईं 

ऐसे जैसे ख़त के जल जाने के बावजूद , न जलने वाली तहरीर की यही इंतिहा है। ख़त के तहरीर की तहरीक़ यही है। सम्मान और समानता का एकांश यही है। एक ख़त तुम्हारे नाम की कविताओं का पैग़ाम यही है। सत्या सिंह की कविताओं का कुलनाम और अंजाम यही है। प्रेम , प्रेम , सिर्फ़ प्रेम। दौड़ नहीं सकने की लाचारी के बावजूद प्रेम। अथाह प्रेम में डूबी यह कविताएं ख़त नहीं , ख़िताब हैं मनुष्यता का।

  

[ सौभाग्य प्रकाशन , दिल्ली द्वारा प्रकाशित सत्या सिंह के कविता-संग्रह एक ख़त तुम्हारे नाम की भूमिका। ]

Thursday, 7 December 2023

तो भाजपा में मोदी के बाद का बा ?

 दयानंद पांडेय 

कौन कहां का मुख्यमंत्री बनेगा , यह कहना अभी कठिन है। पर शिवराज सिंह चौहान , रमन सिंह और वसुंधरा राजे सिंधिया 2024 में मोदी के आगामी मंत्रिमंडल का हिस्सा ज़रुर होंगे , यह मेरा स्पष्ट आकलन है। राजनीति और रणनीति अपनी जगह है पर सवाल है कि चुनाव हार कर भी धामी उत्तराखंड के मुख्यमंत्री बन सकते हैं तो मध्य प्रदेश में शिवराज सिंह चौहान को भी मुख्यमंत्री क्यों नहीं बनाना चाहिए ? 

लेकिन समय रहते शिवराज मोदी के मन की बात को समझ गए। सो बड़ी विनम्रता से लोकसभा चुनाव में मध्य प्रदेश के 29 कमल मोदी के गले में डालने का मंत्र पढ़ने लगे हैं। यह वही शिवराज सिंह चौहान हैं जिन्हें कभी लालकृष्ण आडवाणी ने 2014 में नरेंद्र मोदी के समांनांतर रखा था बतौर प्रस्तावित प्रधानमंत्री। शिवराज भी आडवाणी के इस कहे में ज़रा फिसले तो लेकिन तब भी बहुत जल्दी ही अपने को संभाल ले गए थे। 

फ्रस्ट्रेटेड रवीश कुमार के विश्लेषण में भी इस बार वह नहीं फंसे कि मध्य प्रदेश में मोदी नहीं , शिवराज सिंह चौहान की लहर थी। लाडली बहना की लहर थी। शिवराज जानते हैं 17 साल लगातार कम नहीं होते किसी मुख्यमंत्री के लिए। वह भी मोदी राज में। वहीं वसुंधरा राजे सिंधिया मोदी के मन की बात पढ़ने में चूक गईं। भूल गईं पुराना नारा : मोदी तुझ से बैर नहीं , रानी तेरी ख़ैर नहीं। विधायक बटोरने लगीं। विधायकों की बाड़ेबंदी करने लगीं। पर जल्दी ही भाग कर दिल्ली आ गईं , मोदी शरणम गच्छामि के लिए ! 

राजनीति और रणनीति से भी ऊपर भाजपा ही नहीं , भारत में इन दिनों मोदी नीति का जलवा है। मोदी नीति कोई लिखित नीति नहीं , मन की बात वाली नीति है। जो जीता वही मोदी है , वाली बात है। फ़िलहाल तो चुनाव में , ख़ास कर मध्य प्रदेश के चुनाव में मुस्लिम वोटों का रुझान बताता है कि 2024 में लोकसभा चुनाव एकतरफा होने जा रहा है। मध्य प्रदेश से मिले आंकड़े बताते हैं कि कांग्रेस को मुस्लिम वोट एकमुश्त मिले हैं। बंटे नहीं हैं। 

मुस्लिम वोट का ध्रुवीकरण जब होता है , बंटता नहीं है , स्वाभाविक रुप से हिंदू वोट का भी ध्रुवीकरण हो जाता है। मोदी और भाजपा के पक्ष में हो जाता है। बिना किसी प्रचार के। बिना कुछ कहे। बिना किसी ऐलान के। मुस्लिम वोटर बीच में अपनी रणनीति के तहत जो भाजपा को जहां हराता दिखे , उसे वोट दे रहा था। लेकिन अब उसे कांग्रेस यह समझा देने में सफल हो गई है कि भाजपा को सिर्फ कांग्रेस ही हरा सकती है। मुसलमानों की इसी समझ के चक्कर में कांग्रेस की जातीय जनगणना वाली रणनीति फुस्स हो गई। और वह खेत रही। 

मोदी और अमित शाह ने बहुत मेहनत कर के मंडल और कमंडल के वोटर को एक साथ खड़ा किया है। एकजुट किया है। कांग्रेस और उस के साथी दल इसी लिए जातीय जनगणना के मार्फ़त मंडल और कमंडल वोट अलग-अलग करने की नीति पर चले। लेकिन मध्य प्रदेश , छत्तीसगढ़ और राजस्थान में यह चाल नहीं चल पाई। मुंह की खा गई कांग्रेस। और जो सिलसिला इसी तरह चला तो तय मानिए कि उत्तर प्रदेश में आगामी लोकसभा चुनाव में सपा और बसपा पूरी तरह साफ़ हो जाएंगे। 

क्यों कि भाजपा के पास मंडल , कमंडल दोनों वोट होंगे। जब कि मुट्ठी भर यादव वोट सपा के साथ और मुट्ठी भर ही दलित वोट बसपा के साथ होंगे। जेनरल वोट के साथ सारे के सारे मुस्लिम वोट कांग्रेस के साथ। ऐसे में भाजपा और मोदी को तो वाकओवर मिलना ही है। कैसे और कौन रोक सकता है भला भाजपा और मोदी को। ई वी एम का तराना ? हरगिज नहीं। अगर कोई राजनीतिक पंडित कुछ और बता सकता हो तो ज़रुर बताए। 

हालां कि भाजपा जिस तरह मोदी नाम केवलम के जाल में फंसी है , भाजपा ही नहीं देश के लोकतंत्र के लिए भी बहुत शुभ नहीं है। यह ठीक है कि देश के अस्सी करोड़ लोगों को मुफ़्त राशन , मुफ़्त चिकित्सा बड़ी बात है। देश में चौतरफा तरक़्क़ी मन मोहती है। सड़कों का संजाल , एयरपोर्ट की बहार , बढ़िया रेलवे स्टेशन। कश्मीर में शांति। दुनिया में मोदी और भारत का डंका। विदेश नीति की चमक। सब कुछ सुंदर-सुंदर। चकाचक। यह भी तय है कि 2024 के लोकसभा चुनाव में 350 से ज़्यादा सीटें भी आएंगी। मोदी की लोकप्रियता के सुरुर में कोई कमी नहीं है। वामपंथियों और कांग्रेसियों को पागल बना कर कुर्ता फाड़ कर सड़क पर घूमने के लिए विवश कर देना भी दीखता है।

पर मोदी राजनीति की जिस राह पर चले पड़े हैं , यह वामपंथियों की राह है। स्टालिन , और माओ की राह है। तानाशाह और फासिस्ट की राह है। कि उन के आगे कोई नहीं। कांग्रेस की राह है। कि कोई गांधी परिवार के ख़िलाफ़ खड़ा नहीं हो सकता। तो भाजपा में भी कोई खुल कर अब मुख्यमंत्री पद की दावेदारी भी करने में लोग भयभीत है। सवाल यह भी है कि अभी तो नरेंद्र मोदी के सहारे भाजपा के दिन , सोने के दिन हैं , चांदी के दिन हैं। कोई दो मत नहीं। 

पर नरेंद्र मोदी के बाद भाजपा का क्या ? भाजपा में क्या ? जो उस एक गाने के बोल में पूछूं तो भाजपा में मोदी के बाद का बा ? 

कोई कह सकता है कि योगी। पर जानने वाले जानते हैं कि किसी बया की तरह योगी ने कांटों में अपना घोसला बना रखा है। आधा समय वह इन कांटों को अपने लिए सुगम बनाने में व्यस्त रहते हैं , आधा समय प्रशासन को साधने में। अपनी पसंद का एक मुख्य सचिव तक नहीं बना सके हैं योगी। कभी पी एम ओ में रहे सेवा विस्तार पाए नौकरशाह को , मुख्य सचिव बना रखा है , मोदी ने। योगी पर नकेल के लिए। 

उत्तर प्रदेश में एक समय का मुलायम राज याद आता है। मुलायम जब बसपा के समर्थन से उत्तर प्रदेश के दूसरी बार मुख्य मंत्री बने तो मुलायम के सचिव बने पी एल पुनिया। पुनिया मुलायम के सचिव ज़रूर थे पर कांशीराम के प्रतिनिधि पहले थे। कांशीराम ने मुलायम पर अंकुश रखने के लिए पुनिया को सचिव बनवाया था। अलग बात है यह पुनिया फिर मायावती के भी सचिव बने और फिर मायावती के गले की फांस भी। अंबेडकर पार्क सहित तमाम घोटाले में फंसा कर मायावती को ध्वस्त कर दिया। अब यही पुनिया , कांग्रेस में हैं। 

खैर , सवाल फिर-फिर वही तो भाजपा में मोदी के बाद का बा ?