दयानंद पांडेय
जैसे नदियां , नदियों से मिलती हैं तो बड़ी बनती हैं , भाषा भी ऐसे ही एक दूसरे से मिल कर बड़ी बनती है। सभी भाषाओँ को आपस में मिलते रहना चाहिए। संस्कृत , अरबी , हिंदी , उर्दू , फ़ारसी , अंगरेजी , तमिल , तेलगू , कन्नड़ , मराठी , बंगाली , रूसी , जापानी आदि-इत्यादि का विवाद बेमानी है। अंगरेजी ने साइंस की ज्यादातर बातें फ्रेंच से उठा लीं , रोमन में लिख कर उसे अंगरेजी का बना लिया। तो अंगरेजी इस से समृद्ध हुई और फ्रेंच भी विपन्न नहीं हुई। भाषा वही जीवित रहती है जो नदी की तरह निरंतर बहती हुई हर किसी से मिलती-जुलती रहती है। अब देखिए गंगा हर नदी से मिलती हुई चलती है और विशाल से विशालतर हुई जाती है। हिंदी ने भी इधर उड़ान इसी लिए भरी है कि अब वह सब से मिलने लगी है। भाषाई विवाद और छुआछूत भाषा ही को नहीं मनुष्यता को भी नष्ट करती है। भाषा और साहित्य मनुष्यता की सेतु है , इसे सेतु ही रहने दीजिए।
हम तो जानते और मानते थे कि हिंदी हमारी मां है , भारत की राज भाषा है। लेकिन कुछ साल पहले हिंदी दिवस पर माकपा महासचिव डी राजा ने एक नया ज्ञान दिया था कि हिंदी हिंदुत्व की भाषा है। उधर हैदराबाद से असदुद्दीन ओवैसी ने भी यही जहर उगला। ओवैसी ने कहा है कि भारत हिंदी , हिंदू और हिंदुत्व से बड़ा है। यह सब तो कुछ वैसे ही है जैसे अंगरेजी , अंगरेजों की भाषा है। उर्दू , मुसलामानों की भाषा है। संस्कृत पंडितों की भाषा है। इन जहरीलों को अब कौन बताए कि भाषा कोई भी हो , मनुष्यता की भाषा होती है। संस्कृत , हिंदी हो , अंगरेजी , उर्दू , फ़ारसी , अरबी , रूसी , फ्रेंच या कोई भी भाषा हो , सभी भाषाएं मनुष्यता की भाषाएं है। सभी भाषाएं आपस में बहने हैं , दुश्मन नहीं। पर यह भी है कि जैसे अंगरेजी दुनिया भर में संपर्क की सब से बड़ी भाषा है , ठीक वैसे ही भारत में हिंदी संपर्क की सब से बड़ी भाषा है। तुलसी दास की रामायण पूरी दुनिया में पढ़ी और गाई जाती है। लता मंगेशकर का गाना पूरी दुनिया में सुना जाता है।
तीन वर्ष पहले तमिलनाडु के शहर कोयम्बटूर गया था , वहां भी हिंदी बोलने वाले लोग मिले। शहर में हिंदी में लिखे बोर्ड भी मिले। ख़ास कर बैंकों के नाम। एयरपोर्ट पर तो बोर्डिंग वाली लड़की मेरी पत्नी को बड़ी आत्मीयता और आदर से मां कहती मिली। मंदिरों में हिंदी के भजन सुनने को मिले। मेरी बेटी का विवाह केरल में हुआ है। वहां हाई स्कूल तक हिंदी अनिवार्य विषय है। मेरी बेटी की चचिया सास इंडियन एयर लाइंस में हिंदी अधिकारी हैं। मेरे दामाद डाक्टर सवित प्रभु बैंक समेत हर कहीं हिंदी में ही दस्तखत करते हैं। मेरे पितामह और पड़ पितामह ब्राह्मण होते हुए भी उर्दू और फ़ारसी के अध्यापक थे। हेड मास्टर रहे। महाराष्ट्र , आंध्र प्रदेश के लोगों ने मेरे हिंदी उपन्यासों पर रिसर्च किए हैं। अभी भी कर रहे हैं। पंजाबी , मराठी , उर्दू और अंगरेजी में मेरी कविताओं और कहानियों के अनुवाद लोगों ने अपनी पसंद और दिलचस्पी से किए हैं। मराठी की प्रिया जलतारे जी [ Priya Jaltare ] तो जब-तब मेरी रचनाओं , कविता , कहानी , ग़ज़ल के मराठी में अनुवाद करती ही रहती हैं ।
मुंबई में भी लोगों को बेलाग हिंदी बोलते देखा है । नार्थ ईस्ट के गौहाटी , शिलांग , चेरापूंजी , दार्जिलिंग , गैंगटोक आदि कई शहरों में गया हूं , हर जगह हिंदी बोलने , समझने वाले लोग मिले हैं। कोलकाता में भी। श्रीलंका के कई शहरों में गया हूं। होटल समेत और भी जगहों पर लोग हिंदी बोलते , हिंदी फिल्मों के गाने गाते हुए लोग मिले। तमाम राष्ट्राध्यक्षों को नमस्ते ही सही , हिंदी बोलते देखा है। लेकिन भारत ही एक ऐसी जगह है जहां लोग हिंदी के नाम पर नफ़रत फैलाते हैं। महात्मा गांधी गुजराती थे लेकिन उन्हों ने हिंदी की ताकत को न सिर्फ़ समझा बल्कि आज़ादी की लड़ाई का प्रमुख स्वर हिंदी ही को बनाया। अंगरेजी वाले ब्रिटिशर्स को हिंदी बोल कर भगाया। गुजराती नरेंद्र मोदी भी दुनिया भर में अपने भाषण हिंदी में ही देते हैं। उन की हिंदी में ही दुनिया भर के लोग उन के मुरीद होते हैं। अभी जल्दी ही अमरीकी राष्ट्रपति ट्रंप ने चुटकी लेते हुए कहा भी कि नरेंद्र मोदी अंगरेजी अच्छी जानते हैं पर बोलते हिंदी में ही हैं। प्रधान मंत्री रहे नरसिंहा राव तेलुगु भाषी थे पर हिंदी में भाषण झूम कर देते थे।
जयललिता भले हिंदी विरोधी राजनीति करती थीं पर हिंदी फ़िल्मों की हिरोइन भी थीं। धर्मेंद्र उन के हीरो हुआ करते थे। जयललिता हिंदी अच्छी बोलती भी थीं। वैजयंती माला , वहीदा रहमान , हेमा मालिनी , रेखा , श्रीदेवी , विद्या बालन आदि तमाम हीरोइनें तमिल वाली ही हैं। बंगाली , मराठी , पंजाबी और तमिल लोगों का हिंदी फिल्मों में जो अवदान है वह अद्भुत है। निर्देशन , गीत , संगीत , अभिनय आदि हर कहीं। अटल बिहारी वाजपेयी ने बतौर विदेश मंत्री जब संयुक्त राष्ट्र में हिंदी में भाषण दे कर हिंदी की वैश्विक पताका फहराई थी तो पूरा देश झूम गया था। सुषमा स्वराज ने बतौर विदेश मंत्री , संयुक्त राष्ट्र संघ में अटल जी द्वारा बोए हिंदी के बीज को वृक्ष के रूप में पोषित किया। यह अच्छा ही लगा कि आज एक और गुजराती अमित शाह ने हिंदी के पक्ष में बहुत ताकतवर और बढ़िया भाषण दिया है। अमित शाह के आज के भाषण से उम्मीद जगी है कि हिंदी जल्दी ही राष्ट्र भाषा के रूप में प्रतिष्ठित होगी। शायद इसी लिए डी राजा समेत ओवैसी समेत कुछ लोग बौखला कर हिंदी को हिंदुत्व की भाषा बताने लग गए हैं। इन की बौखलाहट बताती है कि हिंदी भाषा का भविष्य बहुत उज्ज्वल है।
राजनीतिक दलों के बगलबच्चा विभिन्न लेखक संगठनों ने राजनीतिक दलों का एजेंडा सेट करने के अलावा क्या कभी लेखकों की भी कोई लड़ाई लड़ी है ? लड़ाई तो छोड़िए अपने लिखे की मजदूरी यानी सो काल्ड रायल्टी तक की लड़ाई भी लड़ते किसी ने देखा है कभी ? तब जब कि कम से कम सरकारी ख़रीद में ही बाकायदा नियम है कि लेखक को रायल्टी दी गई है , इस की एन ओ सी देने पर ही प्रकाशक को भुगतान दिया जाए। सारे बेईमान प्रकाशक लेखकों के फर्जी दस्तखत से सरकारी भुगतान के लिए एन ओ सी दे कर भुगतान ले लेते हैं। करोड़ो रुपए का यह खेल है । और यह दुनिया भर की लड़ाई का स्वांग भरने वाले लेखक और लेखक संगठन अपनी ही लड़ाई लड़ने से सर्वदा भाग जाते हैं। शुतुरमुर्ग की तरह रेत में सिर धंसा लेते हैं। कांग्रेस और वाम दलों के टुकड़ों पर खेलने , खाने वाले लेखक संगठनों की यह हिप्पोक्रेसी अब किसी से छुपी नहीं है। सोचिए कि जो लोग अपनी और अपने श्रम की मेहनत का दाम पाने के लिए टुच्चे और भ्रष्ट प्रकाशकों से नहीं लड़ सकते , वह लोग फासिस्ट ताकतों से , बाज़ार से , सांप्रदायिकता से और जाने किस , किस और इस , उस से लड़ने का दम भरते हैं। जैसे भारत का विपक्ष जनता जनार्दन से कट कर सारी लड़ाई सोशल मीडिया पर लड़ने की हुंकार भरता रहता है , हमारे लेखक और लेखक संगठन भी जनता जनार्दन से कट कर हवा में काठ की तलवार भांजते हैं।
नकली कहानी , नकली कविता और एक दूसरे की पीठ खुजाती आलोचना के औजार से वह समाज को , व्यवस्था को एक झटके से बदल देने का सपना देखते हैं , लफ्फाजी झोंकते हैं और शराब पी कर सो जाते हैं। नहीं जानते कि अधिकांश जनता आखिर क्यों गेरुआ हुई जा रही , नहीं चाहते कि जनता का मिजाज बदले । चाहते तो लफ्फाजी और हिप्पोक्रेसी की अपनी यह चादर उतार कर जनता से मिलते , जनता को समझते , समझाते। समाज और व्यवस्था को बदलने की ज़मीनी बात करते। बात करना तो दूर इन हिप्पोक्रेट लेखकों , कवियों की सारी रचनात्मकता एक व्यक्ति और एक पार्टी की नफ़रत में खर्च हुई जाती दिखती है। कोई किसी पन्ने पर उल्टी कर रहा है , कोई किसी पन्ने पर पेशाब कर रहा है , कोई किसी पन्ने को कमोड बना कर आसीन है। लेकिन इस फासिज्म , इस सांप्रदायिकता , इस बाज़ार से लड़ती एक कारगर रचना नहीं कर पा रहा कोई। कालजयी रचना तो बहुत दूर की बात है। जो लोग खुद की सुविधा नहीं छोड़ सकते , खुद को नहीं बदल सकते , वह लोग व्यवस्था बदल देने का नित नया पाखंड भाख रहे हैं। नफरत और घृणा का प्राचीर रच रहे हैं। भूल गए हैं कि साहित्य समाज को तोड़ने का औजार नहीं , साहित्य समाज का सेतु होता है। धन्य , धन्य कवि और धन्य , धन्य कविता ! और क्या कहें , कैसे और कितना कहें !
हर भाषा का सम्मान करना सीखिए। हर भाषा स्वाभिमानी होती है । आन-बान-शान होती है । याद रखिए कि भाषा का भेद और भाषा का अपमान दुनिया का भूगोल बदल देता है। मनुष्यता चीखती है । अगर भारत के विभाजन का कारण धार्मिक था , इस्लामिक कट्टरपन था और पाकिस्तान बना । तो भाषाई भेद भाव ही था जो बांग्लादेश बना । बांग्ला भाषियों पर अगर जबरिया उर्दू न थोपी गई होती , फौजी बूटों तले बांग्ला न दबाई गई होती तो दुनिया का भूगोल नहीं बदलता , बांग्लादेश नहीं बनता । मनुष्यता अपमानित न हुई होती । लाखो-करोड़ो लोग अनाथ और बेघर न हुए होते । हिंदी दिवस पर हिंदी की जय ज़रुर कीजिए , ख़ूब जोर-शोर से कीजिए पर दुनिया भर की भाषाओँ का सम्मान करते हुए । किसी का अपमान करते हुए नहीं । भाषाई औरंगज़ेब बनने से हर कोशिश , हर संभव बचिए ।
पहले अ पर ए की मात्रा लगा कर एक लिखा जाता था। गांधी की पुरानी किताबें उठा कर देखिए। कुछ और ही वर्तनी है। गुजराती से मिलती-जुलती। भारतेंदु की , प्रेमचंद की पुरानी किताबें पलटिए वर्तनी की लीला ही कुछ और है। सौभाग्य से मैं ने तुलसी दास के श्री रामचरित मानस की पांडुलिपि भी देखी है। श्री रामचरित मानस के बहुत पुराने संस्करण भी। वर्तनी में बहुत भारी बदलाव है। वर्तनी कोई भी उपयोग कीजिए , बस एकरूपता बनी रहनी चाहिए। अब यह नहीं कि एक ही पैरे में सम्बन्ध भी लिखें और संबंध भी । आए भी और आये भी। गयी भी और गई भी। सभी सही हैं , कोई ग़लत नहीं। लेकिन कोशिश क्या पूरी बाध्यता होनी चाहिए कि जो भी लिखिए , एक ही लिखिए। एकरूपता बनी रहे। यह और ऐसी बातों का विस्तार बहुत है। भाषा विज्ञान विषय और भाषाविद का काम बहुत कठिन और श्रम साध्य है। लफ्फाजी नहीं है। पाणिनि होना , किशोरी प्रसाद वाजपेयी होना , भोलानाथ तिवारी होना , रौजेट होना , अरविंद कुमार होना , बरसों की तपस्या , मेहनत और साधना का सुफल होता है। व्याकरणाचार्य होना एक युग की तरह जीना होता है। वर्तनी और भाषा सिर्फ़ विद्वानों की कृपा पर ही नहीं है। छापाखानों का भी बहुत योगदान है। उन की सुविधा ने , कठिनाई ने भी बहुत से शब्द बदले हैं। चांद भले अब सपना न हो , पर चंद्र बिंदु अब कुछ समय में सपना हो जाएगा। हुआ यह कि हैंड कंपोजिंग के समय यह चंद्र बिंदु वाला चिन्ह का फांट छपाई में एक सीमा के बाद कमज़ोर होने के कारण टूट जाता था। तो कुछ पन्नों में चंद्र बिंदु होता था , कुछ में नहीं। तो रसाघात होता था। अंततः धीरे-धीरे इस से छुट्टी ली जाने लगी। बहस यहां तक हुई कि हंस और हंसने का फर्क भी कुछ होता है ? पर छापाखाने की दुविधा कहिए या सुविधा में यह बहस गुम होती गई। यही हाल , आधा न , आधा म के साथ भी होता रहा तो इन से भी छुट्टी ले ली गई। ऐसे और भी तमाम शब्द हैं । जब कंप्यूटर आया तो और बदलाव हुए। यूनीकोड आया तो और हुए। अभी और भी बहुत होंगे। तकनीक बदलेगी , बाज़ार और मन के भाव बदलेंगे तो भाषा , शब्द और वर्तनी भी ठहर कर नहीं रह सकेंगे। यह सब भी बदलते रहेंगे। भाषा नदी है , मोड़ पर मोड़ लेती रहेगी। कभी करवट , कभी बल खा कर , कभी सीधी , उतान बहेगी। बहने दीजिए। रोकिए मत। वीरेंद्र मिश्र लिख गए हैं , नदी का अंग कटेगा तो नदी रोएगी। भाषा और नदी कोई भी हो उसे रोने नहीं दीजिए , खिलखिलाने दीजिए।
हम हिंदी की जय जयकार करने वाले कुछ थोड़े से बचे रह गए लोगों में से हैं । हिंदी हमारी अस्मिता है । हमारा गुरुर , हमारा मान है । यह भी सच है कि सब कुछ के बावजूद आज की तारीख में हिंदी भारत में सर्वाधिक बोली जाने वाली भाषा है । पर एक निर्मम सच यह भी है कि आज की तारीख में हिंदी की जय जयकार वही लोग करते हैं जो अंगरेजी से विपन्न हैं । हम भी उन्हीं कुछ विपन्न लोगों में से हैं । जो लोग थोड़ी बहुत भी अंगरेजी जानते हैं , वह हिंदी को गुलामों की भाषा मानते हैं । अंगरेजी ? अरे मैं देखता हूं कि मुट्ठी भर उर्दू जानने वाले लोग भी हिंदी को गुलामों की ही भाषा न सिर्फ़ मानते हैं बल्कि बड़ी हिकारत से देखते हैं हिंदी को । बंगला , मराठी , गुजराती , तमिल , तेलगू आदि जानने वालों को भी इन उर्दू वालों की मानसिकता में शुमार कर सकते हैं । नई पीढ़ी तो अब फ़िल्में भी हालीवुड की देखती है , बालीवुड वाली हिंदी फ़िल्में नहीं । पढ़ी-लिखी नई पीढ़ी के लिए हिंदी अब दादी-दादा , नानी-नाना वाली भाषा है । वह हिंदी की गिनती भी नहीं जानती । सो जो दयनीय हालत कभी भोजपुरी , अवधी की थी , आज वही दयनीयता और दरिद्रता हिंदी की है । तो जानते हैं क्यों ? हिंदी को हम ने कभी तकनीकी भाषा के रुप में विकसित नहीं किया । विज्ञान , अर्थ , कानून , व्यापार कहीं भी हिंदी नहीं है । तो जो भाषा विज्ञान और तकनीक नहीं जानती , उसे अंतत: बोली जाने वाली भाषा बन कर ही रह जाना है , मर जाना है । दूसरे हिंदी साहित्य छापने वाले प्रकाशकों ने हिंदी को रिश्वत दे कर सरकारी ख़रीद की गुलाम बना कर मार दिया है । लेखक-पाठक का रिश्ता भी समाप्त कर दिया है । साहित्यकार खुद ही लिखता है , खुद ही पढ़ता है । हम हिंदी की लाख जय जयकार करते रहें , पितृपक्ष में हिंदी दिवस मनाते रहें , हिंदी अब सचमुच वेंटीलेटर पर है , बोलने वाली भाषा बन कर । ऐसे में भारतेंदु हरिश्चंद्र की यह कविता और ज़्यादा प्रासंगिक और महत्वपूर्ण हो जाती है :
मातृ-भाषा के प्रति / भारतेंदु हरिश्चंद्र
निज भाषा उन्नति अहै, सब उन्नति को मूल।
बिन निज भाषा-ज्ञान के, मिटत न हिय को सूल।।
अंग्रेज़ी पढ़ि के जदपि, सब गुन होत प्रवीन।
पै निज भाषाज्ञान बिन, रहत हीन के हीन।।
उन्नति पूरी है तबहिं जब घर उन्नति होय।
निज शरीर उन्नति किये, रहत मूढ़ सब कोय।।
निज भाषा उन्नति बिना, कबहुँ न ह्यैहैं सोय।
लाख उपाय अनेक यों भले करो किन कोय।।
इक भाषा इक जीव इक मति सब घर के लोग।
तबै बनत है सबन सों, मिटत मूढ़ता सोग।।
और एक अति लाभ यह, या में प्रगट लखात।
निज भाषा में कीजिए, जो विद्या की बात।।
तेहि सुनि पावै लाभ सब, बात सुनै जो कोय।
यह गुन भाषा और महं, कबहूँ नाहीं होय।।
विविध कला शिक्षा अमित, ज्ञान अनेक प्रकार।
सब देसन से लै करहू, भाषा माहि प्रचार।।
भारत में सब भिन्न अति, ताहीं सों उत्पात।
विविध देस मतहू विविध, भाषा विविध लखात।।
सब मिल तासों छाँड़ि कै, दूजे और उपाय।
उन्नति भाषा की करहु, अहो भ्रातगन आय।।