दयानंद पांडेय
जो भी हो अब वह कल तिरंगे में विदा होंगे। वाणी और व्यवहार में अतिशय विनम्रता लेकिन आतंक का पर्याय भी। अद्भुत कंट्रास्ट था उन के व्यक्तित्व में। नाम था हरिशंकर तिवारी। सत्तर और अस्सी का दशक के गोरखपुर और पूर्वांचल का ख़ूनी इतिहास हरिशंकर तिवारी के नाम के बिना कभी लिखा ही नहीं जा सकता। आज जब अभी-अभी उन के विदा होने की ख़बर मिली है तो जैसे किसी सिनेमा की तरह वह सत्तर-अस्सी का दशक आंखों में नाच सा गया है। फिर नब्बे का दशक भी उसी तरह झांक गया है। जब वह बाहुबली की छवि लिए दिए कल्याण सिंह के मंत्रिमंडल में शपथपूर्वक शामिल हुए। कल्याण सिंह से तो नहीं लेकिन लखनऊ के राजभवन में मैं ने तभी अटल बिहारी वाजपेयी से पूछा था कि यह क्या है पंडित जी ? अटल जी किंचित चिंतित हुए। थोड़ा पॉज लिया और बोले , ' जनता ने चुन कर भेजा है। और क्या कहें ! ' क्यों कि तब कल्याण सिंह के मंत्रिमंडल में तब हरिशंकर तिवारी ही नहीं , राजा भैया , मार्कण्डेय चंद जैसे और भी कई बाहुबली शपथपूर्वक शामिल हुए थे। राजनीतिक विवशता कम सत्ता का स्वार्थ ज़्यादा था। राजनीति में शुचिता के कायल थे अटल जी। 31 मई , 1996 को लोकसभा में अपनी सरकार के ख़िलाफ़ अविश्वास प्रस्ताव पर अटल जी ने कहा था 'मैं 40 साल से इस सदन का सदस्य हूं, सदस्यों ने मेरा व्यवहार देखा, मेरा आचरण देखा, लेकिन पार्टी तोड़कर सत्ता के लिए नया गठबंधन करके अगर सत्ता हाथ में आती है तो मैं ऐसी सत्ता को चिमटे से भी छूना पसंद नहीं करूंगा।' उन की सरकार गिर गई थी। लेकिन यह 1997 था। 1997 से 1999 तक वह कल्याण सिंह मंत्रिमंडल में थे। वर्ष 2000 में रामप्रकाश गुप्ता और 2001 में राजनाथ सिंह मंत्रिमंडल में रहे। वर्ष 2002 में मायावती मंत्रिमंडल में और वर्ष 2003 में तिवारी मुलायम मंत्रिमंडल में आ गए। जैसे इन अस्थिर सरकारों की अनिवार्यता बन कर उपस्थित हुए हरिशंकर तिवारी।
इतना नियोजित और अनुशासित जीवन जीते हुए किसी एक दूसरे माफ़िया को अभी तक नहीं देखा। नहीं उन के पहले और बाद के दिनों में भी जाने कितने माफ़िया आए और भभक कर बुझ गए। जेल हो गई। हत्या हो गई। अपमानित हुए। जाने क्या-क्या हुए। लेकिन हरिशंकर तिवारी ने सब कुछ के बावजूद न सिर्फ़ सम्मानित जीवन जिया बल्कि अपनी निर्धारित मृत्यु को पाए। स्वाभाविक मृत्यु। कहते हैं , बाढ़े पूत पिता के कर्मा , खेती बाढ़े अपने कर्मा ! तो तिवारी शायद अपने पिता के पुण्य की कमाई पर जीते रहे। हरिशंकर के पिता पुरोहित थे। सदाचारी थे। पूजा-पाठ ही उन का जीवन था। बहुत से परिवारों के वह गुरु बाबा थे। ख़ास कर यादव परिवारों के। यही यादव हरिशंकर तिवारी को बंपर वोट देते थे। पर तिवारी ठेके-पट्टे और पैसे के चक्कर इन यादवों से विमुख होते गए। मान लिया की हमारी जागीर हैं यह यादव वोट। तो दिन-ब-दिन हालत पतली हो गई। एक बार मुलायम ने गोरखपुर में बड़हलगंज की एक सभा में मुलायम सिंह को कहना पड़ा कि यहां जितने यादव हैं , हाथ उठाएं। सभी यादवों ने हाथ उठाया। मुलायम ने कहा , कसम है तुम सभी यादवों को कि हरिशंकर तिवारी को वोट देना। तब भी कोई चार सौ कुछ वोट से ही उस बार जीत पाए। और तो और मुलायम का साथ भी छोड़ दिया। मुलायम इस बात को बड़ी कसक के साथ कहते थे। कहते थे कि बताओ , सभी यादवों से हाथ उठवा कर कसम खिलाई , तब किसी तरह तिवारी जीते और हमारा साथ छोड़ गए। ख़ैर , अगले चुनाव में बसपा प्रत्याशी राजेश तिवारी ने न सिर्फ़ हरिशंकर तिवारी को हरा दिया बल्कि मायावती सरकार में मंत्री भी बने। पर हरिशंकर तिवारी ने लोकपाल के यहां शिकायत दर्ज करवा कर मुक्तिधाम ट्रस्ट मामले की जांच करवा दी। राजेश तिवारी दोषी पाए गए और मंत्री पद से त्याग पत्र देना पड़ा। 2017 के चुनाव में तिवारी के बेटे ने राजेश तिवारी को हरा दिया। अब राजेश तिवारी 2022 का चुनाव जीत कर भाजपा विधायक हैं।
हरिशंकर तिवारी भी खान-पान में सदाचारी थे। नियमित जीवन में भी। एक बार उन का विधान सभा क्षेत्र चिल्लूपार उन के साथ घूम कर लौट रहा था तो रास्ते में मेरा गांव भी पड़ा। वह मेरा गांव जानते थे। अचानक मेरे गांव पर अपना काफिला रोक कर बोले , ' आइए आप का घर भी देख लेते हैं। ' वह घर आए तो उन का पूरा काफिला आ गया। सब के चाय-नाश्ते का प्रबंध आनन-फानन हुआ। लेकिन उन्हों ने कुछ भी ग्रहण करने से इंकार कर दिया। बहुत दबाव पर बोले , ' अगर गाय की दही हो तो ले लूंगा। ' संयोग से उस समय मेरे घर पर दूध देने वाली दो गाय थीं। सो गाय की दही भी उपलब्ध थी। जब वह दही खाने लगे तो उन के कुछ ख़ास लोग चकित थे। मेरे छोटे भाई से उन का एक लेफ्टिनेंट बोला , ' पंडित जी कहीं कुछ खाते नहीं हैं। पर यहां तो दही खा रहे हैं। ज़रुर कोई ख़ास बात है। ' सचमुच वह हर बात में एहतियात बरतते थे। खान-पान और यात्रा में भी। यात्रा का रूट भी वह अचानक बदल देते थे। एक ही यात्रा में कार भी वह कई बार बदलते रहते थे। कभी इस कार में कभी उस कार में। कभी आगे बैठ जाते , कभी पीछे। ट्रेन से तो कभी चलते ही नहीं थे। कहते थे कि ट्रेन से चलूं तो पता नहीं कहां चेन पुलिंग कर के कोई मार दे। जहाज का टिकट रखा ही रह जाता , वह बाई रोड चल देते थे। बाई रोड चलने का कार्यक्रम होता , वह जहाज पकड़ लेते। लखनऊ से गोरखपुर अमूमन लोग अयोध्या होते हुए जाते हैं। वह गोंडा या सुल्तानपुर , आज़मगढ़ होते हुए भी चले जाते थे। लोगों की नींद उड़ाने वाले तिवारी ख़ुद नहीं सो पाते थे। बहुत कम सोते थे। कोइ दो घंटे। अमूमन रात दो से चार बजे तक। वह सोते भी थे तो चार-छ लोग उन के सोने की निगरानी में होते। सरकारी सुरक्षाकर्मी वह रखते नहीं थे। अपने निजी सुरक्षा साथियों को भी अकसर बदलते रहते थे। मृत्यु सर्वदा उन के क़रीब होती थी। सो कभी किसी पर आंख मूंद कर भरोसा नहीं करते थे। अपने आप पर भी नहीं। अपने को कसौटी पर सर्वदा कसते रहते थे। अपने भांजे गणेश शंकर पांडेय पर ज़रुर ज़्यादा विश्वास किया। ठेके-पट्टे में भी और राजनीति में भी। गणेश पांडेय भी उन के प्रति समर्पित थे। इसी लिए विधान परिषद् अध्यक्ष की कुर्सी तक पहुंचे। ठेके में उन के गंगोत्री इंटरप्राइजेज ने भी बहुत उत्कर्ष देखा। अरबों-खरबों में खेला। गंगोत्री हरिशंकर तिवारी की मां का नाम है।
हरिशंकर तिवारी के ख़िलाफ़ मैं ने बहुत लिखा है। उन के लोगों ने मुझे धमकियां भी बहुत दीं। मेरी ससुराल तक धमकी पहुंची। जान से मारने तक की धमकी। मैं ने हरिशंकर तिवारी के दो इंटरव्यू लिए। एक गोरखपुर जेल में , दूसरा लखनऊ जेल में। वह मुझ से सर्वदा पूरे सम्मान के साथ बात करते। रऊरे कह कर संबोधित करते। एक बार गोरखपुर जेल में मैं ने उन से पूछा , ' आप बड़ी धमकियां दिलवाते हैं , मुझे ! '
वह फ़ौरन हाथ जोड़ कर बोले , ' रऊरे का कहत हईं ? ई सब हमरे दुश्मन लोगन क काम है। हमें बदनाम करे खातिर ! वह अकसर चलते समय मुझे बाहर तक छोड़ने आते। घर में घर के बाहर तक। जेल में , जेल के गेट तक। बाद में जब वह मंत्री हो गए तो न मैं कभी उन से मिलने गया न उन्हों ने मुझे कभी बुलाया। बिना बुलाए मैं किसी से मिलने जाता भी नहीं। या फिर अख़बार किसी ख़बर या इंटरव्यू के लिए एसाइन करे तब जाता था। मेरी बीट में भी कभी उन का कोई मंत्रालय नहीं रहा। हां , जब उन्हें पहली बार विज्ञान और पर्यावरण मंत्रालय मिला तो उन के समर्थक बहुत क्षुब्ध थे। अकसर कहते फिरते कि यह तो पंडित जी का अपमान है। एक बार वीरेंद्र शाही के एक समर्थक पत्रकार ने इस पर प्रतिक्रिया देते हुए कहा , पंडित जी का अपमान है यह ? अरे प्रदेश के वैज्ञानिकों और पर्यावरणविदों का अपमान है यह ! हरिशंकर तिवारी को ले कर गोरखपुर के बिगड़ैल युवा ब्राह्मणों में एक समय बड़ा क्रेज था। सब उन्हें पंडित जी नाम से संबोधित करते। कटे आम की तरह उन के चरणों में गिरते और नथुने फुला कर बाहर निकलते। जैसे जाने कितनी ऊर्जा मिल गई हो उसे। बाद के समय में जो जितना झुक कर पंडित जी के चरण छूता , उस के लिए वह कहते , बाहर यही सब से ज़्यादा मुझे बेचेगा। सच भी यही था। अस्सी के दशक में गोरखपुर के हर गांव में पंडित जी को बेचने वाले कुछ युवा मिल जाते। नान ब्राह्मण भी। पंडित जी ब्रांड थे गुंडई के। पंडित जी के इन शिष्यों से पूरा गांव-जवार दहशत में रहता।
यह सत्तर-अस्सी का दशक था। पूरब से पश्चिम तक ठेके पट्टे में हरिशंकर तिवारी का ही नाम चलता था। शराब हो , कोयला हो , वन हो , पी डब्लू डी , सिंचाई या फिर रेल। हर कहीं तिवारी का दबदबा। तिवारी सिंडिकेट का तब कोई जवाब नहीं था। पश्चिम में डी पी यादव भी बाद में तिवारी के आशीर्वाद से खड़ा हुआ। वीरेंद्र शाही वगैरह तिवारी के आगे कुकुरमुत्ते की तरह थे। तब तो यह था कि तिवारी को देखना ही दुर्लभ था। हरिशंकर तिवारी बस नाम था। ब्रांड था। दूर-दूर तक। एक से एक कहानियां और किवदंतियां हरिशंकर तिवारी के बारे में चलती थीं। ऐसा दहशत भरा नाम मैं ने अभी तक दूसरा नहीं देखा। गोरखपुर में गोलघर जैसे भरे बाज़ार में बलवंत सिंह जैसे लोग मार दिए गए। विधायक रवींद्र सिंह सुबह-सुबह रेलवे स्टेशन पर मार दिए गए। डंवरपार जैसे बाज़ार में एक साथ सात लोग मार दिए गए। हरिशंकर तिवारी को एम एल सी चुनाव में 11 वोट से हराने वाले शिवहर्ष उपाध्याय की उन्हीं के कालेज में भरी बरसात में बस्ती में हत्या हो गई। और भी तमाम हत्याएं। ऐसे जैसे कोई फ़िल्म हो। हत्याओं और उगाही के नित नए क़िस्से। अपहरण कब किस का हुआ , कौन छूटा , कोई जान भी नहीं पाता था। नतीज़ा यह था कि गोरखपुर और पूर्वांचल में व्यापार और उद्योग ठप्प ! वीरेंद्र शाही तो अस्पताल में भर्ती रहता था और अपराध के नित नए रिकार्ड बनाता था। हत्या और डकैती कर के अस्पताल में आ कर सो जाता था। महीनों अस्पताल में भर्ती रहता। किसी डाक्टर , किसी डी एम , किसी एस पी की हैसियत नहीं थी कि अस्पताल से उसे निकाले। अस्पताल में भर्ती होने के कारण कोई एफ आई आर भी मुमकिन नहीं थी। तिवारी और शाही के ठेके-पट्टे विवाद को ब्राह्मणवाद-ठाकुरवाद का रंग दिया गया। जब कि ऐसा नहीं था। हक़ीक़त तो यह थी कि हरिशंकर तिवारी का मुख्य सुरक्षा करने वाला ठाकुर था। कई सारे ठाकुर भी तिवारी गैंग में थे। इसी शाही के गैंग में भी बहुत से ब्राह्मण थे।
एक समय हरिशंकर तिवारी और वीरेंद्र शाही के कारनामों और अपराध के चलते गोरखपुर की तुलना अमरीका के शिकागो से की जाती थी। बी बी सी पर रिपोर्ट आती थी। लेकिन हरिशंकर तिवारी ने कभी मीडिया को इंज्वाय नहीं किया। जब कि मीडिया पर उन की पकड़ और संपर्क बहुत बढ़िया और ज़बरदस्त रहा है। गोरखपुर से लखनऊ तक बहुत से मीडियाकर्मियों से उन के मधुर संबंध रहे हैं और कि हैं। तिवारी ने कई सारे मीडियाकर्मियों की नौकरी भी खाई और बहुत सारे मीडियाकर्मियों को नौकरियां भी दिलवाते रहे। कई बार तो संपादक भी वह तय करवा देते थे। ख़बरों को प्लांट करने में उन का जवाब नहीं था। लेकिन कैमरे आदि के सामने आने से वह मुसलसल बचते रहते थे। गोरखपुर के अखबारों में एक समय तो बाक़ायदा तय हो गया था कि जितनी ख़बर माफ़िया हरिशंकर तिवारी की छपेगी , उतनी ही माफ़िया वीरेंद्र शाही की भी। एक लाइन या एक कालम भी कम नहीं। सालों-साल यह सिलसिला चला है। कहूं कि कोई तीन दशक तक यह सिलसिला जारी रहा।
गोरखपुर के पत्रकारों में इस बात को ले कर बहुत दहशत रहती थी। एक बार दैनिक जागरण , कानपुर से ट्रांसफर हो एक रिपोर्टर झा साहब गोरखपुर पहुंचे। हरिशंकर तिवारी के ख़िलाफ़ एक विज्ञप्ति टाइप ख़बर छाप दिया। तिवारी के लोगों ने झा को फ़ोन कर तिवारी के घर बड़े मनुहार से बुलाया। जिसे गोरखपुर में हाता नाम से पुकारा जाता है। रिपोर्टर झा पहुंचे तिवारी के घर। बड़ी विनम्रता से तिवारी ने उन का स्वागत किया। उन की ख़ूब तारीफ़ की। और बर्फी भरी एक प्लेट रख दी। कहा खाइए। और लीजिए , और लीजिए की मनुहार भी करते रहे। झा भी अजब पेटू थे। कोई 32 बर्फी खा गए। फिर जब चलने लगे तो झा को लगातार 32 झन्नाटेदार थप्पड़ भी रसीद किए गए। जितनी बर्फी , उतने ही थप्पड़। झा के गाल लाल ही नहीं , गरम भी हो गए। वह भयवश कोई प्रतिरोध भी नहीं कर पाए। ध्वस्त हो कर वह किसी तरह दफ़्तर पहुंचे और रो पड़े। फूट-फूट कर रोए। कहा कि उन का ट्रांसफर तुरंत वापस कानपुर कर दिया जाए। गोरखपुर में वह अब एक दिन भी नहीं रहना चाहते। तुरंत तो नहीं पर जल्दी ही उन का ट्रांसफर वापस कानपुर हो गया।
हरिशंकर तिवारी और गोरखनाथ मंदिर का रिश्ता सर्वदा से छत्तीस का रहा है। हरिशंकर तिवारी का माफ़िया अवतार ही गोरखनाथ मंदिर के ख़िलाफ़ हुआ। यह अवतार करवाया था एक आई ए एस अफ़सर सूरतिनारायण मणि त्रिपाठी ने। गोरखपुर विश्विद्यालय के फाउंडर मेंबर थे तब गोरखनाथ मंदिर के महंत दिग्विजय सिंह। गोरखपुर के तत्कालीन कमिश्नर सूरतिनारायण मणि त्रिपाठी भी फाउंडर मेंबर थे। थे तो आचार्य कृपलानी जैसे लोग भी। पर कार्यकारिणी की जब भी कोई बैठक होती दिग्विजयनाथ भारी पड़ जाते। मंदिर के लठैत दिग्विजयनाथ के लिए खड़े हो जाते। लाचार हो कर सूरतिनारायण मणि त्रिपाठी ने एक दबंग की तलाश शुरू की। हरिशंकर तिवारी तब विश्विद्यालय के छात्र थे। दबंग थे। मणि ने तिवारी को तैयार किया। मंदिर के ख़िलाफ़ खड़ा किया तिवारी को। कमलापति त्रिपाठी जैसे राजनीतिज्ञों का आशीर्वाद मिला तिवारी को। बाद के दिनों में तिवारी बड़े ठेकेदार बन गए। इस की एक लंबी अंतर्कथा है। जो फिर कभी। पर तिवारी के खिलाफ दो मोर्चे लगातार खुले रहे। एक गोरखनाथ मंदिर का दूसरे , वीरेंद्र शाही का। बीच-बीच में और भी कई। फिर 1986 में जब वीरबहादुर सिंह मुख्य मंत्री हुए तो उन्हों ठेके -पट्टे के मामले में न सिर्फ़ तिवारी की कमर तोड़ दी बल्कि एन एस लगा कर तिवारी और शाही दोनों को जेल भेज दिया।
बाद के दिनों में समय पलटा और तिवारी कैबिनेट मंत्री भी बने। शाही की हत्या हो गई। पर मंदिर और हाता का मोर्चा खुला रहा। फिर जब योगी मुख्य मंत्री बने 2017 में तो तिवारी मीडिया तो छोड़िए , सार्वजनिक जीवन से भी अपनी सक्रियता समाप्त कर दी तिवारी ने। अपने दोनों बेटों को भी निष्क्रिय करवा दिया। शुरू -शुरू में कुछ छापेमारी वगैरह हुई। पर मौक़े की नज़ाकत को देखते हुए जैसे मेढक ग़ायब हो जाता है , सर्दी और गर्मी में , पूरी तरह ग़ायब हो गए। अब तो सुनता हूं , बढ़ती उम्र के कारण वह अस्वस्थ भी हैं। हरिशंकर तिवारी और चाहे जो हों , आप जो भी कहें पर उन के तीन-चार गुण बहुत प्रबल हैं। एक तो वह निजी बातचीत में अतिशय विनम्र हैं। अहंकार बिलकुल नहीं है। शराब , औरत आदि का व्यसन बिलकुल नहीं है। उन के होमो होने की बात ज़रुर चर्चा में रही है। फिर रास्ता कैसे बदला जाता है , उत्तर प्रदेश के उप मुख्यमंत्री बृजेश पाठक से सीखना चाहिए। ज़िक्र ज़रूरी है कि बृजेश पाठक एक समय न सिर्फ़ ठेकेदारी बल्कि दबंगई में भी हरिशंकर तिवारी के ख़ास लेफ्टिनेंट रहे हैं। यहां तक कि लखनऊ विश्वविद्यालय छात्र संघ का चुनाव भी हरिशंकर तिवारी का आशीर्वाद ले कर वह विजयी हुए थे।
वैसे भी जो होशियार अपराधी होते हैं , सत्ता के ट्रक से अपनी साइकिल को नहीं लड़ाते। हरिशंकर तिवारी ने भी तमाम विपरीत स्थितियां बारंबार देखीं पर कभी ऐसा नहीं किया। योगी जब पहली बार 2017 में मुख्य मंत्री बने तो हरिशंकर तिवारी ने तुरंत अपना ढंढ-कमंडल संभाल कर सार्वजनिक जीवन से अंतर्ध्यान हो गए। परिजनों और सहयोगियों को समझा दिया , ख़ामोश ! सब ने ख़ामोशी को ओढ़ना-बिछौना बना लिया। और अब वह ख़ुद ससम्मान ख़ामोश हो गए हैं। सम्मानजनक मृत्यु इसे ही तो कहते हैं। नहीं एक से एक वीरेंद्र शाही , श्रीप्रकाश शुक्ल , ओमप्रकाश पासवान जैसे तमाम माफ़िया और बाहुबली अपमानजनक मृत्यु को प्राप्त हुए। अब देखिए न अमरमणि त्रिपाठी को। मधुमिता शुक्ला हत्याकांड में अस्पताल से ही सही जेल काट रहे हैं। तो अमरमणि त्रिपाठी को जेल भेजने की बिसात भी इन्हीं हरिशंकर तिवारी ने बिछाई। नहीं मधुमिता शुक्ला की बहन निधि शुक्ला के अकेले के बूते की बात नहीं थी। अमरमणि त्रिपाठी भी एक समय वीरेंद्र शाही , बृजेश पाठक की तरह ही हरिशंकर तिवारी के लेफ्टिनेंट थे। पर बाद में ठेके पट्टे के विवाद और वर्चस्व को ले कर जैसे वीरेंद्र शाही तिवारी से अलग हो गए उसी तरह अमरमणि त्रिपाठी भी तिवारी से अलग हो गए। अमरमणि ने बाद के दिनों में बड़ी ग़लती यह की कि श्रीप्रकाश शुक्ला को हरिशंकर तिवारी को मारने की सुपारी दे दी। हरिशंकर तिवारी ने साक्षी महराज के मार्फ़त कल्याण सिंह को समझा दिया कि श्रीप्रकाश शुक्ला कल्याण सिंह को मारना चाहता है। कल्याण सिंह ने एस टी एफ़ गठित की और श्रीप्रकाश शुक्ला ही मारा गया। जीवन जीने में ही नहीं , अपराध और विरोधी को भी निपटाने की कला की एक मुकम्मल किताब हैं हरिशंकर तिवारी। जिस को यह सब सीखना हो , हरिशंकर तिवारी नाम की यह किताब ज़रुर पढ़े। और यह भी जानें कि हरिशंकर तिवारी के ख़िलाफ़ सैकड़ो मामले दर्ज हुए पर कभी किसी मामले में कोई सजा नहीं हुई। सजा ? अरे कोई चार्जशीट भी नहीं। सभी फाइलें धूल खा कर जाने किस नमक में घुल गईं। वह कहते भी थे , ' राम-राम हम ने तो कभी कोई चींटी भी नहीं मारी ! लोग नाहक बदनाम करते हैं। '
मृत्यु पाया व्यक्ति कैसा भी हो , दस्तूर है श्रद्धांजलि देने का। हरिशंकर तिवारी को विनम्र श्रद्धांजलि !