Friday, 31 December 2021

अखिलेश से बौखलेश होते जाने की यातना

दयानंद पांडेय 

अखिलेश से बौखलेश होते जाने की यातना की यात्रा पर ग़ौर कीजिए। जब राजीव राय आदि के यहां छापा पड़ा तो अखिलेश यादव बोले अभी तो सी बी आई भी आएगी , ई डी भी आएगी। पीयूष जैन के यहां छापा पड़ा तो अखिलेश यादव बोले , सॉफ्टवेयर ने दांव दे दिया। अपने आदमी के ख़िलाफ़ छापा डाल दिया। अरबों रुपया और सोना-चांदी निकला तो बोले , सब भाजपा का है। सब कुछ भाजपा का था तो आप के पेट में मरोड़ क्यों उठी भला। अब जब सपा एम एल सी पुष्पराज जैन के यहां छापा पड़ा है तो अपील कर रहे हैं कि चुनाव तक छापे डलवाना बंद किया जाए। क्यों भाई , किस ख़ुशी में ? ग़ज़बेस्ट हैं अखिलेश यादव। टोटी ख़राब हो गई है। भ्रष्टाचार का सारा पानी बहा जा रहा है। टोटी बंद ही नहीं हो रही। बस यात्रा रुपी विजय यात्रा का खर्च निकालना कठिन होता जा रहा है। दंगा करवा नहीं पा रहे। सपाई इत्र की बदबू सिर चढ़ कर बोल रही है सो अलग। राजनीतिक ज़ुबान बोलने आती नहीं। 

अटल बिहारी वाजपेयी याद आते हैं। एक बार लखनऊ से चुनाव में अटल जी के ख़िलाफ़ रामजेठ मलानी कांग्रेस के टिकट पर चुनाव लड़ने आ गए। जेठमलानी अटल जी की कैबिनेट में क़ानून मंत्री रह चुके थे। पर किसी बात पर नाराज हो कर वह भाजपा से अलग हो गए। एक समय वह राजीव गांधी के बोफ़ोर्स  घोटाले के समय रोज पांच सवाल पूछते थे। राजीव गांधी के पास कोई जवाब नहीं रहता। तो बोफ़ोर्स की तर्ज पर जेठमलानी ने लखनऊ में अटल जी से भी रोज पांच सवाल पूछते थे। अटल जी हरदम लखनऊ में नहीं रहते थे। एक बार लखनऊ आए अटल जी तो पत्रकारों ने उन से जेठमलानी के सवालों के बाबत सवाल किया।

अटल जी ने एक लंबा पॉज लिया और बोले , मेरे मित्र राम जेठमलानी को नहीं मालूम कि चुप रहना भी एक कला है। अगले दिन से जेठमलानी के रोज के सवाल स्वत: समाप्त हो गए। जेठमलानी चुनाव में ज़मानत ज़ब्त करवा कर लखनऊ से विदा हुए थे तब। अखिलेश यादव भी अगर राजनीतिक सूझ-बूझ रखते तो इन छापों पर ख़ामोश रहते। बात इतनी नहीं बिगड़ती। पर समाजवादी इत्र की बदबू में तबाह और त्रस्त हो कर वह तो जब देखिए लाल टोपी लगा कर किसी सांड़ के आगे खड़े होने के अभ्यस्त होते जा रहे हैं। अखिलेश से बौखलेश हुए जा रहे हैं। छापे योगी नहीं , मोदी की सरकार डलवा रही है पर वह निशाना मोदी नहीं , योगी पर साध रहे हैं। क्यों कि राहुल गांधी की संगत में रहने के बावजूद इतना तो वह सीख ही गए हैं कि सीधे मोदी से नहीं टकराना है। मोदी से टकराएंगे तो चूर-चूर हो जाएंगे। अरविंद केजरीवाल ने बीते दिल्ली चुनाव में यही किया था। मोदी से सीधे नहीं टकराए थे। पर अखिलेश को अभी अपने बौखलेश से भी छुट्टी लेना सीखना होगा। और जानना होगा कि योगी , शिवपाल यादव नहीं हैं। कई मामलों में वह मोदी से भी आगे हैं। 

छोटे-छोटे दलों से समझौता कर लेने से ही चुनाव मुट्ठी में नहीं आ जाता। फिर वह भूल रहे हैं कि इन छोटे दलों में ओमप्रकाश राजभर जैसे उठल्लू और मुंगेरीलाल की तरह सपने देखने वाले लोग भी हैं। जो पांच साल में पांच मुख्य मंत्री और दस उप मुख्य मंत्री बनाने की योग्यता रखते हैं। जयंत सिंह जैसे आधारहीन लोग हैं। किसान आंदोलन का कोहरा छंट चुका है। कैराना से पलायन का कांरवां कैराना लौट चुका है। मुज़फ्फर नगर के दंगों की कराह अभी लोग भूले नहीं हैं। फिर अयोध्या , काशी , मथुरा का जादू सिर चढ़ कर बोल रहा है। जिन्ना कार्ड धूल-धूसरित है इस जादू के आगे। जिन्ना कार्ड , आ बैल मुझे मार की तरह पेश आ रहा है। 

अखिलेश को यह भी जान लेना चाहिए कि सिर्फ़ दंगों की साज़िश रच कर , पैसा खर्च कर चुनाव अब नहीं जीते जा सकते। यह औज़ार अब पुराने पड़ चुके हैं। अगर यह औज़ार क़ामयाब होते तो कांग्रेस सपा से बहुत आगे होती। क्यों कि कांग्रेस के पास अखिलेश से कहीं बहुत ज़्यादा पैसे हैं। और कि दंगा की साज़िश रचने में भी वह अखिलेश से इक्कीस है। ऐसे ही पैसे खर्च कर बटुरी भीड़ अगर कामयाब होती तो 2014 और 2019 में नरेंद्र मोदी नहीं , राहुल गांधी प्रधान मंत्री हुए होते। क्यों कि तब राहुल गांधी की सभाओं में भी बेहिसाब भीड़ थी। इवेंट मैनेजर राहुल के पास भी थे और हैं। पर उस भीड़ को , उस इवेंट को वह वोट में तब्दील नहीं कर पाए। किराए की भीड़ माहौल बना देती है पर वोट में ठेंगा दिखा देती है। जान यह लेने में भी नुक़सान नहीं है कि इवेंट मामले में नरेंद्र मोदी के आगे अभी सभी लल्लू हैं। पैसा भाजपा के पास भी अकूत है। 

फिर पैसे के मामले में तो मायावती तक अखिलेश से बीस हैं। लेकिन वह मुसलसल चुप हैं। लाल ? अरे नीली टोपी लगा कर भी उन के लोग किसी सांड़ के आगे खड़े नहीं हो रहे। अब से ही सही अखिलेश को यह एक बात भी ज़रुर जान लेनी चाहिए कि इस उत्तर प्रदेश के चुनाव में उन का मुक़ाबला भाजपा या योगी से नहीं , मायावती और उन की बसपा से है। मुक़ाबला इस अर्थ में कि नंबर दो पर सपा रहेगी कि बसपा। क्यों कि नंबर एक पर तो भाजपा बहुत मज़बूती से खड़ी है। अंगद के पांव की तरह अडिग। बहुत मुमकिन है कि 2022 में 2017 से ज़्यादा सीट भाजपा ले आए। ज़मीनी राजनीति की हक़ीक़त तो फिलहाल यही है। आप की कमिटमेंट वाली राजनीति कुछ और कहती है तो बात अलग है। वह आप जानिए। वह आप की दुविधा और सुविधा है। इस लिए भी 2022 में बाइसकिल का नारा दब जाता है क्यों कि लोगों को चढ़ गुंडों की छाती पर , मुहर लगेगी हाथी पर ! नारा भी याद आ जाता है। हाथी पर मुहर लगाने की बात पर मायावती का भ्रष्टाचार भारी पड़ जाता है। उन के साथ गुंडई , भ्रष्टाचार और यादववाद का जहर है तो इन के पास भ्रष्टाचार और दलित क़ानून का कहर है। यह जहर और कहर उत्तर प्रदेश के लोग सदियों में भूल पाएंगे। मुस्लिम तुष्टिकरण की बीन भी दोनों के पास है। 

तिस पर अखिलेश पर सब से बड़ा इल्जाम पिता मुलायम की पीठ में छुरा  घोंपने का  है। लोग कहते ही रहते हैं कि जो अपने बाप का नहीं हुआ , वह किसी का नहीं हो सकता । लोग औरंगज़ेब से उन की तुलना करते हुए , उन्हें औरंगज़ेब कह देते हैं। खिलाने-पिलाने , पालने-पोसने , पढ़ाने-लिखाने वाले चाचा शिवपाल सिंह यादव के साथ उन का अपमानजनक व्यवहार भी सब के सामने है। 2017 में अखिलेश की हार का यह बड़ा फैक्टर था। अभी भी है। गायत्री प्रजापति और आज़म खान जैसों के आगे उन का बेभाव समर्पण भी लोग कहां भूले हैं। वैसे भी उत्तर प्रदेश की सत्ता कोई लखनऊ का विक्रमादित्य मार्ग नहीं है जिस पर स्थित सभी प्राइवेट बंगले अपने और अपने परिवार के लोगों के नाम आने-पौने दाम पर रजिस्ट्री करवा कर हथिया लिया जाए और कोई चूं तक न कर पाए। कितने लोग जानते हैं कि लखनऊ का समूचा विक्रमादित्य मार्ग अखिलेश यादव और उन के परिवारीजनों के नाम है ? कांग्रेस से जुड़े वकील विश्वनाथ चतुर्वेदी तो बाक़ायदा अखिलेश यादव का नाम ले कर तमाम फर्जी कंपनियों का मालिक उन्हें बता रहे हैं। अखिलेश इस पर क्यों चुप हैं ? क्यों नहीं कुछ बोलते ? फिर सुप्रीम कोर्ट ने हाल ही मुलायम और अखिलेश के परिवारीजनों की आय से अधिक संपत्तियों के बाबत सी बी आई से फिर से स्टेटस रिपोर्ट मांगी है। जिसे बीते पंद्रह-बीस बरसों से मुलायम दबवाए हुए हैं। लेकिन अखिलेश तो इस पर भी ख़ामोश हैं।  

फिर अखिलेश की तरह बौखलाहट और गुरुर में चूर उन के प्रवक्ताओं के भी क्या कहने ! अनुराग भदौरिया जैसे अभद्र , बड़बोले , मनबढ़ , मानसिक रुप से विक्षिप्त और जहरीले प्रवक्ताओं की फ़ौज भी उन का सत्यानाश कर रही है। याद कीजिए 2014 में इसी तरह कांग्रेस की तरफ से संजय निरुपम , शक़ील जैसे मनबढ़ और जहरीले लोग कांग्रेस का सत्यानाश करने में बढ़-चढ़ कर आगे थे। कांग्रेस के पास अभी भी पवन खेड़ा , गौरव वल्लभ , सुप्रिया श्रीनेत , अखिलेश सिंह जैसे बदमिजाज प्रवक्ताओं की फ़ौज खड़ी है , कांग्रेस पर कुल्हाड़ी मारती हुई। किसी भी पार्टी के प्रवक्ता को शालीन , शार्प , शांत और सभ्य होना चाहिए। प्रवक्ता बड़बोला , मनबढ़ नहीं। ऐसा प्रवक्ता जो मां को मां ही कहे पिता की पत्नी नहीं। जैसे कांग्रेस के पास कभी जनार्दन द्विवेदी थे। भाजपा के पास अभी सुधांशु त्रिवेदी हैं। 

बहरहाल आप पूछ सकते हैं कि फिर उत्तर प्रदेश विधान सभा के इस चुनाव में कांग्रेस ? तो कांग्रेस तो इस बार रेस में भी वैसे ही है जैसे किसी रेस में सिर्फ़ तीन लोग दौड़ें और एक आदमी तीसरे नंबर पर आ जाए। दिक़्क़त यह भी है कि इस बार कांग्रेस को मुसलमान भी वोट नहीं देने जा रहा। रही बात लड़की हूं , लड़ सकती हूं की रैलियों में भीड़ की , तो स्कूटी आदि लेने की रेस है और कुछ नहीं। राहुल गांधी की खटिया वाली पंचायत की याद होगी ही आप को। कि लोग पंचायत में नहीं , खटिया ले कर जाने के लिए आए थे। और अवसर मिलते ही खटिया ले-ले कर भागे थे। तो यहां तो स्कूटी आदि-इत्यादि है ले जाने के लिए।

Wednesday, 24 November 2021

अपने टोटी चोर के साथ मुस्कुराहट में गलगल कुमार विश्वास

दयानंद पांडेय 

बताइए कि यही कुमार विश्वास कभी टोटी चोर बताते थे , मुलायम के टीपू को। तबीयत भर तंज कसते थे। अब यह इन्हीं टोटी चोर के साथ मुस्कुराहट में गलगल हैं। राज्यसभा जाने की अकुलाहट जो-जो न करवा दे। अरविंद केजरीवाल से भी कभी ऐसी ही गलबहियां थी कुमार विश्वास की। अन्ना आंदोलन में शिरक़त कर अरविंद केजरीवाल से दोस्ती गांठी थी। केजरीवाल सरकार बनी तो केजरीवाल की कोर टीम के मेंबर थे। अरविंद केजरीवाल के कान पकड़ कर बेलाग कोई कुछ कह सकता था तो वह कुमार विश्वास ही थे। 

यक़ीन न हो तो यू ट्यूब पर उपस्थित कुछ निजी वीडियो देख लें। कवि सम्मेलनों की फीस भी इस बीच हज़ारों से उठ कर लाखों में पहुंच गई। पर राज्यसभा का सपना पाल लिया। प्रशांत भूषण , आशुतोष की ही तरह इन की राज्यसभा की ख़्वाहिश भी धूल में उड़ गई तो केजरीवाल से कुट्टी कर ली। नरेंद्र मोदी शरणम गच्छामि हुए। रामायण पर प्रवचन वग़ैरह भी शुरु किया। रामदेव को पुल बनाया। पर रामदेव ख़ुद ही के इंतज़ाम में गच्चा खा गए। एक चिट फंड कंपनी की पैरोकारी में मोदी के आगे बौने हो गए रामदेव। और भी कई पुल बनाए-जोड़े पर राज्यसभा के लिए कोई पुल काम नहीं आया। 

तो टोटी चोर भैया को साधने आ गए लखनऊ। टोटी यादव सरकार भले न बना पाएं उत्तर प्रदेश में पर इतनी सीटें तो ले ही आएंगे 2022 में कि कविराज कुमार विश्वास को राज्यसभा भेज दें। तो यह मुस्कुराहट की मिसरी इसी पाग में बनी हुई है। तिस पर सोने पर सुहागा यह कि कविराज जब कल लखनऊ में टोटी यादव के चाचा रामगोपाल यादव पर एक किताब के विमोचन कार्यक्रम में कविताई में मुलायम के क़सीदे काढ़ रहे थे तो मुलायम इन से इतने प्रभावित हो गए कि इस अवसर पर मंच पर उपस्थित एक दूसरे कविराज उदय प्रताप सिंह यादव से कान में कह दिया कि अगर यह कहीं किसी और पार्टी में न हों तो अपने यहां ले लिया जाए। 

कान में कही गई मुलायम की इस बात को अपने उदबोधन में उदय प्रताप सिंह यादव ने सार्वजनिक कर दिया। अब इस घोषणा के बाद राज्यसभा जाने के लड्डू मन में न फूटें , यह तो मुमकिन नहीं है। गौरतलब है कि उदय प्रताप सिंह यादव भी ठीक-ठाक मंचीय कवि हैं। ख़ासियत यह कि मुलायम सिंह यादव उदय प्रताप सिंह यादव के छात्र रहे हैं और साथ-साथ पढ़ाया भी है। 

मुलायम एक समय पहलवान बनने के लिए बोर्ड का इम्तहान छोड़ना चाहते थे। शिलांग में कोई कुश्ती मुक़ाबला था। उसी बीच यू पी बोर्ड का इम्तहान था। मुलायम बोर्ड का इम्तहान छोड़ , कुश्ती मुक़ाबला के लिए शिलांग जाने की तैयारी कर बैठे। तब उदय प्रताप सिंह यादव ने ही मुलायम को इम्तहान नहीं छोड़ने की सलाह दी। मुलायम सिंह यादव मान गए। कभी वामपंथी सांसद रहे उदय प्रताप सिंह अपने छात्र मुलायम सिंह यादव को अब साहब ! कह कर संबोधित करते हैं। 

मुलायम उदय प्रताप सिंह यादव को दो बार राज्यसभा भेज चुके हैं। लगता है अब कुमार विश्वास भी टोटी यादव को साहब ! कह कर संबोधित करेंगे। सो राज्यसभा अब पक्की ही समझिए। गुलज़ार , जावेद अख़्तर की तरह कुमार विश्वास भी मौलिक कवि नहीं हैं। पर गुलज़ार और जावेद अख़्तर ही की तरह कुमार विश्वास भी बाक़माल प्रस्तोता हैं। हां , बस फ़िल्मी नहीं हैं। पर कवि सम्मेलनों और मुशायरों के मंचों पर इन दोनों से न सिर्फ़ ज़्यादा लोकप्रिय हैं , पैसे भी इन से कहीं ज़्यादा बल्कि बहुत ज़्यादा लेते हैं। कुमार विश्वास कवि सम्मेलन ही नहीं , अन्य मंचों के भी नए ब्रांड हैं। इन की पत्नी राजस्थान सरकार में कैबिनेट मंत्री का दर्जा पाए हुई हैं। पत्नी को तो सेट कर ही चुके हैं , अब अपनी सेटिंग में सफल होते हैं कि अगेन असफल , देखना दिलचस्प होगा।

Sunday, 21 November 2021

कुत्तों और भक्तों का रिश्ता ऐसा ही कहलाता है।

दयानंद पांडेय 

एक बात तो है कि कृषि क़ानून की वापसी पर भक्तों ने जिस तरह नरेंद्र मोदी का डट कर और खुल कर विरोध किया है , वह अदभुत है। साफ़ कह दिया है कि इस से अच्छा होता कि आप इस्तीफ़ा दे कर झोला उठा कर चल दिए होते। संसद का इस तरह अपमान तो नहीं होता। और जाने क्या-क्या। पर एजेंडे पर चलने वाले विभिन्न कुत्ते कभी भी अपने-अपने हाईकमान , पोलित ब्यूरो या परिवार मुखिया के ख़िलाफ़ ऐसा बोलना और विरोध करना सपने में भी नहीं सोच सकते। अगर हाईकमान , पोलित ब्यूरो , सपा आदि-इत्यादि परिवार का मुखिया कह दे कि तुम लोग अपने बाप के नहीं , हमारे ही पैदा किए हुए हो। तब भी इन के बीच कभी कोई जुंबिश नहीं होगी। 

अनेक बार ऐसी घटनाएं घटी हैं। हाईकमान , पोलित ब्यूरो और परिवारों में। पर कभी किसी ने लब नहीं खोले। बोल कि लब आज़ाद हैं , गाने वालों ने लब सिले रखे। ले कर रहेंगे आज़ादी ! का ढोल बजाने वालों ने ग़ुलाम बने रहने में ही भलाई समझी। कुत्तागिरी असल में हाईकमान , पोलित ब्यूरो , परिवारवाद के पक्ष में इतना वफ़ादार बना देती है , एजेंडा सीमेंट बन कर ऐसा जकड़ लेता है कि वह स्वामी भक्ति से इतर कुछ सोच नहीं पाते। एक बार अगर बोल गए कि भारत तेरे टुकड़े होंगे इंशा अल्ला , इंशा अल्ला ! तो फिर उसी पर क़ायम रहेंगे। डिगेंगे नहीं। सूत भर भी नहीं। 

अगर किसी ने कुछ टोक दिया तो भक्त-भक्त कह कर भौंकने लगेंगे। दौड़ा लेंगे। भूल से अगर उन के इलाक़े में चले गए तो फिर तो आप की ऐसी ख़ातिरदारी करेंगे कि पूछिए मत। बिलो द बेल्ट भी। फिर भौंकने वाले कुत्तों से सभी बचते हैं। और मैं तो बहुत ही ज़्यादा। यह बात कुत्ते भी बहुत अच्छी तरह जानते हैं कि भक्त उन से बहुत डरते हैं। इस लिए वह तर्क और तथ्य भूल कर भक्त-भक्त भौंकते हैं।

दिलचस्प यह कि यह कुत्ते संगठित तौर पर और एक ही सुर में भौंकते हैं। बिलकुल मिले सुर मेरा तुम्हारा को फेल करते हुए। इन में एका और इन का माइंड सेट देखते बनता है। इन के विचार , स्टैंड और एजेंडा एक ही सांचे में ढले मिलते हैं। अगर एक ने ग़लती से भी कह दिया कि मेरे पृष्ठ भाग पर तो बहुत कस के लात पड़ी है ! तो सभी एक साथ बोलेंगे , मेरे भी , मेरे भी ! फिर पूछेंगे कि किसी भक्त ने मारी है क्या ? अगला बोलेगा हां ! तो फिर सभी एक सुर में भौंकेंगे , मुझे भी , मुझे भी ! क्या कीजिएगा कुत्तों और भक्तों का रिश्ता ऐसा ही कहलाता है।

इस लिए भी कि कुत्तागिरी किसी को कुछ समझने कहां देती है भला। न कोई तथ्य , न कोई तर्क। सौ सवाल को पी कर जवाब में सिर्फ़ भक्त-भक्त भौंकना ही सिखाती है। भक्तों और कुत्तों का अभी तक का रिश्ता यही है। आगे की राम जानें।

Thursday, 18 November 2021

शालीनता , अपमान और समर्पण की त्रासदी

दयानंद पांडेय 


पूर्वांचल एक्सप्रेस वे पर प्रधान मंत्री के काफिले के पीछे चलते हुए उत्तर प्रदेश के मुख्य मंत्री योगी की यह फ़ोटो कल से ही सोशल मीडिया पर ट्रोल हो रही है। अलग-अलग लोगों की राय भी अलग-अलग है। लेकिन मैं इस फ़ोटो में शालीनता , अपमान और समर्पण तीनों भाव एक साथ देख पा रहा हूं। हालां कि योगी चाहते तो काफिले के पीछे इस तरह चलने से बच सकते थे। काफिला निकल जाने के बाद अपनी गाड़ी मंगवाते या ज़रा रुक कर ही सही , पैदल चलते। तो फ़ोटो शायद फिर भी छपती , ट्रोल होती। पर यह और इस तरह तो नहीं ही। योगी की चाल में अपमान की चुभन साफ़ परिलक्षित हो रही है। पर उन की प्रधान मंत्री के प्रति , प्रोटोकॉल के प्रति शालीनता और समर्पण की पदचाप भी उपस्थित है इस फ़ोटो में । फ़ोटो देखने का अपना-अपना नज़रिया है। एजेंडा भी। पर बुद्ध की तरह तटस्थ हो कर साक्षी भाव से भी इस फ़ोटो को देखा और पढ़ा जा सकता है। जाकी रही भावना जैसी बात भी है। 

प्रधान मंत्री के साथ शीघ्र उपस्थित होने और उन का पुन: स्वागत करने की उत्सुकता भी दिखती है इस फ़ोटो में। कुछ लोगों की राय है कि प्रधानमंत्री को अपने साथ योगी को बिठा लेना चाहिए था। यह लोग इस तथ्य को भूल रहे हैं कि योगी तब अकेले नहीं थे। राज्यपाल आनंदी बाई पटेल , प्रदेश अध्यक्ष स्वतंत्र देव सिंह समेत और भी कई गणमान्य लोग वहां उपस्थित थे। किस-किस को प्रधान मंत्री अपने साथ बैठा सकते थे। किसी एक को बैठाएं तो शेष सभी का अपमान। बस यही हुआ। योगी थोड़ी फुर्ती में चल दिए तो फ़ोटो में सहसा आ गए। 

सब से ज़्यादा आनंद कांग्रेस और कम्युनिस्ट पोषित पत्रकारों , लेखकों को इस फ़ोटो में आया है। और मजा लिया है। पर ऐसे तमाम वाकये मेरी जानकारी में हैं। तो इन कुण्ठितों के लिए दो एक वाकये याद दिलाए देता हूं। वह ज़माना कांग्रेस में संजय गांधी का था। लखनऊ हवाई अड्डे पर जब संजय गांधी का जहाज लैंड किया तो संजय गांधी को रिसीव करने के तत्कालीन मुख्य मंत्री नारायणदत्त तिवारी दौड़ते हुए निकले। तब के दिनों किसी भी एयरपोर्ट पर आज जैसी व्यवस्था और सिक्योरिटी नहीं हुआ करती थी। बहरहाल , आगे भीड़ को रोकने के लिए एक रस्सी बंधी हुई थी। तिवारी जी दौड़े तो उत्साह में उस रस्सी को नहीं देख सके और उस रस्सी में उलझ कर मुंह के बल गिर गए। लेकिन उन्हों ने अपने गिरने की परवाह नहीं की। खट से उठे और मुंह पोछ कर फिर दौड़ पड़े। संजय गांधी को सब से पहले रिसीव किया। नारायण दत्त तिवारी को संजय गांधी की चप्पल उठाने के लिए भी लोग जानते हैं। बहुत बाद में तिवारी जी ने नैनीताल की एक जनसभा में सफाई देते हुए कहा था कि हां , मैं संजय गांधी जी के चप्पल उठाता हूं। इस लिए उठाता हूं कि इस पहाड़ में तरक़्क़ी ला सकूं। 

संजय गांधी के सामंती आचरण के ऐसे तमाम क़िस्से हैं। पर एक क़िस्सा पूर्व मुख्य मंत्री वीर बहादुर सिंह से भी जुड़ा है। जनता सरकार के दिनों में अमेठी दौरे से गौरीगंज जाते हुए संजय गांधी सरे राह उन्हें बेइज्जत कर के अपनी कार से उतार गए तो उस भारी काफ़िले में शामिल किसी ने भी अपनी गाड़ी में वीर बहादुर सिंह को नहीं बिठाया। इस अपमान और तिरस्कार के बावजूद वीर बहादुर गौरीगंज के डाक बंगले पैदल-पैदल पहुंचे तो संजय गांधी उन पर फ़िदा हो गए। राहुल गांधी के तो ऐसे सामंती आचरण के अनगिन क़िस्से हैं। आसाम के वर्तमान मुख्य मंत्री 

हिमंत बिस्वा सरमा तो बड़ी तकलीफ से बता चुके हैं कि जब वह कांग्रेस में थे तो राहुल गांधी से बड़ी कोशिशों के बाद मिल पाए। राहुल गांधी मिले भी तो अपनी गोद में कुत्ता बिठा कर राहुल उसे बिस्किट खिलाते रहे। हिमंत बिस्वा सरमा की तरफ देखा भी नहीं। हिमंत बिस्वा सरमा ने इस तरह अपमानित हो कर कांग्रेस ही छोड़ दी। 

फिर यहां तो प्रधान मंत्री मोदी ने इस अवसर पर अपने भाषण में मुख्य मंत्री योगी की जम कर तारीफ़ की है। उन की उपलब्धियों के गुणगान गाए हैं। शेष अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता है। कोई भी , कुछ भी आकलन कर सकता है। कह सकता है। बाक़ी जब राजीव गांधी प्रधान मंत्री थे तब इसी लखनऊ में उन के द्वारा गठित उन की ही एस पी जी ने जाने कितने मंत्रियों को , मुख्य मंत्री को धकियाया है। पत्रकारों को पीटा है। एक बार तो तत्कालीन प्रधान मंत्री राजीव गांधी के लखनऊ में एक ही दिन में तीन अलग-अलग कार्यक्रम थे। विधान सभा में , कांग्रेस दफ़्तर और सी डी आर आई में। कांग्रेस दफ़्तर में पत्रकार और फ़ोटोग्राफ़र तबीयत भर एस पी जी द्वारा पीटे गए। विरोध स्वरुप सी डी आर आई में फ़ोटोग्राफ़रों ने फ़ोटो खींचने के बजाय अपने-अपने कैमरे मंच के सामने रख दिए। तब राजीव गांधी को लगा कि कुछ गड़बड़ हो गया है। स्पष्ट पूछा राजीव गांधी ने तो उन्हें पूरा मामला बताया गया। अपने कमांडो द्वारा पत्रकारों की पिटाई को उन्हों ने ग़लत बताते हुए खेद जताया। फिर कहीं उस कार्यक्रम की कवरेज हुई। पत्रकारों , अफ़सरों , मंत्रियों और मुख्य मंत्रियों के एस पी जी द्वारा ऐसे अपमान की अनेक घटनाएं हैं । नतीज़ा यह है कि क्या मुख्य मंत्री , क्या पत्रकार क्या कोई अधिकारी , हर कोई अपनी इज़्ज़त बचाने ख़ातिर एस पी जी से निरंतर दूरी बना कर रहता है। 

मुझे याद है अटल जी जब बतौर प्रधान मंत्री लखनऊ आते थे तब कभी उन से सट कर रहने वाले पत्रकार भी दूर-दूर रहते थे। कि कहीं एस पी जी पीट न दे। अपमानित न कर दे। हां , कभी-कभार भीड़ में भी देख कर अटल जी किसी-किसी को अपने कमांडो से बुलवा भेजते थे। एक बार मुझे भी एक कमांडो भीड़ से ले गया। पहले तो मैं सकपकाया , पास में कमांडो देख कर। पर वह शालीनता से बोला , माननीय प्रधान मंत्री जी आप को तुरंत बुला रहे हैं। फिर भीड़ चीरते हुए वह मुझे उन के पास ले गया। मुझे बिलकुल अच्छा नहीं लगा। पूरी प्रक्रिया अपमानित करने वाली लगी। बाद में अटल जी से एक बार एक इंटरव्यू में मैं ने पूछा था , प्रधान मंत्री बनने के बाद कैसा महसूस करते हैं ? अटल जी ने लंबा पॉज लिया और बोले , अकेला हो गया हूं। मैं ने इस पर हैरत जताते हुए पूछा , क्या कह रहे हैं ? तो अटल जी बोले , पहले सब के साथ चलता था , अब अकेले चलता हूं। कमांडो के घेरे में। 

तो यह योगी और मोदी दोनों के अकेलेपन की भी यातना है। एस पी जी द्वारा अपमानित होने का ख़ौफ़ भी। बताऊं कि एक पत्रकार हैं। साथ काम कर चुके हैं। कभी घर भी आते रहते थे। लिखना सीखते थे मुझ से। कई बार मेरा ही लिखवाया मुझे दिखाते हुए कहते , देखिए तो मैं ने क्या लिखा है। शायद वः भूल जाते थे कि वह मैं ने ही लिखवाया है। या बेशर्मी करते थे। पता नहीं। पर जो भी हो वह लिखना नहीं सीख पाए तो नहीं सीख पाए। 

पर पत्रकारिता के शेष दुर्गुण बड़ी आसानी से सीख गए। ख़ूब पैसा कमा लिया। संपर्क के अनन्य क़िले बना लिए। हर सरकार में उन का जलवा। देखते ही देखते अपना अख़बार निकालने लगे। चमक-धमक वाला दफ़्तर बना लिया। अक़सर फ़ोन कर अपने दफ़्तर बुलाते। अपना ऐश्वर्य दिखाना चाहते थे। कई बड़े पत्रकारों को नौकरी दे रखी थी। पर मैं नहीं जा पाता। मन नहीं होता था। अकसर और मित्र उन के दफ़्तर जाते और लौट कर उन के ऐश्वर्य के क़िस्से बांचते। कई बार वह अपने सहयोगियों को भी मेरे पीछे लगाते। कुछ साल बीत गए। उन्हों ने दफ़्तर की जगह भी कई बार बदली। 

अंतत: उन के एक सहयोगी जो मेरे प्रिय हैं मेरे घर आए और अपने साथ उन के दफ़्तर किसी और बहाने से ले गए। अपना दफ़्तर बता कर। उन से मिलाया। वह बहुत ख़ुश हुए। कि जैसे भी सही , उन के दरबार में मैं हाजिर तो हुआ। उन का ऐश्वर्य देख कर लेकिन मैं चकित नहीं हुआ। क्यों कि एक से एक लोगों का ऐश्वर्य देख चुका हूं। नक़ली ऐश्वर्य मुझे मोहित नहीं करता। वह भी नंबर दो और दलाली से अर्जित ऐश्वर्य। सब कुछ देख कर भी मैं निरापद और तटस्थ रहा। उन्हें मेरा यह रुख़ अच्छा नहीं लगा। मैं अचानक चलने लगा। तो वह बोले , कैसे आए हैं ? बताया कि आप के सहयोगी के साथ ही आया हूं। वह बोले , मैं भी घर चल रहा हूं। चलिए आप को घर छोड़ देता हूं।  मेरे घर के पास ही उन का घर भी है। 

तो आया उन के दफ़्तर से बाहर। अपनी लंबी सी कार दिखाई उन्हों ने। मैं आगे-आगे चला। ड्राइवर की सफ़ेद पोशाक में लकदक उन के ड्राइवर ने पीछे की सीट की बाईं तरफ़ का दरवाज़ा सहसा खोला। मैं बैठने को हुआ ही था तो वह बोले , नहीं , इधर मैं बैठूंगा। आप उधर से आइए। मतलब दाईं तरफ से। बुरा तो बहुत लगा। पर संकोचवश कुछ कह नहीं पाया। पर दस-पांच मिनट के रास्ते के उस अपमान को भूल गया होऊं , ऐसा भी नहीं है। आगे भी भूल पाऊंगा , ऐसा नहीं लगता। फिर आगे भी कई बार उन्हों ने फ़ोन कर दफ़्तर बुलाया। कहा कभी घर आइए। कभी नहीं गया। मन ही नहीं हुआ। अब दफ़्तर की जगह उन की फिर बदल गई है। पर अपमान की त्रासदी कभी नहीं बदलती। 

तो इस फ़ोटो में अगर अपमान की कोई इबारत पढ़ ली होगी योगी ने तो सचमुच योगी भी कभी भूलेंगे , मुझे नहीं लगता। योगी सिर्फ़ योगी ही नहीं हैं , हठयोगी हैं। नाथ संप्रदाय में हठ योग भी आता है। बस यही है कि राजनीति में कई बार तुरंत नहीं , ज़रा नहीं पूरा थम कर प्रतिक्रिया देने की रवायत है। यही योगी जब सांसद थे तब किसी बात पर लाल कृष्ण आडवाणी से खफ़ा हो गए। आडवाणी जी तब उप प्रधान मंत्री थे। गोरखपुर गए। आडवाणी से मिलने नहीं गए योगी। आडवाणी की तब गोरखपुर में एक जनसभा भी हुई थी। योगी जनसभा में भी नहीं गए। अंतत: गोरखनाथ मंदिर के दर्शन के बहाने आडवाणी ही गए योगी से मिलने। ऐसे अनेक क़िस्से हैं। 

पर 1979 में जगजीवन राम के प्रधान मंत्री न बन पाने का क़िस्सा तो दिलचस्प है ही , अपमान कथा की अजब परिणति भी है। यह भी कि एक छोटा सा अपमान और उस अपमान की याद भी कैसे तो देश की राजनीति और उस की दशा-दिशा भी बदल देती है। जगजीवन राम उन दिनों केंद्र में इंदिरा गांधी मंत्रिमंडल में शक्तिशाली मंत्री थे। नीलम संजीव रेड्डी एक बार उन के सामने बीड़ी पीने लगे। जगजीवन राम को यह बुरा लगा कि उन के सामने कोई बीड़ी पिए। उन्हों ने नीलम संजीव रेड्डी को इस के लिए टोका। तब जब कि नीलम संजीव रेड्डी आंध्र प्रदेश के तीन बार मुख्य मंत्री रह चुके थे। नीलम संजीव रेड्डी ने तब तो बीड़ी बुझा कर फेंक दी थी। पर उस अपमान की आग को कभी नहीं फेंका। 

इस अपमान की आग को बुझाने का अवसर नीलम संजीव रेड्डी को मिला 1979 में। जब भारी झगड़े में जनता पार्टी की मोरारजी देसाई सरकार का पतन हुआ और जनता पार्टी में मोरारजी मंत्रिमंडल में उप प्रधान मंत्री रहे जगजीवन राम और चरण सिंह दोनों ही ने राष्ट्रपति के पास प्रधान मंत्री बनने का दावा पेश किया। कहते हैं कि जगजीवन राम की सूची में सांसदों की संख्या ज़्यादा थी। पर राष्ट्रपति नीलम संजीव रेड्डी ने चरण सिंह को प्रधान मंत्री बनाने का फ़ैसला लिया और उन्हें प्रधान मंत्री पद की शपथ दिलवा दी। कांग्रेस ने भी चौधरी चरण सिंह को अपना समर्थन दे दिया। माना यह भी गया कि जगजीवन राम को शायद कांग्रेस समर्थन न देती। 

क्यों कि तब इंदिरा गांधी उन से बहुत नाराज थीं। क्यों कि ज़िंदगी भर कांग्रेस में निरंतर सत्ता सुख भोगते रहने के बावजूद वह 1977 कांग्रेस छोड़ कर जनता पार्टी में चले गए थे। इंदिरा गांधी भी जल्दी किसी को माफ़ नहीं करती थीं। ख़ास कर गद्दारों को। अलग बात है इंदिरा गांधी ने चरण सिंह सरकार को भी संसद का मुंह नहीं देखने दिया , विशवास मत पाने के लिए। चरण सिंह ने बतौर प्रधान मंत्री लालक़िला से भाषण तो दिया पर संसद नहीं जा पाए। चार महीने में ही कांग्रेस ने चौधरी चरण सिंह सरकार से समर्थन वापस ले लिया। फिर चुनाव हुए और इंदिरा गांधी की ज़बरदस्त वापसी हुई। ढाई साल में ही जनता पार्टी चकनाचूर हो गई। कभी देखिए न शरद यादव को। एक समय पटना से नीतीश कुमार दिल्ली जाते थे , शरद यादव से मिलने। शरद यादव उन्हें घंटों बाहर बैठाए रहते। कई बार नहीं भी मिलते थे। राजनीति ही नहीं , ज़िंदगी में भी ऐसे तमाम क़िस्से पग-पग पर मिलेंगे। मिलते ही रहेंगे। मेरी ज़िंदगी में भी बहुत हैं। अन्ना आंदोलन वाले अन्ना कभी कहा करते थे कि आगे बढ़ने के लिए , सफल होने के लिए ज़िंदगी में अपमान बहुत पीना पड़ता है। जैसे नरेंद्र मोदी कहते हैं कि उन्हें रोज दो-चार किलो गाली खाने को मिलती है। इसी गाली से उन्हें ऊर्जा मिलती है और वह काम करते रहते हैं। योगी ने अभी तक किसी को इस बाबत कुछ नहीं बताया है।

Monday, 15 November 2021

लेकिन मन्नू भंडारी को वामपंथी बता कर उन पर अनर्गल आरोप लगाने से परहेज़ करें

दयानंद पांडेय 


सवाल सिर्फ़ मृत्यु का नहीं है। सच यह है कि मन्नू भंडारी वामपंथी नहीं थीं। मन्नू जी की रचनाओं में भी वामपंथ की धज नहीं है। उलटे मन्नू भंडारी तो राजेंद्र यादव की परित्यक्ता थीं। ज़िंदगी भर यह त्रास ढोया मन्नू जी ने। अलग बात है कि राजेंद्र यादव भी वामपंथी नहीं थे। मन्नू जी की रचनाओं पर वामपंथी आलोचकों ने कभी कुछ लिखा भी नहीं। बल्कि एक वामपंथी लेखक जो राजेंद्र यादव के प्रिय भी रहे हैं वह तो दबी जुबान ही सही मन्नू भंडारी पर चोरी का आरोप भी लगाते रहे हैं कि उन की रचना को चुरा कर मन्नू भंडारी ने महाभोज लिखा है। वह रचना जिसे उन्हों ने हंस में छपने के लिए भेजा था।

वामपंथी आलोचना की ध्वजा उठाए नामवर सिंह ने मन्नू भंडारी की कभी नोटिस भी नहीं ली। सिर्फ़ इस लिए कि वह वामपंथी नहीं थीं। तब जब कि दोनों की पारिवारिक मित्रता थी।  घनिष्ठ्ता थी। रोज का आना-जाना था। बावजूद इस सब के मन्नू भंडारी हिंदी की बड़ी लेखिका हैं। रहेंगी। एक से एक कालजयी रचनाएं हैं मन्नू भंडारी के पास। महाभोज, आप का बंटी जैसी रचनाएं वामपंथी हो कर लिखी भी नहीं जा सकतीं । 

मन्नू जी शायद हिंदी की इकलौती लेखिका हैं जो अपने पति राजेंद्र यादव की परित्यक्ता हो कर भी दांपत्य धर्म निभाया और राजेंद्र यादव की ज्यादतियों को सार्वजनिक कर उन्हें निन्दित भी खूब किया। अलग रहने के बावजूद राजेंद्र यादव की सेवा भी की और उन्हें पर-स्त्री गमन के लिए कभी माफ़ नहीं किया। राजेंद्र यादव को छलात्कारी कहती रहीं। खुल्लमखल्ला। 

तब जब कि हिंदी ही नहीं और भी भाषाओं की बहुत सी लेखिकाएं परित्यक्ता हैं, लेखक या अलेखक की पत्नी हैं पर लब सिले रहती आई हैं। महादेवी वर्मा से लगायत कितनी ही लेखिकाओं का यह काला सच है। बल्कि बहुत सी स्त्री लेखिकाएं भयंकर रुप से बेवफ़ा भी हैं , उन का स्कोर भी जबरदस्त है पर सार्वजनिक रुप से सती सावित्री का रुप धरे रहती हैं। लेकिन मन्नू जी पर कोई भूल कर भी कोई एक आक्षेप नहीं लगा सकता। 

फिर मन्नू जी कथा लेखिका ही नहीं, पटकथा लेखिका भी बहुत अच्छी हैं। फिल्मों और धारावाहिकों का लेखन दिल्ली में रह कर किया है। रजनीगंधा , स्वामी जैसी रोमैंटिक फ़िल्में , रजनी जैसे लोकप्रिय धारावाहिक मन्नू जी के खाते में हैं।

 मोहन राकेश के अकेले होते बेटे और उन के टूटते दांपत्य को आधार बना कर आप का बंटी जैसा उपन्यास लिखना मन्नू जी के ही वश का था। तब जी कि राजेंद्र यादव और मोहन राकेश की प्रगाढ़ मित्रता मशहूर है। मोहन राकेश, कमलेश्वर और राजेंद्र यादव की तिकड़ी आज भी हिंदी जगत में मशहूर है। बल्कि कमलेश्वर और राजेंद्र यादव लगभग शिष्य थे , मोहन राकेश के।

कम लोग जानते हैं कि आपातकाल में मन्नू भंडारी को इंदिरा गांधी ने पद्मश्री देने की पेशकश की थी। पर मन्नू जी ने बड़ी शालीनता से इमरजेंसी का विरोध दर्ज करते हुए पद्मश्री लेने से इंकार कर दिया था। तब जब कि वामपंथीयों ने तो इमरजेंसी का समर्थन किया था।

किसी भी को बिना जाने समझे मन्नू भंडारी जैसी बड़ी लेखिका पर कोई अनर्गल आरोप लगाने से भरसक बचना चाहिए। परहेज करना चाहिए। सहमति-असहमति अपनी जगह है। मतभेद भी अपनी जगह है। होते रहते हैं।

रही बात वामपंथीयों की तो वह तो भगत सिंह , चंद्रशेखर आज़ाद और राम प्रसाद बिस्मिल को भी वामपंथी बता देते हैं। प्रेमचंद और अमृतलाल नागर को भी वामपंथी बता देते हैं। जब कि  ज़िंदगी भर वामपंथ की सेवा करने वाले राहुल सान्कृत्यायन , रामविलास शर्मा , निर्मल वर्मा जैसे लेखकों को आखिरी समय में वामपंथ से धकिया देते हैं। अपमानित कर देते हैं। और तो और नामवर सिंह तक को आखिरी समय में निर्वासित कर अकेला कर दिया था। क्यों कि यह लोग वेद उपनिषद और भगवान की बात करने लगे थे।

नतीज़ा यह हुआ कि  नामवर सिंह का जन्म-दिन भाजपाई मनाने लगे थे। राजनाथ सिंह जैसे लोग उन्हें सम्मानित करने लगे थे। बातें बहुत सी हैं। इन का विस्तार भी बहुत। पर सिर्फ़ इस लिए कि कुछ वामपंथी मन्नू भंडारी को अपना बता कर उन्हें श्रद्धांजलि दे रहे हैं तो आप उन पर कुपित हो कर जद-बद बकने लगें। यह गुड बात नहीं है। मन्नू जी को नमन !

कोई भी लेखक वामपंथी , भाजपाई , कांग्रेसी आदि नहीं होता। ऐसा सोचना संकीर्णता है। लेखक , सिर्फ़ लेखक होता है। सभी का होता है। तो विदा और शोक की वेला में मन्नू भंडारी पर अनर्गल और अशोभनीय टिप्पणी कर  खुद को अपमानित करने से परहेज करें। 

आमीन !

Saturday, 30 October 2021

रेन कोट पहन कर नहाने वाले मनमोहन सिंह , कांग्रेस के चाकर वामपंथी और पूर्व सी ए जी विनोद राय का माफ़ीनामा

दयानंद पांडेय 

फ़ेसबुक के कुछ कुंठित दरबारियों की दीवार पर पूर्व सी ए जी विनोद राय का एक माफीनामा बहुत घूम रहा है। इस में से ज़्यादातर कांग्रेस की पैरवी और खिदमत में लगे बीमार वामपंथी हैं। जो कांग्रेस की चाकरी में क्रांति के नाम पर प्रतिक्रांति का बिगुल बजाते फिरते हैं। इन कुंठित लोगों को यह नहीं मालूम कि अवमानना और मानहानि के मामलों में अदालत में बिना शर्त माफ़ी मांगने का ही चलन है। अलग बात है कि जस्टिस कर्णन तो अवमानना मामले में माफ़ी मांगने के बावजूद छ महीने के लिए जेल भेजे गए थे। अभी कुछ ही समय पहले इन वामपंथियों के वर्तमान पिता जी राहुल गांधी ने राफेल मसले पर सुप्रीम कोर्ट में बिना शर्त लिखित माफी मांगी थी। राहुल गांधी के एक नहीं अनेक लिखित माफीनामे विभिन्न अदालतों में मौजूद हैं। जो इन्हीं तीन-चार सालों में राहुल गांधी ने मांगे हैं।

अच्छा विनोद राय ने माफी मांगी है पूर्व शिव सैनिक और वर्तमान कांग्रेसी संजय निरुपम से। संजय निरुपम ने विनोद राय के खिलाफ मुकदमा किया था मानहानि का। विनोद राय ने किताब में लिखा है कि संजय निरुपम ने उन पर दबाव डाला था कि मनमोहन सिंह का नाम वह टू जी स्कैम मामले में नहीं लिखें। संजय निरुपम का पक्ष है कि उन्हों ने ऐसा कोई दबाव विनोद राय पर नहीं डाला है। इसी एक दबाव बिंदु पर विनोद राय ने मानहानि मुकदमे में माफी मांगी है। बस इतनी सी बात पर कांग्रेस की खिदमत में लगे बीमार वामपंथियों ने अपने बवासीर का बोरा खोल दिया है। 

अच्छा संजय निरुपम ने विनोद राय से अगर मनमोहन सिंह का नाम न लिखने का दबाव या तो मिल कर या फोन पर ही डाला होगा। लिख कर तो यह दबाव बनाया नहीं होगा। तब आडियो रिकार्डिंग वाले फ़ोन भी नहीं थे। तो इस दबाव का जब कोई सुबूत नहीं था , तो माफ़ी मांगना ही एक रास्ता था। अच्छा उत्तर प्रदेश के आई पी एस अफ़सर अमिताभ ठाकुर ने तो मुलायम सिंह यादव की धमकी वाले फोन की बातचीत रिकार्ड कर ली थी। एफ आई आर भी लिखवा दी। क्या उखड़ गया मुलायम सिंह का। मुलायम सिंह ने आज तक अपनी आवाज़ का सैंपल भी नहीं दिया जांच ख़ातिर। कभी किसी वामपंथी साथी ने सांस ली इस प्रसंग पर ? सब को लकवा मार गया। 

खैर विनोद राय की माफ़ी का एक मार्ग मिला तो एक चादर तान दी है इन हिप्पोक्रेटों ने कि न टू जी हुआ , न कोयला , न कोई और भ्रष्टाचार। मनमोहन सिंह बिलकुल हंस थे। सच यह है कि मनमोहन सिंह हंस के वेश में बगुला हैं। कोयला घोटाले में आई ए एस अफ़सर तक तिहाड़ में सजा काट रहे हैं। तो मनमोहन सिंह की ही कृपा से। टू जी में तो तब के संचार मंत्री ए राजा से लगायत करुणानिधि की बेटी कनु मोजी तक जेल काट चुके हैं। यह ठीक है कि यू पी ए सरकार की विदाई में इन घोटालों की बड़ी भूमिका थी। यू पी ए सरकार की विदाई के बाद वामपंथी लेखकों , पत्रकारों , विचारकों के आगे से मलाई भरी थाली खिसक गई। तब ही से इन की बवासीर की बीमारी जोर मारे हुई है। जब-तब ज़्यादा सिर उठा लेती है। 

लेकिन बवासीर के मारे इन बीमारों को यह भी जान लेना चाहिए कि यू पी ए सरकार की विदाई में सिर्फ़ भ्रष्टाचार ही नहीं , मुस्लिम तुष्टिकरण और इस्लामिक आतंक की अति की भी बड़ी भूमिका थी। कहीं ज़्यादा थी। गुजरात मॉडल आख़िर क्या है ? सिर्फ़ विकास ? हुंह ! ख़ैर , मनमोहन सिंह ने तब संसद में बतौर प्रधान मंत्री कहा था कि देश के सभी संसाधनों पर पहला अधिकार अल्पसंख्यकों का ही है। जब कि प्रधान मंत्री होने के बाद बतौर प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी ने मनमोहन सिंह की उपस्थिति में उन्हें इंगित करते हुए यू पी ए सरकार के भ्रष्टाचार की चर्चा करते हुए कहा था कि अलग बात है डाक्टर साहब रेन कोट पहन कर नहाते रहे। 

डाक्टर साहब मतलब मनमोहन सिंह। और मनमोहन सिंह ने आज तक इस रेन कोट पहन कर नहाने का प्रतिवाद नहीं किया है। एक वामपंथी साथी ने तो विनोद राय , अन्ना और रामदेव तीनों को यू पी ए सरकार की विदाई का कारण बताते हुए लिखा है कि यह तीनों ही सब से बड़े झूठे हैं। उन का वश चले तो इन तीनों को गोली मार दें। क्यों कि इन तीनों के कारण यू पी ए सरकार गई। और इन की मलाई की थाली इन के आगे से सरक गई। देश गर्त में चला गया। अद्भुत नैरेटिव है। 

एक आई ए एस अफ़सर हैं हरीशचंद्र गुप्ता। अलीगढ के रहने वाले। उत्तर प्रदेश कैडर के हैं। मेरे मित्र हैं। डेड आनेस्ट। मजाल क्या है कि किसी काम के लिए उन्हों ने किसी की एक कप चाय भी पी हो। एक पान भी खाया हो। पर इन दिनों तिहाड़ जेल में सजा काट रहे हैं। इन्हीं रेन कोट पहन कर नहाने वाले मनमोहन सिंह के कारण। हरीश जी उन दिनों कोयला मंत्रालय में सचिव थे। कोयला मंत्रालय में घोटालों की बाढ़ और विवाद के कारण तब के कोयला मंत्री श्री प्रकाश जायसवाल से यह मंत्रालय ले कर मनमोहन सिंह ने अपने पास रख लिया। एक कोयला खदान के मामले में मनमोहन सिंह ने हरीश जी को टेलीफोन पर ही आदेश दे दिया। हरीश जी ने आदेश का अनुपालन कर दिया। 

क़ायदे से हरीश जी को बाद में ही सही फ़ाइल पर मनमोहन सिंह की दस्तखत करवा लेनी चाहिए थी। पर मनमोहन सिंह की सदाशयता और ईमानदार छवि के मद्देनज़र वह फ़ाइल पर दस्तखत करवाने में लापरवाही कर गए। और जब कोयला घोटाले की जांच हुई तो फ़ाइल पर हरीश जी के ही आदेश थे। हरीश जी फंस गए। लंबा मुक़दमा चला। बीच मुकदमे में हरीश जी ने अदालत से कहा , मुझे जो भी सज़ा देनी हो दे दीजिए। पर अब और मुक़दमा लड़ने की मेरी हिम्मत नहीं है। अदालत ने पूछा , दिक्कत क्या है ? इतनी जल्दी क्यों ? प्रक्रिया पूरी होने दीजिए। फ़ैसला होने दीजिए। हरीश जी ने कहा , कैसे लड़ूं मुक़दमा ? मेरे पास वकील को फीस देने भर का भी पैसा नहीं है। 

मनमोहन सिंह ने एक बार भी भूल कर हरीश जी की मदद नहीं की। जब कि हरीश जी मनमोहन सिंह के कुकर्मों की सज़ा भुगत रहे हैं। अब ऐसा भी नहीं था कि इस मामले में मनमोहन सिंह ने कोई पैसा खाया था। मनमोहन सिंह ने सिर्फ़ सोनिया गांधी का हुकुम बजाया था। कोयले में हाथ काला किया था सोनिया गांधी ने। सज़ा भुगत रहे हैं हरीश गुप्ता। करोड़ों का कोयला घोटाला था यह। हरीश जी अकेले पी गए सारा जहर। 

अब वह जेल में भी किसी से नहीं मिलते। एक ईमानदार अफ़सर भ्रष्टाचार की कालिख लगा कर जी रहा है , मरेगा भी इसी कालिख के साथ। पर ईमानदारी की मूर्ति बताए जाए जाने वाले मनमोहन सिंह की आत्मा कभी इस ईमानदार अफ़सर के लिए नहीं जागी। कभी कह नहीं पाए कि कोयला मंत्रालय तब मेरे पास था और कि यह मेरा ही मौखिक आदेश था। कह देते तो उन की गढ़ी हुई ईमानदार की मूर्ति खंडित हो जाती। रेन कोट उतर जाती। मुंह पर कोयला पुत जाता मनमोहन सिंह के। ऐसी कई कहानियां हैं यू पी ए सरकार के भ्रष्टाचार की। 

लेकिन चुनी हुई चुप्पियों और चुने हुए विरोध के तलबगार , बौद्धिक बवासीर के मारे वामपंथी लेखकों , पत्रकारों को यह सब नहीं मालूम। मालूम भी हो जाए तो भी सहन नहीं कर पाएंगे। ख़ामोश रह जाएंगे। क्यों कि रेन कोट इन की भी उतर जाएगी और मुंह पर कालिख इन के भी लग जाएगी। हजामत बन जाएगी इन की। फ़िलहाल यह ढपोरशंखी अभी विनोद राय की हजामत बनाने में व्यस्त हैं। रेन कोट पहन कर। वैसे एक पूर्व सी ए जी टी एन चतुर्वेदी भी हुए हैं। जिन्हों ने बोफ़ोर्स में कमीशन उजागर किया था। जिसे राजीव गांधी सरकार के तत्कालीन रक्षा मंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह ले उड़े। और यही बोफोर्स राजीव गांधी सरकार की पतन का कारण बना। गरज यह कि सी ए जी लोग कांग्रेस सरकारों की भ्रष्टाचार की जड़ों में मट्ठा डालने में पीछे नहीं रहते। रिकार्ड तो यही कहता है।

Friday, 29 October 2021

इसी लिए वह थापर थे और यह शाहरुख़ ख़ान

दयानंद पांडेय 

अदालत में एक अभिनेता और एक उद्योगपति के जुगाड़ का फ़र्क़ भी तो देखिए। काश कि जूही चावला के साथ ही हेलीकाप्टर का भी प्रबंध किया होता शाहरुख़ ख़ान ने। जो भी हो मुंबई हाईकोर्ट द्वारा आर्यन खान की ज़मानत के कागजात आज समय से आर्थर रोड जेल न पहुंच पाने में शाहरुख़ ख़ान की लीगल टीम की क़ाबिलियत तो सामने आ ही गई है , शाहरुख़ ख़ान द्वारा पैसा खर्च करने के तरीक़े पर भी हंसी आ रही है। पैसा दे कर ज़मानत दिलवाने की अभ्यस्त लीगल टीम अगर ज़मानतदार की कितनी फ़ोटो लगनी है , यह नहीं जानती थी तो इस में जूही चावला की कोई ग़लती नहीं थी। अपने जीवन में शायद पहली ही बार जूही चावला ने किसी की ज़मानत ली होगी। तो वह बिचारी क्या जानतीं भला कि कितनी फ़ोटो लगेगी। एक लगेगी कि दो लगेगी। ख़बरों में बताया गया है कि जूही चावला की एक ही फ़ोटो थी। दूसरी फ़ोटो मैनेज करने में देरी लगी। इस लिए ज़मानत की औपचारिकता में देरी हुई और कागज़ात समय से जेल नहीं पहुंच सके। फिर शाहरुख़ ख़ान ने जो बुद्धि जूही चावला को ज़मानतदार बना कर इस ज़मानत को इवेंट बनाने में खर्च की अगर यही बुद्धि कोर्ट के ज़मानत के कागज़ात जल्दी से जेल भिजवाने में खर्च की होती तो इवेंट भी तगड़ा होता , ख़बर भी चमक रही होती। 

क्यों कि जब सब कुछ इवेंट और दिखावे पर ही मुन:सर था तो यह ज़मानत के कागज़ात हेलीकाप्टर से भी जेल पहुंचाए जा सकते थे। एक क्या 50 हेलीकाप्टर हायर करने की आर्थिक क्षमता तो है ही शाहरुख़ ख़ान में। आख़िर ख़ुद को बादशाह कहलवाते हैं वह इस बिकाऊ मीडिया से। फिर शिव सेना की सेक्यूलर सरकार है। प्रशासन फ़ौरन हेलीकाप्टर लैंडिंग की अनुमति दे देता। ज़मानत के कागज़ात भी समय पर जेल पहुंच जाते और बेटा आर्यन उसी हेलीकाप्टर से मन्नत में लैंड कर जाता। ख़बर की ख़बर , इवेंट का इवेंट। सब कुछ चमाचम होता। लोग ड्रग , आर्यन और समीर वानखेड़े भूल कर हेलीकाप्टर में उड़ने लगते। इंटरनेशनल कवरेज मिलती। आखिर वकील मुकुल रोहतगी को मुंबई से दिल्ली चार्टर्ड प्लेन से ही शाहरुख़ ख़ान ने कल भिजवाया था। तो एक हेलीकाप्टर भी ले लेते। 

वैसे भी कुछ सेक्यूलर चैंपियन मान रहे हैं , अपनी बीमारी में लिख भी रहे हैं कि मोदी ने आर्यन ख़ान की ज़बरदस्त लांचिंग कर दी है। आर्यन ख़ान को मोदी ने मुफ़्त में ब्रांड बना दिया है। आदि-इत्यादि। तो इस हेलीकाप्टर सेवा से आर्यन ख़ान की लांचिंग के सोने में सुहागा मिल जाता। इलेक्ट्रानिक मीडिया चिल्ला-चिल्ला कर बताता भी कि यह देखिए , वह देखिए। हेलीकाप्टर अब उड़ा , यहां पहुंचा , वहां उतरा आदि के विवरण । यह ठीक है कि शाहरुख़ ख़ान के घर मन्नत में हेलीकाप्टर उतरने की मुश्किल है। मैं ने देखा है मन्नत , उस में हेलीकाप्टर नहीं उतर सकता। अलग बात है वहीं वाकिंग डिस्टेंस पर सलमान ख़ान भी रहते हैं। पर देखा कि वह शाहरुख़ ख़ान के घर अभी मिजाजपुरसी में अपनी शानदार कार में गए। पर मन्नत में फूटते पटाखे के बीच जब हेलीकाप्टर आस-पास कहीं उतरता तो मीडिया समेत सेक्यूलरजन विह्वल हो जाते। रास्ता रोक कर सामने की सड़क पर तो उतर ही सकता था। गेट पर अनन्या पांडे , जया बच्चन की नातिन समेत गौरी ख़ान , जूही चावला , मैनेजर ददलानी आदि आरती उतार रही होतीं। शाहरुख़ , सलमान , आमिर ख़ान समेत चंकी पांडे आदि ठुमके लगा रहे होते। जो भी अब यह सब एक कल्पना है। जाने क्यों शाहरुख़ ने देश को यह सब देखने से वंचित कर दिया। अफ़सोस !

पर ऐसा ही एक क़िस्सा देखिए और याद आ गया है। यह पुराना क़िस्सा यह भी बताता है कि एक अभिनेता की सेटिंग और एक उद्योगपति की सेटिंग में बुद्धि और समझ का क्या महत्व होता है। यह मामला तो हाईकोर्ट का था लेकिन वह मामला सुप्रीम कोर्ट का था। 

उन दिनों राजीव गांधी प्रधान मंत्री थे और विश्वनाथ प्रताप सिंह वित्त मंत्री। अमिताभ बच्चन के चलते राजीव गांधी और विश्वनाथ प्रताप सिंह के बीच मतभेद शुरु हो गए थे। बोफोर्स का क़िस्सा तब तक सीन में नहीं था। थापर ग्रुप के चेयरमैन ललित मोहन थापर राजीव गांधी के तब बहुत क़रीबी थे। विश्वनाथ प्रताप सिंह ने अचानक उन्हें फेरा के तहत गिरफ्तार करवा दिया। थापर की गिरफ्तारी सुबह-सुबह हो गई थी। सुप्रीम कोर्ट के कई सारे जस्टिस लोगों से संपर्क किया थापर के कारिंदों और वकीलों ने। पूरी तिजोरी खोल कर मुंह मांगा पैसा देने की बात हुई। करोड़ो का ऑफर दिया गया। लेकिन कोई एक जस्टिस भी थापर को ज़मानत देने को तैयार नहीं हुआ। यह वित्त मंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह की सख्ती का असर था। कोई जस्टिस विवाद में घिरना नहीं नहीं चाहता था। 

लेकिन दोपहर बाद पता चला कि एक जस्टिस महोदय उसी दिन रिटायर हो रहे हैं। उन से संपर्क किया गया तो उन्हों ने बताया कि मैं तो दिन बारह बजे ही रिटायर हो गया। फिर भी मुंह मांगी रकम पर अपनी इज्जत दांव पर लगाने के लिए वह तैयार हो गए। उन्हों ने बताया कि बैक टाइम में मैं ज़मानत पर दस्तखत कर देता हूं लेकिन बाक़ी मशीनरी को बैक टाइम में तैयार करना आप लोगों को ही देखना पड़ेगा। और जब तिजोरी खुली पड़ी थी तो बाबू से लगायत रजिस्ट्रार तक राजी हो गए। शाम होते-होते ज़मानत के कागजात तैयार हो गए। पुलिस भी पूरा सपोर्ट में थी। लेकिन चार बजे के बाद पुलिस थापर को ले कर तिहाड़ के लिए निकल पड़ी। तब के समय में मोबाईल वगैरह तो था नहीं। वायरलेस पर यह संदेश दिया नहीं जा सकता था। तो लोग दौड़े जमानत के कागजात ले कर। पुलिस की गाड़ी धीमे ही चल रही थी। ठीक तिहाड़ जेल के पहले पुलिस की गाड़ी रोक कर ज़मानत के कागजात दे कर ललित मोहन थापर को जेल जाने से रोक लिया गया। क्यों कि अगर तिहाड़ जेल में वह एक बार दाखिल हो जाते तो फिर कम से कम एक रात तो गुज़ारनी ही पड़ती। पुलिस ने भी फिर सब कुछ बैक टाइम में मैनेज किया। विश्वनाथ प्रताप सिंह को जब तक यह सब पता चला तब तक चिड़िया दाना चुग चुकी थी। वह हाथ मल कर रह गए। लेकिन इस का असर यह हुआ कि वह जल्दी ही वित्त मंत्री के बजाय रक्षा मंत्री बना दिए गए। राजीव गांधी की यह बड़ी राजनीतिक गलती थी। क्यों कि विश्वनाथ प्रताप सिंह ने इसे दिल पर ले लिया था। कि तभी टी एन चतुर्वेदी की बोफोर्स वाली रिपोर्ट आ गई जिसे विश्वनाथ प्रताप सिंह ने न सिर्फ लपक लिया बल्कि एक बड़ा मुद्दा बना दिया। राजीव गांधी के लिए यह बोफोर्स काल बन गया और उन का राजनीतिक अवसान हो गया। मर गए राजीव गांधी पर बोफ़ोर्स की आंच से अभी भी मुक्त नहीं हुए। 

आप लोगों को कुछ साल पहले के सलमान खान प्रसंग की याद ज़रूर होगी । हिट एंड रन केस में लोवर कोर्ट ने इधर सजा सुनाई , उधर फ़ौरन ज़मानत देने के लिए महाराष्ट्र हाई कोर्ट तैयार मिली । कुछ मिनटों में ही सजा और ज़मानत दोनों ही खेल हो गया। तो क्या फोकट में यह सब हो गया ? सिर्फ वकालत के दांव-पेंच से ?फिर किस ने क्या कर लिया इन अदालतों और जजों का ? भोजपुरी के मशहूर गायक और मेरे मित्र बालेश्वर एक गाना गाते थे , बेचे वाला चाही , इहां सब कुछ बिकाला। तो क्या वकील , क्या जज , क्या न्याय यहां हर कोई बिकाऊ है। बस इन्हें खरीदने वाला चाहिए।  पूछने को मन होता है आप सभी से कि , न्याय बिकता है , बोलो खरीदोगे !

Thursday, 14 October 2021

दो टिकट ले लेने से प्लेन या ट्रेन की स्पीड नहीं तेज़ हो जाती आर्यन ख़ान के बाप शाहरुख़ ख़ान !

दयानंद पांडेय 

कचहरी तो बेवा का तन देखती है / कहां से खुलेगा बटन देखती है। बात 1991 की है। लखनऊ के चीफ़ ज्यूडिशियल मजिस्ट्रेट की अदालत में एक धनपशु के बेटे का मामला सामने आया। लड़का छुरेबाजी में गिरफ़्तार हुआ था। धनपशु ने लखनऊ के सब से मंहगे क्रिमिनल लॉयर को हायर किया। सस्ता लॉयर भी हायर करता तो भी ज़मानत मिल जाती। क्यों कि छुरेबाजी बहुत गंभीर अपराध नहीं है क़ानून की राय में। पहली ही पेशी में ज़मानत मिल जाती है। अगर इस बाबत मृत्यु न हुई हो। पर यह तो स्कूली लड़कों के बीच मामूली छुरेबाजी थी। फिर लड़के का पिता धनपशु था। बड़ा बिजनेसमैन होने के कारण बड़ा वकील तय किया। अब सी जे एम के पास चूंकि दस्तूर पहुंचा नहीं था और कि उस बड़े वकील से भी चीफ़ ज्यूडिशियल मजिस्ट्रेट के संबंध तब के दिनों छत्तीस वाले थे। पैसे वाले का मामला है , यह बात जज साहब भी जानते थे। ख़ैर , क़ानूनन ज़मानत के लिए मना भी नहीं कर सकते थे। सो जज साहब ने ठीक शाम चार बजे केस टेकअप किया और घड़ी देखते हुए बोले अब तो शाम के चार बज गए हैं सो फ़ाइल पर लिख दिया पुट-अप टुमारो ! 

अकड़े खड़े वकील साहब तुरंत ढीले पड़े और हाथ जोड़ कर गिड़गिड़ाए भी , प्लीज़ अभी देख लें। क्यों कि आगे दो दिन छुट्टी है। जज साहब बोले , बेल देने से मना तो कर नहीं रहा। और उठ कर खड़े हो गए। वकील साहब तैश में आ गए। लपक कर जज की  मेज पर चढ़ कर उन की कॉलर पकड़ ली। बोले , बेल तो देनी ही होगी आज ही और अभी। जाने मुवक्किल से मिले पैसे की गरमी थी या कुछ और। पर वकील साहब यह अपराध कर बैठे। जो भी हो जज साहब ने भी पलट कर वकील साहब को तड़ातड़ थप्पड़ रसीद किए। अर्दली और पेशकार को इशारा किया। दोनों ने वकील साहब को दबोच लिया। तब तक पुलिस भी जज साहब की रक्षा में आ गई। पुलिस ने भी वकील साहब को पकड़ लिया। जज साहब चैंबर में चले गए। तब मोबाइल का ज़माना नहीं था सो वीडियोग्राफी और फोटोशूट से वंचित रह गए यह सारे दृश्य। लेकिन लोगों की आंखों और बातों में आज भी यह दृश्य ताज़ा हैं। अब हुआ यह कि अगले दिन सेकेण्ड सैटरडे था। फिर संडे भी। मतलब धनपशु के बेटे को जैसे भी हो तीन दिन जेल में ही बिताना था। अलग बात है उस धनपशु के बेटे को तीन हफ्ते से अधिक जेल में बिताना पड़ गया। 

हुआ यह कि वकील साहब बड़े क्रिमिनल लॉयर ही नहीं बार के भी बड़े ख़ामख़ा थे। सो बार की मीटिंग में जज के इस रवैए के ख़िलाफ़ निंदा प्रस्ताव पारित कर वकील लोग हड़ताल पर चले गए। उधर जज साहब भी चीफ ज्यूडिशियल मजिस्ट्रेट थे। सो न्यायाधीश लोगों ने भी मीटिंग की और जज लोग भी हड़ताल पर चले गए। दोनों पक्ष की हड़ताल लंबी खिंच गई। कोई तीन महीने से ज़्यादा। लखनऊ के रोजाना के रुटीन अदालती कामकाज उन्नाव ट्रांसफर कर दिए गए। अब अपराधियों की पेशी लखनऊ के बजाय उन्नाव में होने लगी। पुलिस , अपराधी सभी परेशान। पूरा सिस्टम चरमरा गया। अंतत: तब के लखनऊ के संसद अटल बिहारी वाजपेयी ने वकीलों और जजों के बीच मध्यस्तता कर के यह हड़ताल खत्म करवाई। 

ऐसे और कई मामले हुए हैं। अदालती कारोबार में। बेलपालिका में तब्दील हुई न्यायपालिका के। इस लिए भी कि  अब यह पूरी तरह सिद्ध है कि न्याय भी लक्ष्मी की दासी है। 

आज भी जो मुंबई की अदालत में आर्यन ख़ान के साथ हुआ उसे न्यायिक टैक्टिस भी कह सकते हैं आप। न्यायिक बदमाशी भी। और यह और ऐसा कोई पहली बार नहीं हुआ है। पहले भी होता रहा है जब-तब। इस होने के पीछे दो-तीन कारण अनुमानित हैं। अव्वल तो यह कि संबंधित जज साहब शत-प्रतिशत ईमानदार हैं। या फिर आर्यन ख़ान के दोनों वकील साहबान ने उन्हें उन का हिस्सा नहीं पहुंचाया। या फिर आर्यन ख़ान के वकील साहबान से जज साहब के रिश्ते बहुत ख़राब हैं। सो जज साहब ने इन वकीलों को सबक़ सिखा दिया है। बता दिया है कि ऑर्डर रिजर्व। 20 अक्टूबर को सुनाएंगे। मतलब धनपशु शाहरुख़ ख़ान के बिगड़ैल और नशेबाज़ साहबजादे आर्यन ख़ान पांच दिन और जेल की ख़ातिरदारी में गुज़ारेंगे। क्यों कि सभी आरोपी सलमान ख़ान की तरह भाग्यशाली और जुगाड़ू नहीं होते। कि इधर सेशन जज ने ज़मानत ख़ारिज की और उधर हाईकोर्ट पहले ही से ज़मानत देने के लिए तैयार बैठी हो। शाहरुख़ खान को अपने दोस्त सलमान ख़ान से उन के तजुर्बे के मद्देनज़र इस बाबत सलाह समय रहते ले लेनी चाहिए थी। एक नहीं दो-दो मंहगा वकील रखने , फर्जी शूटिंग के बहाने एन सी बी आफिस को कैमरे से वाच करने , करोड़ो रुपए पानी की तरह बहाने भर से बात नहीं बनती। प्रियंका गांधी वाड्रा का ब्वाय फ्रेंड बनने से भी नहीं बनती। एक नहीं , दो टिकट ले लेने से प्लेन या ट्रेन की स्पीड नहीं तेज़ हो जाती। यह समझने की चीज़ है। पान मसाला का विज्ञापन कर करोड़ो नौजवानों का जीवन बर्बाद करने से समझ नहीं विकसित होती। फिर ड्रग  आर्यन ख़ान लेता है , शाहरुख़ ख़ान नहीं। या कि शाहरुख़ ख़ान भी ड्रग लेता है ?

क्या पता ?

बहरहाल , अमूमन ऐसे मामलों में वकील साहब लोग जज से सेटिंग रखते हैं। और कई बार अपनी फीस से भी बहुत ज़्यादा जज साहब के पास समय रहते पहुंचा देते हैं। कैसे भी। चूंकि मैं जज और वकीलों के बीच बहुत ज़्यादा समय से हूं सो इस बात को बहुत बेहतर जानता हूं। पत्रकारिता और राजनीति की तरह अदालतों में भी नब्बे प्रतिशत मामले इसी दलाली के सिपुर्द हैं। इसी दलाली का परिणाम है कि मैं अब से नहीं बरसों बरस से न्यायपालिका को न्यायपालिका नहीं बेल पालिका लिखता और कहता रहा हूं। कोई 22 बरस पहले छपे अपने उपन्यास अपने-अपने युद्ध में न्यायपालिका को बेल पालिका में तब्दील कई संदर्भों के साथ लिखा था। मुझ पर कंटेम्पट आफ कोर्ट भी हुआ था तब। 

तो हमारी विभिन्न अदालतें आम आदमी को न्याय दें न दें , हत्यारों , बलात्कारियों और भ्रष्टाचारियों को बेल यानी ज़मानत देने का काम बड़ी फुर्ती से करती हैं। क्यों कि यहां पैसा जुड़ा रहता है। रात में अदालत का दरवाज़ा खोल कर , छुट्टी के दिन भी अदालत खोल कर ज़मानत देने में हमारी न्यायपालिकाएं चीते की फुर्ती से काम करती हैं। निचली अदालतों से लगायत सर्वोच्च अदालत तक यह खेल निर्बाध जारी है। ऐसे अनेक क़िस्से हैं मेरे पास। काश  ज़मानत देने में चीते सी फुर्ती दिखाने वाली यह अदालतें न्याय देने में भी यही फुर्ती दिखातीं। काश ! यहां तो आलम यह है कि अमूमन हर अपराधी छाती तान कर कहता है कि न्यायपालिका में मेरी अटूट आस्था है। और ग़रीब , निरपराध आदमी न्यायपालिका से भी वैसे ही घबराता है जैसे पुलिस से। जैसे अस्पताल से। जैसे सिस्टम से। जैसे सरकार से। तो न्यायपालिका का यह अजीबोग़रीब तिलिस्म है। अजब तिज़ारत है। 

रही बात आर्यन ख़ान के ज़मानत की तो बड़े-बड़े हत्यारों , बलात्कारियों , भ्रष्टाचारियों को चुटकी बजाते ही ज़मानत मिल जाती है। तो यह तो मामूली नशेड़ी है। रिया चक्रवर्ती , दीपिका वग़ैरह को मिल गई तो इस को क्यों नहीं मिलेगी भला। सोनिया , राहुल , रावर्ट वाड्रा , चिदंबरम जैसे तमाम लोग ज़मानत का छप्पन भोग जीम रहे हैं , आर्यन ख़ान भी जीमेगा। आर्यन ख़ान , अरे लखीमपुर का मंत्री पुत्र आशीष मिश्र भी आप देखेंगे जल्दी ही ज़मानत का छप्पन भोग खा कर डकार लेगा। आख़िर हमारी न्यायपालिका , न्यायपालिका नहीं बेलपालिका है। यक़ीन न हो तो हमारे मित्र कवि कैलाश गौतम की चार दशक से भी ज़्यादा पुरानी यह कविता पढ़िए , यक़ीन हो जाएगा। 


 कचहरी न जाना / कैलाश गौतम


भले डांट घर में तू बीबी की खाना

भले जैसे-तैसे गिरस्ती चलाना

भले जा के जंगल में धूनी रमाना

मगर मेरे बेटे कचहरी न जाना

कचहरी न जाना

कचहरी न जाना


कचहरी हमारी तुम्हारी नहीं है

कहीं से कोई रिश्तेदारी नहीं है

अहलमद से भी कोरी यारी नहीं है

तिवारी था पहले तिवारी नहीं है


कचहरी की महिमा निराली है बेटे

कचहरी वकीलों की थाली है बेटे

पुलिस के लिए छोटी साली है बेटे

यहाँ पैरवी अब दलाली है बेटे


कचहरी ही गुंडों की खेती है बेटे

यही ज़िन्दगी उनको देती है बेटे

खुले आम कातिल यहाँ घूमते हैं

सिपाही दरोगा चरण चूमते है


कचहरी में सच की बड़ी दुर्दशा है

भला आदमी किस तरह से फँसा है

यहाँ झूठ की ही कमाई है बेटे

यहाँ झूठ का रेट हाई है बेटे


कचहरी का मारा कचहरी में भागे

कचहरी में सोये कचहरी में जागे

मर जी रहा है गवाही में ऐसे

है तांबे का हंडा सुराही में जैसे


लगाते-बुझाते सिखाते मिलेंगे

हथेली पर सरसों उगाते मिलेंगे

कचहरी तो बेवा का तन देखती है

कहाँ से खुलेगा बटन देखती है


कचहरी शरीफों की खातिर नहीं है

उसी की कसम लो जो हाज़िर नहीं है

है बासी मुँह घर से बुलाती कचहरी

बुलाकर के दिन भर रुलाती कचहरी


मुकदमें की फाइल दबाती कचहरी

हमेशा नया गुल खिलाती कचहरी

कचहरी का पानी जहर से भरा है

कचहरी के नल पर मुवक्किल मरा है


मुकदमा बहुत पैसा खाता है बेटे

मेरे जैसा कैसे निभाता है बेटे

दलालों नें घेरा सुझाया-बुझाया

वकीलों नें हाकिम से सटकर दिखाया


धनुष हो गया हूँ मैं टूटा नहीं हूँ

मैं मुट्ठी हूँ केवल अंगूंठा नहीं हूँ

नहीं कर सका मैं मुकदमें का सौदा

जहाँ था करौदा वहीं है करौदा


कचहरी का पानी कचहरी का दाना

तुम्हे लग न जाये तू बचना बचाना

भले और कोई मुसीबत बुलाना

कचहरी की नौबत कभी घर न लाना


कभी भूल कर भी न आँखें उठाना

न आँखें उठाना न गर्दन फँसाना

जहाँ पांडवों को नरक है कचहरी

वहीं कौरवों को सरग है कचहरी। ।

तो क्या तब भी यह माई नेम इज ख़ान का खिलौना बाज़ार में शेष रहेगा ?

दयानंद पांडेय 

तुम कितने अफजल मारोगे , हर घर से अफजल निकलेगा ! यह नारा तो याद ही होगा। इस बाबत ज्यूडिशियरी किलिंग का तंज और रंज भी याद ही होगा। अब वही रंग फिर जमा है और खेल फिर शुरु हो गया है। सेक्यूलरिज्म के कीड़े फिर रेशम बुनने लगे हैं। शाहरुख़ ख़ान पुत्र आर्यन ख़ान को ले कर। वही मुस्लिम विक्टिम कार्ड खेला जा रहा है। तो क्या माई नेम इज ख़ान वाली यातना ही है ? सचमुच ? वैसे इस हफ़्ते भर में किसिम-किसिम के बहाने बेटे को बचाने ख़ातिर शाहरुख़ ख़ान करोड़ो रुपए बहा चुके हैं। आर्यन को निर्दोष साबित कर छुड़ाने के लिए। और तो और नारकोटिक्स व्यूरो के आफिस के सामने फर्जी शूटिंग का स्वांग भर कर लगातार कैमरे आदि से वाच भी करते रहे हैं सब कुछ। 

जब कुछ नहीं चला तो कश्मीर से एक महबूबा हवा चली कि आर्यन ख़ान चूंकि ख़ान है इस लिए यह सब हो रहा है। गोया गोवा क्रूज़ पर वह ड्रग लेने नहीं , नमाज पढ़ने गया था। ग़ज़ब है। कश्मीर से चली यह हवा अब रफ़्तार पकड़ चुकी है। जाने क्या हमारे देश के मुसलामानों को यह बीमारी लग गई है। कि अफजल जैसों को आतंकी नहीं मुसलमान बता कर पेश किया जाता है। गोया वह मुसलमान थे इसी लिए आतंकी बता कर फांसी दी गई। ज्यूडिशियरी किलिंग की गई। तिस पर तुर्रा यह कि हर मुसलमान आतंकी नहीं होता और कि आतंक का कोई मज़हब नहीं होता। अस्सी चूहे खा कर हज पर जाने की कहावत और क़वायद ऐसे ही तो नहीं है। 

अज़हरुद्दीन जब इंडियन क्रिकेट टीम के कैप्टन बनाए गए तब वह मुसलमान नहीं थे। पर जब मैच फिक्सिंग में फंसे तो फ़ौरन वह मुसलमान बन गए। क्या कि वह अगर मुसलमान नहीं होते तो मैच फिक्सिंग में नहीं फंसते। यह कहते हुए वह यह भी भूल गए कि उन के साथ ही अजय जडेजा, मनोज प्रभाकर, निखिल चोपड़ा आदि भी उसी मैच फिक्सिंग में फंसे थे। पर मुसलमान होते हुए भी वह हिंदू संगीता बिजलानी से दूसरा विवाह रचा सकते हैं फिर उन्हें दुत्कार कर छोड़ सकते हैं। भारत की संसद में जा सकते हैं। यह बात वह भूल जाते हैं। 

यह ठीक वैसे ही है जैसे दस साल लगातार उपराष्ट्रपति रहने के बाद हामिद अंसारी को देश में डर लगने लगता है। क्यों कि वह मुसलमान हैं। जो लोग क़ुरआन की आयत नहीं पढ़ पाते उन का कत्ल हो जाता है। कश्मीर में जिन की आइडेंटिटी कार्ड पर मुसलमान नाम नहीं दर्ज है , उन शिक्षकों को किनारे कर गोली मार दी जाती है। दवाई बेचने वाले को , गोलगप्पे बेचने वाले ग़रीब को भी सरे आम गोली मार दी जाती है , मुस्लिम आतंकियों द्वारा। पर उन्हें इस देश में डर फिर भी नहीं लगता। लेकिन धन-धान्य से परिपूर्ण मुंबई में रह रहे नसीरुद्दीन शाह , आमिर खान की तब की हिंदू बीवी को और शाहरुख़ ख़ान जैसों को यह देश डराने लगता है। यह ग़ज़ब का मुस्लिम डर है। कि आप मारें भी और डरें भी। और इस डरने का नैरेटिव रच कर आग भी मूतें। 

तो क्या आर्यन ख़ान के साथ और भी जो लोग गिरफ़्तार हैं और अभी तक ज़मानत से महरुम हैं , उन में सारे मुसलमान ही हैं ? हिंदू नहीं हैं ? तो फिर यह ख़ान सरनेम का विक्टिम कार्ड कहां से आ गया है ? क्यों आ गया है ? निश्चित रुप से देश में अब आई पी सी में भी संशोधन का समय आ गया है। नहीं कभी धर्म के नाम पर कभी जाति के नाम पर विक्टिम कार्ड खेलना और नफ़रत के तीर चलाना देश के लिए भारी पड़ रहा है। इस पर तुरंत लगाम लगनी चाहिए। अपराध , अपराध होता है। हिंदू , मुसलमान नहीं होता है। 

अच्छा कल को अगर आर्यन ख़ान को ज़मानत मिल जाती है , जैसी कि उम्मीद भी है तो क्या तब भी यह माई नेम इज ख़ान का खिलौना बाज़ार में शेष रहेगा ? या फिर कोई नया खिलौना पेशे खिदमत होगा। और जो ज़मानत में थोड़ी देर हो ही गई तो क्या कोई आज़म ख़ान की तरह संयुक्त राष्ट्र संघ में भी गुहार लगा बैठेगा ? वैसे एन सी बी ने तो आर्यन ख़ान के इंटरनेशनल ड्रग कनेक्शन के आरोप भी जड़ दिए हैं। जाने यह आरोप कोर्ट में कितना टिकेगा।

Tuesday, 5 October 2021

लखीमपुर में लाशों के साझे चूल्हे पर रोटी सेंकते लोग और कुछ सवाल

दयानंद पांडेय 

चुनाव का चरखा जो न करवा दे कम है। सूत तो सूत , लोहा भी कतवा दे। जो भी हो , लखीमपुर में लाशों के साझे चूल्हे पर रोटी सेंकने में कांग्रेस बेशक़ अव्वल निकली है। सपा के अखिलेश यादव और आम आदमी पार्टी के संजय सिंह भी कांग्रेस द्वारा जलाए गए लाश के इस साझे चूल्हे पर चुपके-चुपके रोटी सेंक रहे हैं। हैरत है कि वामपंथी रणबांकुरे लाशों के इस साझे चूल्हे पर अभी रोटी सेंकते नहीं दिखे। न ही ढपली बजाती , गीत गाती उन की नाटक मंडली की आमद है अभी तक। तो क्या उन का आटा खत्म हो गया है , लखीमपुर के लिए। या अभी आटा ही गूंथ रहे हैं। शिवपाल यादव नहीं दिखे तो कोई बात नहीं। बात समझ आती है कि मरने वालों में कोई यादव नहीं मिला होगा। और तो और असुदुद्दीन ओवैसी भी गोल हैं ज़मीन पर। हो सकता है , लाशों में कोई मुस्लिम न हो। पर दलितों की बहन मायावती भी इस लाशों के साझे चूल्हे से सिरे से अनुपस्थित हैं। एक बयान भी नहीं लुक हुआ है। तो क्या लखीमपुर की लाशों में कोई दलित भी नहीं है। या मायावती का आटा भी समाप्त हो गया। 

जो भी हो , किसान आंदोलन के लोग भले समझौते , एफ आई आर और मुआवजे से शांत दिख रहे हैं पर कांग्रेस बम-बम है। प्रियंका सीतापुर के पी ए सी गेस्ट हाऊस में झाड़ू लगा रही हैं। मोदी को संबोधित कर वीडियो दिखा रही हैं। छत्तीसगढ़ के मुख्य मंत्री बघेल लखनऊ आ कर नाखून कटवा चुके हैं।  कल राहुल गांधी भी लखनऊ पहुंच कर नाखून कटवाएंगे। नाखून कटवा कर शहीदों में नाम दर्ज करवाएंगे। क्यों कि राहुल गांधी के इशारों पर अभी तक नाचने वाले राकेश टिकैत ने अचानक पाला बदल कर कल लखीमपुर में समझौता करवा कर अपनी निष्ठा बदल कर हाल-फ़िलहाल योगी सरकार की ज़बरदस्त मदद कर दी है। नहीं अगर कल यह समझौता नहीं करवाया होता टिकैत ने , हिंसा की आग पर मिट्टी न डलवाई होती तो लखनऊ में आज नरेंद्र मोदी के आज़ादी के अमृत महोत्सव की चमक चूर-चूर हो गई होती। समूचे उत्तर प्रदेश में आज आग ही आग दिखाई देती। जो भी हो सारी कसरत और क़वायद के बावजूद कसैला बोलने वाले राकेश टिकैत ने बता दिया है कि आग सिर्फ़ पानी से नहीं , मिट्टी डाल कर भी बुझाई जाती है। दिशाहीन आंदोलन की हवा ऐसे भी निकाली जाती है। 

अपने भ्रष्टाचार के लिए अरविंद केजरीवाल की तरह थप्पड़ खाने वाले शरद पवार लखीमपुर को जलियावाला बाग़ बता चुके हैं। चूहे की तरह छेद देखते ही घुस जाने वाले शिव सैनिक और सामना के कार्यकारी संपादक संजय राऊत भी लखीमपुर में लाख लगाने की बयान बहादुरी कर चुके हैं। पश्चिम बंगाल में हिंसा की नित नई नदी बहाने वाली वहां की मुख्य मंत्री ममता बनर्जी और झारखंड के मुख्य मंत्री हेमंत सोरेन भी बयान बहादुरी में नाम दर्ज करवा चुके हैं। 

लाशें तो जल कर ख़ाक हो गई हैं पर लखीमपुर अभी भी लाल है। राजनीति की संभावनाएं मुंह बाए खड़ी हैं। सवाल यह फिर भी शेष है कि केंद्रीय गृह राज्य मंत्री अजय मिश्र की सत्ता की नाव लखीमपुर की लाशों के इस साझे चूल्हे में जल जाएगी या बच जाएगी। और कि इस बाबत एफ आई आर में नामजद उन के बेटे से पुलिस पूछताछ कर भी पाएगी ? पूछताछ करेगी भी तो कब ? फिर दंगल के मुख्य अतिथि उप मुख्य मंत्री केशव प्रसाद मौर्य लाशों के साझे चूल्हे से कब तक अनुपस्थित माने जाएंगे। आख़िर यह सारा दंगल उन के दंगल में पहुंचने की ही राह में ही तो संभव हुआ। मुख्य मीडिया ने भी जाने क्यों केशव प्रसाद मौर्या को बख्श रखा है। न कोई बयान है , न कोई बाईट , न कोई सवाल। प्रयाग में भी अभी यही हुआ था। महंत की हत्या या आत्महत्या की पूर्व संध्या पर भी वह महंत गिरी के साथ थे। ऐसा क्यों है कि केशव मौर्य जहां भी कहीं पहुंच रहे हैं , अनहोनी घट जा रही है। प्रयाग हो या लखीमपुर।

Monday, 20 September 2021

नुस्खा यह है कि काशी और मथुरा को अगर पूरी ईमानदारी से विपक्ष उठा ले तो भाजपा चारो खाने चित्त हो जाएगी !


दयानंद पांडेय 


इन दिनों कांग्रेस , सपा , बसपा , आप समेत सभी पार्टियां अयोध्या में बन रहे राम मंदिर के गुण-गान में व्यस्त हैं। क्यों कि इन्हें मुस्लिम वोटर की आंख में धूल झोंकने के बाद अब हिंदू वोटर की आंख में धूल झोंकने की सूझी है। इसी लिए जो लोग गर्भ गृह पर शौचालय बनाने की बात करते थे , मिले मुलायम कांशीराम , हवा में उड़ गए जय श्री राम ! या तिलक , तराजू और तलवार , इन को मारो जूते चार का उद्घोष करते थे। ठीक यही लोग अब राम मंदिर बनाने की बढ़-चढ़ कर बात कर रहे। ब्राह्मणों को लुभाने के लिए प्रबुद्ध सम्मेलन पर सम्मेलन कर रहे। परशुराम की भव्य मूर्ति की रेस आयोजित कर रहे हैं। जो लोग कार सेवकों पर गोली चलवाने  का अभिमान करते थे , मंदिर के लिए पत्थर अयोध्या न पहुंच पाए , इस का इंतज़ाम करते थे। वह लोग भी आज प्रभु राम के गुण-गान में व्यस्त हैं। परशुराम-परशुराम का जाप कर रहे हैं। विद्यालय बनाने की तजवीज देने वाले भी शीश झुका चुके हैं। गरज यह कि अपनी-अपनी हिप्पोक्रेसी में धूल चाट चुके हैं। या यूं कहिए कि थूक-थूक कर चाट चुके हैं। सभी के सभी। 

और तो और जो लोग प्रभु राम के अस्तित्व पर ही प्रश्न उठाते रहे , बेशर्मी की हद तक उतर कर पूछते रहे थे कि मंदिर वहीं बनाएंगे पर तारीख़ नहीं बताएंगे। अब यह लोग भी अब राम के चरणों में लेट गए हैं। फिर भी इन लोगों को चुनाव में लाभ मिलता नहीं दिख रहा , हिंदू वोटों का। इन सभी लोगों को हिंदू वोटों का लाभ मिलने का एक नुस्खा मेरे पास है। और मुफ़्त का है। जानता हूं कि मुफ़्त की राय लोग नहीं मानते चुनावी जीत की तलब वाले लोग। करोड़ो की फीस दे कर प्रशांत किशोर जैसों की राय की कद्र करते हैं लोग। लेकिन फिर भी नुस्खा बता रहा हूं , और मुफ्त में बता रहा हूं। अगर यह चौकड़ी मान जाए तो यक़ीन मानिए , पूरे उत्तर प्रदेश में भाजपा उम्मीदवारों की ज़मानत ज़ब्त हो जाएगी। 

नुस्खा यह है कि काशी और मथुरा को अगर पूरी ईमानदारी से विपक्ष उठा ले तो भाजपा चारो खाने चित्त हो जाएगी। गरज यह  कि इन लोगों को अयोध्या में राम मंदिर की स्तुति गान छोड़ कर मथुरा में कृष्ण मंदिर और काशी में बाबा विश्वनाथ मंदिर परिसर से ज्ञानवापी मस्जिद हटा कर बाबा विश्वनाथ मंदिर के निर्माण का शंखनाद कर देना चाहिए। पूरी ईमानदारी से। ईंट से ईंट बजा देनी चाहिए शिव और कृष्ण मंदिर निर्माण तक। ठीक वैसे ही जैसे नवजोत सिंह सिद्धू ने कैप्टन अमरिंदर सिंह के हटने तक उन की ईंट से ईंट बजा दी थी। बजाते रहे थे। वैसे भी राम ही नहीं , शिव और कृष्ण भी हिंदू वोटर के हृदय में वास करते हैं। राम मनोहर लोहिया ने बहुत साफ़ लिखा है : 

राम, कृष्ण और शिव भारत में पूर्णता के तीन महान स्वप्न हैं। सबके रास्ते अलग-अलग हैं। राम की पूर्णता मर्यादित व्यक्तित्व में है, कृष्ण की उन्मुक्त या संपूर्ण व्यक्तित्व में और शिव की असीमित व्यक्तित्व में लेकिन हरेक पूर्ण है। किसी एक का एक या दूसरे से अधिक या कम पूर्ण होने का कोई सवाल नहीं उठता। पूर्णता में विभेद कैसे हो सकता है? पूर्णता में केवल गुण और किस्म का विभेद होता है।

यक़ीन मानिए अगर विपक्ष के लोग मथुरा और काशी में कृष्ण और शिव का मंदिर बनाने की ठान लें जैसे भाजपा और आर एस एस के लोगों ने राम मंदिर बनाने की ठान ली थी , बना कर ही माने। तो भाजपा की योगी सरकार ही नहीं , मोदी सरकार भी यह लोग उखाड़ फेकेंगे। मोदी , योगी दुनिया में मुंह दिखाने लायक़ नहीं रहेंगे। सेक्यूलरिज्म की जीत हो जाएगी सो अलग। आप लोगों ने तमाम फ़ोटो देखी होंगी। जैसे रामलीला के समय में कोई बुरका पहने स्त्री अपने बच्चे को राम या लक्ष्मण बना कर रामलीला के लिए ले जाती हुई। कोई बुरकाधारी स्त्री अपने बच्चे को हनुमान बना देती है। कभी शिव या दुर्गा भी। कितना तो सेक्यूलरिज्म का प्रचार हो जाता है। लोगों के दिल भर आते हैं। 

कभी किसी फ़ोटो में कोई मौलाना और संन्यासी एक साथ ताश खेलते दिख जाते हैं , एक बाइक या स्कूटर पर बैठे दिख जाते हैं तो कितना तो पॉजिटिव संदेश मिल जाता है। सेक्यूलरिज्म की बांछे खिल-खिल जाती हैं। ठीक इसी तरह जब कांग्रेस , सपा , बसपा , आप समेत सब लोग जब मथुरा और काशी में कृष्ण और शिव मंदिर बना कर इन को सम्मान देने की बात करेंगे तो देश में गंगा-जमुनी सभ्यता की लहरें उछाल मारेंगी।  भाईचारे की भव्यता निखार पा जाएगी। भाजपा समाप्त हो जाएगी। आर एस एस की बुनियाद हिल जाएगी। मोदी , योगी जैसे फासिस्टों का अंत हो जाएगा। इंटरनेशनल मीडिया में , भारत में सेक्यूलरिज्म के क़सीदे पढ़े जाएंगे। बी बी सी से लगायत , फॉक्स , टाइम , न्यूज़वीक सब भारत की प्रशस्ति में बिछ-बिछ जाएंगे। कांग्रेस , सपा , बसपा , आप आदि सभी की बल्ले-बल्ले हो जाएगी ! इरफ़ान हबीब जैसे लोग भारत में अमन-चैन के इतिहास की नई इबारत लिखेंगे। 

अब मुफ़्त का यह नुस्खा भले है पर है बहुत काम का। बात बस हिप्पोक्रेसी त्याग कर आज़मा लेने की है। अगर मोदी , योगी को हटाने का ज़ज़्बा है तो। हिंदू वोट की सचमुच तलब है तो। बाक़ी सिर्फ़ नौटंकी है तो यह नौटंकी मुसलसल जारी रखिए। हाल-फ़िलहाल के चुनाव में तो जनता आप को कतई कोई घास नहीं डालने वाली। इस लिए भी कि जनता-जनार्दन आप की नौटंकी के तार-बेतार सब जान चुकी है। किसान आंदोलन आदि के स्वांग भी अब स्वर्गीय हो चुके हैं। जीवित रहने का अब बस यही एक नुस्खा शेष रह गया है। गंगा-जमुनी तहज़ीब की नई इबारत लिखने का। ऐतिहासिक ग़लतियों को सुधार कर नया इतिहास रचने का। कभी जाइए आप काशी। काशी के विश्वनाथ मंदिर परिसर में ज्ञानवापी को निहारिए। 

पूरा शिल्प , पूरा वास्तु मंदिर का है। बस भीतर मूर्तियां नहीं हैं। इसी तरह जाइए कभी मथुरा। कृष्ण का जन्म-स्थान देखिए। क्या कंस की जेल इतनी छोटी , इतनी कमज़ोर रही होगी। फिर मंदिर और मस्ज़िद की दीवार एक कैसे हो गई। मंदिर इतना छोटा , इतना कमज़ोर और मस्जिद इतनी बुलंद और शानदार। यह कैसे मुमकिन है भला। स्पष्ट है कि यह आक्रांताओं की क्रूरता का नतीज़ा है। आक्रमणकारी मनोविज्ञान है। तोड़-फोड़ है। तर्क और तथ्य तो यही है। सो इस ऐतिहासिक चूक को सही मायने में दुरुस्त करने का समय है यह। नहीं देश सांप्रदायिकता की आग में बरसो-बरस झुलसता ही रहेगा। यह कांग्रेस , यह वामपंथी , बसपा , सपा आदि-इत्यादि सब के सब इस आग में अपना हाथ सेंकते रहेंगे। हिंदू-मुसलमान करते रहेंगे। 

उलटे चोर कोतवाल को डांटे की तर्ज पर भाजपा और आर एस एस पर तोहमत लगाते हुए देश में नफ़रत और जहर की खेती करते रहेंगे। मनुष्यता को कलंकित करते हुए मुस्लिम वोट बैंक , हिंदू वोट बैंक की बिरयानी खाते रहेंगे। ज़रुरत इस बिरयानी की सप्लाई को बंद करने की है। देश को तालिबान में तब्दील होने से रोकने की ज़रुरत है। क्यों कि कोई बात कभी भी एकतरफा और कुतर्क पर सर्वदा नहीं चल सकती। चलती होती तो आज इरफ़ान हबीब जैसे नाज़ायज़ और झूठे इतिहासकार सवालों के घेरे में न होते। इतना कि वह आज की तारीख़ में समुचित जवाब देने की हैसियत में भी नहीं रह गए हैं। सवाल-दर-सवाल खड़े हैं और वह अपने ही झूठ के मलबे में दबे हुए चुप-चुप से हैं।

Sunday, 19 September 2021

क्यों कि पंजाब अब एक नया अफ़ग़ानिस्तान है कांग्रेस के लिए

दयानंद पांडेय 

अगर आप को लगता है कि पंजाब में जो भी कुछ हो रहा है वह सिद्धू और कैप्टन अमरिंदर सिंह की जंग है तो आप बहुत मासूम और निर्दोष लोग हैं। आप मानिए , न मानिए पर पंजाब अब कांग्रेस का एक नया अफ़ग़ानिस्तान है कांग्रेस के लिए। असल में यह जंग कैप्टन अमरिंदर सिंह और राहुल गांधी की जंग है। सुविधा के लिए कैप्टन अमरिंदर सिंह को अमरीका मान लीजिए और राहुल गांधी को तालिबान। नवजोत सिंह सिद्धू तो जमूरा है। एक मामूली सा टूल है। कैप्टन खुल कर कह ले रहे हैं कि अब वह अपना अपमान और नहीं बर्दाश्त कर पा रहे थे इस लिए इस्तीफ़ा दे दिया। लेकिन राहुल गांधी न कह पाए , न कह पा रहे , न कह पाएंगे। कि वह अपमानित हैं। अपमानित होना ही अब उन का नसीब है। कि कांग्रेस के बहादुरशाह ज़फ़र हैं वह अब। 

सच तो यह है कि बीते नौ , साढ़े नौ साल से कैप्टन अमरिंदर सिंह निरंतर राहुल गांधी को अपमानित कर रहे थे। राहुल गांधी की परिक्रमा न कर के। राजीव गांधी के बग़ावती विवाह के बाद हरिवंश राय बच्चन और तेजी बच्चन के दिल्ली के घर से निकल कर राजीव गांधी और सोनिया गांधी कैप्टन अमरिंदर सिंह के पटियाला के राज महल में काफी समय रहे थे। राजीव गांधी , अमरिंदर सिंह के स्कूली दिनों के दोस्त रहे हैं। बल्कि अमरिंदर सिंह से एक साल जूनियर थे स्कूल में राजीव गांधी। तो राहुल गांधी और प्रियंका गांधी को अपना बच्चा मानते थे कैप्टन। जब कि सोनिया गांधी से भी वह बराबरी से बात करते थे। परिक्रमा कैसे करते भला। 

लेकिन राहुल गांधी और सोनिया गांधी खुद को कांग्रेस का , भारत का खुदा मानते हैं। यह उन की खुदाई का अहंकार ही है जो किसी को बराबरी से उन से मिलने नहीं देता। कभी किसी वीडियो में सोनिया गांधी के साथ प्रधान मंत्री के रुप में मनमोहन सिंह को देख लीजिए। मनमोहन सिंह की दुर्दशा और अपमान देख कर आप को उन पर निरंतर तरस आता रहेगा। सोचेंगे कि यह आदमी प्रधान मंत्री है या सोनिया गांधी का ज़रख़रीद ग़ुलाम ! अमिताभ बच्चन की याद कीजिए। वह भी राजीव गांधी के बाल सखा थे। सो बराबरी से मिलते थे। आंख से आंख मिला कर। 

यह अमिताभ बच्चन ही थे जो राजीव गांधी के साथ सोनिया गांधी के पहली बार भारत आने पर दिल्ली एयरपोर्ट पर अकेले रिसीव करने पहुंचे थे। और राजीव , सोनिया को ले कर अपने पिता हरिवंश राय बच्चन के गुलमोहर पार्क वाले घर पर ले आए थे। क्यों कि राजीव गांधी की मां इंदिरा गांधी जो तब भारत की ताक़तवर प्रधान मंत्री थीं , राजीव गांधी और सोनिया गांधी की दोस्ती और होने वाली शादी के ज़बरदस्त ख़िलाफ़ थीं। ख़ैर बाद में हरिवंश राय बच्चन और तेजी बच्चन ने ही सोनिया गांधी का कन्यादान किया। उन के घर पर ही शादी भी हुई। 

कुल जमा यह कि राजीव गांधी और अमिताभ बच्चन बहुत आत्मीय मित्र थे। बचपन में साथ खेले थे। इलाहाबाद से लगायत दिल्ली तक। इतना ही नहीं कालांतर में राहुल और प्रियंका भी इन्ही तेजी बच्चन और हरिवंश राय बच्चन के साथ अपने बचपन के अधिकांश दिन बिताए हैं। इन्हीं के अभिभावकत्व में रहे हैं। एक बार प्रियंका गांधी से पूछा गया था कि आप की हिंदी इतनी अच्छी कैसे है। प्रियंका गांधी ने बेसाख्ता कहा था , तेजी बच्चन की वज़ह से। बचपन में उन्हीं के साथ रही हूं। उन्हों ने ही सिखाया है। 

मतलब पारिवारिक प्रगाढ़ता भी थी अमिताभ बच्चन और गांधी परिवार में। इतना कि कुली फ़िल्म की शूटिंग में घायल हुए अमिताभ बच्चन को देखने बतौर प्रधान मंत्री इंदिरा गांधी उन्हें अस्पताल देखने भी गई थीं। अमिताभ बच्चन के बचपन की बहुत सी फ़ोटो भी मैं ने इंदिरा गांधी , राजीव गांधी , संजय गांधी और अमिताभ बच्चन की एक साथ देखी हैं। एक फ़ोटो तो दारा सिंह के साथ की है। जिस में इंदिरा गांधी , दारा सिंह , राजीव गांधी , अमिताभ बच्चन और संजय गांधी हैं। इस फ़ोटो में इंदिरा गांधी , राजीव , अमिताभ , संजय सभी दारा सिंह के साथ खड़े हो कर खुश हैं। बहुत खुश। अमिताभ और राजीव गांधी दोनों तब टीनएज हैं। 

इतना ही नहीं , इंदिरा गांधी की हत्या के बाद अमिताभ बच्चन फ़िल्म और ग्लैमर छोड़ कर राजीव गांधी का साथ और भरोसा देने के लिए निजी तौर पर लगातार साथ देखे गए। इलाहाबाद से चुनाव भी लड़े राजीव गांधी के कहने पर और हेमवतीनंदन बहुगुणा जैसे महारथी को हरा दिया था अमिताभ बच्चन ने। बाद में राजीव के चक्कर में बोफ़ोर्स का दाग़ भी लगा अमिताभ बच्चन पर। किसी तरह चंद्रशेखर राज में अमर सिंह ने अमिताभ बच्चन के नाम से बोफ़ोर्स का दाग़ मिटवा दिया। पर राजीव गांधी के विदा हो जाने के बाद सोनिया गांधी की इसी खुदाई अहंकार से टूट कर बर्बाद हुए थे एक समय यही अमिताभ बच्चन। सड़क पर आ गए थे। दिवालिया हो गए थे। मुंबई के दोनों घर केनरा बैंक द्वारा नीलामी पर आ गए। 

पी चिदंबरम उन दिनों वित्त मंत्री थे। लगता था कि जैसे अमिताभ बच्चन को बरबाद करने के लिए ही वह वित्त मंत्री बनाए गए हैं। एक सूत्रीय कार्यक्रम था उन का जैसे अमिताभ बच्चन को बरबाद करना। वह तो किस्मत के धनी थे अमिताभ बच्चन। कि उन्हें अमर सिंह और सुब्रत रॉय सहारा जैसे लोग मिले। तिकड़म से ही सही अमिताभ बच्चन का दोनों घर नीलामी से बच गया। फिर कौन बनेगा करोड़पति कार्यक्रम मिला। अमिताभ बच्चन ने अपने को फिर से खड़ा कर लिया। अब वह सदी के महानायक का रुतबा हासिल कर बैठे हैं। 

नहीं तब के दिनों जब कोई सोनिया परिवार से उन के संबंधों और क़रीबी की बात करता तो अमिताभ तब अपने बरबादी के दिनों में कुढ़ कर सोनिया को राजा , खुद को रंक कहते हुए कहते हुए कहते थे , हमारी उन की क्या तुलना , क्या संबंध ! राजा और रंक का क्या संबंध ! अलग बात है अमिताभ बच्चन को सहारा देने के चक्कर में सुब्रत रॉय खुद बेसहारा हो गए। बरबाद हो गए। क्यों कि जब सोनिया गांधी को पता चला कि अमिताभ बच्चन का घर नीलाम होने से बचाने में सुब्रत रॉय सहारा का हाथ है है तो उन्हों ने वित्त मंत्रालय में तैनात चिदंबरम नाम की तोप सहारा की तरफ मोड़ दी। कुछ चिदंबरम नाम की तोप , कुछ सुब्रत रॉय का अपना अहंकार , कुछ उन के कारोबार की कमज़ोर नस ने सहारा को तहस-नहस कर दिया। ऐसे अनेक क़िस्से हैं। 

तो कैप्टन अमरिंदर सिंह भी अब मां-बेटे की तोप के सामने हैं। ग़नीमत है कि केंद्र में मोदी की सरकार है। अगर मां-बेटे की सरकार होती तो कैप्टन अमरिंदर सिंह कब के अपने राजमहल से बेघर हो गए होते। मुख्य मंत्री पद क्या चीज़ है भला। जो भी हो कैप्टन ने चरणजीत सिंह चन्नी को पंजाब का मुख्य मंत्री बनने की बधाई दे ज़रुर दी है पर सरकार कितने दिन चलने देंगे , यह देखना दिलचस्प होगा। अभी हाल ही जालियांवाला बाग़ के बाबत जब राहुल गांधी ने विपरीत टिप्पणी की थी तब कैप्टन अमरिंदर सिंह खुल कर राहुल गांधी की उस टिप्पणी से अपनी असहमति दर्ज करवा बैठे थे। कैप्टन अमरिंदर सिंह की विदाई का प्रस्थान बिंदु उसी दिन तय हो गया था। 

अब तो ख़ैर , आने वाला समय ही बताएगा कि पंजाब चुनाव चरणजीत सिंह चन्नी के मुख्य मंत्री रहते होगा कि राष्ट्रपति शासन के तहत। क्यों कि कैप्टन वह सैनिक हैं जो थक कर , हार मान कर बैठ जाने के लिए नहीं जाने जाते। जब कि राहुल गांधी अपनी कुंडली में शिकस्त ही शिकस्त का लंबा सिलसिला लिखवा कर पैदा हुए हैं। तिस पर उन का अहंकार और फिर डिस्ट्रक्टिव और तुग़लकी दिमाग। पंजाब को जाने किस करवट और किस बिसात पर बैठा दे , यह तो नरेंद्र मोदी भी नहीं जानते। क्यों कि पंजाब अब एक नया अफ़ग़ानिस्तान है कांग्रेस के लिए। अभी बहुत सी मिसाइलें हैं कैप्टन अमरिंदर सिंह के पास। जब कि राहुल गांधी और नवजोत सिंह सिद्धू दोनों ही भटकी हुई मिसाइल हैं। कब किस पर नाजिल हो जाएं , यह दोनों ख़ुद भी नहीं जानते। 

हां , पंजाब के इस कांग्रेसी घमासान में अगर किसी की पांचों उंगलियां घी में हैं तो वह आम आदमी पार्टी के अरविंद केजरीवाल की हैं। केजरीवाल आज उत्तराखंड के हल्द्वानी में चुनावी घोषणाओं की बरसात भले कर रहे थे पर उन के चेहरे पर मुस्कान और उल्लास पंजाब फतेह कर लेने की थी। पंजाब का अगला मुख्य मंत्री बनने का उन का सपना पुराना है। लोग कह रहे हैं कि बिल्ली के भाग्य से छींका टूटने वाला है। जो भी हो आप लोग फ़िलहाल पंजाब में बने कांग्रेस के नए अफ़ग़ानिस्तान का आनंद लीजिए। और सुखजिंदर रंधावा से मिठाई और बधाई का दिन दहाड़े हुए मुख्य मंत्री पद के गर्भपात का हाल पूछिए। 

अंबिका सोनी से पूछिए कि बीमारी के बहाने से आगे की थाली कैप्टन के लिहाज़ में छोड़ी या राहुल गांधी और सिद्धू नामक भटकी हुई मिसाइलों के खौफ से। चरणजीत सिंह चन्नी को बधाई दीजिए कि उन की लाटरी खुल गई ! उन का दलित कितना फलित होगा यह तो 2022 का चुनाव परिणाम बताएगा। पर उस आई ए एस महिला से मी टू का दर्द कौन पूछेगा जिस का लांछन चरणजीत सिंह चन्नी पर अभी भी चस्पा है। एक बात और। वह यह कि हमारे आदरणीय मित्र और लेखक भगवान सिंह की राय है कि पाकिस्तान , तालिबान और चीन की घुसपैठ करवाने , आतंकियों को मज़बूत करने के लिए कांग्रेस हाईकमान ने कैप्टन अमरिंदर सिंह को हटाया है ताकि देश में अस्थिरता फैलाई जा सके। देश को कमज़ोर किया जा सके।

Tuesday, 14 September 2021

मोदी का असली मक़सद जिन्नावादी राजनीति पर अलीगढ़ी ताला लगाना ही है , किसान आंदोलन की हवा निकालने की क़वायद भर नहीं है यह

दयानंद पांडेय 

पपीते की खेती और कटहल की खेती का फ़र्क़ समझते हैं आप ? नहीं समझते तो बताए देता हूं। पपीता का पौधा लगाइए तो छ महीने में ही फल देने लगता है। पर फिर छ महीने बाद दिखाई भी नहीं देता है। लेकिन कटहल का पौधा लगाइए तो सात-आठ साल तक फल नहीं देता। कई बार सोलह साल तक भी फल नहीं देता। पर जब फल देना शुरु करता है तो सालों साल पीढ़ियों तक फल देता है। देता ही रहता है। तो नरेंद्र मोदी को पपीते की नहीं , कटहल की खेती करने का अभ्यास है। यक़ीन न हो तो कश्मीर में 370 की याद कर लीजिए। बालाकोट ,उरी सर्जिकल स्ट्राइक आदि भी। अच्छा सी ए ए , तीन तलाक़ आदि-इत्यादि भी आप जोड़ना चाहते हैं तो जोड़ लीजिए।  

अलीगढ़ में आज राजा महेंद्र प्रताप सिंह नाम से विश्वविद्यालय का शिलान्यास कर नरेंद्र मोदी ने फिर वही कटहल का एक पौधा लगाया है। बकौल मुख्य मीडिया के गुलामों के सिर्फ़ जाटों में पैठ की राह बनाने और किसान आंदोलन की हवा निकालने की क़वायद भर नहीं है यह राजा महेंद्र प्रताप सिंह नाम से विश्वविद्यालय का शिलान्यास। इस शिलान्यास के मार्फ़त मोदी का असली मक़सद जिन्नावादी राजनीति पर अलीगढ़ी ताला लगाना ही है। सिर्फ़ अलीगढ़ में ही नहीं , समूचे देश में। अब मोदी इस मक़सद में कितना कामयाब होंगे यह आने वाला समय ही बताएगा। ग़ौरतलब है कि पाकिस्तान बनाने में अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी और लखनऊ के मुसलामानों का बहुत बड़ा हाथ रहा है। आज भी अलीगढ़ यूनिवर्सिटी में जिन्ना की फ़ोटो शान से लगी हुई है तो इस लिए भी कि यहां से पाकिस्तानपरस्ती की बदबू अभी तक नहीं गई है। जब भी कभी जिन्ना की फ़ोटो अलीगढ़ यूनिवर्सिटी से हटाने की बात उठती है , आग लग जाती है। यहां के पाकिस्तानपरस्त बड़ी ऐंठ से कहते हैं , पहले फला-फला जगह से जिन्ना की फ़ोटो हटाओ। तब देखेंगे। ईंट से ईंट बजाने पर उतर आते हैं। 

ग़ौरतलब है कि जब मदन मोहन मालवीय ने बनारस में बनारस हिंदू विश्विद्यालय बनाया तो उस के संस्थापक सदस्यों में एक सर सैयद अहमद ख़ान भी थे। मालवीय जी से प्रेरणा ले कर वह अलीगढ़ आए और अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी बनवाई। बनारस के राजा ने बनारस हिंदू विश्विद्यालय के लिए कई सारे गांव की ज़मीन दान में दी थी। उसी तर्ज पर सर सैयद अहमद ख़ान ने भी राजा महेंद्र प्रताप सिंह से ज़मीन मांगी और महेंद्र प्रताप सिंह सहर्ष दे भी दी। अब अलग बात है कि जो सम्मान महेंद्र प्रताप सिंह को अलीगढ़ यूनिवर्सिटी वालों को देना चाहिए था , कभी नहीं दिया। बल्कि भूल गए महेंद्र प्रताप सिंह को। अपमान की हद तक भूल गए। जिन्ना को सम्मान देने वाले लोग महेंद्र प्रताप सिंह को सम्मान दे भी कैसे सकते थे भला। बनारस हिंदू विश्वविद्यालय तो आज तक हिंदुत्व का गढ़ कभी नहीं बना। बनेगा भी नहीं। उस की बुनियाद आख़िर मदन मोहन मालवीय जैसे तपस्वी ने रखी है। 

लेकिन अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी बहुत जल्दी ही मुस्लिम लीग की गिरफ़्त में आ गया। न सिर्फ़ मुस्लिम लीग की गिरफ्त में आया बल्कि मुस्लिम लीग का गढ़ भी बन गया। फिर पाकिस्तान बनाने का केंद्र भी बन गया। अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी केंद्रीय यूनिवर्सिटी होने के बावजूद आज भी मुस्लिम लीग की भयानक गिरफ्त में है। एक समय तो यह आतंकियों का अड्डा भी बन कर इतना बदनाम हुआ कि यहां से पढ़ कर निकले छात्रों को कहीं नौकरी भी मिलना मुहाल हो गया था। नतीज़तन फैकल्टी की फैकल्टी ख़ाली होने लगीं। फिर किसी तरह स्थिति संभली। अभी भी मोदी के सात साल के शासन में तमाम कोशिशों के बावजूद अलीगढ़ यूनिवर्सिटी पर चढ़ा मुस्लिम लीग का रंग का फीका नहीं हुआ। नफ़रत का नश्तर और तेज़ हुआ है। हां , यह ज़रूर हुआ है कि मुस्लिम लीग की बदबू से बचने के लिए यहां कुछ लोगों ने कम्युनिस्ट होने का कपड़ा पहन लिया। पर सोच वही मुस्लिम लीग वाली रही। अपने को इतिहासकार बताने वाले इरफ़ान हबीब जैसे जहरीले लोग , ऐसे ही लोगों में शुमार हैं। जो हैं तो कट्टर लीगी लेकिन कपड़ा कम्युनिस्ट का पहनते हैं। और आर एस एस का कृत्रिम भय दिखा-दिखा कर अपना लीगी एजेंडा कायम रखते हैं। 

एक वाकया है। जब पकिस्तान बन गया और मुस्लिम लीग के तमाम लोग भारत में ही रह गए तो अपना चेहरा छुपाने के लिए फ़ौरन कम्युनिस्ट पार्टी में दाख़िल हो गए। उन दिनों देश के शिक्षा मंत्री थे मौलाना आज़ाद। उन्हों ने मुस्लिम लीग पर एक टिप्पणी करते हुए तब कहा था कि एक सैलाब आया था , चला गया। पर कुछ गड्ढों में सैलाब का पानी रह गया है और बदबू मार रहा है। अलीगढ़ यूनिवर्सिटी में कम्युनिस्ट पार्टी का कपड़ा पहने मुस्लिम लीग के लोग मौलाना आज़ाद की इस बात पर बहुत खफा हुए। इस हद तक खफा हुए कि एक बार इन लीगी कम्युनिस्टों को पता चला कि मौलाना आज़ाद किसी ट्रेन से अलीगढ़ से गुज़रने वाले हैं। यह लोग अलीगढ़ रेलवे स्टेशन आए। रेल पटरियों पर बिखरे मानव मल को प्लास्टिक के थैलों में बटोरा। और जब ट्रेन आई तो मौलाना आज़ाद के डब्बे में चढ़ गए और वह मानव मल मौलाना आज़ाद की दाढ़ी में मल-मल कर लगा दिया। और डब्बे से उतर कर भाग गए। 

मौलाना आज़ाद जब तक कुछ समझें तब तक ट्रेन चल चुकी थी। तो क्या मौलाना आज़ाद आर एस एस के थे ? फिर सोचिए कि आर एस एस के लोगों के साथ भी यह लोग क्या सुलूक़ करते होंगे भला ? सांप्रदायिक सोच और रंग में डूबे मुस्लिम लीग के लोगों का आज तक कोई सरकार कुछ नहीं कर पाई है। नरेंद्र मोदी सरकार भी नहीं। क्यों कि अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी का कवच-कुण्डल इन के पास है। अब इसी कवच-कुण्डल को बेअसर करने की क़वायद है महाराजा महेंद्र प्रताप सिंह यूनिवसिटी। आप सोचिए कि जय भीम , जय मीम का नैरेटिव बनाने वाले मुस्लिम लीग ऊर्फ कम्युनिस्ट पार्टी के लोग इस अलीगढ़ यूनिवर्सिटी में दलितों को आरक्षण की सुविधा से वंचित रखते हैं। यहां जय भीम , जय मीम का नैरेटिव वह भूल जाते हैं। और देश भर में इसी जय भीम , जय मीम के तहत जब-तब आग लगा देते हैं। 

तो मोदी , योगी ने एक तीर से कई निशाने साध लिए हैं। रही बात टिकैत के किसान आंदोलन की तो इस की मियाद उत्तर प्रदेश के विधान सभा चुनाव तक की है। उत्तर प्रदेश विधान सभा चुनाव खत्म , किसान आंदोलन खत्म। इसी लिए सरकार इन की कोई मांग मानने वाली नहीं है। इन की साज़िश में फंसने वाली नहीं है। शाहीन बाग़ से भी बुरा हश्र होगा इस किसान आंदोलन का। अव्वल तो तक-हार कर , कोई नतीज़ा न पा कर कांग्रेस किसान आंदोलन को फंडिंग बंद कर देगी। दूसरे , तब तक कम्युनिस्टों का जोश और रोजगार भी खत्म हो जाएगा। 2022 के उत्तर प्रदेश विधान सभा चुनाव का परिणाम समय की दीवार पर अभी से लिखा दिख रहा है। अगर किसी को मोतियाबिंद है और वह समय की दीवार पर लिखी चुनाव परिणाम की इस इबारत को नहीं पढ़ पा रहा है तो बात और है। आप तो अभी बस राजा महेंद्र प्रताप सिंह नाम से विश्वविद्यालय का आगाज़ देखिए। मोदी ने अगर आज कल्याण सिंह की याद करते हुए उन का आशीर्वाद भी इस अवसर पर सहेज लिया है तो उस का निहितार्थ भी देखिए। मोदी के पहले दिए गए योगी के भाषण की धार और आत्म विश्वास देखिए। मोदी के सामने योगी का ऐसा मुखर भाषण पहले कभी सुना हो तो मुझे ज़रा याद दिला दीजिए। टोटी यादव की लंतरानी और टिकैत की हेकड़ी में उस के बाद फ़र्क़ न दिखा हो तो बताइए। 

फिर सौ बात की एक बात राजा महेंद्र प्रताप सिंह नाम से विश्वविद्यालय रुपी पौधे के फल देने की प्रतीक्षा कीजिए। हां , आज बहुत तलाश किया कि कम्युनिस्ट का कपड़ा पहने लीगी इतिहासकार इरफ़ान हबीब की कोई जहरीली प्रतिक्रिया कहीं दिख जाए इस राजा महेंद्र प्रताप सिंह नाम से विश्वविद्यालय के बाबत पर नहीं दिखी। किसी ने देखी हो तो कृपया बताए भी। क्यों कि यह मोहतरम इरफ़ान हबीब रहते तो इसी अलीगढ़ में हैं। इतिहास के नाम पर तमाम फ़रेबी और झूठ में सनी इबारतें इसी अलीगढ़ में बैठ कर लिखी हैं। 

पिछली बार जब मोदी ने वर्चुवली एड्रेस किया था , अलीगढ़ यूनिसिटी को तो इन मोहतरम इरफ़ान हबीब ने अजब-गज़ब जहर उगले थे। एक बार तो यह जनाब केरल चले गए थे। अपना बुढ़ापा भूल कर वहां के राज्यपाल आरिफ़ मोहम्मद ख़ान से मंच पर दो-दो हाथ करने। उन के ए डी सी ने रोका तो ए डी सी के कपड़े फाड़ दिए। ए डी सी के बिल्ले , बैज फाड़ दिए। आप जानते ही होंगे कि किसी भी राज्यपाल का ए डी सी सेना का सम्मानित अफसर होता है। अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी से ही पढ़े आरिफ़ मोहम्मद ख़ान की भलमानसहत थी कि कोई विधिक कार्रवाई नहीं की जनाब के ख़िलाफ़। नहीं सरकारी सेवक के साथ हिंसा करने के जुर्म में अच्छी सेवा हो सकती थी। मुझे पूरी आशंका थी कि जनाब मोदी की सभा में भी कुछ हिंसात्मक कार्रवाई कर कोई इतिहास रच सकते हैं , यह इतिहासकार महोदय। पर जाने क्यों आज जनाब ने दिल तोड़ दिया। मुमकिन है कहीं बैठे अपने इतिहास का पपीता नोश फ़रमाने में व्यस्त हो गए हों मोहतरम इरफ़ान हबीब। 




Thursday, 9 September 2021

तू इस आंचल से इक परचम बना लेती तो अच्छा था

 दयानंद पांडेय 

अफगानिस्तान की यह परदेदारी वाली तस्वीर फ़ेसबुक पर घूम रही है। सोचा कि मैं भी घुमा दूं। पर यह बताते हुए कि यह स्थिति अफगानिस्तान में तालिबान की  है ज़रुर पर भारत में भी ऐसी तस्वीरें और मंज़र आम रहे हैं। अली सरदार ज़ाफ़री ने कुछ शायरों के जीवन पर लघु फ़िल्में बनाई हैं। फ़िराक़ , जिगर , मजाज़ , जोश आदि पर। मजाज़ लखनवी की फ़िल्म में एक दृश्य है कि वह अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी में कुछ छात्राओं को अपना कलाम सुना रहे हैं। और सामने उन के छात्राएं नहीं , बल्कि ब्लैक बोर्ड है। ब्लैक बोर्ड के पीछे दूसरी क्लास है जिस में छात्राएं बैठी हैं और मजाज़ का कलाम बड़ी तल्लीनता से सुन रही हैं। ग़ौरतलब है कि मजाज़ लखनवी भी तब अलीगढ़ मुस्लिम यूनिर्सिटी के छात्र हैं और छात्राओं की बहुत फरमाइश पर उन्हें अपना कलाम सुना रहे हैं। तब यह सब है। 

अलग बात है कि मजाज़ भले ब्लैक बोर्ड को अपना कलाम सुना रहे हैं पर लाख परदेदारी के उन का कलाम सुन रही एक छात्रा न सिर्फ़ उन की फैन बन जाती है बल्कि बाद में दिल्ली में एक डाक्टर से विवाहित होने के बावजूद उन की असल ज़िंदगी में आहिस्ता से दाख़िल हो जाती है। न सिर्फ़ दाख़िल हो जाती है , मजाज़ को दीवाना बना देती है। मजाज़ की ज़िंदगी बन जाती है। पैसे वाली औरत है। रईसाना ठाट-बाट से रहती है। दिल्ली के अपने घर बुलाने लगती है। उन के साथ मुंबई के होटल में भी रह जाती है। बाद में मजाज़ की बर्बादी का सबब भी बन जाती है। मजाज़ घनघोर शराबी बन जाते हैं। कुछ शराब , कुछ उस औरत का ग़म मजाज़ को मौत की राह पार खड़ा कर देती है। और लखनऊ में सर्दियों की एक रात खुली छत पर मयकशी के बाद सो जाते हैं। फिर अगली सुबह उन की मृत देह मिलती है। 

कहने का सबब यह कि औरतों के शबाब के जिस क़यामत से बचने के लिए यह परदेदारी का पहरा लगाया जाता है , बिना हिजाब के औरत को कटा हुआ तरबूज बताया जाता है , शरिया की तलवार के दम पर , उस का आख़िर हासिल क्या है ? मजाज़ की दर्दनाक मौत ? एक मजाज़  लखनवी ही क्यों , जाने कितने मजाज़ ऐसी दर्दनाक मौत बसर कर चुके हैं। बताता चलूं कि मजाज़ लखनवी न सिर्फ आला दर्जे के शायर हैं बल्कि उन के पिता तब के समय तहसीलदार रहे थे सो बड़े नाज़ से पालन-पोषण हुआ था। शानो-शौकत से रहते थे। आकाशवाणी में शानदार नौकरी भी मिली थी मजाज़ को। इतना ही नहीं , अलीगढ़ यूनिवर्सिटी का तराना भी मजाज़ लखनवी का ही लिखा है। इन दिनों तालिबान और संघ की तुलना पर विवाद में घिरे जावेद अख़्तर इन्हीं मजाज़ लखनवी के भांजे हैं। लेकिन जावेद अख़्तर जिस गिरगिट की तरह रंग बदलते रहते हैं , मजाज़ लखनवी ऐसे न थे। मजाज़ लखनवी अलीगढ़ यूनिवर्सिटी में पढ़ने के बावजूद लीगी नहीं थे। मर्द आदमी थे। हिजाब , वुजाब की ऐसी तैसी करते हुए लिखते भी थे :


तिरे माथे पे ये आंचल बहुत ही ख़ूब है लेकिन 

तू इस आंचल से इक परचम बना लेती तो अच्छा था। 


मजाज़ का पूरा नाम था - असरार-उल-हक़ मजाज़।

Wednesday, 8 September 2021

गृहस्थी में ऐसी उलझी कि प्यार का सारा आदाब भूल गई

पेंटिंग : मदनलाल नागर 


ग़ज़ल / दयानंद पांडेय 

प्रेम ही प्रेम था जीवन में पर प्रेम का हिसाब किताब भूल गई 
गृहस्थी में ऐसी उलझी कि प्यार का सारा आदाब भूल गई 

नशा ही नशा था उस के प्यार और प्यार के उस मेयार में 
नशा उतरा भी नहीं था कि प्यार की सारी शराब भूल गई 

वक़्त कैसे और क्या से क्या कर देता है जीवन में अब जाना 
लोग क्या कहेंगे के पाखंड में ऐसा झूली सारा इंक़लाब भूल गई 

पूर्णमासी का चांद देख कर होती थी न्यौछावर उस के साथ 
प्रेम की वह जुगलबंदी , वह बंदिश और सारा शादाब भूल गई 

ज़िम्मेदारी की दुनिया में कब एक जंगल दूर-दूर तक फ़ैल गया 
जिस पेड़ को पानी बन कर सींचा उस पानी की किताब डूब गई 

ज़िंदगी में प्रेम की इबारत पढ़नी सीखी थी धीरे-धीरे , निहुरे-निहुरे 
गोमती में इक डूबता चांद क्या देखा ज़िंदगी के सारे सुरख़ाब भूल गई 



[ 8 सितंबर , 2021 ]

Tuesday, 7 September 2021

भारत अब कृषि प्रधान देश नहीं , कारपोरेट प्रधान देश है , किसान आंदोलन के खिदमतगारों को जान लेना चाहिए

 

दयानंद पांडेय 


जिन विद्वानों को लगता है , राकेश टिकैत विधान सभा चुनाव में भाजपा के लिए सिर दर्द है , उन्हें जान लेना चाहिए कि 26 जनवरी को लालक़िला समेत पूरी दिल्ली में उपद्रव और मुज़फ्फर नगर में अल्ला हो अकबर ने राकेश टिकैत का ही मामला ख़राब कर दिया है। टिकैत के रोने में राजनीतिज्ञ डर सकता है , प्रशासन डर सकता है। हो सकता है यह सत्ता पक्ष की कोई चाल और रणनीति भी हो। पर घड़ियाली आंसुओं में वोटर नहीं डरता। नहीं  बहकता। कांग्रेस के पैसे और मस्जिदों के चंदे से किसान आंदोलन क्या कोई आंदोलन नहीं चलता। शहर-दर -शहर शाहीनबाग भी नहीं। 

हां , इस किसान आंदोलन में अगर कोई सब से ज़्यादा फ़ायदे में है तो वह वामपंथी साथी हैं। उन्हें रोजगार भी मिल गया है और मोदी को गरियाने का गोल्डन अवसर भी। मज़दूरों से हड़ताल करवा-करवा कर मुंबई , कोलकाता और कानपुर जैसे तमाम शहरों को उद्योगविहीन करवा कर बिल्डरों का शहर बनवा दिया। बिल्डरों से अकूत पैसा बटोरा। अपने बच्चों को यू के , यू एस में सेटल्ड करवा दिया। अब स्कॉच पीते हुए , किसानों की सेवा में लग गए हैं। लेकिन भारत के किसान , फैक्ट्रियों के मज़दूर नहीं हैं। 

क्यों कि भारत अब भी कृषि प्रधान देश है , इस पर मुझे शक़ है। भारत अब कारपोरेट प्रधान देश है। यह तथ्य किसान आंदोलन के खिदमतगारों को जान लेना चाहिए। इस सचाई को हमारे वामपंथी साथियों समेत तमाम आंदोलनकारियों को समय रहते जान-समझ लेना चाहिए। आवारा पूंजी ही अब देश संचालित कर रही है। आंदोलन वगैरह अब सिर्फ़ आत्ममुग्धता की बातें हैं। इंक़लाब ज़िंदाबाद नहीं सुनाई देता अब आंदोलनों में। अल्ला हो अकबर , हर-हर महादेव सुनाई देता है। पता नहीं , हमारे वामपंथी इस नारे को सुन पा रहे हैं कि नहीं। भाजपाई , संघी और सावरकर के नैरेटिव में ही जाने कब तक फंसे रहेंगे। कांग्रेसियों और वामपंथियों को इस छल भरे नैरेटिव से निकल कर ज़मीनी बातों पर ध्यान देना चाहिए। 

राकेश टिकैत द्वारा कुछ रटे-रटाए वामपंथी जुमलों के बोल देने भर से यह किसान आंदोलन तो कम से कम नहीं चलने वाला। टिकैत की हेकड़ी भरी जुबान और लंठई आचरण से भी नहीं। यह किसान आंदोलन वैसे भी अब कुछ मुट्ठी भर जाटों , कुछ मुसलमानों और थोड़े से सिख साहबान का आंदोलन बन कर रह गया है। कांग्रेस की फंडिंग और वामपंथियों के मार्गदर्शन में चलने वाला यह किसान आंदोलन अब अपनी अंतिम सांसें गिन रहा है। अराजकता और अभद्रता से कोई नवजोत सिंह सिद्धू तो बन सकता है , पर सुनील गावसकर नहीं। नहीं बुलाया तो इमरान खान ने गावसकर को भी था। क्यों नहीं गए , गावसकर पाकिस्तान। और कैप्टन अमरिंदर सिंह के लाख मना करने के बाद भी सिद्धू क्यों गए ? और क्या-क्या कर के लौटे ?

आज तक की एंकर चित्रा त्रिपाठी को रैली से गोदी मीडिया का तमगा देते हुए , अभद्रता और अपमान पूर्वक भगा देने और एक सिख द्वाराअजितअंजुम के माथे का पसीना पोछ देने के नैरेटिव से भी किसी आंदोलन को ज़मीन नहीं मिलती। लोकतंत्र को ठेंस ज़रुर लगती है। किसी आंदोलन को ज़मीन मिलती है , ईमानदार नेतृत्व से। ज़मीन मिलती है , ज़मीनी लोगों की भागीदारी से। इस किसान आंदोलन की हक़ीक़त का अंदाज़ा इसी एक बात से लगा लीजिए कि अपने संगठन के प्रवक्ता राकेश टिकैत ही नेता हैं। फिर किसान आंदोलन की बीती रैली में कौन सी बात किसानों के लिए की गई ? किसी को याद हो तो बताए भी। हम ने तो देखा कि इस रैली में आए लोग कह रहे थे कि सी ए ए , एन आर सी और तीन तलाक़ जैसे काले क़ानून हटवाने के लिए वह लोग आए हैं। जो भी हो इस पूरे किसान आंदोलन का मक़सद अगर मोदी , योगी को हराना ही है तो जानिए कि चुनावी बिसात पर अब एक नहीं , भाजपा के ढाई स्टार प्रचारक हो गए हैं। 

फ़िराक़ गोरखपुरी एक समय कहा करते थे कि भारत में सिर्फ़ ढाई लोग ही अंगरेजी जानते हैं। एक सी नीरद चौधरी , दूसरे , ख़ुद फ़िराक़ और आधा जवाहरलाल नेहरु। नेहरु ने फ़िराक़ की इस बात पर कभी प्रतिवाद भी नहीं किया। यह नेहरु का बड़प्पन था। पर कुछ-कुछ उसी तर्ज पर आज आप को एक बात बताऊं धीरे से। कान इधर ले आइए। भाजपा के पास अब एक नहीं ढाई स्टार प्रचारक हैं। पहले सिर्फ़ एक ही था , राहुल गांधी। अब डेढ़ और आ गए हैं। एक राकेश टिकैत और आधा असुदुद्दीन ओवैसी। अल्ला हो अकबर !

Monday, 6 September 2021

तो पूरा भारत ही अब तक इस्लामी राष्ट्र होता , हम सभी मुसलमान होते , तालिबान होते !


दयानंद पांडेय 


कृपया एक बात कहने की मुझे अनुमति दीजिए। वह यह कि अगर अंगरेज भारत में न आए होते और कि राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ न होता तो किसी को पाकिस्तान आदि बनाने की ज़रुरत ही नहीं पड़ती। नौबत ही नहीं आती। पूरा भारत ही अब तक इस्लामी राष्ट्र होता। हम सभी मुसलमान होते। तालिबान होते। अफगानिस्तान , पाकिस्तान और सीरिया से भी बुरी हालत होती हमारी। स्त्रियों की स्थिति जाने क्या होती। क्यों कि इस्लाम की किताब कुरआन में साफ़ लिखा है कि स्त्रियां , पुरुषों की खेती हैं। 

अत्याचार ब्रिटिश राज ने भी बहुत किया। धर्म परिवर्तन भी खूब करवाए। लेकिन इस्लाम के अनुयायियों ने जो और जिस तरह किया भारत में , कभी किसी और आक्रमणकारी ने नहीं किया। अब अंगरेजों को तो कुछ कह नहीं पाते लोग। क्यों कि भाई-चारा निभाने के लिए वह यहां अब उस तरह उपस्थित नहीं हैं , जैसे इस्लाम के आक्रमणकारी। जावेद अख्तर जैसे सफ़ेदपोश कठमुल्ले इसी लिए जब-तब आर एस एस के प्रति अपनी घृणा और नफरत का इज़हार करते रहते हैं। यह सब तब है जब कि अब आर एस एस वाले बार-बार इस्लाम के अनुयायियों को भी अपना बंधु बताते हुए कहते हैं कि हम सब का डी एन ए एक है। भाजपा की सरकार सब का साथ , सब का विकास , सब का विशवास और सब का प्रयास कहती ही रहती है। पर जावेद अख्तर जैसे लीगियों को तो छोड़िए तमाम सो काल्ड सेक्यूलर चैंपियंस भी इन दिनों जब कभी विवशता में तालिबान का दबी जुबान ज़िक्र करते हैं तो बैलेंस करने के लिए आर एस एस पर खुल कर हमला करते हैं। दुनिया जानती है , हिंसा इस्लाम का अभिन्न हिस्सा है। नालंदा जैसी विश्वस्तरीय लाइब्रेरी जलाने की लिए इस्लाम को दुनिया जानती है। महीनों जलती रही थी नालंदा लाइब्रेरी। 

पूरी दुनिया में हिंसा और आतंक की खेती इन दिनों इस्लाम की ही जानिब हो रहा है। अमरीका , योरोप , कनाडा , फ़्रांस , चीन हर जगह इस्लाम हमलावर है। हमारे भारत में भी। लेकिन हमारे भारत में सेक्यूलर चैंपियंस इस्लाम की हिंसा को आर एस एस से बैलेंस करने की कुटिलता पर कायम हैं। आग को अगर पानी बुझाता है तो यह लोग पानी को भी उतना ही कुसूरवार मान लेने की महारत रखते हैं। कुतर्क यह कि अगर पानी न होता तो आग लगती ही नहीं। पानी ने ही आग को उकसाया कि आग लगाओ। इस मासूमियत पर भला कौन न मर जाए। सोचिए न कि पाकिस्तान और भारत में उपस्थित सेक्यूलर चैंपियंस दोनों ही बहुत ज़ोर-ज़ोर से आर एस एस-आर एस एस चिल्लाते हैं। सावरकर का स्वतंत्रता संग्राम , उन की वीरता और विद्वता भूल जाते हैं। भूल जाते हैं कि सावरकर इकलौते हैं जिन्हें ब्रिटिश राज में दो बार आजीवन कारावास की सज़ा मिली वह भी काला पानी की। 

क्यों मिली ? क्या मुफ्त में ? 

जिस ने धर्म के नाम पर पाकिस्तान बनाया , उस जिन्ना का नाम लेते हुए इन की जुबान को लकवा मार जाता है। पाकिस्तान बनाने के लिए डायरेक्ट एक्शन करवाया जिन्ना ने । डायरेक्ट एक्शन मतलब हिंदुओं को देखते ही मार दो। इस का भी ज़िक्र नहीं करते। लेकिन इस्लाम के अत्याचार से बचने के लिए सावरकर के द्विराष्ट्र सिद्धांत की बात चीख-चीख कर करते हैं। एक राहुल गांधी नाम का नालायक़ है जो देश और कांग्रेस की राजनीति पर बोझ बना हुआ है। यह राहुल गांधी चिल्लाता है , मैं राहुल सावरकर नहीं हूं , राहुल गांधी हूं ! यह मूर्ख यह नहीं जानता कि संसद भवन में सावरकर की बड़ी सी फ़ोटो उस की दादी इंदिरा गांधी ने लगवाई है। और कि सावरकर के नाम से डाक टिकट भी जारी किया है इंदिरा गांधी ने। तो क्या इंदिरा गांधी भी आर एस एस से थीं। हर व्यक्ति और हर संस्था में कुछ खूबी , कुछ खामी होती है। आर एस एस में भी खामी हो सकती है। खामी सावरकर में भी हो सकती है। पर सावरकर को हम सिर्फ ब्रिटिश राज से माफी मांगने के लिए ही क्यों जानना चाहते हैं। यह क्यों नहीं जानना चाहते कि सावरकर को माफी क्यों मांगनी पड़ी। दो-दो बार काला पानी का आजीवन कारावास क्यों मिलता है सावरकर को। इसी तरह आर एस एस की तुलना आप तालिबान से किस बिना पर करने की ज़ुर्रत कर पाते हैं ? क्या काबुल के घोड़ों की लीद खाते हैं आप , यह कहने के लिए ? आख़िर यह और ऐसा ज़ज़्बा लाते कहां से हैं यह लोग ? 

बातें बहुतेरी हैं। फिर कभी। पर यह सेक्यूलर एजेण्डेबाज अब ख़ुद वैचारिक रुप से तालिबान बन गए हैं। एकतरफा बात करने और कुतर्क करने के अफीम की लत लग गई है इन्हें।

Saturday, 4 September 2021

जस्टिस , आई ए एस आदि जब तक कंपनियों में कुत्ता बने रहेंगे तब तक ऐसा ही होता रहेगा

दयानंद पांडेय 

सच बताऊं नोएडा में सुपरटेक वाले बिल्डर आर के अरोड़ा , पत्नी संगीता और पुत्र मोहित अरोड़ा के साथ लंदन भाग जाने की खबर की अफवाह एक वेबसाइट पर चली तो इस खबर ने मुझे बिलकुल नहीं चौंकाया। बल्कि हंसी आ रही थी । और दुःख भी हो रहा था। सुप्रीम कोर्ट से लगायत उत्तर प्रदेश के मुख्य मंत्री योगी तक पर तरस आ रहा था । योगी का सारा फोकस छोटे-छोटे दोषी अधिकारियों को खोजने में लग गया है। सुप्रीम कोर्ट आदेश जारी कर सो गया है । सच इन में क्या किसी को भी अंदाजा नहीं है कि असल दोषी बिल्डर भाग भी सकता है। उस का पासपोर्ट भी क्या ज़ब्त नहीं कर लेना चाहिए। सुप्रीम कोर्ट का आदेश जारी होते ही क्या बिल्डर के खिलाफ एफ आई आर दर्ज कर तुरंत जेल भी नहीं भेजना चाहिए ? लेकिन कहां , चोरी और फिर सीनाजोरी पर भी उतर आया है , अरोड़ा। कह रहा है कि सब कुछ प्राधिकरण की स्वीकृति से हुआ है और कि वह सुप्रीम कोर्ट में पुनर्विचार याचिका दायर कर रहा है। 

अब जो भी हो माल्या , नीरव मोदी , मेहुल चौकसी आदि भगोड़ों की तरह चालीस मंज़िल की अवैध बिल्डिंगें बना कर यह आर के अरोड़ा भी अब अरबों रुपए ले कर फरार हो जाएगा तो माथा फोड़ते रहेंगे घर का सपना पालने वाले मध्यवर्गीय परिवारों के लोग। कितने शहरों में कितने बिल्डर जनता का खरबो रुपया पी कर इंज्वाय कर रहे हैं , यह तथ्य भी किसी से छुपा है क्या ? कितनी चिट फंड कंपनियां गरीबों का सारा संसार उजाड़ गई हैं। किसी बिल्डर का , किसी चिट फंड कंपनी का अब तक कुछ अहित हुआ क्या ? यह सिस्टम तो बिल्डरों और चिट फंड कंपनियों के मालिकानों के साथ रामदेव का योग कर रहा है। अपनी सेहत बना रहा है। आप लड़ते रहिए , इस शहर से उस शहर तक। सड़क से अदालत तक। कभी कुछ नहीं मिलने वाला। 

बिल्डरों में एक ग्रुप है जे पी ग्रुप। मुलायम , मायावती सभी का दुलारा रहा है। अब दीवालिया हो चुका है। पर ज़माने के लिए। सिस्टम के लिए। असल में तो वह अपने बेटे के नाम दूसरी कंपनियां बना कर इसी नोएडा में गौर सिटी बसा कर ग्रेटर नोएडा वेस्ट का सिंगापुर बनाने का सपना दिखा रहा है। सफल भी इतना है कि ग्रेटर नोएडा वेस्ट में गौर सिटी के आगे जे पी ग्रुप क्या सारे ग्रुप फीके पड़ गए हैं। सिस्टम आंख मूंद कर आनंद ले रहा है। सुप्रीम कोर्ट हो या कोई सरकार , धन पशुओं के आगे सभी नतमस्तक हैं। माल्या , नीरव मोदी , मेहुल चौकसी , आर के अरोड़ा आदि के आगे कंहार बन कर सभी पानी भर रहे हैं। 

सारे सामाजिक संगठन भी बस दिखावटी ही हैं। है कोई संस्था जो बस इतना ही सा एक आंकड़ा निकाल कर दुनिया के सामने रख दे कि कितने जस्टिस , कितने आई ए एस , आई पी एस रिटायर होने के बाद कारपोरेट सेक्टर , बिल्डर या अन्य व्यावसायिक संस्थाओं को किस लिए ज्वाइन कर चुके हैं। किस लिए ज्वाइन करते हैं यह लोग ? इन कंपनियों के डायरेक्टर बोर्ड में किस खुशी में बैठ जाते हैं। कितने और किस-किस पार्टी के राजनीतिज्ञ हैं जो इन व्यवसाईयों के यहां कसाई बन कर सब का हक़ मारने में इन की मदद करते हैं। 

लखनऊ में एक बार मोहन मीकिंस की शराब फैक्ट्री द्वारा जहरीला कचरा फेंकने से गोमती नदी के पानी से आक्सीजन खत्म हो गया था। सो गोमती नदी में दूर-दूर तक की सारी मछलियां मर गईं। मैं ने एक बड़ी सी खबर लिखी। पहले पन्ने पर लीड बन कर छपी थी , तब के स्वतंत्र भारत में। इस बाबत लगातार खबर लिखता रहा। यह अस्सी के दशक के आखिरी सालों की बात है। केंद्र सरकार और प्रदेश सरकार की पर्यावरण और प्रदूषण की सारी नियामक संस्थाएं कान में तेल डाल कर सोई रही थीं। सभी को नियमित पैसा जो मिलता है। खैर तब किसी तरह अंतत: मोहन मीकिंस के खिलाफ एफ आई आर दर्ज हुई। उस मामले की सुनवाई के दौरान देखा एक दिन अभिनेता दिलीप कुमार भी कोर्ट में पेश हुए। क्या तो वह भी मोहन मीकिंस में एक डायरेक्टर थे। गज़ब था यह भी। 

पता किया तो पता चला कि हर कंपनी में राजनीतिज्ञ , जस्टिस , रिटायर्ड आई ए एस , आई पी एस , अभिनेता , खिलाड़ी आदि डायरेक्टर बोर्ड में होते हैं और लाखों रुपए इन्हें हर महीने मिलते हैं। खैर,  मोहन मीकिंस के उस मामले में किसी का बाल बांका नहीं हुआ। कोर्ट में मामला शुरुआती दिनों में ही खत्म हो गया। कोई अपील वगैरह भी कहीं नहीं हुई किसी के तरफ से। न सरकार की तरफ से। मोहन मीकिंस बदस्तूर जहरीला कचरा फेंकता रहा। अब आलम यह है कि लखनऊ में गोमती नदी के किनारे निरंतर सैर करने वालों को कैंसर हो जाता है। लेकिन किसी को कोई फर्क नहीं पड़ता। किसी मीडिया में कोई खबर नहीं आती। लोगों ने गोमती किनारे टहलना ज़रूर बंद कर दिया है अब। 

एक कंपनी के विज्ञापन के एक फ़ोटो में तो मैं ने देखा कि कंपनी के मालिक , पत्नी आदि आगे कुर्सियों पर बैठे थे। जब कि सुप्रीम कोर्ट यानी भारत के पूर्व चीफ जस्टिस , इलाहाबाद हाई कोर्ट के पूर्व चीफ जस्टिस समेत , सेना के एक परमवीर चक्र विजेता , टी एन शेषन जैसे धाकड़ आई ए एस अफसर , अमिताभ बच्चन जैसे अभिनेता , कपिलदेव जैसे क्रिकेटर आदि कई लोग उस कंपनी का ड्रेस और टाई पहने लाइन से कुर्सी पर बैठे इन कंपनी मालिक के पीछे खड़े दिख रहे थे। इतनी अश्लील फ़ोटो मैं ने ज़िंदगी में अभी तक कोई और नहीं देखी है। यह फ़ोटो आप में से भी तमाम लोगों ने अवश्य देखी होगी। क्यों कि यह फोटो अनेक बार देश के तमाम अखबारों में बतौर विज्ञापन छपती रही है। 

उत्तर प्रदेश के एक पूर्व मुख्य सचिव वी के सक्सेना तो रिटायर होते ही खुल्ल्मखुल्ला चीनी मिल मालिकों के फेडरेशन में सलाहकार बन गए थे। चीनी मिल मालिकों के साथ प्रेस कांफ्रेंस में उपस्थित रहते थे। कुल जोड़-तोड़ यह रहती थी कि गन्ना किसानों का पैसा कैसे मार लिया जाए। बरसों तक किसानों का भुगतान लटका रहे और गन्ने का भाव न बढ़े। क्या तो गन्ना मिलें घाटे में हैं। अजब नौटंकी थी। गज़ब कुतर्क था। जो एक पूर्व मुख्य सचिव कर रहे थे। तो शासन में बैठ कर क्या-क्या किया होगा , समझा जा सकता है। तमाम कंपनियों में तो सेना के रिटायर्ड जनरल भी नौकरी पर हैं। तो आप क्या समझते हैं यह लोग विभिन्न कंपनियों में पूजा-पाठ के लिए रखे जाते हैं ? सिर्फ़ शो पीस बन कर ही रहते हैं ? बिलकुल नहीं। इन में से एकाध तो सिर्फ डेकोरम पूरा करते हैं। कुछ नियम सा है कि सामाजिक क्षेत्र के लोगों को डायरेक्टर बोर्ड में रखना होता है। 

बस इसी की आड़ में यह कंपनियां इन जजों और अफसरों आदि को अपनी कंपनी में डायरेक्टर कम दलाल बना कर रखती हैं। साफ़ कहूं कि कुत्ता बना कर रखती हैं। फिर यह कुत्ते इन कंपनियों के मालिकों के सारे अनियमित कार्य पर पर्दा डालने का , इन के कुकर्मों पर पानी डालने का काम करते रहते हैं। विभिन्न तरीक़े बता कर नियम , क़ानून से इन की रखवाली करते हैं। नियम , क़ानून के दुरूपयोग के तरीक़े बताते हैं। किस को कैसे ख़रीदा जाए , जुगत बताते हैं। जज हैं तो जजों से काम करवाएंगे। अफ़सर हैं तो अफसरों से भी काम करवाएंगे। सिर्फ़ सिफारिश ही नहीं , संबंधित अफ़सर , जज , पुलिस को रिश्वत देने की चेन भी बनेंगे। सिर्फ़ सिफारिश से तो काम अब कहीं होता नहीं। साम , दाम , दंड , भेद सुना है न ? तो डायरेक्टर बोर्ड में बैठे यह विभिन्न कुत्ते साम , दाम , दंड भेद के हरकारे बनते हैं। चूंकि सिस्टम में रहे होते हैं तो सारा छेद और सारी प्रक्रिया जानते हैं। सब को साधना भी। फिर एक कहावत है कि कुत्ता , कुत्ते का मांस नहीं खाता। तो कोई किसी का अहित नहीं करता। कुछ भी हो जाए , सब एकजुट रहते हैं। सुपरटेक वाले मामले में भी देखिएगा कि कोई सीनियर आई ए एस अफ़सर भी शायद ही कार्रवाई की जद में आए। मसला वही है कि कुत्ता , कुत्ते का मांस नहीं खाता। और जांच टीम का मुखिया भी तो आई ए एस ही है। 

सोचिए कि अमर सिंह जैसे लोग स्टेट बैंक के डायरेक्टर बोर्ड में रहे थे। अमर सिंह को किस ने रखवाया होगा और अमर सिंह ने क्या-क्या करवाया होगा ? हर्षद मेहता जैसे काण्ड क्या मुफ्त में होते हैं ? अभी नीरव मोदी , विजय माल्या , मेहुल चौकसी , जैसे भगोड़े बैंक लूट कर वैसे तो नहीं भाग गए। अमर सिंह जैसे डायरेक्टर लोग ही तो काम आते हैं। फिर कपिल सिब्बल , सलमान ख़ुर्शीद , रवि शंकर जैसे वकीलों का काकस अलग से इन का कवच कुण्डल बना रहता है। यही लोग इन चोरों के वकील होते हैं। क्रिकेटर मनोज प्रभाकर की याद तो होगी ही। एक चिट फंड कंपनी ने उन का नाम और फ़ोटो लगा कर ही तो लूटा था जनता को। क्या हुआ मनोज प्रभाकर का ? कुछ हुआ क्या ? तो जब तक कारपोरेट सेक्टर या अन्य कंपनियों में डायरेक्टर बोर्ड में यह नौकरशाह , ज्यूडिशियरी आदि से रिटायर्ड कुत्ते रखे जाते रहेंगे , अरोड़ा , माल्या , मोदी , मेहुल चौकसी जनता और जनता का धन लूट कर भागते रहेंगे। और हम आप नीरज का लिखा गीत सुनते रहने को अभिशप्त रहेंगे :

स्वप्न झरे फूल से,

मीत चुभे शूल से,

लुट गये सिंगार सभी बाग़ के बबूल से,

और हम खड़े-खड़े बहार देखते रहे।

कारवाँ गुज़र गया, गुबार देखते रहे !