Wednesday, 24 November 2021

अपने टोटी चोर के साथ मुस्कुराहट में गलगल कुमार विश्वास

दयानंद पांडेय 

बताइए कि यही कुमार विश्वास कभी टोटी चोर बताते थे , मुलायम के टीपू को। तबीयत भर तंज कसते थे। अब यह इन्हीं टोटी चोर के साथ मुस्कुराहट में गलगल हैं। राज्यसभा जाने की अकुलाहट जो-जो न करवा दे। अरविंद केजरीवाल से भी कभी ऐसी ही गलबहियां थी कुमार विश्वास की। अन्ना आंदोलन में शिरक़त कर अरविंद केजरीवाल से दोस्ती गांठी थी। केजरीवाल सरकार बनी तो केजरीवाल की कोर टीम के मेंबर थे। अरविंद केजरीवाल के कान पकड़ कर बेलाग कोई कुछ कह सकता था तो वह कुमार विश्वास ही थे। 

यक़ीन न हो तो यू ट्यूब पर उपस्थित कुछ निजी वीडियो देख लें। कवि सम्मेलनों की फीस भी इस बीच हज़ारों से उठ कर लाखों में पहुंच गई। पर राज्यसभा का सपना पाल लिया। प्रशांत भूषण , आशुतोष की ही तरह इन की राज्यसभा की ख़्वाहिश भी धूल में उड़ गई तो केजरीवाल से कुट्टी कर ली। नरेंद्र मोदी शरणम गच्छामि हुए। रामायण पर प्रवचन वग़ैरह भी शुरु किया। रामदेव को पुल बनाया। पर रामदेव ख़ुद ही के इंतज़ाम में गच्चा खा गए। एक चिट फंड कंपनी की पैरोकारी में मोदी के आगे बौने हो गए रामदेव। और भी कई पुल बनाए-जोड़े पर राज्यसभा के लिए कोई पुल काम नहीं आया। 

तो टोटी चोर भैया को साधने आ गए लखनऊ। टोटी यादव सरकार भले न बना पाएं उत्तर प्रदेश में पर इतनी सीटें तो ले ही आएंगे 2022 में कि कविराज कुमार विश्वास को राज्यसभा भेज दें। तो यह मुस्कुराहट की मिसरी इसी पाग में बनी हुई है। तिस पर सोने पर सुहागा यह कि कविराज जब कल लखनऊ में टोटी यादव के चाचा रामगोपाल यादव पर एक किताब के विमोचन कार्यक्रम में कविताई में मुलायम के क़सीदे काढ़ रहे थे तो मुलायम इन से इतने प्रभावित हो गए कि इस अवसर पर मंच पर उपस्थित एक दूसरे कविराज उदय प्रताप सिंह यादव से कान में कह दिया कि अगर यह कहीं किसी और पार्टी में न हों तो अपने यहां ले लिया जाए। 

कान में कही गई मुलायम की इस बात को अपने उदबोधन में उदय प्रताप सिंह यादव ने सार्वजनिक कर दिया। अब इस घोषणा के बाद राज्यसभा जाने के लड्डू मन में न फूटें , यह तो मुमकिन नहीं है। गौरतलब है कि उदय प्रताप सिंह यादव भी ठीक-ठाक मंचीय कवि हैं। ख़ासियत यह कि मुलायम सिंह यादव उदय प्रताप सिंह यादव के छात्र रहे हैं और साथ-साथ पढ़ाया भी है। 

मुलायम एक समय पहलवान बनने के लिए बोर्ड का इम्तहान छोड़ना चाहते थे। शिलांग में कोई कुश्ती मुक़ाबला था। उसी बीच यू पी बोर्ड का इम्तहान था। मुलायम बोर्ड का इम्तहान छोड़ , कुश्ती मुक़ाबला के लिए शिलांग जाने की तैयारी कर बैठे। तब उदय प्रताप सिंह यादव ने ही मुलायम को इम्तहान नहीं छोड़ने की सलाह दी। मुलायम सिंह यादव मान गए। कभी वामपंथी सांसद रहे उदय प्रताप सिंह अपने छात्र मुलायम सिंह यादव को अब साहब ! कह कर संबोधित करते हैं। 

मुलायम उदय प्रताप सिंह यादव को दो बार राज्यसभा भेज चुके हैं। लगता है अब कुमार विश्वास भी टोटी यादव को साहब ! कह कर संबोधित करेंगे। सो राज्यसभा अब पक्की ही समझिए। गुलज़ार , जावेद अख़्तर की तरह कुमार विश्वास भी मौलिक कवि नहीं हैं। पर गुलज़ार और जावेद अख़्तर ही की तरह कुमार विश्वास भी बाक़माल प्रस्तोता हैं। हां , बस फ़िल्मी नहीं हैं। पर कवि सम्मेलनों और मुशायरों के मंचों पर इन दोनों से न सिर्फ़ ज़्यादा लोकप्रिय हैं , पैसे भी इन से कहीं ज़्यादा बल्कि बहुत ज़्यादा लेते हैं। कुमार विश्वास कवि सम्मेलन ही नहीं , अन्य मंचों के भी नए ब्रांड हैं। इन की पत्नी राजस्थान सरकार में कैबिनेट मंत्री का दर्जा पाए हुई हैं। पत्नी को तो सेट कर ही चुके हैं , अब अपनी सेटिंग में सफल होते हैं कि अगेन असफल , देखना दिलचस्प होगा।

Sunday, 21 November 2021

कुत्तों और भक्तों का रिश्ता ऐसा ही कहलाता है।

दयानंद पांडेय 

एक बात तो है कि कृषि क़ानून की वापसी पर भक्तों ने जिस तरह नरेंद्र मोदी का डट कर और खुल कर विरोध किया है , वह अदभुत है। साफ़ कह दिया है कि इस से अच्छा होता कि आप इस्तीफ़ा दे कर झोला उठा कर चल दिए होते। संसद का इस तरह अपमान तो नहीं होता। और जाने क्या-क्या। पर एजेंडे पर चलने वाले विभिन्न कुत्ते कभी भी अपने-अपने हाईकमान , पोलित ब्यूरो या परिवार मुखिया के ख़िलाफ़ ऐसा बोलना और विरोध करना सपने में भी नहीं सोच सकते। अगर हाईकमान , पोलित ब्यूरो , सपा आदि-इत्यादि परिवार का मुखिया कह दे कि तुम लोग अपने बाप के नहीं , हमारे ही पैदा किए हुए हो। तब भी इन के बीच कभी कोई जुंबिश नहीं होगी। 

अनेक बार ऐसी घटनाएं घटी हैं। हाईकमान , पोलित ब्यूरो और परिवारों में। पर कभी किसी ने लब नहीं खोले। बोल कि लब आज़ाद हैं , गाने वालों ने लब सिले रखे। ले कर रहेंगे आज़ादी ! का ढोल बजाने वालों ने ग़ुलाम बने रहने में ही भलाई समझी। कुत्तागिरी असल में हाईकमान , पोलित ब्यूरो , परिवारवाद के पक्ष में इतना वफ़ादार बना देती है , एजेंडा सीमेंट बन कर ऐसा जकड़ लेता है कि वह स्वामी भक्ति से इतर कुछ सोच नहीं पाते। एक बार अगर बोल गए कि भारत तेरे टुकड़े होंगे इंशा अल्ला , इंशा अल्ला ! तो फिर उसी पर क़ायम रहेंगे। डिगेंगे नहीं। सूत भर भी नहीं। 

अगर किसी ने कुछ टोक दिया तो भक्त-भक्त कह कर भौंकने लगेंगे। दौड़ा लेंगे। भूल से अगर उन के इलाक़े में चले गए तो फिर तो आप की ऐसी ख़ातिरदारी करेंगे कि पूछिए मत। बिलो द बेल्ट भी। फिर भौंकने वाले कुत्तों से सभी बचते हैं। और मैं तो बहुत ही ज़्यादा। यह बात कुत्ते भी बहुत अच्छी तरह जानते हैं कि भक्त उन से बहुत डरते हैं। इस लिए वह तर्क और तथ्य भूल कर भक्त-भक्त भौंकते हैं।

दिलचस्प यह कि यह कुत्ते संगठित तौर पर और एक ही सुर में भौंकते हैं। बिलकुल मिले सुर मेरा तुम्हारा को फेल करते हुए। इन में एका और इन का माइंड सेट देखते बनता है। इन के विचार , स्टैंड और एजेंडा एक ही सांचे में ढले मिलते हैं। अगर एक ने ग़लती से भी कह दिया कि मेरे पृष्ठ भाग पर तो बहुत कस के लात पड़ी है ! तो सभी एक साथ बोलेंगे , मेरे भी , मेरे भी ! फिर पूछेंगे कि किसी भक्त ने मारी है क्या ? अगला बोलेगा हां ! तो फिर सभी एक सुर में भौंकेंगे , मुझे भी , मुझे भी ! क्या कीजिएगा कुत्तों और भक्तों का रिश्ता ऐसा ही कहलाता है।

इस लिए भी कि कुत्तागिरी किसी को कुछ समझने कहां देती है भला। न कोई तथ्य , न कोई तर्क। सौ सवाल को पी कर जवाब में सिर्फ़ भक्त-भक्त भौंकना ही सिखाती है। भक्तों और कुत्तों का अभी तक का रिश्ता यही है। आगे की राम जानें।

Thursday, 18 November 2021

शालीनता , अपमान और समर्पण की त्रासदी

दयानंद पांडेय 


पूर्वांचल एक्सप्रेस वे पर प्रधान मंत्री के काफिले के पीछे चलते हुए उत्तर प्रदेश के मुख्य मंत्री योगी की यह फ़ोटो कल से ही सोशल मीडिया पर ट्रोल हो रही है। अलग-अलग लोगों की राय भी अलग-अलग है। लेकिन मैं इस फ़ोटो में शालीनता , अपमान और समर्पण तीनों भाव एक साथ देख पा रहा हूं। हालां कि योगी चाहते तो काफिले के पीछे इस तरह चलने से बच सकते थे। काफिला निकल जाने के बाद अपनी गाड़ी मंगवाते या ज़रा रुक कर ही सही , पैदल चलते। तो फ़ोटो शायद फिर भी छपती , ट्रोल होती। पर यह और इस तरह तो नहीं ही। योगी की चाल में अपमान की चुभन साफ़ परिलक्षित हो रही है। पर उन की प्रधान मंत्री के प्रति , प्रोटोकॉल के प्रति शालीनता और समर्पण की पदचाप भी उपस्थित है इस फ़ोटो में । फ़ोटो देखने का अपना-अपना नज़रिया है। एजेंडा भी। पर बुद्ध की तरह तटस्थ हो कर साक्षी भाव से भी इस फ़ोटो को देखा और पढ़ा जा सकता है। जाकी रही भावना जैसी बात भी है। 

प्रधान मंत्री के साथ शीघ्र उपस्थित होने और उन का पुन: स्वागत करने की उत्सुकता भी दिखती है इस फ़ोटो में। कुछ लोगों की राय है कि प्रधानमंत्री को अपने साथ योगी को बिठा लेना चाहिए था। यह लोग इस तथ्य को भूल रहे हैं कि योगी तब अकेले नहीं थे। राज्यपाल आनंदी बाई पटेल , प्रदेश अध्यक्ष स्वतंत्र देव सिंह समेत और भी कई गणमान्य लोग वहां उपस्थित थे। किस-किस को प्रधान मंत्री अपने साथ बैठा सकते थे। किसी एक को बैठाएं तो शेष सभी का अपमान। बस यही हुआ। योगी थोड़ी फुर्ती में चल दिए तो फ़ोटो में सहसा आ गए। 

सब से ज़्यादा आनंद कांग्रेस और कम्युनिस्ट पोषित पत्रकारों , लेखकों को इस फ़ोटो में आया है। और मजा लिया है। पर ऐसे तमाम वाकये मेरी जानकारी में हैं। तो इन कुण्ठितों के लिए दो एक वाकये याद दिलाए देता हूं। वह ज़माना कांग्रेस में संजय गांधी का था। लखनऊ हवाई अड्डे पर जब संजय गांधी का जहाज लैंड किया तो संजय गांधी को रिसीव करने के तत्कालीन मुख्य मंत्री नारायणदत्त तिवारी दौड़ते हुए निकले। तब के दिनों किसी भी एयरपोर्ट पर आज जैसी व्यवस्था और सिक्योरिटी नहीं हुआ करती थी। बहरहाल , आगे भीड़ को रोकने के लिए एक रस्सी बंधी हुई थी। तिवारी जी दौड़े तो उत्साह में उस रस्सी को नहीं देख सके और उस रस्सी में उलझ कर मुंह के बल गिर गए। लेकिन उन्हों ने अपने गिरने की परवाह नहीं की। खट से उठे और मुंह पोछ कर फिर दौड़ पड़े। संजय गांधी को सब से पहले रिसीव किया। नारायण दत्त तिवारी को संजय गांधी की चप्पल उठाने के लिए भी लोग जानते हैं। बहुत बाद में तिवारी जी ने नैनीताल की एक जनसभा में सफाई देते हुए कहा था कि हां , मैं संजय गांधी जी के चप्पल उठाता हूं। इस लिए उठाता हूं कि इस पहाड़ में तरक़्क़ी ला सकूं। 

संजय गांधी के सामंती आचरण के ऐसे तमाम क़िस्से हैं। पर एक क़िस्सा पूर्व मुख्य मंत्री वीर बहादुर सिंह से भी जुड़ा है। जनता सरकार के दिनों में अमेठी दौरे से गौरीगंज जाते हुए संजय गांधी सरे राह उन्हें बेइज्जत कर के अपनी कार से उतार गए तो उस भारी काफ़िले में शामिल किसी ने भी अपनी गाड़ी में वीर बहादुर सिंह को नहीं बिठाया। इस अपमान और तिरस्कार के बावजूद वीर बहादुर गौरीगंज के डाक बंगले पैदल-पैदल पहुंचे तो संजय गांधी उन पर फ़िदा हो गए। राहुल गांधी के तो ऐसे सामंती आचरण के अनगिन क़िस्से हैं। आसाम के वर्तमान मुख्य मंत्री 

हिमंत बिस्वा सरमा तो बड़ी तकलीफ से बता चुके हैं कि जब वह कांग्रेस में थे तो राहुल गांधी से बड़ी कोशिशों के बाद मिल पाए। राहुल गांधी मिले भी तो अपनी गोद में कुत्ता बिठा कर राहुल उसे बिस्किट खिलाते रहे। हिमंत बिस्वा सरमा की तरफ देखा भी नहीं। हिमंत बिस्वा सरमा ने इस तरह अपमानित हो कर कांग्रेस ही छोड़ दी। 

फिर यहां तो प्रधान मंत्री मोदी ने इस अवसर पर अपने भाषण में मुख्य मंत्री योगी की जम कर तारीफ़ की है। उन की उपलब्धियों के गुणगान गाए हैं। शेष अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता है। कोई भी , कुछ भी आकलन कर सकता है। कह सकता है। बाक़ी जब राजीव गांधी प्रधान मंत्री थे तब इसी लखनऊ में उन के द्वारा गठित उन की ही एस पी जी ने जाने कितने मंत्रियों को , मुख्य मंत्री को धकियाया है। पत्रकारों को पीटा है। एक बार तो तत्कालीन प्रधान मंत्री राजीव गांधी के लखनऊ में एक ही दिन में तीन अलग-अलग कार्यक्रम थे। विधान सभा में , कांग्रेस दफ़्तर और सी डी आर आई में। कांग्रेस दफ़्तर में पत्रकार और फ़ोटोग्राफ़र तबीयत भर एस पी जी द्वारा पीटे गए। विरोध स्वरुप सी डी आर आई में फ़ोटोग्राफ़रों ने फ़ोटो खींचने के बजाय अपने-अपने कैमरे मंच के सामने रख दिए। तब राजीव गांधी को लगा कि कुछ गड़बड़ हो गया है। स्पष्ट पूछा राजीव गांधी ने तो उन्हें पूरा मामला बताया गया। अपने कमांडो द्वारा पत्रकारों की पिटाई को उन्हों ने ग़लत बताते हुए खेद जताया। फिर कहीं उस कार्यक्रम की कवरेज हुई। पत्रकारों , अफ़सरों , मंत्रियों और मुख्य मंत्रियों के एस पी जी द्वारा ऐसे अपमान की अनेक घटनाएं हैं । नतीज़ा यह है कि क्या मुख्य मंत्री , क्या पत्रकार क्या कोई अधिकारी , हर कोई अपनी इज़्ज़त बचाने ख़ातिर एस पी जी से निरंतर दूरी बना कर रहता है। 

मुझे याद है अटल जी जब बतौर प्रधान मंत्री लखनऊ आते थे तब कभी उन से सट कर रहने वाले पत्रकार भी दूर-दूर रहते थे। कि कहीं एस पी जी पीट न दे। अपमानित न कर दे। हां , कभी-कभार भीड़ में भी देख कर अटल जी किसी-किसी को अपने कमांडो से बुलवा भेजते थे। एक बार मुझे भी एक कमांडो भीड़ से ले गया। पहले तो मैं सकपकाया , पास में कमांडो देख कर। पर वह शालीनता से बोला , माननीय प्रधान मंत्री जी आप को तुरंत बुला रहे हैं। फिर भीड़ चीरते हुए वह मुझे उन के पास ले गया। मुझे बिलकुल अच्छा नहीं लगा। पूरी प्रक्रिया अपमानित करने वाली लगी। बाद में अटल जी से एक बार एक इंटरव्यू में मैं ने पूछा था , प्रधान मंत्री बनने के बाद कैसा महसूस करते हैं ? अटल जी ने लंबा पॉज लिया और बोले , अकेला हो गया हूं। मैं ने इस पर हैरत जताते हुए पूछा , क्या कह रहे हैं ? तो अटल जी बोले , पहले सब के साथ चलता था , अब अकेले चलता हूं। कमांडो के घेरे में। 

तो यह योगी और मोदी दोनों के अकेलेपन की भी यातना है। एस पी जी द्वारा अपमानित होने का ख़ौफ़ भी। बताऊं कि एक पत्रकार हैं। साथ काम कर चुके हैं। कभी घर भी आते रहते थे। लिखना सीखते थे मुझ से। कई बार मेरा ही लिखवाया मुझे दिखाते हुए कहते , देखिए तो मैं ने क्या लिखा है। शायद वः भूल जाते थे कि वह मैं ने ही लिखवाया है। या बेशर्मी करते थे। पता नहीं। पर जो भी हो वह लिखना नहीं सीख पाए तो नहीं सीख पाए। 

पर पत्रकारिता के शेष दुर्गुण बड़ी आसानी से सीख गए। ख़ूब पैसा कमा लिया। संपर्क के अनन्य क़िले बना लिए। हर सरकार में उन का जलवा। देखते ही देखते अपना अख़बार निकालने लगे। चमक-धमक वाला दफ़्तर बना लिया। अक़सर फ़ोन कर अपने दफ़्तर बुलाते। अपना ऐश्वर्य दिखाना चाहते थे। कई बड़े पत्रकारों को नौकरी दे रखी थी। पर मैं नहीं जा पाता। मन नहीं होता था। अकसर और मित्र उन के दफ़्तर जाते और लौट कर उन के ऐश्वर्य के क़िस्से बांचते। कई बार वह अपने सहयोगियों को भी मेरे पीछे लगाते। कुछ साल बीत गए। उन्हों ने दफ़्तर की जगह भी कई बार बदली। 

अंतत: उन के एक सहयोगी जो मेरे प्रिय हैं मेरे घर आए और अपने साथ उन के दफ़्तर किसी और बहाने से ले गए। अपना दफ़्तर बता कर। उन से मिलाया। वह बहुत ख़ुश हुए। कि जैसे भी सही , उन के दरबार में मैं हाजिर तो हुआ। उन का ऐश्वर्य देख कर लेकिन मैं चकित नहीं हुआ। क्यों कि एक से एक लोगों का ऐश्वर्य देख चुका हूं। नक़ली ऐश्वर्य मुझे मोहित नहीं करता। वह भी नंबर दो और दलाली से अर्जित ऐश्वर्य। सब कुछ देख कर भी मैं निरापद और तटस्थ रहा। उन्हें मेरा यह रुख़ अच्छा नहीं लगा। मैं अचानक चलने लगा। तो वह बोले , कैसे आए हैं ? बताया कि आप के सहयोगी के साथ ही आया हूं। वह बोले , मैं भी घर चल रहा हूं। चलिए आप को घर छोड़ देता हूं।  मेरे घर के पास ही उन का घर भी है। 

तो आया उन के दफ़्तर से बाहर। अपनी लंबी सी कार दिखाई उन्हों ने। मैं आगे-आगे चला। ड्राइवर की सफ़ेद पोशाक में लकदक उन के ड्राइवर ने पीछे की सीट की बाईं तरफ़ का दरवाज़ा सहसा खोला। मैं बैठने को हुआ ही था तो वह बोले , नहीं , इधर मैं बैठूंगा। आप उधर से आइए। मतलब दाईं तरफ से। बुरा तो बहुत लगा। पर संकोचवश कुछ कह नहीं पाया। पर दस-पांच मिनट के रास्ते के उस अपमान को भूल गया होऊं , ऐसा भी नहीं है। आगे भी भूल पाऊंगा , ऐसा नहीं लगता। फिर आगे भी कई बार उन्हों ने फ़ोन कर दफ़्तर बुलाया। कहा कभी घर आइए। कभी नहीं गया। मन ही नहीं हुआ। अब दफ़्तर की जगह उन की फिर बदल गई है। पर अपमान की त्रासदी कभी नहीं बदलती। 

तो इस फ़ोटो में अगर अपमान की कोई इबारत पढ़ ली होगी योगी ने तो सचमुच योगी भी कभी भूलेंगे , मुझे नहीं लगता। योगी सिर्फ़ योगी ही नहीं हैं , हठयोगी हैं। नाथ संप्रदाय में हठ योग भी आता है। बस यही है कि राजनीति में कई बार तुरंत नहीं , ज़रा नहीं पूरा थम कर प्रतिक्रिया देने की रवायत है। यही योगी जब सांसद थे तब किसी बात पर लाल कृष्ण आडवाणी से खफ़ा हो गए। आडवाणी जी तब उप प्रधान मंत्री थे। गोरखपुर गए। आडवाणी से मिलने नहीं गए योगी। आडवाणी की तब गोरखपुर में एक जनसभा भी हुई थी। योगी जनसभा में भी नहीं गए। अंतत: गोरखनाथ मंदिर के दर्शन के बहाने आडवाणी ही गए योगी से मिलने। ऐसे अनेक क़िस्से हैं। 

पर 1979 में जगजीवन राम के प्रधान मंत्री न बन पाने का क़िस्सा तो दिलचस्प है ही , अपमान कथा की अजब परिणति भी है। यह भी कि एक छोटा सा अपमान और उस अपमान की याद भी कैसे तो देश की राजनीति और उस की दशा-दिशा भी बदल देती है। जगजीवन राम उन दिनों केंद्र में इंदिरा गांधी मंत्रिमंडल में शक्तिशाली मंत्री थे। नीलम संजीव रेड्डी एक बार उन के सामने बीड़ी पीने लगे। जगजीवन राम को यह बुरा लगा कि उन के सामने कोई बीड़ी पिए। उन्हों ने नीलम संजीव रेड्डी को इस के लिए टोका। तब जब कि नीलम संजीव रेड्डी आंध्र प्रदेश के तीन बार मुख्य मंत्री रह चुके थे। नीलम संजीव रेड्डी ने तब तो बीड़ी बुझा कर फेंक दी थी। पर उस अपमान की आग को कभी नहीं फेंका। 

इस अपमान की आग को बुझाने का अवसर नीलम संजीव रेड्डी को मिला 1979 में। जब भारी झगड़े में जनता पार्टी की मोरारजी देसाई सरकार का पतन हुआ और जनता पार्टी में मोरारजी मंत्रिमंडल में उप प्रधान मंत्री रहे जगजीवन राम और चरण सिंह दोनों ही ने राष्ट्रपति के पास प्रधान मंत्री बनने का दावा पेश किया। कहते हैं कि जगजीवन राम की सूची में सांसदों की संख्या ज़्यादा थी। पर राष्ट्रपति नीलम संजीव रेड्डी ने चरण सिंह को प्रधान मंत्री बनाने का फ़ैसला लिया और उन्हें प्रधान मंत्री पद की शपथ दिलवा दी। कांग्रेस ने भी चौधरी चरण सिंह को अपना समर्थन दे दिया। माना यह भी गया कि जगजीवन राम को शायद कांग्रेस समर्थन न देती। 

क्यों कि तब इंदिरा गांधी उन से बहुत नाराज थीं। क्यों कि ज़िंदगी भर कांग्रेस में निरंतर सत्ता सुख भोगते रहने के बावजूद वह 1977 कांग्रेस छोड़ कर जनता पार्टी में चले गए थे। इंदिरा गांधी भी जल्दी किसी को माफ़ नहीं करती थीं। ख़ास कर गद्दारों को। अलग बात है इंदिरा गांधी ने चरण सिंह सरकार को भी संसद का मुंह नहीं देखने दिया , विशवास मत पाने के लिए। चरण सिंह ने बतौर प्रधान मंत्री लालक़िला से भाषण तो दिया पर संसद नहीं जा पाए। चार महीने में ही कांग्रेस ने चौधरी चरण सिंह सरकार से समर्थन वापस ले लिया। फिर चुनाव हुए और इंदिरा गांधी की ज़बरदस्त वापसी हुई। ढाई साल में ही जनता पार्टी चकनाचूर हो गई। कभी देखिए न शरद यादव को। एक समय पटना से नीतीश कुमार दिल्ली जाते थे , शरद यादव से मिलने। शरद यादव उन्हें घंटों बाहर बैठाए रहते। कई बार नहीं भी मिलते थे। राजनीति ही नहीं , ज़िंदगी में भी ऐसे तमाम क़िस्से पग-पग पर मिलेंगे। मिलते ही रहेंगे। मेरी ज़िंदगी में भी बहुत हैं। अन्ना आंदोलन वाले अन्ना कभी कहा करते थे कि आगे बढ़ने के लिए , सफल होने के लिए ज़िंदगी में अपमान बहुत पीना पड़ता है। जैसे नरेंद्र मोदी कहते हैं कि उन्हें रोज दो-चार किलो गाली खाने को मिलती है। इसी गाली से उन्हें ऊर्जा मिलती है और वह काम करते रहते हैं। योगी ने अभी तक किसी को इस बाबत कुछ नहीं बताया है।

Monday, 15 November 2021

लेकिन मन्नू भंडारी को वामपंथी बता कर उन पर अनर्गल आरोप लगाने से परहेज़ करें

दयानंद पांडेय 


सवाल सिर्फ़ मृत्यु का नहीं है। सच यह है कि मन्नू भंडारी वामपंथी नहीं थीं। मन्नू जी की रचनाओं में भी वामपंथ की धज नहीं है। उलटे मन्नू भंडारी तो राजेंद्र यादव की परित्यक्ता थीं। ज़िंदगी भर यह त्रास ढोया मन्नू जी ने। अलग बात है कि राजेंद्र यादव भी वामपंथी नहीं थे। मन्नू जी की रचनाओं पर वामपंथी आलोचकों ने कभी कुछ लिखा भी नहीं। बल्कि एक वामपंथी लेखक जो राजेंद्र यादव के प्रिय भी रहे हैं वह तो दबी जुबान ही सही मन्नू भंडारी पर चोरी का आरोप भी लगाते रहे हैं कि उन की रचना को चुरा कर मन्नू भंडारी ने महाभोज लिखा है। वह रचना जिसे उन्हों ने हंस में छपने के लिए भेजा था।

वामपंथी आलोचना की ध्वजा उठाए नामवर सिंह ने मन्नू भंडारी की कभी नोटिस भी नहीं ली। सिर्फ़ इस लिए कि वह वामपंथी नहीं थीं। तब जब कि दोनों की पारिवारिक मित्रता थी।  घनिष्ठ्ता थी। रोज का आना-जाना था। बावजूद इस सब के मन्नू भंडारी हिंदी की बड़ी लेखिका हैं। रहेंगी। एक से एक कालजयी रचनाएं हैं मन्नू भंडारी के पास। महाभोज, आप का बंटी जैसी रचनाएं वामपंथी हो कर लिखी भी नहीं जा सकतीं । 

मन्नू जी शायद हिंदी की इकलौती लेखिका हैं जो अपने पति राजेंद्र यादव की परित्यक्ता हो कर भी दांपत्य धर्म निभाया और राजेंद्र यादव की ज्यादतियों को सार्वजनिक कर उन्हें निन्दित भी खूब किया। अलग रहने के बावजूद राजेंद्र यादव की सेवा भी की और उन्हें पर-स्त्री गमन के लिए कभी माफ़ नहीं किया। राजेंद्र यादव को छलात्कारी कहती रहीं। खुल्लमखल्ला। 

तब जब कि हिंदी ही नहीं और भी भाषाओं की बहुत सी लेखिकाएं परित्यक्ता हैं, लेखक या अलेखक की पत्नी हैं पर लब सिले रहती आई हैं। महादेवी वर्मा से लगायत कितनी ही लेखिकाओं का यह काला सच है। बल्कि बहुत सी स्त्री लेखिकाएं भयंकर रुप से बेवफ़ा भी हैं , उन का स्कोर भी जबरदस्त है पर सार्वजनिक रुप से सती सावित्री का रुप धरे रहती हैं। लेकिन मन्नू जी पर कोई भूल कर भी कोई एक आक्षेप नहीं लगा सकता। 

फिर मन्नू जी कथा लेखिका ही नहीं, पटकथा लेखिका भी बहुत अच्छी हैं। फिल्मों और धारावाहिकों का लेखन दिल्ली में रह कर किया है। रजनीगंधा , स्वामी जैसी रोमैंटिक फ़िल्में , रजनी जैसे लोकप्रिय धारावाहिक मन्नू जी के खाते में हैं।

 मोहन राकेश के अकेले होते बेटे और उन के टूटते दांपत्य को आधार बना कर आप का बंटी जैसा उपन्यास लिखना मन्नू जी के ही वश का था। तब जी कि राजेंद्र यादव और मोहन राकेश की प्रगाढ़ मित्रता मशहूर है। मोहन राकेश, कमलेश्वर और राजेंद्र यादव की तिकड़ी आज भी हिंदी जगत में मशहूर है। बल्कि कमलेश्वर और राजेंद्र यादव लगभग शिष्य थे , मोहन राकेश के।

कम लोग जानते हैं कि आपातकाल में मन्नू भंडारी को इंदिरा गांधी ने पद्मश्री देने की पेशकश की थी। पर मन्नू जी ने बड़ी शालीनता से इमरजेंसी का विरोध दर्ज करते हुए पद्मश्री लेने से इंकार कर दिया था। तब जब कि वामपंथीयों ने तो इमरजेंसी का समर्थन किया था।

किसी भी को बिना जाने समझे मन्नू भंडारी जैसी बड़ी लेखिका पर कोई अनर्गल आरोप लगाने से भरसक बचना चाहिए। परहेज करना चाहिए। सहमति-असहमति अपनी जगह है। मतभेद भी अपनी जगह है। होते रहते हैं।

रही बात वामपंथीयों की तो वह तो भगत सिंह , चंद्रशेखर आज़ाद और राम प्रसाद बिस्मिल को भी वामपंथी बता देते हैं। प्रेमचंद और अमृतलाल नागर को भी वामपंथी बता देते हैं। जब कि  ज़िंदगी भर वामपंथ की सेवा करने वाले राहुल सान्कृत्यायन , रामविलास शर्मा , निर्मल वर्मा जैसे लेखकों को आखिरी समय में वामपंथ से धकिया देते हैं। अपमानित कर देते हैं। और तो और नामवर सिंह तक को आखिरी समय में निर्वासित कर अकेला कर दिया था। क्यों कि यह लोग वेद उपनिषद और भगवान की बात करने लगे थे।

नतीज़ा यह हुआ कि  नामवर सिंह का जन्म-दिन भाजपाई मनाने लगे थे। राजनाथ सिंह जैसे लोग उन्हें सम्मानित करने लगे थे। बातें बहुत सी हैं। इन का विस्तार भी बहुत। पर सिर्फ़ इस लिए कि कुछ वामपंथी मन्नू भंडारी को अपना बता कर उन्हें श्रद्धांजलि दे रहे हैं तो आप उन पर कुपित हो कर जद-बद बकने लगें। यह गुड बात नहीं है। मन्नू जी को नमन !

कोई भी लेखक वामपंथी , भाजपाई , कांग्रेसी आदि नहीं होता। ऐसा सोचना संकीर्णता है। लेखक , सिर्फ़ लेखक होता है। सभी का होता है। तो विदा और शोक की वेला में मन्नू भंडारी पर अनर्गल और अशोभनीय टिप्पणी कर  खुद को अपमानित करने से परहेज करें। 

आमीन !