दयानंद पांडेय
पूर्वांचल एक्सप्रेस वे पर प्रधान मंत्री के काफिले के पीछे चलते हुए उत्तर प्रदेश के मुख्य मंत्री योगी की यह फ़ोटो कल से ही सोशल मीडिया पर ट्रोल हो रही है। अलग-अलग लोगों की राय भी अलग-अलग है। लेकिन मैं इस फ़ोटो में शालीनता , अपमान और समर्पण तीनों भाव एक साथ देख पा रहा हूं। हालां कि योगी चाहते तो काफिले के पीछे इस तरह चलने से बच सकते थे। काफिला निकल जाने के बाद अपनी गाड़ी मंगवाते या ज़रा रुक कर ही सही , पैदल चलते। तो फ़ोटो शायद फिर भी छपती , ट्रोल होती। पर यह और इस तरह तो नहीं ही। योगी की चाल में अपमान की चुभन साफ़ परिलक्षित हो रही है। पर उन की प्रधान मंत्री के प्रति , प्रोटोकॉल के प्रति शालीनता और समर्पण की पदचाप भी उपस्थित है इस फ़ोटो में । फ़ोटो देखने का अपना-अपना नज़रिया है। एजेंडा भी। पर बुद्ध की तरह तटस्थ हो कर साक्षी भाव से भी इस फ़ोटो को देखा और पढ़ा जा सकता है। जाकी रही भावना जैसी बात भी है।
प्रधान मंत्री के साथ शीघ्र उपस्थित होने और उन का पुन: स्वागत करने की उत्सुकता भी दिखती है इस फ़ोटो में। कुछ लोगों की राय है कि प्रधानमंत्री को अपने साथ योगी को बिठा लेना चाहिए था। यह लोग इस तथ्य को भूल रहे हैं कि योगी तब अकेले नहीं थे। राज्यपाल आनंदी बाई पटेल , प्रदेश अध्यक्ष स्वतंत्र देव सिंह समेत और भी कई गणमान्य लोग वहां उपस्थित थे। किस-किस को प्रधान मंत्री अपने साथ बैठा सकते थे। किसी एक को बैठाएं तो शेष सभी का अपमान। बस यही हुआ। योगी थोड़ी फुर्ती में चल दिए तो फ़ोटो में सहसा आ गए।
सब से ज़्यादा आनंद कांग्रेस और कम्युनिस्ट पोषित पत्रकारों , लेखकों को इस फ़ोटो में आया है। और मजा लिया है। पर ऐसे तमाम वाकये मेरी जानकारी में हैं। तो इन कुण्ठितों के लिए दो एक वाकये याद दिलाए देता हूं। वह ज़माना कांग्रेस में संजय गांधी का था। लखनऊ हवाई अड्डे पर जब संजय गांधी का जहाज लैंड किया तो संजय गांधी को रिसीव करने के तत्कालीन मुख्य मंत्री नारायणदत्त तिवारी दौड़ते हुए निकले। तब के दिनों किसी भी एयरपोर्ट पर आज जैसी व्यवस्था और सिक्योरिटी नहीं हुआ करती थी। बहरहाल , आगे भीड़ को रोकने के लिए एक रस्सी बंधी हुई थी। तिवारी जी दौड़े तो उत्साह में उस रस्सी को नहीं देख सके और उस रस्सी में उलझ कर मुंह के बल गिर गए। लेकिन उन्हों ने अपने गिरने की परवाह नहीं की। खट से उठे और मुंह पोछ कर फिर दौड़ पड़े। संजय गांधी को सब से पहले रिसीव किया। नारायण दत्त तिवारी को संजय गांधी की चप्पल उठाने के लिए भी लोग जानते हैं। बहुत बाद में तिवारी जी ने नैनीताल की एक जनसभा में सफाई देते हुए कहा था कि हां , मैं संजय गांधी जी के चप्पल उठाता हूं। इस लिए उठाता हूं कि इस पहाड़ में तरक़्क़ी ला सकूं।
संजय गांधी के सामंती आचरण के ऐसे तमाम क़िस्से हैं। पर एक क़िस्सा पूर्व मुख्य मंत्री वीर बहादुर सिंह से भी जुड़ा है। जनता सरकार के दिनों में अमेठी दौरे से गौरीगंज जाते हुए संजय गांधी सरे राह उन्हें बेइज्जत कर के अपनी कार से उतार गए तो उस भारी काफ़िले में शामिल किसी ने भी अपनी गाड़ी में वीर बहादुर सिंह को नहीं बिठाया। इस अपमान और तिरस्कार के बावजूद वीर बहादुर गौरीगंज के डाक बंगले पैदल-पैदल पहुंचे तो संजय गांधी उन पर फ़िदा हो गए। राहुल गांधी के तो ऐसे सामंती आचरण के अनगिन क़िस्से हैं। आसाम के वर्तमान मुख्य मंत्री
हिमंत बिस्वा सरमा तो बड़ी तकलीफ से बता चुके हैं कि जब वह कांग्रेस में थे तो राहुल गांधी से बड़ी कोशिशों के बाद मिल पाए। राहुल गांधी मिले भी तो अपनी गोद में कुत्ता बिठा कर राहुल उसे बिस्किट खिलाते रहे। हिमंत बिस्वा सरमा की तरफ देखा भी नहीं। हिमंत बिस्वा सरमा ने इस तरह अपमानित हो कर कांग्रेस ही छोड़ दी।
फिर यहां तो प्रधान मंत्री मोदी ने इस अवसर पर अपने भाषण में मुख्य मंत्री योगी की जम कर तारीफ़ की है। उन की उपलब्धियों के गुणगान गाए हैं। शेष अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता है। कोई भी , कुछ भी आकलन कर सकता है। कह सकता है। बाक़ी जब राजीव गांधी प्रधान मंत्री थे तब इसी लखनऊ में उन के द्वारा गठित उन की ही एस पी जी ने जाने कितने मंत्रियों को , मुख्य मंत्री को धकियाया है। पत्रकारों को पीटा है। एक बार तो तत्कालीन प्रधान मंत्री राजीव गांधी के लखनऊ में एक ही दिन में तीन अलग-अलग कार्यक्रम थे। विधान सभा में , कांग्रेस दफ़्तर और सी डी आर आई में। कांग्रेस दफ़्तर में पत्रकार और फ़ोटोग्राफ़र तबीयत भर एस पी जी द्वारा पीटे गए। विरोध स्वरुप सी डी आर आई में फ़ोटोग्राफ़रों ने फ़ोटो खींचने के बजाय अपने-अपने कैमरे मंच के सामने रख दिए। तब राजीव गांधी को लगा कि कुछ गड़बड़ हो गया है। स्पष्ट पूछा राजीव गांधी ने तो उन्हें पूरा मामला बताया गया। अपने कमांडो द्वारा पत्रकारों की पिटाई को उन्हों ने ग़लत बताते हुए खेद जताया। फिर कहीं उस कार्यक्रम की कवरेज हुई। पत्रकारों , अफ़सरों , मंत्रियों और मुख्य मंत्रियों के एस पी जी द्वारा ऐसे अपमान की अनेक घटनाएं हैं । नतीज़ा यह है कि क्या मुख्य मंत्री , क्या पत्रकार क्या कोई अधिकारी , हर कोई अपनी इज़्ज़त बचाने ख़ातिर एस पी जी से निरंतर दूरी बना कर रहता है।
मुझे याद है अटल जी जब बतौर प्रधान मंत्री लखनऊ आते थे तब कभी उन से सट कर रहने वाले पत्रकार भी दूर-दूर रहते थे। कि कहीं एस पी जी पीट न दे। अपमानित न कर दे। हां , कभी-कभार भीड़ में भी देख कर अटल जी किसी-किसी को अपने कमांडो से बुलवा भेजते थे। एक बार मुझे भी एक कमांडो भीड़ से ले गया। पहले तो मैं सकपकाया , पास में कमांडो देख कर। पर वह शालीनता से बोला , माननीय प्रधान मंत्री जी आप को तुरंत बुला रहे हैं। फिर भीड़ चीरते हुए वह मुझे उन के पास ले गया। मुझे बिलकुल अच्छा नहीं लगा। पूरी प्रक्रिया अपमानित करने वाली लगी। बाद में अटल जी से एक बार एक इंटरव्यू में मैं ने पूछा था , प्रधान मंत्री बनने के बाद कैसा महसूस करते हैं ? अटल जी ने लंबा पॉज लिया और बोले , अकेला हो गया हूं। मैं ने इस पर हैरत जताते हुए पूछा , क्या कह रहे हैं ? तो अटल जी बोले , पहले सब के साथ चलता था , अब अकेले चलता हूं। कमांडो के घेरे में।
तो यह योगी और मोदी दोनों के अकेलेपन की भी यातना है। एस पी जी द्वारा अपमानित होने का ख़ौफ़ भी। बताऊं कि एक पत्रकार हैं। साथ काम कर चुके हैं। कभी घर भी आते रहते थे। लिखना सीखते थे मुझ से। कई बार मेरा ही लिखवाया मुझे दिखाते हुए कहते , देखिए तो मैं ने क्या लिखा है। शायद वः भूल जाते थे कि वह मैं ने ही लिखवाया है। या बेशर्मी करते थे। पता नहीं। पर जो भी हो वह लिखना नहीं सीख पाए तो नहीं सीख पाए।
पर पत्रकारिता के शेष दुर्गुण बड़ी आसानी से सीख गए। ख़ूब पैसा कमा लिया। संपर्क के अनन्य क़िले बना लिए। हर सरकार में उन का जलवा। देखते ही देखते अपना अख़बार निकालने लगे। चमक-धमक वाला दफ़्तर बना लिया। अक़सर फ़ोन कर अपने दफ़्तर बुलाते। अपना ऐश्वर्य दिखाना चाहते थे। कई बड़े पत्रकारों को नौकरी दे रखी थी। पर मैं नहीं जा पाता। मन नहीं होता था। अकसर और मित्र उन के दफ़्तर जाते और लौट कर उन के ऐश्वर्य के क़िस्से बांचते। कई बार वह अपने सहयोगियों को भी मेरे पीछे लगाते। कुछ साल बीत गए। उन्हों ने दफ़्तर की जगह भी कई बार बदली।
अंतत: उन के एक सहयोगी जो मेरे प्रिय हैं मेरे घर आए और अपने साथ उन के दफ़्तर किसी और बहाने से ले गए। अपना दफ़्तर बता कर। उन से मिलाया। वह बहुत ख़ुश हुए। कि जैसे भी सही , उन के दरबार में मैं हाजिर तो हुआ। उन का ऐश्वर्य देख कर लेकिन मैं चकित नहीं हुआ। क्यों कि एक से एक लोगों का ऐश्वर्य देख चुका हूं। नक़ली ऐश्वर्य मुझे मोहित नहीं करता। वह भी नंबर दो और दलाली से अर्जित ऐश्वर्य। सब कुछ देख कर भी मैं निरापद और तटस्थ रहा। उन्हें मेरा यह रुख़ अच्छा नहीं लगा। मैं अचानक चलने लगा। तो वह बोले , कैसे आए हैं ? बताया कि आप के सहयोगी के साथ ही आया हूं। वह बोले , मैं भी घर चल रहा हूं। चलिए आप को घर छोड़ देता हूं। मेरे घर के पास ही उन का घर भी है।
तो आया उन के दफ़्तर से बाहर। अपनी लंबी सी कार दिखाई उन्हों ने। मैं आगे-आगे चला। ड्राइवर की सफ़ेद पोशाक में लकदक उन के ड्राइवर ने पीछे की सीट की बाईं तरफ़ का दरवाज़ा सहसा खोला। मैं बैठने को हुआ ही था तो वह बोले , नहीं , इधर मैं बैठूंगा। आप उधर से आइए। मतलब दाईं तरफ से। बुरा तो बहुत लगा। पर संकोचवश कुछ कह नहीं पाया। पर दस-पांच मिनट के रास्ते के उस अपमान को भूल गया होऊं , ऐसा भी नहीं है। आगे भी भूल पाऊंगा , ऐसा नहीं लगता। फिर आगे भी कई बार उन्हों ने फ़ोन कर दफ़्तर बुलाया। कहा कभी घर आइए। कभी नहीं गया। मन ही नहीं हुआ। अब दफ़्तर की जगह उन की फिर बदल गई है। पर अपमान की त्रासदी कभी नहीं बदलती।
तो इस फ़ोटो में अगर अपमान की कोई इबारत पढ़ ली होगी योगी ने तो सचमुच योगी भी कभी भूलेंगे , मुझे नहीं लगता। योगी सिर्फ़ योगी ही नहीं हैं , हठयोगी हैं। नाथ संप्रदाय में हठ योग भी आता है। बस यही है कि राजनीति में कई बार तुरंत नहीं , ज़रा नहीं पूरा थम कर प्रतिक्रिया देने की रवायत है। यही योगी जब सांसद थे तब किसी बात पर लाल कृष्ण आडवाणी से खफ़ा हो गए। आडवाणी जी तब उप प्रधान मंत्री थे। गोरखपुर गए। आडवाणी से मिलने नहीं गए योगी। आडवाणी की तब गोरखपुर में एक जनसभा भी हुई थी। योगी जनसभा में भी नहीं गए। अंतत: गोरखनाथ मंदिर के दर्शन के बहाने आडवाणी ही गए योगी से मिलने। ऐसे अनेक क़िस्से हैं।
पर 1979 में जगजीवन राम के प्रधान मंत्री न बन पाने का क़िस्सा तो दिलचस्प है ही , अपमान कथा की अजब परिणति भी है। यह भी कि एक छोटा सा अपमान और उस अपमान की याद भी कैसे तो देश की राजनीति और उस की दशा-दिशा भी बदल देती है। जगजीवन राम उन दिनों केंद्र में इंदिरा गांधी मंत्रिमंडल में शक्तिशाली मंत्री थे। नीलम संजीव रेड्डी एक बार उन के सामने बीड़ी पीने लगे। जगजीवन राम को यह बुरा लगा कि उन के सामने कोई बीड़ी पिए। उन्हों ने नीलम संजीव रेड्डी को इस के लिए टोका। तब जब कि नीलम संजीव रेड्डी आंध्र प्रदेश के तीन बार मुख्य मंत्री रह चुके थे। नीलम संजीव रेड्डी ने तब तो बीड़ी बुझा कर फेंक दी थी। पर उस अपमान की आग को कभी नहीं फेंका।
इस अपमान की आग को बुझाने का अवसर नीलम संजीव रेड्डी को मिला 1979 में। जब भारी झगड़े में जनता पार्टी की मोरारजी देसाई सरकार का पतन हुआ और जनता पार्टी में मोरारजी मंत्रिमंडल में उप प्रधान मंत्री रहे जगजीवन राम और चरण सिंह दोनों ही ने राष्ट्रपति के पास प्रधान मंत्री बनने का दावा पेश किया। कहते हैं कि जगजीवन राम की सूची में सांसदों की संख्या ज़्यादा थी। पर राष्ट्रपति नीलम संजीव रेड्डी ने चरण सिंह को प्रधान मंत्री बनाने का फ़ैसला लिया और उन्हें प्रधान मंत्री पद की शपथ दिलवा दी। कांग्रेस ने भी चौधरी चरण सिंह को अपना समर्थन दे दिया। माना यह भी गया कि जगजीवन राम को शायद कांग्रेस समर्थन न देती।
क्यों कि तब इंदिरा गांधी उन से बहुत नाराज थीं। क्यों कि ज़िंदगी भर कांग्रेस में निरंतर सत्ता सुख भोगते रहने के बावजूद वह 1977 कांग्रेस छोड़ कर जनता पार्टी में चले गए थे। इंदिरा गांधी भी जल्दी किसी को माफ़ नहीं करती थीं। ख़ास कर गद्दारों को। अलग बात है इंदिरा गांधी ने चरण सिंह सरकार को भी संसद का मुंह नहीं देखने दिया , विशवास मत पाने के लिए। चरण सिंह ने बतौर प्रधान मंत्री लालक़िला से भाषण तो दिया पर संसद नहीं जा पाए। चार महीने में ही कांग्रेस ने चौधरी चरण सिंह सरकार से समर्थन वापस ले लिया। फिर चुनाव हुए और इंदिरा गांधी की ज़बरदस्त वापसी हुई। ढाई साल में ही जनता पार्टी चकनाचूर हो गई। कभी देखिए न शरद यादव को। एक समय पटना से नीतीश कुमार दिल्ली जाते थे , शरद यादव से मिलने। शरद यादव उन्हें घंटों बाहर बैठाए रहते। कई बार नहीं भी मिलते थे। राजनीति ही नहीं , ज़िंदगी में भी ऐसे तमाम क़िस्से पग-पग पर मिलेंगे। मिलते ही रहेंगे। मेरी ज़िंदगी में भी बहुत हैं। अन्ना आंदोलन वाले अन्ना कभी कहा करते थे कि आगे बढ़ने के लिए , सफल होने के लिए ज़िंदगी में अपमान बहुत पीना पड़ता है। जैसे नरेंद्र मोदी कहते हैं कि उन्हें रोज दो-चार किलो गाली खाने को मिलती है। इसी गाली से उन्हें ऊर्जा मिलती है और वह काम करते रहते हैं। योगी ने अभी तक किसी को इस बाबत कुछ नहीं बताया है।