दयानंद पांडेय
कामरेड लालबहादुर वर्मा की यादों के फूल की माला में अपनों की सुई के घाव बहुत हैं। गोरखपुर की माटी और लोगों ने मुझे तरह-तरह से गढ़ा और रचा है। बाक़ी बहुतेरी बातें लालबहादुर वर्मा ने अपनी आत्मकथा के दोनों खंडों में लिखी ही हैं। कुछ बातें तीसरी खंड में भी आ जाएंगी। उन्हें क्या दुहराऊं।
बहरहाल मेरी बुनियाद में कई ऐसे पत्थर हैं जिन के लिए कहा गया है , हम बुनियाद के पत्थर हैं तराशे नहीं जाते। बुनियाद के इन पत्थरों में एक नाम लालबहादुर वर्मा का भी है। लालबहादुर वर्मा हालां कि वह अनगढ़ पत्थर नहीं थे , खूब चमकते हुए और रोशनमीनार पत्थर थे। पर मेरी बुनियाद में बहुत हैं। बहुत-बहुत हैं। लालबहादुर वर्मा के बिना मेरा जीवन पूरा नहीं होता। लालबहादुर वर्मा जैसा कर्मठ , उदार , लचीला , पारदर्शी , मेहनती , ईमानदार और निडर मैं ने कोई एक दूसरा कामरेड नहीं देखा। ऐसा जनवादी कोई एक दूसरा नहीं देखा। वह कहते ही थे कि जन वह जो किसी का शोषण न करे। इसी फेर में टूट-टूट गए लालबहादुर वर्मा पर कभी झुके नहीं। कभी रुके नहीं। कहूं कि लालबहादुर वर्मा एक खूबसूरत कविता थे। विचारों की कविता। जनवादी विचारों की उदात्त कविता। जिस कविता में तरह-तरह के फूल खिलते थे। कोई दुराव नहीं। सब को अपनी सुगंध में बांधते हुए कब वह फूलों का हार बन गए , हम जान नहीं पाए। लोग जान ही नहीं पाए कि उन के फूलों के उस माला के हर फूल में सुई का घाव है , धागे से गुंथे फूल को माला बनने के लिए घाव ही घाव भुगतना पड़ता है। यह लोग कहां जान पाते हैं। कहां देख पाते हैं। यह घाव उन्हें अपनों ने ही दिया। सुई बन कर।
इतिहास के आदमी थे लेकिन मिला मैं उन से पहली बार कविता के लिए। तब के दिनों मैं कविता में बस क़दम रख ही रहा था। छात्र आंदोलन से निकला था। ऊब कर निकला था। छात्र नेताओं की बेशर्मी , बेहयाई , गुंडई और ठेकेदारी भरी हिप्पोक्रेसी मेरे वश की थी नहीं। इस से उबरने के लिए कविता की कच्ची राह मिली। कविताएं भी मेरी कच्ची थीं। पर मैं मिला भंगिमा के संपादक डाक्टर लालबहादुर वर्मा से। गोरखपुर में रामदत्तपुर के उन के खपरैल के बड़े से मकान में। सिगरेट पीते हुए , बहुत मुहब्बत से मिले लालबहादुर वर्मा। उन्हें कविताएं दीं। इधर-उधर की बात हुई और चला आया। वह कविताएं कभी नहीं छपीं भंगिमा में। मैं ने उन से कभी कुछ पूछा नहीं। बहुत इंतज़ार करने का धैर्य नहीं था तब। आज भी नहीं है। भंगिमा का नया अंक आ गया। मेरी कविताएं भंगिमा में नहीं थीं। मैं ने वह कविताएं उत्तरार्द्ध के संपादक सव्यसाची को मथुरा भेज दीं। सव्यसाची ने वह कविताएं जल्दी ही छाप दीं उत्तरार्द्ध में। बाद में उत्तरगाथा में भी वह छापते रहे थे। लालबहादुर वर्मा की तरह सव्यसाची भी सब को साथ ले कर चलने वाले कामरेड थे। खैर , एक दिन लालबहादुर वर्मा से भेंट हुई तो कहने लगे , थोड़ा तो धैर्य रख लिया होता। कम से कम मुझ से एक बार पूछ तो लिया होता। कि क्या हुआ। मैं क्या कहता भला। शर्मिंदा हो कर रह गया। लालबहादुर वर्मा मेरे पिता की उम्र के थे पर व्यवहार उन का दोस्ताना था। कुछ ज़्यादा ही। उन दिनों गोरखपुर में संयोग से परमानंद श्रीवास्तव और विश्वनाथ प्रसाद तिवारी की भी खासियत यही थी। कि पिता की उम्र के होते हुए भी दोस्ताना व्यवहार रखते थे। लेकिन लालबहादुर वर्मा जैसा दोस्ताना नहीं था उन लोगों का। देवेंद्र कुमार बंगाली भी उम्र का फर्क भूल कर ही मिलते थे। पर वह बोलते बहुत कम थे। ज़्यादातर हंस कर या चुप रह कर काम चलाते थे। साइकिल लिए पैदल चलते रहते। पान खाते और खिलाते।
लालबहादुर वर्मा लेकिन सिगरेट भी पीते और पिलाते। उन का वह अंदाज़ आज भी नहीं भूलता। स्कूटर पर बैठे हुए , एक पैर ज़मीन पर , एक स्कूटर पर रखे , चश्मा आंख से हटा कर सिर पर उठंगाए , सिगरेट के पैकेट से एक सिगरेट निकाल कर अपने होठों में फंसाते और उसे सुलगाने के पहले पैकेट हमारी तरफ बढ़ाते या और भी जो लोग होते , उन की भी तरफ बढ़ा देते। सब की सिगरेट सुलगा कर फिर अपनी सिगरेट सुलगाते। कई बार चाय पीते-पीते जब चाय खत्म हो जाती तो उस चाय के प्याले में ही सिगरेट झाड़ने लगते। खुल कर हंसते-हंसाते। उन का मुस्कुराता चेहरा देखते ही लगता जैसे वह कितना तो प्यार करते हैं। अभिनेता उत्तम कुमार की ही तरह उन की आंखों में जैसे सर्वदा आग जलती रहती थी। लेकिन जब वह अपनी घुंघराली ज़ुल्फ़ों पर चश्मा चढ़ाए , प्यार से देखते तो वह आग जैसे जाड़े की आग बन जाती। जैसे गांव में अलाव की आग। मीठी-मीठी आग। कभी अंग्रेजियत सी ठाट-बाट से रहने वाले , टाई-साई बांध कर लहराती हुई स्कूटर चलाते हुए लालबहादुर वर्मा पेरिस से लौटे थे। लोग उन्हें तब पेरिस रिटर्न कहते हुए बड़ी रश्क से देखते थे। और लालबहादुर वर्मा बड़ी कसक से जब कहते कि पेरिस में ही जा कर तो जाना , निज भाषा उन्नति अहै, सब उन्नति को मूल / बिन निज भाषा-ज्ञान के, मिटत न हिय को सूल ! यह कहते हुए वह ठसक से भर जाते। उन दिनों वह आई ए एस की तैयारी करने वाले छात्रों को पढ़ाते भी थे। तो कुछ लोग उन की इस बात पर आलोचना भी करते थे। वह हंस कर टाल जाते। अपनी घुंघराली ज़ुल्फ़ें झटकते हुए स्कूटर स्टार्ट करते और चल देते।
तड़ित कुमार का लिखा नाटक वह लौटेगा खेलने के लिए भी लालबहादुर वर्मा को हम जानते थे। पर एक दिन देखा कि बख्शीपुर में जार्ज इस्लामिया कालेज के पास पांच-सात लोगों के साथ वह झूम कर गा रहे हैं। ताली बजा-बजा कर गा रहे हैं , ' हम होंगे कामयाब एक दिन ! हो-हो होंगे एक दिन , एक दिन कामयाब ! ' यह गीत खत्म हुआ तो वह नाटक करने लगे। नुक्कड़ नाटक। उन दिनों कब किस गली , किस नुक्कड़ या किस मुहल्ले में लालबहादुर वर्मा नुक्कड़ नाटक करते और हम होंगे कामयाब गाते दिख जाएं लालबहादुर वर्मा , कोई नहीं जानता था। और यह देखिए कि वह लौटेगा को प्ले करने वाले , नुक्कड़ नाटक खेलने वाले , नुक्कड़ गीत गाने वाले लालबहादुर वर्मा भारत भाग्य विधाता खेलने लगे। रमेश उपाध्याय लिखित इस नाटक में सर्वश्वर दयाल सक्सेना का लिखा गीत , है लाठियों में तेल मल के आ रहा चुनाव ! जब नगाड़े और ढोल के कोलाहल में मशाल जलाती हुई जनता गाती नाटक में तो लाल बहादुर वर्मा का निर्देशकीय कौशल देखते बनता था। सुल्तान अब्बास रिज़वी ने इस नाटक में मुख्य भूमिका की थी। यानी नायक की भूमिका। क्या तो आग छलकी थी सुल्तान अब्बास रिज़वी के अभिनय में। रेलवे के जूनियर इंस्टीट्यूट के आडिटोरियम में जिस में कि कभी मैंने प्राइमरी क्लास की पढ़ाई की थी , उस स्कूल में भारत भाग्य विधाता जैसा नाटक भी देखूंगा , नहीं जानता था। नाटक बहुत देखे इस जूनियर इंस्टीट्यूट में पर भारत भाग्य विधाता जैसा कोई और नहीं।
भारत भाग्य विधाता जैसा खौलता हुआ व्यवस्था पर सीधा चोट करता हुआ नाटक गोरखपुर जैसी छोटी जगह में भी खेला जा सकता है , यह लालबहादुर वर्मा ही बता और जता सकते थे। लालबहादुर वर्मा की खासियत ही यही थी कि वह जो बोलते थे , वह करते भी थे। आज के वामपंथियों की तरह हिप्पोक्रेट , लंपट और अवसरवादी नहीं थे। लोगों के प्रति नफ़रत नहीं रहती थी। असहमत लोगों को भी साथ ले कर चलना जानते थे वह। लालबहादुर वर्मा व्यवस्था बदलने की बात करते थे तो खुद को भी बदलते थे। जल्दी ही लालबहादुर वर्मा ने प्रेमचंद का गोदान भी खेला। धनिया की भूमिका में मंजू श्रीवास्तव का अभिनय आज भी नहीं भूला हूं। भंगिमा का संपादक अब एक नाट्य निर्देशक में तब्दील था। एक बार बात-बात में लालबहादुर वर्मा ने मुझ से कहा भी व्यवस्था बदलने में पत्रिका की भी भूमिका है पर नाटक ज़्यादा बेहतर ढंग से बदलता है। सीधी चोट करता है। सीधे दिल में बैठ जाता है। बोलना , लिखना , अभिनय और निर्देशन जैसे एक साथ वह साधते थे , किसी और के लिए सपना ही है। उन दिनों लालबहादुर वर्मा के नाटकों , नुक्कड़ नाटकों , नुक्कड़ गीतों की समीक्षा मैं धर्मयुग , सारिका और स्थानीय अखबारों ख़ास कर दैनिक जागरण में भी बहुत व्यवस्थित ढंग से लिखता था। बाक़ी नाटकों की भी। गोरखपुर में उन दिनों नाटकों की सरगर्मी बहुत थी। नाटक और कवि गोष्ठी। यही जीवन था मेरा उन दिनों। लालबहादुर वर्मा पूंजीवादी प्रतिष्ठानों से प्रकाशित पत्रिकाओं से बहुत प्रसन्न नहीं रहते थे पर उन के नाटकों की बात यह पत्रिकाएं और अखबार भी कर रहे हैं , बदलाव की बात , व्यवस्था पर चोट की बात चल रही है , इस से भी प्रसन्न रहते थे। वह कहते थे कि हमें तो हर प्लेटफार्म पर अपनी बात कहनी ही है। आज के कामरेडों की तरह वह नफरत के तीर और नागफनी में नहीं जीते थे। सब से मिलते-जुलते , सब को अपना बनाते रहने के हामीदार थे लालबहादुर वर्मा। जन वह जो किसी का शोषण न करे के हामीदार थे ही वह।
भूलता नहीं हूं कभी लमही में प्रेमचंद मेला। जनवादी लेखक संघ की तरफ से यह प्रेमचंद मेला लालबहादुर वर्मा ने आयोजित किया था। 31 जुलाई , 1980 की बात है। प्रेमचंद जन्म-शताब्दी के दिन थे। बनारस के लमही में देश भर से लेखक , कवि , रंगकर्मी आलोचक जुटे थे। मेले के पहले लोगों को निमंत्रण भेजने के अलावा लालबहादुर वर्मा लमही में भी महीने भर पहले ही से सक्रिय हो गए थे। न सिर्फ लमही बल्कि लमही के आसपास के गांवों में भी। कुछ लोगों की टीम बना कर साइकिल से लालबहादुर वर्मा गांव-गांव घूम कर मेले के लिए लोगों को न्यौता भी दे रहे थे और सहयोग भी मांग रहे थे। पैसा , अनाज जो भी संभव बन रहा था , लोग दे रहे थे। लालबहादुर वर्मा का मानना था कि सहयोग बहाना था। गांव के लोगों की भागीदारी , मक़सद प्रेमचंद मेले से लोगों को जोड़ने का था। उस गरमी भरी दोपहर में साइकिल से गांव-गांव साइकिल से पगडंडियों पर घूमना आसान नहीं था। लेकिन पेरिस रिटर्न गोरखपुर विश्वविद्यालय के इतिहास विभाग का रीडर लालबहादुर वर्मा किसी गंवई मज़दूर की तरह यह मेहनत कर रहा था। प्रेमचंद को अपने भीतर जी रहा था। प्रेमचंद से लोगों को जोड़ रहा था। यह आसान नहीं था। 31 जुलाई , 1980 को तीन दिन के इस मेले में पहुंचा था मैं भी। लालबहादुर वर्मा ने बहुत इसरार से बुलाया था। देश भर से लोग अपने खर्च पर आए थे।
तब नुक्कड़ नाटक हुए थे। हम होंगे कामयाब एक दिन जैसे गीत गाए थे रंगकर्मियों ने। लगभग देश भर से लेखक और रंगकर्मी जुटे थे। डाक्टर शमसुल इस्लाम जो तब दिल्ली विश्वविद्यालय में पढ़ाते थे और उन की पत्नी नीलम जी, गोरखपुर के डा. लालबहादुर वर्मा और उन की टीम ने जो क्रांतिकारी और समाज को बदलने वाले नाटक और गीत तीन दिन तक पेश किए थे वह अदभुत था। बनारस से भी कई लोग आए थे। रामनारायण शुक्ल सहित कई लोग। पटना से नचिकेता, शांति सुमन। गोरखपुर से शशि प्रकाश, कात्यायनी आदि तमाम-तमाम कवि , रंगकर्मी भी। दिन में नुक्कड़ नाटक देख कर रात को गांव के आस-पास के बहुत सारे लोग इकट्ठे हो गए थे। नाच देखने की गरज से। लाठियां ले-ले कर। बहुत समझाने पर भी लोग मानने को तैयार नहीं थे। कहने लगे कि बाई जी लोग आई हैं, कम से कम फ़िल्मी ही हो जाए दो-चार ठो। बमुश्किल गांव के कुछ समझदार लोगों के सहयोग से साथी स्त्रियों को 'सुरक्षित' किया गया था उस रात। दूसरे दिन पुलिस की व्यवस्था करवाई गई एहतियात के तौर पर। पर कुछ अप्रिय नहीं हुआ था। भगवा वेश में स्वामी अग्निवेश भी आए थे। बहुत चर्चा थी उन की उस मेले में। तब के समय वह विधायक भी थे। लालबहादुर वर्मा से कुछ लोगों ने दबी जुबान पूछा भी कि स्वामी अग्निवेश को भी आप ने बुला लिया ? इस भगवाधारी को ? लालबहादुर वर्मा ने छूटते ही कहा , हर्ज क्या है ! सब से मिलिए , सब को सुनिए। गोरखपुर में उन दिनों शशि प्रकाश और कात्यायनी की मित्रता के चर्चे थे। लमही में भी दोनों साथ थे। लेकिन दिल्ली से आए डा शमसुल इस्लाम और नीलम जी की जोड़ी की चमक के आगे शशि और कात्यायनी को लोग भूल गए थे तब लमही में।
शशि प्रकाश और कात्यायनी से मेरी मुलाकात पहले से थी। एक बार छात्र संघ की राजनीति के चक्कर में अनशन पर बैठ गया था। पिता बहुत नाराज हुए। घर छोड़ कर कुछ दिनों जुबिली इंटर कालेज , गोरखपुर के हॉस्टल में रहना पड़ा। एक कामरेड शुक्ल थे। उन्हों ने यह व्यवस्था करवाई थी। उपेंद्र तिवारी वहां इंटर के छात्र थे। बिहार के थे। उन के फूफा जी हॉस्टल वार्डन थे। तो पहले उपेंद्र तिवारी का गेस्ट बना। फिर बारी-बारी लगभग सभी छात्रों का। तीन दिन से अधिक कोई गेस्ट रख नहीं सकता था। मेस में भोजन नहीं मिल सकता था। तो जुबली इंटर कालेज में शशि प्रकाश आते थे। खूब लंबी-लंबी बातें होती थीं। जुबली कालेज का खूब बड़ा सा मैदान टहलते-टहलते , बतियाते-बतियाते कई चक्कर लग जाता। पर शशि प्रकाश की बातें खत्म नहीं होती थीं। शोषक और शोषित की बात करते हुए उन की आंखों में जैसे चिंगारी छिटकती दिखती थी। तब के दिनों भी शशि प्रकाश ने कितने तो पढ़ा था। वह खुद भी विद्यार्थी थे। बी एस सी कि एम एस सी कर रहे थे। पर चेहरे पर दाढ़ी और कंधे पर झोला जैसे उन की पहचान थी। जुबिली कालेज के दिनों के बाद फिर 1975 की मई की एक शाम रायगंज में एक कवि गोष्ठी में शशि प्रकाश मिले थे। नन्हकू मिश्र पंकज ने यह गोष्ठी आयोजित की थी। तब मैं ने इंटर का इम्तहान दिया था। रिजल्ट नहीं आया था। शशि प्रकाश ने एक साथ पांच कविताएं सुनाई थीं। उन की मां कविता अभी भी मन में उसी तरह बसी हुई है। शशि प्रकाश उन दिनों विश्वविद्यालय के एन सी हॉस्टल मुझे बहुत ले जाते थे। वहां भी खूब बहस होती। शशि किताबें भी बहुत देते थे पढ़ने के लिए। एन सी हॉस्टल में ही शशि के बड़े भाई रवि प्रकाश और राजनाथ पांडेय जैसे मित्रों से भी भेंट हुई। तब के दिनों वर्ग शत्रु और क्रांति की बात करने वाले राजनाथ पांडेय बाद में सर्विसेज की तैयारी में लग गए। पी सी एस एलायड हो गए थे। शायद सेल्स टैक्स में। बाद में पता चला कि रवि प्रकाश और शशि प्रकाश , लालबहादुर वर्मा के साले हैं। लालबहादुर वर्मा ने इन लोगों को अपने बच्चे की तरह परवरिश भी की थी। पढ़ाया-लिखाया था। रामदत्तपुर में लालबहादुर वर्मा के घर पर भी कई बार फिर मिले शशि प्रकाश। कात्यायनी के घर भी एक बार गया था। उन की बड़ी बहन मीनाक्षी वकील थीं। एक परिचर्चा के लिए उन से बात करनी थी। तो कात्यायनी भी मिलीं। उन के पिता जी भी। अब लमही में भी मिले सब लोग। बाद में शशि की शादी कात्यायनी के साथ हुई। लालबहादुर वर्मा ने परंपरा तोड़ कर यहां भी झूम कर हम होंगे कामयाब समेत अनेक नुक्कड़ गीत गाए।
एक बार मैं ने देखा कि लालबहादुर वर्मा ने एक फिल्म शालीमार की समीक्षा लिखी। उन दिनों मैं बी ए की पढ़ाई करते हुए एक साप्ताहिक अखबार पूर्वी संदेश में पार्ट टाइम भले काम करता था , पर काम बतौर संपादक का ही करता था। प्रिंट लाइन में बतौर संपादक नाम भी जाता था। मैं शहर के सब लोगों से लिखवाता भी था। समय-समय पर। परमानंद श्रीवास्तव , विश्वनाथ प्रसाद तिवारी , नवनीत मिश्र आदि बहुत से लोगों से अनुरोध कर के लिखवाता था। लोग बाखुशी लिखते थे। एक बार लालबहादुर वर्मा से भी अनुरोध किया। तो वह बोले , फिल्म समीक्षा दे दूं ? मैं चौंका। पर जब मैं ने हां कहा तो उन्हों ने धर्मेंद्र अभिनीत शालीमार की समीक्षा दे दी। फिर पूछा , आप के ज़की साहब छपने देंगे। उन का आशय मुहम्मद ज़की से था। जो अखबार के प्रधान संपादक और स्वामी भी थे। मैं ने कहा , दिक्कत क्या है ? लालबहादुर वर्मा बोले , वह सोवियत संघ वाले हैं , न ! मैं ने कहा , ऐसा कुछ नहीं है। यह मुझे देखना है। समीक्षा छपी। और ज़की साहब ने सचमुच कुछ नहीं कहा। उन दिनों असल में सी पी आई , सी पी आई एम और सी पी आई एम एल की फांक बहुत तेज़ी पर थी। और शालीमार की समीक्षा लालबहादुर वर्मा ने पारंपरिक रूप से नहीं लिखी थी। समीक्षा के बहाने अमरीका और उस की साज़िश को खूब कस के हिट किया था।
संयोग देखिए कि मैं जल्दी ही दिल्ली चला गया। और एक अमरीकन पत्रिका रीडर्स डाइजेस्ट के हिंदी संस्करण सर्वोत्तम रीडर्स डाइजेस्ट में नौकरी करने लगा। यह मई , 1981 की बात है। एक बार गोरखपुर आया तो रामदत्तपुर स्थित उन के घर गया तो सकुचाते हुए यह बताया। तो सिगरेट की राख झाड़ते वह हंसे। बोले , सब मालूम है। आप क्या समझते हैं , आप नहीं बताएंगे तो पता नहीं लगेगा। अरे दोस्तों की सारी खबर रखता हूं। फिर वह कहने लगे , नौकरी तो नौकरी है। हमेशा अपने मन की नहीं मिलती। मैं ने बताया उन्हें कि पर मेरा मन तो वहां लग गया है। वह फिर मुस्कुराए। फिर जब जनसत्ता , दिल्ली में ही गया तो वह बहुत खुश हुए। चिट्ठी लिख कर बधाई दी।
बाद में सुना कि उन के बड़े साले रविप्रकाश भी अमरीका चले गए। फिर कंचन चौधरी से विवाह की खबर भी मिली। अब तो सुना है वह भी लखनऊ में ही रहते हैं। अचानक खबर मिली कि शशि प्रकाश अंडरग्राउंड हो गए हैं। पता नहीं क्या बात थी। मैं ने किसी से पूछा भी नहीं। कोई 37 बरस बाद लखनऊ के जयशंकर प्रसाद सभागार में शशि प्रकाश मिले अपने ही एक व्याख्यान में। वैसे ही धधा कर मिले जैसे गोरखपुर में मिलते थे। वही ऊर्जा , वही आत्मीयता। फिर दुबारा भेंट नहीं हुई है।
ऐसे ही एक बार मैं बहुत बीमार पड़ा था। तो एक दिन इलाहीबाग़ में अचानक घर आ गए लालबहादुर वर्मा। मुझे देखने। पूछा , कैसे पता चला ? वह दुखी होते हुए बोले , दोस्तों के बारे में पता रखता हूं भाई। ऐसे ही एक बार वह रास्ते मिले तो कहने लगे , आप बहुत कहते रहते हैं कि कभी कोई नुक्कड़ नाटक आप के मुहल्ले में भी करुं। तो अब समय आ गया है कि आप के मुहल्ले में भी नुक्कड़ नाटक हो जाए। वह बोले , आप को कुछ अतिरिक्त तैयारी नहीं करनी है। कोई चाय-नाश्ता भी नहीं। बस सब को सूचित कर दीजिएगा कि लोग देखने आ जाएं। दो-तीन तख्त भी मिल जाएं तो ठीक रहेगा। न मिले तो भी कोई बात नहीं। फिर तारीख और समय भी बता दिया। संयोग से वह चुनाव के दिन थे। नुक्कड़ नाटक के कुछ समय पहले तब के गोरखपुर के सांसद हरिकेश प्रताप बहादुर सिंह आ गए। फिर चुनाव लड़ रहे थे। घर-घर प्रचार करने। हरिकेश प्रताप सिंह न सिर्फ हमारे मुहल्ले इलाहीबाग में विद्यार्थी जीवन में रह चुके थे बल्कि हमारे बिलकुल सटे हुए पड़ोसी भी रहे थे। आज भी उसी प्यार और रिश्ते को याद करते हुए मिलते हैं। जमींदार साहब का हाता था। उसी जमींदार साहब के हम दोनों किराएदार थे। बड़ा सा हाता था। आज भी है। तो हरिकेश प्रताप बहादुर सिंह से बताया कि नुक्कड़ नाटक होने वाला है। देख कर जाइए। वह बोले , नाटक देखने भर का समय तो नहीं है। पर आप कह रहे हैं तो थोड़ी देर देख लूंगा। अभी हूं , इसी मुहल्ले में। तय समय पर लालबहादुर वर्मा आए अपनी पूरी टीम के साथ। नाटक शुरू हो गया। पहले दर्शक कम थे। हरिकेश प्रताप बहादुर सिंह के साथ लोग लग गए थे। पर जल्दी ही हरिकेश प्रताप बहादुर सिंह भी आ गए। खड़े-खड़े नाटक देखने लगे। दो-चार बार ताली भी बजाई। पर जल्दी ही वह हाथ जोड़ कर , धीरे से निकल गए। लोग नाटक देखने में लगे रहे। हरिकेश प्रताप बहादुर सिंह का जाना कोई देख भी नहीं पाया। नाटक में लोग डूब गए थे। नाटक खत्म हुआ तो लालबहादुर वर्मा ने तुरंत रमाकांत पांडेय का प्रचार करते हुए उन के लिए न सिर्फ वोट बल्कि सहयोग भी मांगने लगे। कुछ लोग बिदके भी मुझ से। कि यह क्या नाटक रमाकांत पांडेय के प्रचार में करना था तो पहले बताना था। मैं ने लालबहादुर वर्मा को धीरे से कान में बताया कि यहां हरिकेश प्रताप बहादुर सिंह के समर्थक हैं सब लोग। हरिकेश जी इस मुहल्ले में काफी समय रहे हैं। लालबहादुर वर्मा बोले , तो क्या हुआ ! वह बदस्तूर वोट और सहयोग मांगते रहे। दो लोग चादर ले कर भीड़ में घूमते रहे। जिस की जो सामर्थ्य थी , देता भी रहा।
मेरी शादी में बारात गांव से आने के कारण ज़रा देर से पहुंची। हमारे यहां तब परंपरा में था कि जैसे भी हो सूर्य डूबने के पहले द्वारपूजा हो जानी चाहिए। अब तो यह परंपरा लगभग बिसर गई है। पर तब कठोरता से पालन होता था इस का। खैर , बारात पहुंची तो पाया कि लालबहादुर वर्मा जैसे बारातियों के स्वागत में खड़े हुए हैं। सब को कोल्ड ड्रिंक पेश करते हुए। मैं चौंका। यह सोच कर घराती कैसे हो गए यह भला। द्वारपूजा के बाद अवसर पा कर पूछा कि आप बाराती हैं कि घराती ? हंसते वह बोले , हूं तो बाराती ही पर यूनिवर्सिटी से निकला तो सोचा घर जा कर क्या आऊं , तो सीधे यहीं आ गया। मेरी ससुराल यूनिवर्सिटी के बगल में ही है। वह कहने लगे कि जल्दी आ गया तो यहां लोगों से बात होने लगी। लालबहादुर वर्मा अचानक बोले , फोटो वगैरह नहीं खिंच रही। बताया कि मेरा जोर सादगी पर था सो फोटोग्राफर वगैरह नहीं बुलवाया गया है। तो वह बोले , मुझे बताया होता तो मैं अपना कैमरा ले आया होता। फिर हाथ मिलाते हुए बोले , बहुत बढ़िया किया आप ने बिना दहेज़ का विवाह कर के। बधाई आप को। नहीं , अरेंज्ड मैरिज में तो दहेज़ परंपरा में मान लिया गया है। मैं ने पूछा कि किस ने बताया आप को। वह बोले , अरे घंटे भर से यहां बैठा हूं। हर कोई इसी चर्चा में था। मैं ने भी सुना। यह 1982 की बात है।
दिल्ली में था तब तक उन से पूरा संपर्क बना रहा था। लखनऊ आने के बाद पता चला कि लालबहादुर वर्मा गोरखपुर छोड़ गए हैं। हरियाणा चले गए हैं। कुछ पारिवारिक झंझट हो गई है। मुक़दमे वगैरह के विवरण भी मिले। जितने लोग , उतने विवरण। तमाम तरह की बातें। अब उस के विवरण मैं लेकिन मैं नहीं जाना चाहता। फिर एक दिन अचानक इतिहास बोध का अंक लखनऊ के पते पर मिला तो चौंका। लालबहादुर वर्मा का वह हरदम कहा याद आ गया कि दोस्तों की खबर रखता हूं। सोच कर ही मन खुश हो गया। फिर एक दिन चिट्ठी मिली कि अब इलाहाबाद में हूं। फोन पर भी कई बार बात होती रही। बेटी का विवाह खोजने के चक्कर में इलाहबाद भी जाना हुआ। सात-आठ बरस पहले की बात है। तब इलाहबाद में अनुज दयाशंकर शुक्ल सागर हिंदुस्तान , इलाहबाद संस्करण के संपादक थे। उन के घर पर भेंट हुई तो लालबहादुर वर्मा से मिलने की चर्चा की मैं ने। कहा कि इन से मिलना है और प्रेमचंद के परिवार के लोगों से भी। सागर बोले , लालबहादुर वर्मा से तो मुझे भी मिलवा दीजिए। उन से अखबार में कालम लिखवाना चाहता हूं। गए हम लोग। स्वास्थ्य बहुत ठीक नहीं था। न उन का , न भाभी जी का। चारो तरफ किताबों से अटे ड्राइंग रुम में ही बैठे-बैठे वह एक किनारे हीटर पर दूध गरम करने लगे। सफ़ेद कुर्ते में सफ़ेद चादर पर बैठे ख़ूब जम रहे थे वह। याद था उन्हें कि मैं चाय नहीं पीता। तो काफी के जुगाड़ में थे। मैं ने उन से कहा कि यह सब छोड़िए। मिलने आया हूं। काफी पीने नहीं। बतियाते हैं। लेकिन तब तक उन के दो विद्यार्थी आ गए। आते ही सब काम संभाल लिया। लालबहादुर वर्मा निश्चिंत हो कर बतियाने लगे। तमाम नई पुरानी बातें। आंखों और बातों में वही चमक। वही खनकती आवाज़। मन खुश हो गया उन से मिल कर। उन से लमही में प्रेमचंद मेले का ज़िक्र किया तो जैसे वह सुनहरी यादों में खो गए। एक से एक बातें बताने लगे। लोगों की याद। नाटकों की याद। उन चहकते दिनों की बातें। कैसे गांव-गांव , घूम-घूम कर मुट्ठी-मुट्ठी भर अनाज लोगों से बटोरते फिर थे वह साइकिल से। लमही की यादें से जब फुरसत मिली तो साथ गए सागर से भी परिचय करवाया और बताया कि आप से हिंदुस्तान में कालम लिखवाने की लालसा ले कर आए हैं।
यह सुनते ही लालबहादुर वर्मा खुश हो गए। पर कहने लगे कि मेरा लिखा छाप भी पाएंगे आप ? सागर बोले , बिना किसी कांट-छांट के छापूंगा। लालबहादुर वर्मा बोले , वह तो सब ठीक है। लेकिन एक बार अमर उजाला वालों ने भी लिखवाया था। पर जल्दी ही बंद कर दिया। सोच लीजिए। सागर बोले , कुछ नहीं , आप लिखिए। जब तक मैं हूं यहां तब तक तो छपेगा ही। और सचमुच जब तक सागर वहां रहे , लालबहादुर वर्मा का कालम छपता रहा। बाद का नहीं जानता। गोरखपुर में लोग उन्हें डाक्टर साहब , डाक साहब , वर्मा जी नाम से संबोधित करते थे। इलाहाबाद में देखा लोग उन्हें प्रोफ़ेसर साहब नाम से पुकार रहे थे। हम लोग चलने लगे तो बात ही बात में उन्हें बताया कि फ़िराक साहब का यूनिवर्सिटी वाला घर तो देख चुका हूं। अमरकांत जी से भी मिल चुका हूं। अब ज़रा प्रेमचंद के परिजनों से भी मिलना चाहता हूं। अमृत राय का परिवार तो यहीं रहता है न ! सुनते ही लालबहादुर वर्मा ने अचानक मुंह बिगाड़ लिया। बोले , मत जाइए। जा कर दुखी होंगे। पूछा कि क्यों ? तो कहने लगे , बहुत मुमकिन है कि कोई मिले ही नहीं। नौकर मिलेंगे। और जो कोई परिवार का मिल भी गया तो वह हिंदी नहीं बोलेगा। अंगरेजी बोलेगा। क्यों कि हिंदी कोई जानता ही नहीं अब उस परिवार में। तो आप को दुःख होगा। उन के चेहरे पर जैसे पीड़ा उभर आई। गोरखपुर में उन का कहा याद आने लगा , जब वह भारतेंदु को कोट करते हुए बड़े फख्र के साथ कहते :
निज भाषा उन्नति अहै, सब उन्नति को मूल।
बिन निज भाषा-ज्ञान के, मिटत न हिय को सूल।।
ओह ! कह कर विदा ली। चलते हुए कहने लगे , अच्छा लगा कि इतनी देर में पारिवारिक विवाद पर आप ने कुछ पूछा नहीं। कोई चर्चा नहीं की। नहीं लोग उसी पर चर्चा करने जैसे आते हैं। और मैं नहीं करता चाहता। मैं चुप रहा। ऐसे जैसे कुछ नहीं सुना। अब यह मुलाकात अंतिम मुलाक़ात होगी , नहीं जानता था। वह तो मुझे अपना दोस्त समझ कर हरदम मेरी खबर रखते रहे थे। मैं ही अभागा हूं जो उन की खबर नहीं रख सका। इस बीच वह कब दिल्ली और फिर देहरादून भी चले गए , नहीं जान पाया। अपनी ही झंझटों में फंसा रहा। देखिए न यह यादें भी कुछ दूसरी ज़रूरी व्यस्तताओं के चलते देर से लिख पा रहा हूं। इस में भी देर हो गई। किसी की ज़िंदगी और मृत्यु की बात आ गई थी। नहीं , अमूमन मैं तुरंत लिखने के लिए परिचित हूं। माफ़ कीजिएगा , लालबहादुर वर्मा। आप को श्रद्धांजलि नहीं लिख रहा हूं। आप की याद लिख रहा हूं। वह भी देर से। अलग बात है , बहुत सी बातें और यादें छूटती जा रही हैं। जिन्हें हो सकता है फिर कभी लिखूं। आप को श्रद्धांजलि इस लिए भी नहीं लिख रहा हूं क्यों कि आप जैसे लोग कभी मरते नहीं। आप सर्वदा हमारे साथ रहेंगे। यक़ीन मानिए आप के बेटे सत्यम वर्मा को जब भी कभी-कभार सुनने और पढ़ने का अवसर मिला है , आप की याद फौरन आ जाती रही है। व्यवस्था पर चोट करने में आप की मेधा , प्रखरता , तेज़ी और तुर्सी , पूरी तल्खी के साथ पूरी , आकुलता सत्यम में पूरी तैयारी के साथ उपस्थित दिखती है। बहुत ही व्यवस्थित ढंग से आप सत्यम के रूप में सर्वदा मुझ से मिलते रहेंगे। आप का लिखा-गुना , आप के साथ जिया समय तो हमारी धरोहर है ही। जीवन , प्रेम और जद्दोजहद सब कुछ आप से सीखा है। एक समय यादों में आदमी बहुत जीता है। मैं भी जीता हूं अब। मुझे गढ़ने में आप को , आप के कुम्हार को कैसे भूल सकता हूं कभी। बहुत कम लोग हैं जीवन में जो बिन कुछ कहे , बिन कुछ सुने चुपचाप मुझे गढ़ते रहे हैं। उन में आप बहुत महत्वपूर्ण हैं , लालबहादुर वर्मा ! सैल्यूट यू ! बारंबार सैल्यूट ! इस लिए कि आप जैसा निडर , निष्पक्ष , बेलौस , हर किसी को साथ ले कर चलने वाला , हर किसी को प्यार करने वाला , अपने दुश्मनों को भी बारंबार माफ़ कर उन्हें प्यार करने वाला कोई एक दूसरा कामरेड नहीं देखा। बातें बहुत सी हैं आप की कामरेड लालबहादुर वर्मा। उस लमही मेले की। मेले में कामरेड लालबहादुर वर्मा की सक्रियता और प्रभाव की।