Thursday, 28 January 2021

वामपंथियों और खालिस्तानियों के मिलन ने किसान आंदोलन के मुंह पर कालिख पोत दिया


बुद्ध , महावीर और गांधी का देश है यह। शांति और अहिंसा का देश है यह। तय मानिए कि अगर बीते 26 जनवरी को किसान आंदोलन के लोग तय रूट पर अहिंसक ट्रैक्टर रैली निकाल कर अपना शक्ति प्रदर्शन किए होते तो आज देश ही नहीं , दुनिया में वह देवता बन कर उपस्थित हुए होते। अन्नदाता की इज़्ज़त अफजाई में लोग उमड़ पड़े होते। सोने में सुहागा हो गया होता। सरकार को अपनी मांग के समर्थन में वह बड़ी आसानी से झुका सकते थे। लचीला बना सकते थे। लेकिन वामपंथियों और खालिस्तानियों के मिलन ने किसान आंदोलन के मुंह पर कालिख पोत दिया। किसान आंदोलन की पवित्रता भंग कर दी। कृषि मंत्री तोमर ने ग्यारहवें दौर की वार्ता असफल होने पर साफ़ कहा था कि किसान आंदोलन की पवित्रता खत्म हो गई है। लेकिन तब किसी ने कृषि मंत्री की इस बात पर गंभीरता से विचार नहीं किया। 

दुनिया में दो लोगों ने सामाजिक समता की बात की है। एक महात्मा बुद्ध ने दूसरे , कार्ल मार्क्स ने। मकसद दोनों का एक था। लेकिन रास्ते अलग-अलग थे। बुद्ध सत्य और अहिंसा के रास्ते सामाजिक समता लाना चाहते थे। जब कि कार्ल मार्क्स तानाशाही और हिंसा के रास्ते। नतीज़ा सामने है। बुद्ध आज भी दुनिया भर में प्रासंगिक हैं। कार्ल मार्क्स दुनिया भर में न सिर्फ़ अप्रासंगिक बल्कि खारिज हो चुके हैं। कार्ल मार्क्स के नाम पर ख़ास कार भारत में कुछ वैचारिक कट्टरता और नफ़रत में डूबे मुट्ठी भर लोग ही उपस्थित दीखते हैं। लेकिन माहौल बनाने , अफवाह फैलाने , नफरत का प्राचीर बनाने में इन की निपुणता अभी भी अपने पूरे ख़म में है। कश्मीर में आतंक फैलाने वालों के खिलाफ इन लोगों ने कभी कुछ नहीं कहा। कश्मीरी पंडितों की बात करना इन की राय में सांप्रदायिक होना , हिंदुत्ववादी हो जाना हो जाता है। इमरान खान को शांति दूत बताते नहीं अघाते। खालिस्तानी आंदोलन में जलते हुए पंजाब की तरफ से भी आंख मूंद लिया था इन लोगों ने। मुस्लिम कट्टरता और सांप्रदायिकता के खिलाफ भी इन के लब कभी नहीं खुलते। सर्वदा सिले रहते हैं। 

उलटे देश में आग लगाने के लिए जय भीम , जय मीम का नैरेटिव रचने में यह लोग पूरी तरह सफल हुए। दलित और मुसलमानों को जोड़ कर  नफ़रत के तीर चलाने , माहौल खराब करने का इन का खेल अभी गरम ही था कि इन्हें किसान आंदोलन का खौलता कड़ाहा मिल गया। खालिस्तानियों का धन और बल मिल गया। इन को लगा कि अब यह देश में मुकम्मल आग लगा देंगे। अगर 26 जनवरी को मोदी सरकार और दिल्ली पुलिस ने अहिंसक रवैया न अपनाया होता तो इन के दोनों हाथ में लड्डू होते। ग़लती से एक भी गोली पुलिस से चल गई होती तो दिल्ली जालियांवाला बाग़ बन गया होता। मोदी जनरल डायर। देश के सौभाग्य से ऐसा कुछ भी नहीं हुआ। पर किसान आंदोलन  हिंसा की भेंट चढ़ गया।

याद कीजिए चौरीचौरा काण्ड की। 4 फ़रवरी , 1922 को घटित गोरखपुर में एक चौरीचौरा काण्ड में कुछ लोगों ने बिट्रिश सरकार की एक पुलिस चौकी को आग लगा दी थी जिस से उस में छुपे हुए 22 पुलिस कर्मचारी ज़िंदा जल के मर गए थे। महात्मा गांधी इस हिंसा पर कुपित हो गए। पूरे देश में फैल चुके असहयोग आंदोलन को गांधी ने तुरंत वापस लेने का ऐलान कर दिया था। पटेल और नेहरू जैसे नेता गांधी से कहते रह गए कि बापू , पूरा देश असहयोग आंदोलन में आगे बढ़ चुका है आंदोलन वापस मत लीजिए। आंदोलन वापस लेना ठीक नहीं होगा। लेकिन महात्मा गांधी ने साफ़ कहा कि ईंट के बदले पत्थर का जवाब नहीं हो सकता। मुझे ऐसी आज़ादी नहीं चाहिए। 

और देखिए कि पूरे देश ने गांधी की बात मान ली थी। असहयोग आंदोलन स्थगित पूरे देश में स्थगित हो गया था। गांधी हों , जे पी हों , अन्ना हजारे हों , किसी भी का आंदोलन कभी हिंसक नहीं हुआ। क्यों कि वह लोग हिंसा में यकीन नहीं करते थे। इसी लिए यह लोग सफल हुए। किसान आंदोलन के लोग भी अगर अपने आंदोलन को हिंसक नहीं बनाते तो आज कामयाब होते। हिंसा शुरू होते ही , आंदोलन वापसी की घोषणा कर दिए होते , साज़िश के सौदागर न बने होते तो बात ही कुछ और होती। 

नरेंद्र मोदी सरकार अगर आज कामयाब दिखती है तो सिर्फ़ इस लिए कि सरकार और पुलिस दोनों ने बुद्ध , महावीर और गांधी की अहिंसा पर यकीन किया , कार्ल मार्क्स की तानाशाही और हिंसा पर नहीं। सोचिए कि अगर पुलिस की एक भी गोली कहीं चली होती तो दिल्ली को जालियांवाला बाग़ बनने से कोई रोक नहीं सकता था। जाने कितनी लाशें बिछ गई होतीं। आज नरेंद्र मोदी से पूरी दुनिया इस्तीफ़ा मांग रही होती। लेकिन आंदोलनकारी तो समूची दिल्ली में सारी हिंसा पुलिस और सरकार को भड़काने के लिए ही कर रहे थे। पर लालक़िला की प्राचीर पर जो भी कुछ घटा , तिरंगे और लालक़िला का जो अपमान किया गया किसान आंदोलन के नाम पर तिरंगे की जगह धार्मिक झंडा और किसान आंदोलन का झंडा फहराया गया , हंसिया-हथौड़ा का झंडा रेलिंग पर लगाया गया , वह अप्रत्याशित था। तिरंगे और लालक़िला का यह अपमान सिर्फ़ सरकार ने ही नहीं , समूचे देश ने अपने दिल पर ले लिया है। 

ट्रैक्टर रैली ऊर्फ टेरर रैली के नाम पर जिस तरह हिंसा की आग में दिल्ली को जलाया गया , 400 से अधिक पुलिस कर्मियों को घायल किया गया। घोड़े , ट्रैक्टर और तलवार चलाई गई , देश ने उसे पसंद नहीं किया। क़ानून की नज़र में तो यह सब अप्रिय था ही , देशद्रोह की इबारत भी बन गया। वामपंथियों ने बीते बरस भी मुसलामानों के साथ मिल कर सी ए ए के नाम पर दिल्ली को दहलाया और जलाया था इस साल भी दिल्ली को जलाने और दहलाने के लिए किसान आंदोलन के पंजाब के किसानों के साथ खड़े हो गए। पूरी रणनीति के साथ। 

इस आग को कांग्रेस ने भी हवा देने में कोई कसर नहीं छोड़ी। अब भी दे रही है। खालिस्तानी लोगों और उन को मिले फंड को भी वामपंथियों ने खूब दूहा। सरकार के साथ किसी भी सूरत समझौता नहीं होने दिया। फिर इस रणनीति के दूध का उबाल इतना उफना कि ट्रैक्टर रैली के नाम पर दिल्ली को ही नहीं राष्ट्रीय धरोहर , देश की शान , तिरंगे की मान को भी स्वाहा कर दिया। किसान आंदोलन के अगुआ और हीरो लोग अब देशद्रोह के  आरोपी ही नहीं , देश के खलनायक बन कर उपस्थित हैं। यह लोग आए तो थे नरेंद्र मोदी को खलनायक बना कर देश की सत्ता से बाहर करने के लिए। लेकिन कबीर कहते हैं न कि :

जो तोको काँटा बुवै ताहि बोव तू फूल। 

तोहि फूल को फूल है वाको है तिरसुल॥

फ़िलहाल यही हो गया है। बुद्ध , महावीर और गांधी इसी लिए प्रासंगिक हैं और महत्वपूर्ण भी। लेकिन फासिस्ट लोगों के सिर्फ़ विचार ही नहीं , आंख और अक्ल भी कुंद हैं। 

Tuesday, 26 January 2021

इस ट्रैक्टर रैली ऊर्फ टेरर रैली में तैयारी तो जालियांवाला बाग़ बनाने की ही थी


आज का दिन राष्ट्रीय शर्म का तो था ही पर कृपया मुझे यह कहने की अनुमति दीजिए कि लालकिले की प्राचीर पर आज जो भी कुछ अप्रिय हुआ वह आतंकी कार्रवाई थी। आंदोलनकारी , या दंगाई घटना नहीं थी। ठीक वैसे ही जैसे यह ट्रैक्टर रैली के नाम पर टेरर रैली थी। बधाई दीजिए मोदी सरकार और दिल्ली पुलिस को कि उन्हों ने पूरे धैर्य और संयम से काम लिया। इतना कुछ घट जाने के बावजूद एक भी गोली नहीं चलाई। नहीं क्या आई टी ओ , क्या लालक़िला , जालियां वाला बाग़ बनने में देर नहीं लगती। दिल्ली पुलिस के पास लाठी ही नहीं , रिवाल्वर भी थी। 

सोचिए कि अगर दिल्ली पुलिस पुलिसियापन पर आ जाती तो इन दंगाइयों , इन आतंकियों का क्या होता। लेकिन दिल्ली पुलिस के सब्र को प्रणाम कीजिए। कि पुलिस पर घोड़े दौड़ाते रहे निहंग , तलवार भी चलाते रहे। लाठी और रॉड से पुलिस वालों को घेर-घेर कर मारते रहे। पुलिस वाले पिटते रहे , जान बचाने के लिए खुद नालों में कूदते रहे पर आंसू गैस और हलके लाठी चार्ज तक ही सीमित रहे। एक भी गोली नहीं चलाई। और तो और इन हिंसक लोगों ने पुलिस वालों को ट्रैक्टर से कुचलने की बार-बार कोशिश की। फिर भी पुलिस ने रिवाल्वर नहीं निकाली। मोदी सरकार ने भी सुरक्षा बलों को काबू में रखा। क्यों कि कांग्रेस और कम्युनिस्ट दलों की पूरी तैयारी दिल्ली की अनेक जगहों पर जालियां वाला बाग़ बनाने की थी। 

लालकिले पर जब आतंकियों ने तिरंगे की जगह एक धार्मिक और एक किसान संगठन के झंडे फहराए तो हंसिया-हथौड़ा का झंडा भी वहां पहुंचाया गया। पर झंडा फहराने वाले ध्यान नहीं दिया उस पर तो वह लालक़िले की प्राचीर की रेलिंग पर ही वह हंसिया-हथौड़ा का झंडा लगा कर खुश हो गया। गनीमत कि कांग्रेस का झंडा वहां नहीं दिखा। कहां तो यह लोग किसान आंदोलन के नाम पर गणतंत्र दिवस का जश्न मनाने और अपनी ताकत दिखाने का दावा कर रहे थे। शांति प्रिय आंदोलन बनाने का दावा था। पुलिस तो पुलिस आज मीडिया के लोग भी खूब पीटे गए। उन के कैमरे तोड़े गए। गाड़ियां तोड़ी गईं। बीते साल भी यही दिसंबर , यही जनवरी थी। जब सी ए ए को ले कर जामिया मिलिया , जे एन यू , शाहीन बाग़ और दिल्ली दंगे हुए थे। 

इस बार दिसंबर , जनवरी में भी वही लोग हैं। बस जगह और आंदोलन का नाम बदल गया है। मक़सद लेकिन एक है। हिंसा के सामने पुलिस ने बल प्रयोग नहीं किया , गोली नहीं चलाई यह तो गुड था। पर लालक़िले की प्राचीर पर पुलिस को इंतज़ाम पक्का और पुख्ता करना चाहिए था। सुरक्षा बलों की ऐसी दीवार खड़ी करनी थी कि वहां फटकने की किसी की जुर्रत न होती। इस लिए भी कि पुलिस के पास पर्याप्त इंटेलिजेंस इनपुट था। पाकिस्तान का हाथ मालूम था। कांग्रेस और कम्युनिस्ट का हाथ मालूम था। इन हिंसक लोगों ने लालक़िला पहुंचने का ऐलान भी बारंबार किया था। पर इस सब के बावजूद अमित शाह का फेल्योर बीते साल भी दिल्ली दंगे में दिखा था , इस साल भी दिख गया। 

ठीक है कि इस हिंसक भीड़ पर गोली न चलाने का फैसला बहुत दुरुस्त था , शानदार था , पर दिल्ली की सभी सरहद पर , लालक़िला पर , अर्ध सैनिक बलों की भारी तैनाती कर लोहे की दीवार तो बना ही देनी चाहिए थी , कल रात ही। जो नहीं किया गया। सब से बड़ी चूक यही थी। बाक़ी किसान आंदोलन या ऐसे अन्य आंदोलनों से जुड़े हिंसक लोगों को तो यह सब करना ही था , करते रहेंगे। तब तक , जब तक मोदी सरकार को गिरा नहीं देते। कुल मक़सद यही है। जनादेश का सम्मान करना अभी तक यह लोग नहीं सीख पाए। संसद , संविधान , सुप्रीम कोर्ट और सेना का सम्मान करना नहीं सीख पाए। देखना फिर भी दिलचस्प होगा कि बजट के दिन आगामी एक फ़रवरी को संसद घेरने का ऐलान का क्या होगा ? मोदी सरकार हिंसक भीड़ के आगे ऐसे ही सकुचाती लजाती अपनी लाज लुटाती रहेगी या फिर इन आतंकियों के खिलाफ कड़ी कार्रवाई कर इन के होश ठिकाने लगा देगी।

लालक़िला के भीतर गेस्ट हाऊस भी है। मुझे वहां ठहरने का अवसर मिला है। लालक़िला के भीतर के गेस्ट हाऊस में रहने के कारण लालक़िला में भीतर प्रवेश करने और बाहर जाने के लिए मेरे पास अधिकृत पास भी था। पास दिखाने के बावजूद पुलिस और सेना के लोग सघन तलाशी लेते थे। बाद में मुझे सुरक्षा से जुड़े लोग पहचान भी गए थे। फिर भी सुरक्षा बल और सेना के लोग मेरी सघन तलाशी लेते थे। लालक़िला के भीतर वैसे भी कई बार जाने का अवसर मिला है। पर कल जिस तरह उपद्रवी , आतंकियों ने लालक़िला के प्राचीर पर तिरंगे की जगह एक धार्मिक और एक किसान संगठन का झंडा फहराया वह बहुत शर्मनाक था। राष्ट्रीय शर्म था। 

उपद्रवियों ने लालक़िला के भीतर और बाहर काफी तोड़-फोड़ भी की है। गणतंत्र परेड में आई झांकियों तक को तोड़ दिया। टिकट काउंटर तोड़ दिया। और तो और गणतंत्र परेड में भाग लेने आए कोई चार सौ बच्चों को बंधक बना लिया था। कोई चार घंटे बाद यह बच्चे मुक्त हुए। फिर जिस तरह कल यह आतंकी लालक़िला परिसर में घुसे , इतनी आसानी से तो बहादुरशाह ज़फ़र के समय अंगरेज भी नहीं घुसे थे। प्रश्न है कि लालक़िला परिसर में सुरक्षा व्यवस्था इतनी लचर क्यों कर दी गई थी कल ? 

लालक़िला के प्राचीर पर पहली बार तिरंगा भले पंडित नेहरू ने 15 अगस्त , 1947 को फहराया था। पर बहुत कम लोग जानते हैं कि लालक़िला पर तिरंगा फहराने का सपना नेता जी सुभाषचंद्र बोस का था। यह सुभाषचंद्र बोस की ही इच्छा थी। जिसे नेहरू ने पूरा किया था।  महात्मा गांधी को राष्ट्रपिता कहने पर भी बहुत लोग नाक-भौं सिकोड़ते हैं। प्रतिवाद करते हैं। तंज करते हैं। पर यह बात भी बहुत कम लोग जानते हैं कि गांधी को महात्मा की उपाधि रवींद्रनाथ टैगोर ने दी थी जब कि यह नेता जी सुभाषचंद्र बोस ही थे जिन्हों ने महात्मा गांधी को फ़ादर ऑफ़ द नेशन कहा था। फ़ादर ऑफ़ द नेशन मतलब राष्ट्रपिता। जय हिंद का नारा भी नेता जी सुभाषचंद्र बोस का दिया हुआ है। 

सच तो यह है कि देश की सरहद पर चीन और पाकिस्तान के दांत खट्टे करने वाली मोदी सरकार घरेलू मोर्चे पर लगातार धूल चाटती जा रही है। पस्त होती जा रही है। मोदी सरकार को भली-भांति यह जान लेना चाहिए कि विदेशी कूटनीति के अलावा घरेलू मोर्चे पर भी ज़बरदस्त कूटनीति की ज़रूरत होती है। नहीं कभी शाहीन बाग़ , कभी तबलीगी जमात , कभी मज़दूरों का पलायन और विस्थापन तो कभी किसान आंदोलन की यह रपटीली राह देश को बहुत तेज़ी से गृह युद्ध के मुहाने पर ले जा चुकी हैं। घरेलू मोर्चे पर जैसे कश्मीर में 370 हटा कर आतंक का क़िला फतह किया है , वैसे ही इन अराजक तत्वों पर भी समय रहते अगर फतह नहीं किया तो सारा राफेल , कोरोना वैक्सीन आदि-इत्यादि की उपलब्धि , 80 करोड़ लोगों को मुफ्त राशन , जनधन खाते में नियमित पैसा , किसान सम्मान निधि , मुफ्त गैस , मुफ्त मकान और शौचालय आदि जनप्रिय काम किसी काम नहीं आने वाले। शांति के मोर्चे पर अगर कोई अपना घर ठीक नहीं कर सकता तो समझिए कुछ नहीं कर सकता। फिर सारा देश तो छोड़िए , हर बार दिल्ली में ही मोदी सरकार लात खा जाती है। मात खा जाती है। 

सो समय आ गया है कि नरेंद्र मोदी अपने गृह मंत्री अमित शाह को फौरन से पेस्तर बदल दें। अमित शाह जोड़-तोड़ , चुनावी गणित और हेन-तेन में भले पारंगत हों पर गृह मंत्रालय और प्रशासन संभालने में पूरी तरह विफल साबित होते दिख रहे हैं। दिल्ली देश का दिल है।  जो दिल नहीं संभाल सकता , किडनी , लीवर , फेफड़ा भी कैसे संभाल सकता है। यानी जो दिल्ली नहीं संभाल सकता , वह पूरा देश कैसे संभाल सकता है। बीते दिनों पश्चिम बंगाल से कुछ आई पी एस अफसरों को दिल्ली बुलवाया था अमित शाह ने , ममता बनर्जी ने अंगूठा दिखा दिया। अमित शाह कुछ नहीं कर पाए। ऐसे और भी कई मामले हैं। नरेंद्र मोदी को उत्तर प्रदेश के मुख्य मंत्री योगी आदित्यनाथ जैसा कोई दृढ़ इच्छाशक्ति और कड़ा प्रशासन वाला व्यक्ति गृह मंत्री बना लेना चाहिए। नहीं , दिल्ली ऐसे ही जब-तब झुलसती और जलती रहेगी। और अरविंद केजरीवाल जैसे व्यक्ति आप के सिर पर बैठ कर लगातार हवा खारिज करते रहेंगे। आप मन मसोस कर उस बदबू को बर्दाश्त करते रहेंगे।


Saturday, 2 January 2021

कोरोना वैक्सीन के विरोध की कैफ़ियत और नरेंद्र मोदी की उपलब्धियों की आंच में बौखलाया विपक्ष

अब जब दुनिया को ठेंगे पर रखने के अभ्यस्त मौलाना लोग ना नुकुर करते-करते कोरोना वैक्सीन लगवाने के लिए हामी भरने लगे हैं तो कुछ लड़के ग़लती करने के लिए उपस्थित हो गए हैं। यथा टोटी और टाइल चोरी में मशहूर अखिलेश यादव। इन टोटी यादव के पिता मुलायम सिंह यादव कभी बलात्कारियों के लिए कहते थे , लड़के हैं , गलती हो जाती है। अब इन को फांसी तो नहीं दे देंगे। अलग बात है अब ऐसी गलती करने वाले बलात्कारी लड़कों को फांसी दी जाने लगी है। बहरहाल इन्हीं मुलायम सिंह यादव को मौलाना मुलायम सिंह यादव , मुल्ला मुलायम सिंह यादव भी कहा जाता रहा। अपने को कृष्ण का वंशज बताने वाले हनुमान भक्त मुलायम को यह बुरा भी नहीं लगता था। 

क्यों कि मुस्लिम और यादव वोट बैंक के लिए वह कुछ भी तब सुनने और सहने के लिए सहर्ष तैयार रहते थे। अब चूंकि मुस्लिम वोट सपा से बिखरने लगे हैं तो अखिलेश यादव उन्हें बटोरने  की गरज से उन्हों ने भाजपाई वैक्सीन बता कर कोरोना वैक्सीन लगवाने से इंकार करते हुए मैया मैं तो चंद्र खिलौना लैहों की ज़िद भी बता दी है। बता दिया है कि जब उन की सरकार बनेगी तो वह सब को फ्री में वैक्सीन लगवाएंगे। गुड है ! उन की सरकार कब बनेगी यह तो जनता-जनार्दन ही जाने। बहरहाल अखिलेश ने अभी एक तर्क दिया है कि यह भाजपा के भ्रष्टाचार से बनी वैक्सीन है। गनीमत है उन्हों ने अभी तक इसे कम्युनल वैक्सीन नहीं बताया है। हिंदू वैक्सीन नहीं बताया है। क्या पता कल को यह भी कह दें। 

राहुल गांधी देश में अभी नहीं हैं , न उन का कोई ट्वीट अभी तक आया है। हो सकता है वह अखिलेश से भी आगे की कुछ बात बोल दें। ममता बनर्जी , वामपंथियों और ओवैसी जैसों के जहर का भी वैक्सीन के मैदाने जंग में इंतज़ार है। वैक्सीन भाजपाई , भ्रष्टाचारी , कम्युनल कुछ भी हो सकता है। आखिर जनता को महामूर्ख मानने की यह राजनीतिक रेस कहां जा कर ख़त्म होगी , कहना मुश्किल है। जनता ने इन जातीय और फासिस्ट पार्टियों को सिरे से खारिज कर दिया है , करती ही जा रही है पर भगवान इन को सन्मति जाने कब देगा। सच यह है कि मोदी के नित नए काम , नित नई उपलब्धियों से विपक्ष की नींद हराम है। हर काम का विरोध करते-करते जनता-जनार्दन से विपक्ष का गर्भ और नाल का रिश्ता पूरी तरह खत्म हो चुका है। विपक्ष अपनी ज़िद और सत्ता की हवस में इतना बौखला चुका है जनता की नब्ज , जनता की भावना को जानना और समझना ही नहीं चाहता। सच यह है कि मोदी के काम और उपलब्धियों से जनता सीधे जुड़ गई है। 

दुनिया को मोदी का काम दिख रहा है। लेकिन हमारे बौखलाए विपक्ष को नहीं। वह तो गोदी मीडिया कह कर अपनी हताशा को कवर करने में ही आनंद महसूस करता है। शाहीन बाग़ से लगायत किसान आंदोलन तक कृत्रिम आंदोलन में विपक्ष अपनी सांस लेता है। जब कि जनता 370 , सी ए ए , पाकिस्तान को नकेल डालने , चीन को लगाम लगाने , पक्का मकान , शौचालय , गैस कनेक्शन , चमकती सड़कों में देखती सांस लेती है और आस देखती है। विस्थापित मज़दूरों की असह्य पीड़ा को संभालने के साथ कोरोना को जिस तरह मोदी सरकार ने संभाला है , बीते मार्च से 80 करोड़ लोगों को मुफ्त राशन , जनधन योजना में निर्बाध 500 रुपए,  6000 रुपए के किसान सम्मान निधि में देखती है। अब वैज्ञानिकों की अनथक मेहनत के नतीजे में मुफ्त कोरोना वैक्सीन की विराट सफलता सामने है। विपक्ष को यह सब हजम नहीं हो रहा। लेकिन क्या करें , आप जी डी पी आदि का तराना लाख गाते रहिए , पर ये जो पब्लिक है , सब जानती है।

एक किस्सा याद आता है। आप भी सुनिए। 

एक आदमी था । काला रंग दिया भगवान ने उसे । लेकिन बीवी गोरी मिल गई । अब बीवी गोरी मिली , उसे अच्छा लगा । लेकिन जल्दी ही बीवी के गोरे रंग को ले कर उसे कुंठा हो गई । असुरक्षा बोध भी गहरा गया । बीवी पर शक करने की बीमारी भी हो गई । अब बेवज़ह के बहाने ले कर आए दिन वह बीवी को मारने-पीटने लगा । जब बहुत हो गई मार-पीट तो गांव के लोगों ने हस्तक्षेप करना शुरु किया । लेकिन मार-पीट बढ़ती गई । एक दिन जब अति हो गई तो गांव के लोग इकट्ठे हुए । पंचायत बैठी । पूछा गया , आज क्या बात हुई ? काले आदमी ने गुस्से से तमतमा कर कहा , इसे खीर भी बनानी नहीं आती । बनी हुई खीर मंगाई गई । लोगों ने चखी । बताया कि खीर तो अच्छी है , मीठी भी । काला आदमी बोला , लेकिन इस में हल्दी नहीं है । लोगों ने बताया कि , खीर में हल्दी तो पड़ती नहीं । काला आदमी बोला , लेकिन मुझे खीर में हल्दी अच्छी लगती है । ठीक ऐसे ही कुछ लोगों को इन दिनों खीर में हल्दी की तलब बहुत है । आप इन का कुछ नहीं कर सकते । इन की खीर में हल्दी के साथ , इन के हाल पर इन्हें छोड़ कर आगे बढ़िए । इन लोगों से कोई तर्क करना , इन के सामने कोई तथ्य रखना , दीवार में सिर मारना है ।