Sunday, 27 December 2020

ड्रग , सिनेमा , शराब और औरत की सनसनी

दयानंद पांडेय 


टीनएज में जब सिनेमा देखता था तो सिनेमा का जैसे नशा सा हो जाता था। तब नहीं मालूम था कि सिनेमा वालों को सफलता के अलावा भी कोई नशा होता है। ड्रग का तो नाम भी नहीं सुना था तब। तब तो सिनेमा देखना एक त्यौहार सा होता था। पर चुपके-चुपके। भीतर से तो डर भी लगता रहता था कि यह मेरा सिनेमा देखना घर में किसी को पता न चल जाए। तो एक अपराध बोध भी डसता रहता था निरंतर। क्यों कि घर में सिनेमा देखने का पता चलने पर पिटना तय होता था। जब बड़ा हुआ और सिनेमा समझने लगा , सिनेमा के लोगों को समझने लगा , उन से मिलने लगा तो उन की शराब और और शबाब की लत का भी पता चलने लगा। शराब और औरतों में तबाह अभिनेताओं और निर्देशकों के किस्से दर किस्से पहले ख़ास लोगों में ही आम थे। पर जल्दी ही आम लोगों में भी यह किस्से आम होने लगे। अभिनेत्रियों की शराब और मर्दखोरी के किस्से भी बाद के दिनों में सामान्य मान लिए गए। वैसे भी पहले हाजी मस्तान और फिर दाऊद इब्राहिम जैसे अंडर वर्ल्ड के लोगों के काले धन के दबाव में चलने वाली मुंबई फ़िल्म इंडस्ट्री किसी न किसी विवाद में सर्वदा ग्रसित रहने के लिए जैसे शापग्रस्त है। 

पहले फिल्म इंडस्ट्री से नामचीन लोगों की मोहब्बत और मोहब्बत टूटने के किस्से आते थे। यथा अशोक कुमार के प्रेम में कैसे देविका रानी पड़ीं। वही देविका रानी जिन्हों ने अशोक कुमार को ब्रेक दिया था। फिर निरुपा रॉय अशोक कुमार से जुड़ीं। या फिर अन्य स्त्रियां। इसी दम पर अशोक कुमार को लोग सदाबहार भी कहने लगे। मधुबाला भी पहले-पहल अशोक कुमार के फेर में पड़ीं। फिर वहां से टूटीं तो दिलीप कुमार के गले पड़ीं। बस ज़रा सी एक बात पर शादी तय हो कर भी टूट गई। अंतत: मधुबाला अशोक कुमार के  ही छोटे भाई किशोर कुमार की पत्नी बनीं। और मरते-मरते फिर दिलीप कुमार ही उन के काम आए। किशोर कुमार नहीं। उन के कैंसर में दर्द की एक दवा दिलीप कुमार भी मान लिए गए थे। मीना कुमारी जब बच्ची थीं तो बतौर बाल कलाकार किसी स्टूडियो में शूटिंग के बाद खेल रही थीं अपनी बड़ी बहन के साथ। तो खेलते-खेलते अशोक कुमार के पास आ गईं। अशोक कुमार ने उन्हें अपनी गोद में बिठा लिया। लोगों से पूछा किस की बच्ची है। लोगों ने बताया तो वह बच्ची से बोले , जल्दी से बड़ी हो जाओ और मेरी हीरोइन बनो। संयोग देखिए कि मीना कुमारी बड़ी हो कर अशोक कुमार की कई फिल्मों की हीरोइन बनीं भी। पर कमाल अमरोही के प्यार भरे छल में आ कर उन से अनमेल विवाह भी वह कर बैठीं। तलाक भी हुआ और फिर हलाला भी। हलाला किया ज़ीनत अमान के पिता ने फिर वह कमाल अमरोही की दुबारा बेगम बनीं। पर हलाला के कारण वह टूट गईं और उन के शराब पीने की खबरें आने लगीं। वह शायरा भी बन गईं। 

चाँद तन्हा है आसमाँ तन्हा,

दिल मिला है कहाँ-कहाँ तन्हा

बुझ गई आस, छुप गया तारा,

थरथराता रहा धुआँ तन्हा

ज़िन्दगी क्या इसी को कहते हैं,

जिस्म तन्हा है और जाँ तन्हा

जैसे शेर कहने लगीं। जिस्म तन्हा है और जाँ तन्हा लिए मीना कुमारी की ज़िंदगी में धर्मेंद्र आ गए। फिर जाने और कौन-कौन। आख़िर में गुलज़ार भी। अंतत: शराब ने कुल 39 बरस की उम्र में ही मीना कुमारी ऊर्फ महज़बीन की ज़िंदगी पर विराम लगा दिया। परदेसी इलाज भी काम न आया। पाकीज़ा के ख़ूबसूरत पांव ज़मीन से विदा हो गए। ऐसे और भी कई सारे किस्से सिने दुनिया के आते रहे। जैसे राज कपूर और नरगिस के। राज कपूर और पद्मिनी के। राज कपूर और वैजयंती माला के। राज कपूर और ज़ीनत अमान के। गो कि कृष्णा से भी राज कपूर ने प्रेम विवाह ही किया था। तब के सुपर स्टार अशोक कुमार भी गए थे विवाह में। खैर , नरगिस से संबंध टूटने और सुनील दत्त से उन के विवाह के बाद राज कपूर पी कर घर आते और बाथ टब में लेट जाते। रोते रहते। नरगिस से बिछोह के बाद राज कपूर की शराब इतनी ज़्यादा हो गई कि पिता पृथ्वीराज कपूर को बीच में आना पड़ा। पृथ्वीराज कपूर ने राज कपूर से कहा कि मेरे बूढ़े कंधे , जवान बेटे की लाश उठाने का दुःख उठाने को तैयार नहीं हैं। राज कपूर की शराब तो एकदम से नहीं छूटी पर कम ज़रूर हो गई। खैर , नरगिस ने सुनील दत्त से विवाह के कुछ समय बाद राज कपूर की पत्नी कृष्णा कपूर से मिल कर माफी भी मांग ली थी। उन्हों ने माफ़ भी कर दिया था। नरगिस का वैसे भी राज कपूर के साथ प्रेम के साथ ही पारिवारिक संबंध भी था। राज कपूर के छोटे भाई शम्मी कपूर , शशि कपूर , और बेटे रणधीर कपूर , ऋषि कपूर कौन ऐसा था जिस ने नरगिस की दी चॉकलेट नहीं खाई थी। और हर किसी ने समय-समय पर नरगिस के चॉकलेट की मिठास को बड़ी शिद्दत से याद किया है। बड़े सम्मान के साथ याद किया है। फिर आर के स्टूडियो के निर्माण में नरगिस का भी खून-पसीना लगा था। राज कपूर के साथ कंधे से कंधा मिला कर वह खड़ी रही थीं , आर के स्टूडियो के निर्माण में। राज कपूर बड़े फख्र से कहा करते थे कि सिर्फ परदे पर ही नहीं , रील लाइफ़ में ही नहीं , रियल लाइफ में भी नरगिस उन की हीरोइन थीं और कृष्णा उन के बच्चों की मां। नरगिस के मरने के बहुत समय बाद भी दादा साहब फाल्के सम्मान मिलने के मौक़े पर दूरदर्शन को दिए गए इंटरव्यू में यह बात राज कपूर ने बड़ी आत्मीयता और सम्मान के साथ कही थी। 

पर वैजयंती माला को कृष्णा कपूर कभी माफ़ नहीं कर पाईं। एक बार तो वह घर छोड़ कर एक होटल में शिफ्ट हो गईं। महीनों रहीं। कारण वैजयंती माला ही थीं। बाद के समय में तो हो यह गया था कि अपनी हर हीरोइन से राज कपूर प्यार करने लगे थे। हेमा मालिनी से लगायत ज़ीनत अमान तक यह सिलसिला कायम रहा। बल्कि ज़ीनत अमान तो राज कपूर और देवानंद के बीच अजब रश्क का सबब बनी रहीं। देवानंद भी कभी सुरैया से इश्क करते थे , विवाह भी करना चाहते थे दोनों। पर सुरैया की नानी बीच में आ गईं ,धर्म की बिना पर। गायिका और अभिनेत्री सुरैया फिर आजीवन अविवाहित रहीं , देवानंद के प्यार में। पाकिस्तान चली गईं। पर देवानंद ने विवाह कर लिया। प्रेम आगे भी करते रहे वह ,कई-कई स्त्रियां आईं उन के भी जीवन में। राज कपूर की तरह वह भी अपनी हीरोइनों को दिल देते रहे , लेते रहे। पर एक ज़ीनत अमान को ले कर वह टूट से गए। ज़ीनत अमान को देवानंद ने ही खोजा था। ब्रेक दिया था , हरे रामा , हरे कृष्णा में। और भी फिल्मों में जारी रखा। पर सत्यम , शिवम , सुंदरम के बाद वह राज कपूर की भी हो गईं। ज़ीनत अमान राज कपूर और देवानंद दोनों ही को अपने अलकजाल में बांधे रहीं। देवानंद को पता ही नहीं चला। पता चला एक फ़िल्मी पार्टी में। तब जब ज़ीनत अमान उस पार्टी में आईं। पार्टी में आईं तो देवानंद उन के स्वागत में अपनी दोनों बाहें फैला कर खड़े हो गए। ज़ीनत अमान छलकती हुई बढ़ी भी पर देवानंद की बाहों के लिए नहीं , पीछे खड़े राज कपूर की बाहों में समाने के लिए। और यह देखिए देवानंद को बाईपास कर ज़ीनत अमान राज कपूर की बाहों में समा गईं। अपनी आत्मकथा में देवानंद ने इस पूरी घटना का न सिर्फ़ विस्तार से ज़िक्र किया है बल्कि लिखा है कि ज़ीनत अमान के इस क़दम से वह टूट से गए थे। देवानंद हालां कि वहीदा रहमान से संबंधों के लिए बहुत जाने गए। वह वहीदा रहमान जिन के चक्कर में गुरुदत्त ने आत्महत्या कर ली थी। गुरुदत्त ने गीता घोष रॉय से प्रेम विवाह किया था। जो बाद में गीता दत्त कहलाईं। पर वहीदा रहमान भी कागज़ के फूल के बहाने उन की ज़िंदगी में दाखिल हो गईं। वह अशोक कुमार , राज कपूर , देवानंद या दिलीप कुमार आदि की तरह तमाम स्त्रियों के बीच सामंजस्य नहीं बिठा पाए और कम उम्र में ही ज़िंदगी से तौबा कर बैठे। नींद की बहुत सारी गोलियां खा कर सोए तो फिर उठे नहीं। 

गुरुदत्त की आत्महत्या बहुत बड़ी खबर बनी थी तब। पर उस के केंद्र में प्रेम था तब। सस्पेंस नहीं। शराब या ड्रग नहीं। गुरुदत्त और देवानंद बहुत गहरे दोस्त थे। जाने यह दोस्ती का तकाज़ा था कि कैरियर का या कुछ और वहीदा रहमान को विवाहित देवानंद का कंधा मिला। हालां कि देवानंद बाद के समय में राज कपूर की तरह अपनी तमाम हीरोइनों को अपनी ज़िंदगी में दाखिल करते रहे। ज़ीनत अमान से लगायत टीना मुनीम तक कई सारे नाम हैं। बाद के दिनों में तमाम अभिनेत्रियों ने तो अशोक कुमार , राज कपूर , देवानंद , दिलीप कुमार , राजेश खन्ना तक को पानी पिलाया इस मामले में। स्कोर के मामले में। 

टीना मुनीम समेत कई और अभिनेत्रियां देवानंद के जीवन में आईं और गईं पर कसक उन्हें सुरैया से विवाह न हो पाने और ज़ीनत अमान के उन के सामने ही राज कपूर की बाहों में समा जाने पर ही हुई। देवानंद के बड़े भाई और मशहूर निर्देशक चेतन आनंद भी अपनी हीरोइनों खातिर बदनाम रहे। पर एक समय प्रिया राजवंश के ही हो कर रह गए। चेतन आनंद के निधन के बाद  संपत्ति विवाद में चेतन के दोनों बेटे प्रिया राजवंश की हत्या कर बैठे और जेल भेज दिए गए। देवानंद के छोटे भाई निर्देशक और अभिनेता विजय आनंद ने हीरोइनों के साथ तो डुबकी मारी ही अपनी भांजी से विवाह भी कर बैठे। धर्मेंद्र के जीवन में भी कई हीरोइनें हैं। मीना कुमारी से लगायत अनीता राज तक। हीरोइनों के पसंदीदा हीरो। हीरोइनें निर्माता-निर्देशक से इसरार कर के धर्मेंद्र को हीरो रखवाती थीं। क्यों कि धर्मेंद्र उन की जिस्मानी ज़रूरतें पूरी करने में हुनरमंद थे। ऐसा कहा जाता है। मिथुन चक्रवर्ती कभी हेलेना ल्यूक से विवाह किया था। पर साल भर में तलाक हो गया। किशोर कुमार ने योगिता बाली को तलाक दे कर लेना चंद्रावरकर से विवाह किया तो मिथुन ने योगिता बाली से विवाह कर लिया। अभिनेत्री और मशहूर डांसर हेलेन तमाम बाहों से गुजरने के बाद अब सलमान के पिता सलीम खान के साथ रहती हैं। सलमान उन्हें मम्मी कहते हैं। ऐसे अनेक किस्से हैं। 

पर राजेश खन्ना और अमिताभ बच्चन के जीवन में स्त्रियां तमाम हैं। इतना कि हर एक के हिस्से में अशोक कुमार , दिलीप कुमार , राज कपूर , देवानंद यानी इन चारो के हिस्से में आई स्त्रियों से ज़्यादा एक-एक के हिस्से में। ज़ीनत अमान अमिताभ से भी जुड़ीं। ज़ीनत अमान संजय खान , राजेश खन्ना आदि कई और लोगों से भी जुड़ीं। पाकिस्तान क्रिकेट टीम के कैप्टन रहे और अब पाकिस्तान के प्रधान मंत्री इमरान खान से भी उन के संबंधों की खूब चर्चा रही। विवाह के बाद भी , बेटे के जवान होने के बाद भी पराए मर्दों से जुड़ने की लत उन की छूटी नहीं। इतनी कि इस मुद्दे पर ज़ीनत अमान के पति मज़हर खान और बेटे मिल कर जब-तब उन की पिटाई करने लगे। पति मज़हर खान की तो बाद में किडनी फेल होने के कारण मृत्यु हो गई। बेटे से भी पिटते-पिटते वह उस से अलग हो गईं। ज़ीनत अमान ने फिर दो और शादी की। उन का एक पति तो उन से 30 बरस छोटा था। नाम था अमन खन्ना। जो बाद में सरफराज बना। पर ज़ीनत ने बाद में इस के खिलाफ भी बलात्कार का मुकदमा लिखवा दिया। अब 70 बरस की उम्र में ज़ीनत अमान फिर सिंगिल हैं। ज़रीना वहाब और आदित्य पंचोली के किस्से भी लोग भूले नहीं हैं। न आदित्य पंचोली और कंगना रानावत के। न शेखर सुमन के बेटे अध्ययन सुमन और कंगना रानावत के। कंगना रानावत और ऋत्विक रोशन के किस्से तो अभी भी चर्चा में आ जाते हैं।  मीना कुमारी के साढ़ू और कॉमेडियन महमूद के अरुणा ईरानी समेत अनेक क़िस्से हैं। किसी हीरो से भी बहुत ज़्यादा। कभी महेश भट्ट के साथ मौज करने वाली परवीन बॉबी ने तो अमिताभ पर सार्वजनिक रूप से आरोप भी लगाए और टूट गईं। अकेली हो गईं। अपने फ़्लैट में अकेलापन काटते-काटते कब मर गईं , लोग जान ही न पाए। दूध वाले ने कुछ दिन बाद बताया कि कई दिन से दूध घर के अंदर नहीं गया। तब पता चला। दरवाज़ा तोड़ा गया और परवीन बॉबी की लाश मिली। 

रेखा , अमिताभ की माला आज भी जपती मिलती हैं। अमिताभ बच्चन के नाम का सिंदूर लगाती ही हैं। अपनी मृत्यु से कुछ समय पहले अमर सिंह ने तो बाकायदा सार्वजनिक रूप से आरोप लगाया था कि अमिताभ बच्चन  , जया बच्चन के साथ नहीं रेखा के साथ रहते हैं। बाकायदा दिन बांट रखे हैं दोनों के बीच। अमर सिंह के इन आरोपों पर प्रतिवाद किसी ने नहीं किया। न अमिताभ बच्चन ने , न जया बच्चन ने , न ही रेखा ने। न किसी अन्य ने। न अमर सिंह के खिलाफ इस मुद्दे पर कोई कोर्ट गया। और भी कई नाम हैं अमिताभ के साथ जुड़े हुए। नई से नई लड़कियों तक के। राजेश खन्ना तो अनगिन औरतों और शराब के चक्कर में न सिर्फ अपना दांपत्य , परिवार बल्कि सामाजिक जीवन भी बर्बाद कर बैठे और चुपचाप मर गए। राजेश खन्ना एक पत्रकार देवयानी चौबल को सिर्फ इस लिए अपने हरम का सदस्य बना बैठे थे कि उन के मार्फत फिल्म इंडस्ट्री की खबरें मनमुताबिक छपवा सकें। देवयानी चौबल वैसे भी बहुत खूबसूरत थीं। पर राजेश खन्ना का अपनी पत्रकारिता में जम कर इस्तेमाल किया और बड़े-बड़ों पर रौब गांठा। 

ओम पुरी भी ऐसे ही एक पत्रकार नंदिता को दिल दे बैठे थे जो उन का इंटरव्यू लेने आई थी। और पत्नी सीमा को छोड़ कर उस से शादी कर ली। सीमा कपूर मशहूर अभिनेता , निर्देशक रंजीत कपूर की बहन हैं। बाद में इस पत्रकार पत्नी नंदिता कपूर से भी ओम पुरी का झगड़ा हो गया और वह अलग हो गए। लेकिन इस पत्रकार पत्नी ने बाद में ओम पुरी की विभिन्न सेक्स कथाओं की एक पूरी किताब ही लिख दी। 'अनलाइकली हीरो : द स्टोरी ऑफ ओमपुरी'। इस किताब में बचपन में कामवाली से लगायत आखिर तक की उम्र में छोटी-बड़ी उम्र की स्त्रियों की सारी सेक्स कथाएं रस ले कर परोसी गई थी। ओम पुरी के जीवित रहते ही यह किताब छप गई थी। ओम पुरी  ने इस किताब पर कोई प्रतिवाद नहीं किया। क्यों कि सारी कथाएं उन्हों ने ही पत्नी को कभी बता रखी थीं। हां , ऐतराज ज़रूर किया कि ऐसा उन्हें नहीं करना चाहिए था। मेरी ज़िंदगी के इन पन्नों को बिना मेरी सहमति के सार्वजनिक नहीं करना चाहिए था। आमिर खान की दूसरी पत्नी भी पत्रकार ही हैं। आमिर का इंटरव्यू लेते-लेते हमसफ़र बन गईं। तो भी यह लोग राजेश खन्ना और अमिताभ बच्चन का स्कोर बोर्ड दूर-दूर तक नहीं छू सके। अलग बात है कि इन राजेश खन्ना और अमिताभ बच्चन का भी रिकार्ड अकेले संजय दत्त ने तोड़ दिया। यानी राजेश खन्ना और अमिताभ बच्चन दोनों के योग से भी कहीं ज़्यादा का रिकार्ड संजय दत्त ने ऑफिशियली बनाया। आज से दस बरस पहले तक संजय दत्त का ऑफिशियल रिकार्ड तमाम छोटी-बड़ी हीरोइनों यथा रेखा , माधुरी दीक्षित आदि को मिला कर कोई तीन सौ से ज़्यादा औरतों को भोगने का था। अब कुछ और बढ़ा ही होगा। 

संजय दत्त ने सिर्फ औरतों को भोगने का ही नहीं ड्रग लेने का भी बेहिसाब रिकार्ड बनाया। यह संजय दत्त ही थे जिन के मार्फ़त पता चला कि फ़िल्मी दुनिया के लोग शराब और औरतों के अलावा ड्रग भी खूब लेते हैं। किसिम-किसिम के ड्रग। लेकिन संजय दत्त पीक पर चले गए। औरतों के साथ ही ड्रग लेने का तब कीर्तिमान बनाया था संजय दत्त ने। मां नरगिस कैंसर से जूझ रही थीं , मृत्यु शैया पर थीं और संजय दत्त को तब भी अगर कुछ सूझ रहा था तो औरतें , शराब और ड्रग। सब से ज़्यादा ड्रग। यहां-वहां इलाज करवा कर हार चुके पिता सुनील दत्त ने अमरीका के एक बड़े अस्पताल में ड्रग से छुट्टी दिलाने के लिए संजय दत्त को भर्ती करवाया था। पर संजय दत्त वहां की कड़ी सुरक्षा पार कर सब की आंख में धूल झोंक कर अस्पताल से कोई दो हज़ार किलोमीटर दूर अमरीका में अपने एक दोस्त के पास पैदल ही चल पड़े। ताकि दोस्त से पैसा ले कर ड्रग खरीद सकें। संजय दत्त आर्म्स ऐक्ट में भी गिरफ्तार हो कर लंबी जेल काट चुके हैं। संजय दत्त के जीवन पर बनी फिल्म संजू देख कर जब मैं सिनेमा घर से निकला तो यही सोचा कि बेहतर है भगवान नि:संतान रखें पर संजय दत्त जैसी संतान कभी किसी को न दें। बहुत दुर्भाग्यशाली पिताओं को देखा है पर सुनील दत्त जैसा अभागा पिता कोई एक दूसरा नहीं देखा। फिर भगवान ने सुनील दत्त को कितना तो धैर्य दिया था। यह संजू देख कर पता चला। एक तरफ कैंसर से मर रही पत्नी नरगिस की सेवा , दूसरी तरफ ड्रग , औरतों के शौक और आर्म्स एक्ट का मारा बेटा संजय दत्त को सुधारने और छुड़ाने की परवाह। अदभुत था। 

संजय दत्त के बाद फिर कई और बिगड़ैल शहजादों का नाम ड्रग लेने में जुड़ा। हीरोइनों का भी। पर संजय दत्त के बाद ड्रग के लिए मशहूर निर्माता , निर्देशक और अभिनेता फ़िरोज़ खान के बेटे फरदीन खान का नाम सामने आया। बहुत इलाज हुआ पर जाने वह आज भी ड्रग के चंगुल से निकले कि नहीं , ख़ुदा जाने। फिर छिटपुट कई और हीरो , हीरोइन के नाम ड्रग के लिए वैसे ही सामने आने लगे जैसे कभी कुछ बड़ी हीरोइनों के नाम आते थे जो दुबई जाती रहती थीं , शेखों को खुश करने के लिए। एक बहुत ही शानदार अभिनेता राज किरन का नाम जब ड्रग में आया तो मैं चौंक गया। पर जल्दी ही वह इलाज में लग गए। लेकिन ड्रग तो ड्रग। डसता है तो फिर कायदे से डसता है। बहुत लंबे समय से वह सिने दुनिया ही नहीं , घर से भी गायब हो गए। आज भी कुछ पता नहीं है। ड्रग ट्रैफकिंग में वह पकड़े गए। बहुत समय बाद अमरीका कि कहीं और की किसी जेल से उन की एक फोटो ऋषि कपूर को किसी ने उपलब्ध करवाई। उन्हों ने वह फ़ोटो सोशल मीडिया पर पोस्ट की। फिर राज किरन का कुछ पता नहीं चला। न किसी ने उन की कोई खबर ली। जो भी हो ड्रग फ़िल्मी दुनिया का शौक ज़रूर था पर सनसनी नहीं था। पर ड्रग , सिनेमा और सनसनी का पहली सुर्खी तब बनी जब मशहूर हीरोइन ममता कुलकर्णी का नाम ड्रग के कारोबार में खुल कर सामने आया। और वह भारत देश छोड़ कर भाग चुकी थीं। पति समेत। बरसों बीते इस घटना को भी। 

फिर सिने जगत से शराब , इश्क , औरतबाज़ी और ड्रग की ख़बरें आम हो गईं। लिव इन रिलेशन शुरू हो गया। राजेश खन्ना , अंजू महेंद्रू से होते हुए बरास्ता शत्रुघन सिनहा , रीना राय तक यह खबरें ख़ास थीं। पर बाद में ऐसी ख़बरें आम हो गईं। ऐसे जैसे नाली में पानी बह रहा हो। एक-एक बांह में कई-कई। कलर्स चैनल पर हर साल बिग बॉस आता है। बिग बॉस में होने वाले आपसी झगड़ों में भी टी वी कलाकारों के ऐसे अनगिन रिश्ते तार-तार होते मिलते हैं। हर बार मिलते हैं। इस साल भी मिल रहे हैं। कब किस के साथ कौन रह गया , कौन बह गया , जैसे सामान्य बात हो गई है। अनुराग कश्यप का मामला तो अभी एक हीरोइन ने सामने रखा ही था। पुलिस में रिपोर्ट लिखवाई थी..पर क्या हुआ। कास्टिंग काऊच भी कोई चीज़ होती ही है। राजेश खन्ना तो अंतिम समय में भी एक सिंधी महिला के साथ लिव इन में रह रहे थे। लिव इन में ही मृत्यु को प्राप्त हुए। इसी फेर में संपत्ति विवाद भी सामने आया। विनोद खन्ना , अमृता सिंह के साथ रहने लगे थे। शादी के लिए अप्लाई भी किया था कोर्ट में। पर अचानक बात टूट गई। और अमृता सिंह ने सैफ अली खान से विवाह कर लिया। फिर अमृता को छोड़ सैफ करीना कपूर से विवाह रचा लिए। तैमूर उन का बेटा है। एक और की खबर है। सारा अली खान अमृता सिंह , सैफ अली खान की ही बेटी हैं जो इन दिनों अक्षय कुमार के साथ रोमैंटिक जोड़ी बना कर चर्चा में हैं। अभी ड्रग कनेक्शन में भी उन से जांच-पड़ताल चली थी। राजेश खन्ना डिंपल से अलग हो कर इस डाल से उस डाल होते हुए टीना मुनीम के साथ लिव इन में लंबे समय तक रहे थे। पर अचानक टीना मुनीम की उद्योगपति अनिल अंबानी से विवाह की खबर आ गई। दिलचस्प यह कि नाना पाटेकर एक फिल्म खामोशी द म्यूजिकल में काम कर रहे थे। मनीषा कोइराला , सलमान खान के अपोजिट हीरोइन थीं। नाना पाटेकर की बेटी की भूमिका में थीं मनीषा कोइराला। पर पिता बने नाना पाटेकर से नैन भी लड़ा रही थीं। शूटिंग सेट पर जब-तब नाना पाटेकर से मिलने आयशा जुल्का आ जाती थीं। पर मनीषा कोइराला नाना पाटेकर को ले कर इतनी पजेसिव थीं कि आयशा जुल्का को देखते ही भड़क जाती थीं। लेकिन  दिलचस्प यह कि जब फिल्म की शूटिंग खत्म हुई तो नाना पाटेकर आयशा जुल्का के साथ लिव इन में रहने लगे। 

सलमान खान के वैसे तो संगीता बिजलानी समेत तमाम किस्से हैं। वही संगीता बिजलानी जो बाद में क्रिकेटर मोहम्मद अजहरुद्दीन की दूसरी बेगम बनीं। पर बाद में मोहम्मद अजहरुद्दीन ने नौरीन की तरह संगीता को भी तलाक दे दिया। पर ऐश्वर्या राय और कैटरीना कैफ के साथ तो सलमान खान जाने कितनी सरहदें लांघ गए थे। सरहद ही नहीं लिव इन को भी मात दे दिया। ऐश्वर्या को ले कर शाहरुख खान की पिटाई तक कर दी थी सलमान ने। विवेक ओबेराय को भी धर दबोचा था। ऐसी ही हिंसा कभी हेमा मालिनी को ले कर धर्मेंद्र किया करते थे। एक बार तो धर्मेंद्र ने एक स्क्रीन के एक पत्रकार को भी सरे आम पीट दिया था। पत्रकार की ग़लती यह थी कि उस ने हेमा और धर्मेंद्र के संबंधों पर कुछ लिख दिया था। रेखा ने तो किस-किस से विवाह नहीं किया। किरन  कुमार , विनोद मेहरा , संजय दत्त , मिस्टर अग्रवाल , अमिताभ बच्चन आदि कई लोगों के नाम चर्चा के सागर में डूब चुके हैं। हेमा मालिनी का भी यही हाल है। संजीव कुमार , जितेंद्र , गिरीश कर्नाड आदि-इत्यादि से होती-हवाती आखिर धर्मेंद्र के ही हिस्से आईं। पर जितेंद्र के साथ विवाह के लिए मंडप में भी बैठ चुकी थीं हेमा। वह एक लंबी कहानी है। महेश भट्ट के पिता विजय भट्ट नामी निर्देशक थे अपने समय में। एक से एक कामयाब फ़िल्में बनाई हैं। पर महेश भट्ट की मां के साथ विवाह नहीं कर पाए और तीन बेटे पैदा कर लिए। महेश भट्ट की मां मुस्लिम थीं। सो विरोध बहुत हुआ। यह एक दूसरी कहानी है। इसी बिना पर महेश भट्ट खुल कर कहते हैं , मैं हरामी हूं। दिलचस्प यह कि शराब और औरतों के मारे हुए परवीन बॉबी के साथी रहे महेश भट्ट अपनी पहली पत्नी से हुई बेटी पूजा भट्ट की सिगरेट पर बहुत नाराज रहते थे। पूजा भट्ट तब के दिनों चेन स्मोकर हो गई थीं। पिता की तरह वह भी कई पुरुषों के फेर में पड़ीं। विवाह हुआ किसी तरह। दिलचस्प यह कि अभी बीते हफ्ते ही पूजा भट्ट ने अपने शराब छोड़ने की चौथी सालगिरह मनाई है। अपने शराब और मर्दों की बाहें बदलने की शौक़ीन श्रीदेवी तो कभी अमिताभ बच्चन से भी विवाह करना चाहती थीं। कम लोग जानते हैं कि रेखा से एक समय अमिताभ को दूर करने में श्रीदेवी का बहुत बड़ा हाथ था। हुआ यह कि रेखा ने ही अमिताभ से मिलने के लिए श्रीदेवी का फ़्लैट चुना था। श्रीदेवी के फ़्लैट पर रेखा , अमिताभ के साथ समय गुज़ारती थीं। किसी को शक भी नहीं होता था। बाद के समय में बिना रेखा को बताए श्रीदेवी अमिताभ को बुलाने लगीं। अमिताभ श्रीदेवी के साथ समय गुज़ारने लगे। एक समय श्रीदेवी , मिथुन चक्रवर्ती के साथ बस रहती नहीं थी , पर लिव इन ही था। बाद में बोनी कपूर के बंगले के एक हिस्से में श्रीदेवी रहने लगीं। मिथुन का शक दूर करने के लिए बोनी कपूर को राखी बांधती थीं। पर यह देखिए कि श्रीदेवी ने राखी भूल कर बोनी कपूर से विवाह किया और उन की दो बेटियों की मां बनीं। दुबई के एक होटल में बाथ टब में डूब कर मर गईं। जाने शराब ज़्यादा पी ली कि ड्रग ज़्यादा ले लिया। आज तक पता नहीं चला। बोनी कपूर ने सब कुछ मैनेज कर लिया। 

तो शराब , औरत और ड्रग का बहुत पुराना रिश्ता है हिंदी फ़िल्म इंडस्ट्री का। कह सकते हैं कि चोली दामन का रिश्ता है। पर इस कोरोना काल में , बीच लॉक डाऊन में सुशांत सिंह राजपूत की  हत्या ऊर्फ आत्महत्या की घटना ने जैसे फिल्म इंडस्ट्री को नंगा कर दिया। हिला कर रख दिया। हर साल गर्लफ्रेंड बदलने वाला , गर्लफ्रेंड को चार्टर्ड प्लेन से विदेश घुमाने वाला सुशांत सिंह राजपूत ड्रग लेता था कि नहीं , यह सवाल अब बहुत बेमानी है। सुशांत सिंह राजपूत पूरा का पूरा अय्याश था , यह तो अब पूरी तरह सिद्ध है। बहरहाल शुरू में तो लोगों ने मुंबई पुलिस के कहे मुताबिक़ आत्महत्या ही माना ,पर जब सुशांत के पिता ने हत्या का आरोप लगाते हुए सुशांत की गर्लफ्रेंड रिया चक्रवर्ती को हत्यारा कहा तो जैसे तूफ़ान आ गया। रिया पहले तो मासूम बनी रही पर जल्दी ही हमलावर बन गई। सुशांत के पिता और बहनों पर आक्रामक हो गई। क्या-क्या आरोप नहीं लगाए। बिहार पुलिस के तत्कालीन डी जी पी गुप्तेश्वर पांडेय अचानक रॉबिन हुड बन कर इस मामले में कूद पड़े। महाराष्ट्र पुलिस और बिहार पुलिस में ऐसी रस्साकसी चली कि मामला सुप्रीम कोर्ट तक गया और जांच सी बी आई को चली गई। जैसे केंद्र सरकार , बिहार सरकार वर्सेज महाराष्ट्र सरकार का मामला बन गया। अभी सी बी आई जांच शुरू भी नहीं हुई थी कि इंफोरस्मेंट की जांच में सुई ड्रग रैकेट की तरफ घूम गई। रिया चक्रवर्ती ने जांच के फंदे में खुद को घिरते देख आज तक न्यूज़ चैनल पर एक प्रायोजित इंटरव्यू में सुशांत सिंह राजपूत पर ही ड्रग लेने का आरोप लगा दिया। अंतत: रिया और उस के भाई को नारकोटिक्स ब्यूरो ने गिरफ्तार कर लिया। आहिस्ता-आहिस्ता पूरी फिल्म इंडस्ट्री शक के घेरे में आ गई। एक से एक बड़े-बड़े नाम चर्चा के केंद्र में आ गए। कंगना रानावत पहले ही अपने को ड्रग एडिक्ट बता चुकी थीं। अब सुशांत सिंह राजपूत मामले में भी कूद पड़ीं। बात यहां तक बढ़ी कि कंगना की उद्धव सरकार से ठन गई। उद्धव ठाकरे के बेटे आदित्य ठाकरे तक का नाम घसीट लिया गया। छोटा पेंग्विन कह कर आदित्य ठाकरे पर आरोपों की बौछार लग गई। 

बात यहां तक पहुंची कि कंगना का पाली हिल वाला घर मुंबई नगर निगम ने तोड़-फोड़ दिया। सामना अखबार में बैनर हेडिंग लगा कर खबर छापी कि उखाड़ दिया। इस के पहले एक वीडियो जारी कर कंगना ने उद्धव ठाकरे को चुनौती दी थी कि आ रही हूं मुंबई , जो उखाड़ना हो उखाड़ लो। कंगना को वाई श्रेणी की सुरक्षा भी केंद्र सरकार ने दे दी। कंगना ने सुशांत सिंह राजपूत की हत्या में आदित्य ठाकरे पर सीधा निशाना साधा। बताया कि सुशांत सिंह राजपूत की पुरानी मैनेजर दिशा सालियान की भी हत्या हुई थी , उस में भी आदित्य ठाकरे का हाथ था। महाराष्ट्र के पूर्व मुख्य मंत्री नारायण राणे और उन के बेटे ने भी दिशा सालियान और सुशांत सिंह राजपूत की हत्या में आदित्य ठाकरे का नाम सीधे तौर पर लिया। पर सी बी आई जांच में अभी तक कुछ भी साबित हो कर स्पष्ट रूप से सामने नहीं आया है। अटकलों का खेल भी अभी बंद है। पर तब के दिनों नारकोटिक्स ब्यूरो की जांच में जैसे पूरी मुंबई फिल्म इंडस्ट्री में ड्रग की आग ऐसे लगी थी गोया जंगल में आग लगी हो। बीच कोरोना काल और लॉक डाऊन के सन्नाटे में दो ही मामले तब खबरों का सन्नाटा तोड़ रहे थे। एक प्रवासी मज़दूरों का विस्थापन दूसरे , मुंबई फिल्म इंडस्ट्री में ड्रग का सेवन। पहले नंबर पर यह ड्रग ही था। एक से एक बड़े-बड़े नाम। सलमान खान से लगायत शाहरुख खान तक के नाम चर्चा में आए। सुशांत सिंह का फ़ार्म हाऊस भी खूब चर्चा में आया ड्रग पार्टी के लिए। बात संसद तक पहुंची। गोरखपुर के सांसद और भोजपुरी फ़िल्मों के हीरो रवि किशन ने फ़िल्म इंडस्ट्री में ड्रग मामले को बड़े ज़ोर-शोर से उठाया लोक सभा में । मामला इतना गरमा गया कि राज्य सभा में मशहूर हीरोइन और सपा सांसद जया बच्चन ने रवि किशन का नाम लिए बिना उन पर कड़ा प्रहार करते हुए वह उद्धव ठाकरे सरकार के बचाव की पैरवी में उतर गईं। अंगरेजी में दिए गए भाषण में जया बच्चन ने कहा कि कुछ लोग हैं जो जिस थाली में खाते हैं , उसी थाली में छेद करते हैं। रवि किशन फिर पूरा राशन-पानी ले कर जया बच्चन पर चढ़ाई कर बैठे। तब जब कि रवि किशन खुद तमाम किसिम के नशे के आरोपों में घिरे रहे हैं। फिर क्या था जया बच्चन अब सोशल मीडिया पर बुरी तरह ट्रोल हो गईं। जो-जो नहीं कहा जाना चाहिए था , सब कहा गया। जया बच्चन की निजी ज़िंदगी के पन्ने खोले जाने लगे। डैनी से उन की पुरानी दोस्ती और संबंधों तक को खंगाल लिया गया। कहा गया कि धन्यवाद डैनी जया की थाली में छेद करने के लिए। जया के बहाने अमिताभ बच्चन भी निशाने पर आ गए। उन की थाली के अनगिन छेद खोज डाले गए। उन की महानायक की छवि जैसे खंडित होने लगी। फोन पर अमिताभ की कोरोना वाली कॉलर ट्यून तक का विरोध। जया की बेटी श्वेता की निजी ज़िंदगी के पन्ने भी खुले। बात ऐश्वर्या की निजी ज़िंदगी तक आ गई। ऐश्वर्या की थाली में छेद करने के तौर पर सलमान खान और विवेक ओबेराय तक की याद की गई। जया बच्चन की नातिन का शाहरुख खान के बेटे आर्यन के साथ एक कार में सेक्सुअल वीडियो भी वायरल हुआ यह कहते हुए कि थाली में ऐसे भी छेद होता है। कुल मिला कर यह कि जया बच्चन का राज्य सभा में थाली में छेद करने वाला भाषण उन पर बहुत बुरी तरह भारी पड़ा। इस सब पर न जया बच्चन की मदद के लिए कोई सामने आया और न ही वह खुद इस सब पर कोई प्रतिवाद कर पाईं आज तक। भरपूर छीछालेदर हुई सो अलग।    

बहरहाल सलमान , शाहरुख खान तो तमाम चर्चा के बावजूद अभी तक नारकोटिक्स शिकंजे में नहीं आए पर एक बड़ी हीरोइन दीपिका पादुकोण ज़रूर ड्रग लेने के जाल में फंस गईं। जेल तो नहीं गईं अभी तक दीपिका पर पूछताछ के फंदे में ज़रूर वह आ गईं। गोवा तक उन का पीछा हुआ। दीपिका पादुकोण का जैसे सार्वजनिक जीवन नष्ट हो गया। करन जौहर के घर एक ड्रग पार्टी का वीडियो जिस में दीपिका पादुकोण भी किसी की गोद में बैठी हुई हैं , वायरल हो गया। कारण जौहर भी शक के घेरे में हैं। खैर तब दीपिका के तमाम विज्ञापन बंद हो गए। सारी कंपनियों ने एक साथ दीपिका वाले विज्ञापन बंद कर दिए। इतना नुकसान और अपमान तो जे एन यू जाने पर भी दीपिका का नहीं हुआ था। लगा कि जैसे दीपिका पादुकोण के कैरियर पर ग्रहण लग गया हो। पर इन दिनों हफ्ते भर से जियो के विज्ञापन में अपने पति रणवीर सिंह के साथ वह फिर से दिखने लगी हैं। दीपिका के साथ पूछताछ में उन की मैनेजर और एक पी आर कंपनी भी घेरे में आई। ड्रग के बाबत पूछताछ के फंदे में नवाब पटौदी और शर्मीला टैगोर की नातिन , सैफ अली खान , अमृता सिंह की बेटी सारा अली खान भी आईं। लेकिन अब वह भी अक्षय कुमार सिंह के साथ एक फिल्म में अपनी रोमैंटिक जोड़ी के रूप में पर्याप्त चर्चा में हैं। ड्रग लेने की आंच कॉमेडियन भारती और उन के पति पर भी आई। जेल की हवा खा कर ज़मानत ले कर दोनों बाहर आ चुके हैं। जैसे और तमाम लोग। अलग बात है कि अभिनेता अर्जुन रामपाल इन दिनों फिर ड्रग की जांच का सामना कर रहे हैं। 

पर जैसा कि कहा जाता रहा था कि मुंबई फिल्म इंडस्ट्री की बड़ी-बड़ी मछलियां ड्रग के फंदे में फंसेंगी और कि जेल की सलाखों के पीछे होंगी। ऐसा तो अभी तक नहीं हुआ। अब लगता है कि जैसे यह सब सिर्फ एक शगूफा था। एक बुरा सपना था। यह सपना अब टूट इस लिए गया है कि मुंबई फिल्म इंडस्ट्री के लोग जाग गए हैं। जाग कर सब कुछ मैनेज कर ले गए हैं। जैसे आदित्य ठाकरे के पिता उद्धव ठाकरे ने शरद पवार के मार्फत आदित्य ठाकरे को हत्या और ड्रग की बदनामी के दाग को मैनेज कर धो दिया है। मुंबई के सागर में अब सब कुछ सामान्य दीखता है। बदनामी की लहरें जैसे किनारों की चट्टानों से टकरा कर कहीं कोई और पटकथा लिख रही हैं। ड्रग की एक सुनामी थी जो आ कर चली गई लगती है। एक बुरा सपना था ड्रग का जिसे किसी डाक्टर ने चुपचाप दवा दे कर दबा दिया है।  

कमलेश्वर याद आते हैं। कमलेश्वर ने फिल्म इंडस्ट्री में कई निर्माता-निर्देशकों के लिए फिल्म लिखने का काम किया है। कभी कथा , कभी पटकथा। एक फ़िल्मी पार्टी में वह देवानंद के साथ थे। उन के हाथ में स्कॉच से भरा गिलास था। अचानक देवानंद ने उन से चलने के लिए कहा। कमलेश्वर ने उन से कहा , ऐसे कैसे चला चलूं। हाथ में स्कॉच है। इसे कैसे फेंक दूं। ऐसे कैसे छोड़ दूं। देवानंद ने कहा , कुछ नहीं इसे ऐसे ही कहीं रख दीजिए। यह पियक्कड़ों की पार्टी है। कोई न कोई पी लेगा।  बेकार नहीं जाएगी यह स्कॉच। कमलेश्वर ने स्कॉच का भरा गिलास वहीँ कहीं रख दिया। और देवानंद के साथ चल दिए। मुड़ कर देखा तो पाया कि सचमुच कोई उन के स्कॉच का गिलास उठा कर होठों से लगा चुका था। वह एम जी हशमत का लिखा एक गाना है न :

हे, ये बम्बई शहर हादसों का शहर है

यहाँ ज़िन्दगी हादसों का सफ़र है

यहाँ रोज़-रोज़ हर मोड़-मोड़ पे

होता है कोई न कोई

हादसा, हादसा...


यहाँ की ख़ुशी और गम हैं अनोखे

बड़े खूबसूरत से होते हैं धोखे

बहुत तेज़ रफ़्तार है ज़िन्दगी की

है फुर्सत किसे कोई कितना भी सोचे

ख़ुशी हादसा है, गम हादसा है

हकीकत भुला कर हर इक भागता है

यहाँ रोज़-रोज़ की भाग-दौड़ में

होता है कोई न कोई

हादसा, हादसा...


यहाँ आदमी आसमां चूमते हैं

नशे में तरक्की के सब झूमते हैं

हरी रौशनी देख भागी वो कारें

अचानक रुकी फिर से बन के कतारें

यहाँ के परिंदों की परवाज़ देखो

हसीनों के चलने का अंदाज़ देखो

यहाँ हुस्न इश्क की आब-ओ-हवा में

होता है कोई न कोई

हादसा, हादसा...

तो घबराइए नहीं। जल्दी ही फिर कोई नया हादसा हमारे सामने हो सकता है। ड्रग का नहीं न सही , कोई और सही। कोई न कोई पटकथा लिख ही रहा होगा। कोई न कोई डायरेक्टर लाइट , कैमरा , ऐक्शन ! बोलेगा ही। ड्रग नहीं , शराब नहीं , औरत नहीं , और सही। सिने दुनिया है। आखिर कोई न कोई शुरुर तो चाहिए ही। गुलशन कुमार का हत्यारा नदीम जैसे क़ानून के हाथ नहीं लगा। जैसे हीरोइन दिव्या भारती की हत्या की गुत्थी अभी तक नहीं सुलझी। जैसे निर्देशक मनमोहन देसाई की मृत्यु हत्या थी कि आत्महत्या कोई नहीं जान पाया। जैसे सुशांत सिंह राजपूत की मृत्यु हत्या थी कि आत्महत्या। ड्रग लेता था कि नहीं। जैसी गुत्थियां अभी तक नहीं सुलझीं। तो आप क्या समझते हैं कि मुंबई फिल्म इंडस्ट्री में ड्रग की गुत्थी सुलझ जाएगी। तौबा-तौबा ! ऐसा कुफ्र तो मत ही कीजिए। 

Saturday, 26 December 2020

जनता जानती है किसान आंदोलन के दलाल दुर्योधनों और उस के मामा शकुनि को भी

किसान आंदोलन की कलई बस उतरना ही चाहती है। किसान अपना आंदोलन वापस लें , न लें यह किसान आंदोलन के दुकानदार जानें। पर सरकार की तरफ से नरेंद्र मोदी ने इधर तीन-चार दिन के भाषणों में रोज ही तीनों कृषि बिल की पैरवी में तर्क और तथ्य तो रखे ही हैं। बता दिया है कि तीनों कृषि बिल गंगा जल की तरह पवित्र हैं। साथ ही यह स्पष्ट कह दिया है कि कृषि बिल तो वापस नहीं होने वाले। दूसरी तरफ किसान आंदोलन में जनता जनार्दन की भागीदारी जैसे कि अन्ना आंदोलन में दिखी थी नहीं दिखी अभी तक। किसान आंदोलन को समर्थन करने के लिए सिविल सोसाइटी के लोगों की भागीदारी भी नहीं है। जिन मुट्ठी भर लोगों ने आंदोलन शुरू किया था , वही लोग अपनी-अपनी पीठ ठोंकते हुए उपस्थित हैं। नए लोग नहीं जुड़े हैं। खाने-पीने की सर्वोत्तम व्यवस्था , पैरों का मसाज , काजू बादाम आदि का ही प्रदर्शन होता दिखा है। बढ़िया कंबल , बिस्तर , टेंट आदि ही दीखता है। जोश और जूनून नहीं। आंदोलन की लपट और जीतने की भूख भी नदारद है। 

फिर बढ़िया सुविधाओं के साथ आंदोलन देखने की आदत अभी भारत के लोगों में नहीं है। दलाल और किसान का फर्क लोग जानते हैं। इंकलाब ज़िंदाबाद का मर्म लोग जाजान्ते हैं। गांधी , जे पी , अन्ना जैसी तपस्या रहित है यह आंदोलन। शुचिता और नैतिकता की जगह हिप्पोक्रेसी की बू आती है इस किसान आंदोलन से। चलिए माना कि गोदी मीडिया है। नहीं दिखाता कुछ आंदोलन के हक में। माना। हज़ार बार माना। पर एन डी टी वी तो गोदी मीडिया में शुमार नहीं है न। यह कारवां , यह वायर , यह क्विंट आदि-इत्यादि भी तो गोदी मीडिया में शुमार नहीं हैं न। यह लोग तो मोदी विरोध के लिए ही पैदा हुए हैं। किसान आंदोलन के आग की लपट क्यों नहीं दिखा और बता रहे। क्यों सिर्फ लफ्फाजी हांकने में ही निसार हैं। जनता को क्यों नहीं जगा पा रहे कि यह किसान आंदोलन जन आंदोलन बन जाए। फिर सोशल मीडिया तो सब ही के लिए सामान है। राफेल में फर्जीवाड़े की आग बहुत जलाई थी। बहुत चीख-पुकार मचाई थी। राफेल में झूठ की खेती को जनता ने , सुप्रीम कोर्ट ने नकार दिया था। फिर भी किसान आंदोलन में भी चीख-पुकार क्यों नहीं मचा रहे। इस किसान आंदोलन में क्यों लकवा मार गया है। सिर्फ लफ्फाजी हांकने से कोई आंदोलन होता है भला ! नहीं होता। लेकिन लफ्फाजी और हिप्पोक्रेसी की इस किसान आंदोलन में बहार है। 

इसी लिए जन भागीदारी या जोश इस आंदोलन से लापता है। जन आंदोलन की शक्ल नहीं ले पाया है यह किसान आंदोलन। कम से कम कांग्रेस ने जिन दो करोड़ लोगों के दस्तखत राष्ट्रपति को सौंपने का दावा किया है , उन में से दो लाख लोग भी काश कि इस आंदोलन से जुड़े दीखते। रही बात कम्युनिस्टों की तो वह आयोजक बहुत अच्छे हैं। माहौल बहुत बढ़िया बना लेते हैं। डफली बजा कर गाना भी अच्छा गा लेते हैं। पर जनभागीदारी से वह वंचित हैं। बरसों से जनता उन के साथ नहीं है। जनता जनार्दन के बीच अनुपस्थित हैं कम्युनिस्ट लोग । उन की विचारधारा। इसी लिए संसदीय राजनीति से वह खारिज हैं। कांग्रेस का भी यही हाल है। 

संसदीय राजनीति में जो इन की कोई हैसियत होती तो मोदी के पास प्रचंड बहुमत न होता और कि इस कृषि बिल को यह लोग संसद में ही रोक लिए होते। पास ही नहीं होने दिए होते। इस तरह गाल न बजा रहे होते। मोदी विरोध गुड बात है। लेकिन किसी आंदोलन को सफल बनाने के लिए , अंजाम तक लाने के लिए तर्क और तथ्य की कसौटी भी लाजिम होती है। बात में दम भी एक चीज़ होती है। सिर्फ तानाशाह कह देने से कोई तानाशाह नहीं हो जाता। तानाशाह बनने के तानशाह होना भी पड़ता है। तानाशाह बनने के लिए इंदिरा गांधी की तरह इमरजेंसी भी लगानी पड़ती है। मोदी तानाशाह है , गोदी मीडिया उस के साथ है , सिर्फ कहते रहने से ही बात नहीं बनती। नक्कारखाने में तूती बजाने से किसी भी आंदोलन का नुकसान होता है। बहुत नुकसान। जो कि इस किसान आंदोलन का हो चुका है। बिखर चुका है यह आंदोलन। 

शाहीन बाग़ का अंधेरा बुनने से रौशनी नहीं आती। जामिया मिलिया में हिंसा का छल रचने से रौशनी नहीं आती। जे  एन यू में बैठ कर कुतर्क रचने से रौशनी नहीं आती। रोशनी आती है सूर्य से। सूर्य की तरह जनता के मन में चमकने से रौशनी आती है। किसानों की दलाली से चमक नहीं आती। छल-कपट भरी बातों से चमक नहीं आती। वह एक पुराना गाना है न : यह पब्लिक है सब जानती है। किसान को भी , किसान के दुःख को भी। जनता जानती है। किसान आंदोलन के दलाल दुर्योधनों और उस के मामा शकुनि को भी। नहीं जानती होती तो अब तक रणभेरी बज गई होती। ईंट से ईंट बजा दी होती मोदी सरकार और गोदी मीडिया की। झुकती है , संसद झुकाने वाला चाहिए। तो अन्नदाता के आगे यह मोदी सरकार क्या चीज़ है। मोदी सरकार को झुकाने के लिए कूवत तो रखिए। 

लफ्फाजी और हिप्पोक्रेसी से कोई मच्छर नहीं मार सकता , मोदी सरकार तो बहुत दूर की कौड़ी है। किसान हो या मज़दूर , व्यापारी हो या उपभोक्ता , हर कोई अपना हित जानता है। लेकिन एक विपक्ष है भारत में जो अपना हित बिलकुल नहीं जानता। राहुल गांधी जैसे लतीफ़ा और नशेड़ी आदमी को आगे रख कर , अपना सेनापति बना कर विपक्ष नरेंद्र मोदी को घेरना चाहता है , मोदी की सरकार गिराना चाहता है। तरस आता है , ऐसे नाकारा विपक्ष पर। कभी शाहीन बाग़ में मुस्लिम औरतों का कंधा ढूंढता है तो कभी दंगा। तो कभी दिल्ली की सरहदों पर किसानों का कंधा। एक लतीफा याद आता है। संता एक दिन घर से निकला तो केले के छिलके पर पैर पड़ गया और वह फिसल कर गिर गया। दूसरे दिन वह घर से निकला तो फिर केले का छिलका दिख गया। संता दुःख से भर कर बोला , ओह आज फिर फिसल कर गिरना पड़ेगा। जय हो !


Monday, 21 December 2020

तो अमित शाह ने ममता बनर्जी के वोट बैंक में पूरी तबीयत से एक पत्थर मार कर सूराख कर दिया है

कैसे आकाश में सूराख़ हो नहीं सकता

एक पत्थर तो तबीयत से उछालो यारो।

तो दुष्यंत कुमार के इस शेर को अमल में लाते हुए गृह मंत्री अमित शाह ने ममता बनर्जी के वोट बैंक में पूरी तबीयत से एक पत्थर मार कर सूराख कर दिया है। कल विराट भव्य शो के बाद प्रेस कांफ्रेंस में तथ्यात्मक आरोपों की झड़ी लगा दी। इतना कि ममता बनर्जी ने घायल हो कर शरद पवार को पुकार लिया है। शरद पवार ने कोई फौरी प्रतिक्रिया नहीं दी है। पर ममता बनर्जी को अब टैगोर और विवेकानंद भी याद आ गए हैं।  क्यों कि यही बिसात अमित शाह कल बिछा गए हैं। दिक्क़त एक यह भी है कि टैगोर की मूर्तियां तोड़ने वाले , विवेकानंद की मूर्तियों पर कालिख पोतने वाले वामपंथी इस बिसात पर कैसे खेलेंगे भला। मायावती की तरह ममता आज अमित शाह के आरोपों का जवाब लिखित पढ़ कर दे रही थीं। कहा कि कल डिटेल जवाब देंगी। अब ममता को कोई यह बताने वाला नहीं है कि यह काम अदालत में ही होता है कि चार हफ्ते , छ हफ्ते में काउंटर , रिज्वाइंडर। राजनीति में तो फौरन से पेस्तर जवाब दिया जाता है।

ईसाई वोटों पर भी आज ममता ने डोरे डाले। रही मुस्लिम वोट बैंक की बात तो इस चुनाव में ममता , कांग्रेस और वामपंथियों के अलावा एक और दावेदार साझीदार हैं ओवैसी। वही ओवैसी जी बिहार में सेक्यूलरिज्म के संगीत को खंडित कर चुके हैं। बहरहाल , ममता बनर्जी के सलाहकार प्रशांत किशोर ने किसी ज्योतिषी की मानिंद ट्वीटर पर घोषणा की है कि भाजपा दहाई की संख्या नहीं छू पाएगी। छू लिया तो वह ट्यूटर छोड़ देंगे। नाखून कटवा कर शहादत का यह रंग भी ग़ज़ब है। प्रशांत किशोर से जाने क्यों किसी ने बीते लोकसभा चुनाव में भाजपा की सीटों की संख्या नहीं पूछी है। 

अमित शाह 200 से अधिक सीट का दावा कर चुके हैं। नड्डा भी। अब यह तो बंगाल की जनता जाने। पर सवाल है कि ममता की राय में अगर अमित शाह , नड्डा जैसे लोग बाहरी हैं तो फिर शरद पवार क्या हैं। खैर पश्चिम बंगाल का चुनाव दिलचस्प हो गया है। तब जब कि हैदराबाद से असुद्दीन ओवैसी का बंगाल दौरा शेष है। ओवैसी के बंगाल जाने के बाद पश्चिम बंगाल में गरमी और बढ़ेगी। रही बात कांग्रेस और कम्युनिस्ट पार्टियों की तो पश्चिम बंगाल ही क्यों , देश में कहीं भी इन का कोई चुनाव लड़ना , न लड़ना अब मतलब नहीं रखता। कांग्रेस तो अपना अध्यक्ष ही नहीं चुन पा रही डेढ़ बरस से। कांग्रेस की हालत पाकिस्तान सरीखी है। पाकिस्तान में जैसे प्रधान मंत्री कोई भी हो कमान सेना के ही हाथ होती है। कांग्रेस की यह सेना , और प्रधान मंत्री दोनों ही शक्तियां गांधी परिवार में निहित हैं । 

कम्युनिस्ट पार्टियों का वैसे भी तानाशाही में , हिंसा में यक़ीन होता है। लोकतंत्र में नहीं। लोकतंत्र को ढोना उन की विवशता है। सांस फूल जाती है इस में उन की। नेपाल की ताज़ा मिसाल सामने है। संसदीय चुनाव उन्हें वैसे भी रास नहीं आता।  न ही जनता में उन का कोई आधार शेष है। ममता बनर्जी कल अपना जवाब दुबारा पूरी तैयारी से देंगी। फिलहाल वह आज अमित शाह के लिए अभद्र शब्दों से परहेज कर गईं। जब कि नड्डा के लिए गड्ढा , चड्ढा जैसे शब्द बोल रही थीं। फ़िलहाल वह भाजपा को अब की बार दंगा पार्टी भी नहीं बोल रहीं। हां , भाजपा को चीटिंग पार्टी ज़रूर बता दिया है। 

अभी प्रशांत किशोर के कहे से वह सॉफ्ट हिंदुत्व पर भी अमल कर रही हैं और अभी तक नरेंद्र मोदी के लिए कुछ अंत-शंट नहीं बोल रहीं। प्रशांत किशोर की सलाह पर बीते बरस दिल्ली में अरविंद केजरीवाल भी नरेंद्र मोदी पर आक्रामक नहीं हुए थे। बल्कि हनुमान मंदिर में जा कर मत्था टेक रहे थे , हनुमान चालीसा पढ़ रहे थे। केजरीवाल हालां कि कामयाब हुए मुफ्त बिजली , पानी पर । तृणमूल में लेकिन बगावत उफान पर है। लोग भाजपा में आ रहे हैं। भाजपा में तो वामपंथी और कांग्रेसी भी आ रहे हैं। 

लेकिन दिलचस्प यह कि भाजपा के एक सांसद सौमित्र खान की बीवी सुजाता मंडल पति को छोड़ आज तृणमूल में पहुंच गईं। इस बहाने उन का दांपत्य टूट गया। पश्चिम बंगाल चुनाव में ऐसे और भी कई दिलचस्प मोड़ आने वाले हैं। बस ओवैसी को कूदने दीजिए। अभी बहुत मछलियां इधर-उधर कूदेंगी। मार-काट मचेगी। जो भी हो अमित शाह ने ममता के वोट बैंक के आकाश में सूराख कर दिया है। और भरपूर। बंगाल की खाड़ी में हलचल और मचेगी। लहरें और मचलेंगी। क्यों कि अमित शाह ने पश्चिम बंगाल के ग्रामीण और पिछड़े इलाकों में सेंधमारी की है। और बहुत तगड़ी। अमित शाह का सोनार बांगला का स्वप्न सच होता है या खंडित , यह तो पश्चिम बंगाल की जनता-जनार्दन ही जाने। बहरहाल , दुष्यंत कुमार की ग़ज़ल का ही यह एक शेर और भी यहां मौजू है :

रहनुमाओं की अदाओं पे फ़िदा है दुनिया

इस बहकती हुई दुनिया को सँभालो यारो।


मोदी विरोध के गुरुर में किसान , मुनाफा तो दूर , लागत के लिए भी तरसता रहे , यही तो आप चाहते हैं

गज़ब है फेसबुक पर यह अठखेलियां भी। एक मित्र ने पोस्ट लिखी :

आज हम सपरिवार जियो न.को पोर्ट कर रहे हैं। 

इस पोस्ट पर आई कुछ प्रतिक्रियाएं और दिलचस्प रहीं। एक मित्र ने लिखा : ठीक किया। मैं ने कभी इस का साथ ही नहीं किया। दूसरे मित्र ने लिखा : राष्ट्रहित में बहुत बड़ा फ़ैसला। तीसरे मित्र ने लिखा : इस फैसले से सेन्सैक्स में भारी उछाल ।अन्तराष्ट्रीय बाजार में रिलायंस धड़ाम ।

किसी अन्य मित्र ने लिखा : बेचारे अम्बानी। अब तो एंटीलिया बिक ही जाएगा। कहाँ जाएंगे इतनी ठंड में। किसी और ने लिखा : बहुत सही फैसला मगर आपको कसम है किसी भी हिंदुस्तानी व्यापारी से उसके बनाए हुए प्रोडक्ट का इस्तेमाल नहीं करेंगे। किसी और ने लिखा : मुझे इस बात पर आश्चर्य हुआ कि एक हिन्दी का महत्वपूर्ण कथाकर और प्रोफेसर जिओ के झांसे में आ गया। 

किसिम-किसिम की रंग-बिरंगी टिप्पणियां देखने को मिलीं। कुल मिला कर पता यह चला कि क्रांति ऐसे भी होती हैं। प्रतिक्रियाओं को आप प्रति क्रांति मान लें या प्रतिक्रियावादी कह लें। लेकिन सवाल यह है कि कल परसों या किसी और दिन सही किसान आंदोलन खत्म हो जाता है , जैसी कि ख़बरें बता रही हैं तब क्या होगा , इस क्रांति और इन प्रतिक्रियावादियों का। या फिर उन किसानों का अभी क्या होगा जो अभी भी बिग बास्केट , पेप्सी , तमाम डिस्टलरी या अडानी , रिलायंस आदि को उसी पंजाब , हरियाणा में सब्जी या अनाज निरंतर बेचते आ रहे हैं। या कि आगे भी बेचते रहेंगे। 

सच तो यह है कि समूची दुनिया अब कारपोरेट की , कारपोरेट की आवारा पूँजी की मुट्ठी में है। किसी क्रांति या किसी क्रांतिकारी के बाजू या आंदोलन में अब दम नहीं है कि कारपोरेट की कांख में दबी दुनिया को उस से उबार सके। कारपोरेट और उस की आवारा पूंजी अब विकास के पहिए में तब्दील है। आप सहमत रहिए , असहमत रहिए अब सच यही है। बाक़ी मोदी विरोध के लिए अंबानी , अडानी का विरोध भी गुड है। टाटा , बिरला का विरोध कर के लोग विदा हो गए। किसी को बाटा का विरोध करते नहीं देखा। हिंदुस्तान लीवर का विरोध करते नहीं देखा। तब जब कि इन में से एक भी हिंदुस्तानी कंपनी नहीं है। कॉलगेट पेस्ट से लगायत लाइफबॉय , लक्स साबुन समेत तमाम प्रोडक्ट इसी हिंदुस्तान लीवर का है। जो पाकिस्तान जा कर पाकिस्तान लीवर हो जाता है। बाटा का भी यही हाल है। 

तमाम बहुराष्ट्रीय कंपनियां कब से हमारे घर और जीवन में जाने कब से घुसी हुई हैं। आदत और जीवन में गहरे धंसी हुई हैं। आटा , दाल , चावल , सब्जी , पानी , शराब , कपड़ा , जूता , कार , बाइक हर कहीं। मोबाइल , कंप्यूटर , टी वी , फ्रिज हर कहीं। तमाम सड़कें , पुल और घर भी यह बहुराष्ट्रीय कंपनियां ही तो बना रही हैं। जहाज और हेलीकाप्टर कब त्याग देंगे आप। बताएंगे ? क्यों कि यह सभी बहुराष्ट्रीय कंपनियां के ही बूते उपस्थित हैं हमारे जीवन में। अखबार का काग़ज़ और छापने की मशीन तक तो विदेशी है। न्यूज़ चैनलों के , अन्य चैनलों के , फिल्मों के कैमरे और अन्य तकनीक तक तो विदेशी हैं। क्राफ्ट और डिजाइन तक तो विदेशी हैं। मल्टीनेशनल हैं। फिल्मों की कहानियां तक उड़ाई हुई ही होती हैं। सीन दर सीन। गानों की धुन और लिरिक्स तक। यहां तक कि साहित्य में लेखकों , कवियों की रचना और आलोचना के औज़ार तक विदेशी। कोई कहीं डुबकी मार रहा है , कोई कहीं। मार्खेज़ और सार्त्र के बिना आप दो कदम चल नहीं पाते। ब्रेख्त और पाब्लो नेरुदा के बिना आप की क्रांति नामुमकिन हो जाती है। यानी यहां भी मल्टीनेशनल। चुनांचे आप अपने जीवन में पूंजी ही पूंजी , सुविधा ही सुविधा चाहते हैं पर किसान के जीवन में पूंजी और सुविधा बिना किसी पूंजीपति के सहयोग के चाहते हैं। 

ग़ज़ब है आप का यह सपना और आप का यह चयन भी। बेटा , बेटी तो मल्टीनेशनल कंपनियों में लाखों , करोड़ों के पैकेज पर काम कर सकते हैं , पैसे के लिए प्रतिभा पलायन का खेल , खेल सकते हैं लेकिन किसान इन मल्टीनेशनल कंपनियों से दूर ही रहे। किसान की उपज इन से दूर रहे। राजनीतिक पार्टियां तक मल्टीनेशनल कंपनियों से चंदा ले सकती हैं लेकिन किसान उन से पूंजी ले , ले और वह किसान से उस की उपज। तौबा, तौबा ! मोदी विरोध के गुरुर में किसान , मुनाफा तो दूर , लागत के लिए भी तरसता रहे , यही तो आप चाहते हैं। किसान कर्जा लेता रहे , आत्महत्या करता रहे। लाइन लगा कर डीजल और ब्लैक में खाद खरीदता रहे , यही तो चाहते हैं आप। वेरी गुड है यह भी। चचा मिर्ज़ा ग़ालिब वैसे ही तो नहीं लिख गए हैं :

ये फ़ित्ना आदमी की ख़ाना-वीरानी को क्या कम है

हुए तुम दोस्त जिस के दुश्मन उस का आसमाँ क्यूँ हो।

90 हज़ार पाकिस्तानी सैनिकों की वापसी का मर्सिया गाना छोड़ भारतीय सेना के शौर्य को प्रणाम कीजिए

दोस्तों , 90 हज़ार पाकिस्तानी सैनिकों की वापसी का मर्सिया गाना छोड़ 16 दिसंबर के भारतीय सेना के शौर्य को प्रणाम कीजिए। मुझे उन लोगों की बुद्धि और समझ पर तरस आता है जो 1971 में आज के दिन पाकिस्तान पर विजय को गर्व , खुशी और उपलब्धि को नगण्य मानते हुए इंदिरा गांधी को जब-तब पानी पी-पी कर कोसते रहते हैं। क्या तो 90 हज़ार पाकिस्तानी सैनिकों को मुफ्त में पाकिस्तान को वापस दे दिया। पी ओ के भी नहीं लिया। आदि-इत्यादि। इन मतिमंद लोगों के ऐसे कुतर्क पर हंसी आती है। कांग्रेस विरोध की बुरी लत से ऐसे कुतर्क उपजते हैं। एक कारगिल विजय , एक उरी सर्जिकल स्ट्राइक , एक बालाकोट पर एयर स्ट्राइक को आप हरदम सीने पर टांक कर घूमने में अगर वीरता और गौरव का सबब मानते हैं तो एक इतने बड़े भू-भाग पूर्वी पाकिस्तान पर जीत को आप कम कर क्यों आंकना चाहते हैं ? यह भी गर्व और गौरव का सबब है। यह कभी मत भूलिए।

लेकिन सिर्फ एक कांग्रेस और इंदिरा के विरोध खातिर आप पचासियों कुतर्क गढ़ लेते हैं कि 90 हज़ार सैनिकों को मुफ्त में क्यों छोड़ दिया ? पी ओ के क्यों नहीं ले लिया ? आदि-इत्यादि। पाकिस्तान का गुरुर तोड़ कर रातोरात बांग्लादेश बना देना इन कुतर्कियों को नहीं दीखता। दुनिया का भूगोल बदल जाना नहीं दीखता। यह भी नहीं याद आता कि 1965 में पाकिस्तान का बड़ा भूभाग जीत कर भी ताशकंद समझौते में लाल बहादुर शास्त्री को पाकिस्तान को लौटा देना पड़ा था। इसी आघात में उन का जीवन चला गया। इस लिए भी कि लाल बहादुर शास्त्री नेता बहुत बड़े थे , ईमानदार भी बहुत थे , बहादुर भी बहुत। पर विदेश नीति और कूटनीति में दरिद्र थे। पैदल थे। सो दबाव में आ कर वह ताशकंद समझौता कर बैठे। पाकिस्तान से जीती हुई सारी भूमि लौटा बैठे। बाद में उन्हें लगा कि ओह , यह क्या कर बैठा मैं। भारत लौट कर देशवासियों और अपने वीर सैनिकों को क्या मुंह दिखाऊंगा मैं। उन्हें इसी दबाव और कशमकश में दिल का दौरा पड़ा और वह हम से बिछड़ गए।

शास्त्री जी यह समझने में विफल रहे कि ऐसे समझौते तुरत-फुरत नहीं होते। ऐसे समझौते का ड्राफ्ट आनन-फानन नहीं तैयार होता। पूरी तैयारी और तर्क के साथ ऐसे ड्राफ्ट देश से ही बन कर आते हैं। सिर्फ दस्तखत और औपचारिक लेन-देन ही होते हैं और कि संबंधित अफसर ही दस्तखत करते हैं , प्रधान मंत्री नहीं। शास्त्री जी अपनी सादगी में इन तथ्यों को भुला कर सोवियत संघ के राष्ट्रपति के दबाव में आ कर दस्तखत कर बैठे। परिणाम सामने है। लाल बहादुर शास्त्री में कूटनीति और इस के लिए अनिवार्य तत्व काइयांपन का नितांत अभाव था। पर इंदिरा गांधी में यह कूटनीति और काइयांपन पर्याप्त था। जैसे कि वर्तमान प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी में यह विदेश नीति की समझ , कूटनीति और काइयांपन  इंदिरा गांधी की तुलना में कहीं बहुत ज़्यादा है। इसी लिए वह सफल भी बहुत हैं। क्यों कि इंदिरा गांधी के पिता जवाहरलाल नेहरू में लालबहादुर शास्त्री की तरह सादगी तो नहीं थी जब कि विदेश नीति और कूटनीति की समझ तो थी पर इस के साथ अनिवार्य रहने वाला पर्याप्त काइयांपन का तत्व नहीं था। सो चीनी दांव में चित्त हो गए और हिंदी-चीनी , भाई-भाई के झोंके में चीन से पराजित हो कर देश को एक बड़ा घाव दे गए। सब जानते हैं कि कश्मीर का घाव भी पंडित नेहरू ने ही दिया हुआ है।

बहरहाल इंदिरा गांधी ने शिमला समझौते में 90 हज़ार पाकिस्तानी सैनिकों को छोड़ देने की कुछ वही लोग आलोचना करते हैं जो तब की स्थिति और कूटनीति नहीं जानते। विदेश नीति नहीं जानते। अंतराराष्ट्रीय राजनीति का दबाव नहीं जानते। अरे इंदिरा गांधी अगर तब नहीं छोड़तीं तो बाद में अंतरराष्ट्रीय दबाव में छोड़ना पड़ता। तिस पर उस समय देश में खाद्यान्न का भारी संकट अलग से था। अमरीका से गेहूं मंगाया जाता था खाने के लिए। तो उन सैनिकों को खिलाना-पिलाना भी एक भारी संकट था। बांग्लादेशी शरणार्थियों का दबाव अलग था। वह बांग्लादेश जिसे भारत ने पाकिस्तान से न सिर्फ अलग किया था बल्कि रातोरात उसे मान्यता दे कर सोवियत संघ से मान्यता दिलवा कर विश्व राजनीति में भारत की धमक और चमक उपस्थित की थी। तब जब कि उस समय अमरीका खुल्ल्मखुल्ला पाकिस्तान के साथ खड़ा था , जैसे कि आज चीन खड़ा है।

बल्कि अमरीका ने तो पाकिस्तान से युद्ध में अपना सातवां बेड़ा भी पाकिस्तान के लिए रवाना किया था। भारत के खिलाफ लड़ने के लिए। इस सातवें बड़े में अमरीकी लड़ाकू विमान थे। वह तो इंदिरा गांधी की कूटनीति थी कि अमरीका के इस सातवें बड़े के पीछे-पीछे सोवियत संघ ने अपना बेड़ा भी लगा दिया था ,भारत के पक्ष में। इस तरह विश्व युद्ध की संभावना को देखते हुए अमरीका को विवश हो कर बीच रास्ते से अपना सातवां बेडा वापस लौटा लेना पड़ा था। इस लिए विवश हो कर 90 हज़ार पाकिस्तानी सैनिकों को जनरल नियाजी के नेतृत्व में आत्म-समर्पण करना पड़ा। क्यों कि भारतीय वायु सेना ने बम मार-मार कर पाकिस्तानी सेना की नाक में दम कर रखा था। और पूर्वी पाकिस्तान में कोई लड़ाकू जहाज शेष नहीं था। पश्चिमी पाकिस्तान से पाकिस्तानी वायु सेना को भारत के आकाश से गुज़रना पड़ता और भारत उन्हें मार गिराता। इसी लिए पाकिस्तान की मदद खातिर समुद्री रास्ते से अमरीका ने सातवां बेडा भेजा था , लड़ाकू जहाज भर कर। जिसे अमरीका को बीच रास्ते से वापस लेना पड़ा था।

फिर शत्रु देश के 90 हज़ार सैनिकों को , वह भी पाकिस्तान के सैनिकों को संभाल कर रखना एक बड़ी चुनौती थी। 90 हज़ार भैंस संभालना मुश्किल होता है , वह तो फिर भी सैनिक थे। कहीं वह सैनिक एक साथ विद्रोह कर देश में ही फ़ैल कर तोड़-फोड़ शुरू कर देते तब ? दो-चार सौ सैनिक तो थे नहीं। तो उन सैनिकों का खाने-पीने और रहने का खर्च , उन की सुरक्षा का खर्च संभालना टेढ़ी खीर थी। फिर वह एकतरफा समझौता था , कहना गलत है । बहुत से भारतीय सैनिकों को जो पाकिस्तान में बंदी थे , बहुत समय से बंदी थे , पाकिस्तान ने भी तब छोड़ा था। यह ठीक है कि अभिनंदन की तरह नहीं छोड़ा था , पर छोड़ा तो था। तो नब्बे हज़ार सैनिकों के सरेंडर के शौर्य को भूल कर जो लोग उन की वापसी का मर्सिया पढ़ने लगते हैं , यह लोग न युद्ध नीति जानते हैं , न विदेश नीति , न कूटनीति। सो दोस्तों , 90 हज़ार पाकिस्तानी सैनिकों की वापसी का मर्सिया गाना छोड़ 16 दिसंबर के भारतीय सेना के शौर्य को प्रणाम कीजिए। और जानिए कि पाकिस्तान को यह बहुत बड़ा घाव है , जो कभी सूखने वाला नहीं है। पाकिस्तान आजीवन इस घाव को न सिर्फ सहलाता रहेगा बल्कि ऐसा ही कोई और घाव फिर न मिल जाए इस की आहट से भी निरंतर डरता रहेगा।

एकपक्षीय बात करना गुड बात नहीं है। पाकिस्तान झूठ बहुत बोलता है। तब के कुछ सैनिक आज भी बंदी हैं। इन बंदी सैनिकों की सूचना पाकिस्तान ने कभी नहीं दी। भारत ने भी उन्हें शहीद घोषित कर दिया। परमवीर चक्र तक दे दिए। घर के लोगों ने श्राद्ध कर दिए। पर बाद में यह सैनिक लौटे। एक फ़िल्म है 1971 कभी मौका मिले तो देखें। यही विषय है। जिन की सूचना पाकिस्तान ने कभी भारत को नहीं दी। यह सैनिक जेल से भी बाहर रखे गए। लेकिन यह किसी तरह भाग कर भारत की तरफ भागे। कुछ मारे गए , कुछ लौटे। ऐसे बहुत से सैनिक अभी भी पाकिस्तान में बताए जाते हैं। पाकिस्तानी सैनिक भी भारत में बंद हैं , ऐसा पाकिस्तान कहता रहता है। कुलभूषण जाधव जैसे लोग भी पाकिस्तान में हैं ही। वीर जारा जैसी फ़िल्में भी सत्य कथा पर बनी हैं। सरबजीत फ़िल्म की भी याद कीजिए। जिसे सरबजीत की यातना पर ही बनाया गया है। सनी देओल अभिनीत ग़दर की याद कीजिए। कभी मोहनलाल भास्कर की आत्मकथा पढ़िए , मैं पाकिस्तान में भारत का जासूस था। पाकिस्तान के बहुत से झूठ और पाखंड का पता चलेगा। ऐसी बहुत सी बातें , किताबें , फ़िल्में और रिपोर्टें हैं। जिन पर दोनों सरकार बात करती रहती हैं। पर ऐसी बातें कभी खत्म नहीं होतीं। न होंगी। इस लिए एकपक्षीय बात करना और मैया मैं तो चंद्र खिलौना लैहों ! की ज़िद गुड बात नहीं है।

जिनेवा संधि के बाबत भी लगता है लोग परिचित नहीं हैं। होते तो यह और ऐसी बात न करतीं। जिनेवा संधि के तहत भी इन सैनिकों को वापस करना ही होता। देर-सवेर। शिमला समझौते की कूटनीतिक सफलता अगर अब तक नहीं जानतीं तो अब से जान लीजिए। वह यह कि भारत , पकिस्तान के बीच कोई भी विवाद हो , कोई तीसरा देश दखल नहीं दे सकता। द्विपक्षीय बातचीत ही होगी। संयुक्त राष्ट्र संघ तक दखल नहीं दे सकता। नहीं देता है , शिमला समझौते के बाद। क्या यह मामूली कूटनीतिक विजय है। शिमला समझौते ही में तय हुआ कि पाकिस्तान कोई भी बात अंतरराष्ट्रीय मंच पर नहीं उठाएगा। अलग बात है कि वह बेशर्म हो कर उठाता ही रहता है पर शिमला समझौते के नाते कोई पाकिस्तान की बात पर गौर नहीं करता। पर वह कहते हैं न कि पंचों की राय सिर माथे पर खूंटा वहीँ रहेगा। पाकिस्तान की तरह आप भी अपने कुतर्क पर अडिग हैं। मुबारक हो !


Friday, 11 December 2020

कितने दुःख सिरहाने आ कर बैठ गए

नरेश सक्सेना के पुत्र स्मृति-शेष राघव नरेश 


नरेश सक्सेना जैसी जिजीविषा और कविता तो सब को मिले पर उन के जैसा दुःख और यह कथा किसी भी को न मिले। कहते ही हैं कि पिता के कंधे पर बेटे की लाश से बड़ा कोई दुःख जीवन में नहीं होता। दुर्भाग्य से आज यही दुःख नरेश सक्सेना को देखना पड़ गया। आज नरेश सक्सेना के पुत्र राघव नरेश दुनिया को अलविदा कह गए। मुझे यह खबर देर से मिली। शाम को फेसबुक खोला तो विष्णु नागर ने यह दुःख भरी सूचना लिखी थी। सहसा विश्वास नहीं हुआ। फिर सोचा कि विष्णु नागर जी गलत सूचना भला क्यों परोसेंगे। 

मित्रों से पता किया अंत्येष्टि आदि के बाबत। पता चला कि शाम को होना था , हो गया होगा। कुछ मित्रों ने बताया कि हम दिन दो बजे उन के घर तो गए थे पर अंत्येष्टि में नहीं गए। कोरोना से भय के कारण।  खैर , नरेश जी के घर गया। कुछ समय पहले लौटा हूं। रात का तीसरा पहर है पर सो नहीं पा रहा हूं। उन से मिल कर उन से कुछ कहने के लिए मेरे पास कोई शब्द नहीं थे। पर नरेश जी के पास शब्द ही शब्द थे। किताबों और कागज़ों के बीच लिहाफ़ ओढ़े , बिस्तर पर उठंगे हुए कहने लगे कि , अब जो हो गया है , इसे पलटा तो जा नहीं सकता। इधर-उधर की बात के बाद वह पूछने लगे , क्या लिख रहे हैं , इन दिनों। मैं ने कहा कुछ नहीं। इन दिनों पत्नी सेवा में लगा हूं। गाल ब्लेडर का आपरेशन हुआ है। 

ओह , कहते हुए लीलाधर जगूड़ी की पथरी की बात वह करने लगे। कहने लगे वह बीमार थे। आपरेशन होना था। अस्पताल में मेरी पत्नी ने उन्हें होमियोपैथी की एक दवा ले जा कर दी। वह बिना आपरेशन के ही ठीक हो गए। फिर अपने लिए भी होमियोपैथी की दवा कैसे , किस बाबत कारगर हुई , बताने लगे। डाक्टर हेमंत कुमार बनर्जी की बात करने लगे। कहने लगे कि एक बार मैं उन को दिखाने गया। तो उन्हों ने बिना कुछ बताए ही दवा लिख दी। मैं ने कहा , कुछ पूछ तो लीजिए। डाक्टर बोले , जो आप बताएंगे , देख लिया है। और देखिए कि दस रुपए में उन्हों ने ठीक कर दिया। मैं ने उन्हें बताया कि डाक्टर हेमंत कुमार बनर्जी तो हमारे गोरखपुर के थे। वह बोले , हां , लखनऊ भी आते थे। 

फिर मैं ने बहू के स्वास्थ्य के बाबत पूछा। वह थोड़ा गंभीर हुए। बोले , ठीक है। पर जीवन भर का दुःख तो उस का है ही यह। बेटी के मुंबई से आने के बाबत पूछा तो बोले , आ रही है। फ्लाइट लखनऊ आ गई है। रास्ते में है। अचानक वह कविताओं की चर्चा पर आ गए। गीतों की बात पर आ गए। गीतकारों की चर्चा शुरू हो गई। शंभूनाथ सिंह के गीत , मधुर चित्र कितने / किसी ने बनाए, किसी ने मिटाए। का ज़िक्र करते हुए जैसे अपने सपनों के टूटने की बात कहना चाहते हों। मैं उन्हें याद दिलाता हूं , समय की शिला पर मधुर चित्र कितने / किसी ने बनाए, किसी ने मिटाए। वह बोले , हां-हां , समय की शिला पर। उन्हें याद दिलाता हूं लेकिन समय शिला कैसे हो सकता है ? नरेश जी हंसे और बोले , हां , समय तो बहता रहता है। उन्हें मैं ने बताया है कि कभी शंभूनाथ सिंह जी से भी मैं ने यह कहा था कि समय शिला कैसे हो सकता है। तो वह नाराज हो गए थे। नरेश जी को बताता हूं कि फिर भी यह गीत मुझे बहुत पसंद है। अकसर सुनता भी रहता हूं। उन की आवाज़ में। नरेश जी के दुःख के संदर्भ में कि इस गीत का पहला अंतरा मन ही मन याद करता हूं कि नरेश जी के साथ यही तो हो गया है आज। शायद इसी बहाने अपना दुःख व्यक्त करना चाह रहे हों :

किसी ने लिखी आँसुओं से कहानी
किसी ने पढ़ा किन्तु दो बूँद पानी
इसी में गए बीत दिन ज़िन्दगी के
गई घुल जवानी, गई मिट निशानी।
विकल सिन्धु के साध के मेघ कितने
धरा ने उठाए, गगन ने गिराए।

अभी यह सोच ही रहा था कि संयोग से माहेश्वर तिवारी का फोन आता है नरेश जी के पास। माहेश्वर तिवारी से भी नरेश जी कहते हैं , अब इसे पलटा तो जा नहीं सकता। जो हो गया , हो गया। अचानक माहेश्वर तिवारी से भी वह पूछते है , क्या लिख रहे हैं इन दिनों। माहेश्वर तिवारी ने उधर से गीत का मुखड़ा बताया है , सारे दुःख सिरहाने आ कर बैठ गए। नरेश जी हंसते हुए उन से कहते हैं सारे दुःख क्यों आ कर बैठ गए। इस को ऐसे कीजिए कि कितने दुःख सिरहाने आ कर बैठ गए। फिर उन से कहने लगे कि जल्दी यह गीत पूरा कीजिए नहीं , मैं इसे लिख दूंगा। ब्रैकेट में आप का नाम लिख कर। अपने दुःख को छोटा करने की कवायद है यह शायद। सारे दुःख को कितने दुःख का संशोधन। शायद माहेश्वर तिवारी ने उधर से कुछ भगवान की बात कर दी है। नरेश जी जैसे प्रतिवाद पर आ गए हैं। कहने लगे , देखा तो किसी ने नहीं उन्हें। वह कभी अयोध्या में पैदा हो जाते हैं कभी मथुरा में। कभी अफगानिस्तान में भी क्यों नहीं पैदा हो गए। पूरी दुनिया जब उन्हों ने बनाई है तो पूरी दुनिया में पैदा होना चाहिए उन्हें। मास्को में भी पैदा होना चाहिए। ईराक में भी। बारी-बारी पूरी दुनिया में। उन का फोन बंद होता है तो वह पूछते हैं , कहां रह रहे हैं अभी माहेश्वर तिवारी । बताता हूं कि हैं तो हमारे गोरखपुर के। बल्कि बस्ती के। पर मुरादाबाद में रहते हैं। नरेश जी माहेश्वर तिवारी के एक बहुत पुराने गीत की सहसा याद करते हैं , जैसे कोई किरन अकेली / पर्वत पार करे। फिर पूछते हैं , इस गीत का मुखड़ा पूछते हैं। बताता हूं उन्हें , याद तुम्हारी जैसे कोई / कंचन-कलश भरे । बताता हूं कि यही उन का सिग्नेचर गीत है। जैसे शंभूनाथ जी का , समय की शिला पर मधुर चित्र कितने / किसी ने बनाए, किसी ने मिटाए। सिग्नेचर गीत है। 

माहेश्वर तिवारी के बहाने मैं उन्हें अपने शहर गोरखपुर के कवि और गीतकार देवेंद्र कुमार की याद दिलाता हूं। नरेश जी देवेंद्र कुमार की याद करते हुए उन का सिग्नेचर गीत सुना कर बच्चों की तरह खुश हो जाते हैं : एक पेड़ चांदनी / लगाया है आंगने / फूले तो / आ जाना एक फूल मांगने। नरेश जी कहने लगे अपनी तरह की अनूठी कल्पना है यह कि आ जाना एक फूल मांगने । अपनी कविताओं का पाठ तो नरेश जी उन्मुक्त हो कर करते ही हैं। पर हिंदी में शिवमंगल सिंह सुमन के बाद एक नरेश सक्सेना को ही देखा है जो अन्य कवियों की कविता का पाठ भी उसी विह्वलता से करते हैं , जैसे अपनी कविताओं का। और क्या तो याददाश्त है उन की। सब की कविताएं उन्हें क्या तो कंठस्थ रहती हैं। जैसे कंप्यूटर में , गूगल में कुछ संकेत फीड कीजिए और सब कुछ आप के सामने। ठीक वैसे ही नरेश सक्सेना से किसी कविता का ज़िक्र भर कीजिए। वह कवि और कविता का सारा कुछ आप के सामने रख देंगे। आप एक कविता की बात करेंगे , नरेश जी अनेक कविताओं को सुना देंगे। जैसे तन्मय हो कर वह बांसुरी बजाते हैं , उसी तन्मयता से वह कविता पाठ भी करते हैं। तुलसीदास , मीरा से लगायत वरवर राव और ब्रेख्त तक की कविताओं का पाठ  नरेश जी से हम ने बार-बार सुना है। तुलसीदास को तो वह बाक़ायदा हथेलियों से मेज पर ताल दे-दे कर सुनाते हैं। उन के कविता पाठ की लय देखते बनती है। अरुण कमल , राजेश जोशी आदि अपने तमाम समकालीन कवियों को वह पूरा सम्मान तो देते ही हैं , उन की कविताएं भी खूब याद रखते हैं और जब-तब सुनाते रहते हैं। उन की यह यादादश्त  , यह सहजता और सजगता मोहित करती है। पर आज गीतों की चर्चा तो खूब कर रहे थे पर कहीं-कहीं विस्मृत भी हो रहे थे तो मुझे लग रहा था वह जैसे दुःख को छान रहे हों , कविता के महीन कपड़े से। गोपाल सिंह नेपाली और बलबीर सिंह रंग के गीतों की भी बात आती है। दिनकर और बच्चन के गीतों की भी। और वह उन गीतों की याद में डूबते हुए बात ही बात में मुझ से कहते हैं , आप गीतों पर एक ज़ोरदार लेख लिखिए। 

नरेश जी बुद्धिनाथ मिश्र और उन के गीत एक बार और जाल फेंक रे मछेरे की याद करते हुए कहते हैं कि मछेरे की ही वह सोचते हैं। मछली की क्यों नहीं। बताता हूं उन्हें कि इस लिए कि यह मछेरे के संघर्ष पर गीत है। और यही गीत बुद्धिनाथ मिश्र का सिग्नेचर गीत है। जैसे गीतों की स्मृति और गीतों की दुनिया उन के मन में सहसा जाग गई है। तो बेटे को विदा देने के बाद क्या गीतों के बहाने बेटे के शोक को विदा करना चाहते हैं वह। कम लोग जानते हैं कि नरेश सक्सेना ने एक समय गीत भी खूब लिखे हैं। धर्मयुग के रंगीन पृष्ठों पर नरेश जी के गीत मैं ने पढ़े हैं। उन्हें उन के गीतों की याद दिलाता हूं। वह कहते हैं , हां , लेकिन अपने गीतों की किताब तो मैं ने छपवाई नहीं। श्रीकृष्ण तिवारी के सिग्नेचर गीत की मद्धिम सी याद भी वह करते हैं। पर शब्द भूल रहे हैं। वन की याद है उन्हें। मैं याद दिलाता हूं उन्हें , भीलों ने बांट लिए वन राजा को खबर तक नहीं / रानी हो गई बदचलन / राजा को खबर तक नहीं। नरेश जी जैसे भड़क जाते हैं , यह क्या बात हुई। वन तो भीलों के ही हैं। राजा को क्या मतलब वन से। राजा का क्या दखल वन पर। भारत भूषण के गीतों की चर्चा भी वह करते हैं। मैं उन के सिग्नेचर गीत की याद दिलाता हूं :

ये असंगति जिन्दगी के द्वार सौ-सौ बार रोई
बांह में है और कोई चाह में है और कोई
साँप के आलिंगनों में
मौन चन्दन तन पड़े हैं
सेज के सपनो भरे कुछ
फूल मुर्दों पर चढ़े हैं

ये विषमता भावना ने सिसकियाँ भरते समोई
देह में है और कोई, नेह में है और कोई

बात रमानाथ अवस्थी के गीतों की भी होती है। सो न सका कल याद तुम्हारी आई सारी रात / और पास ही कहीं बजी शहनाई सारी रात के बहाने। बातों में नईम और रामानंद दोषी भी आते हैं। लोगों के फोन भी आते जा रहे हैं। सो बीच-बीच में हमारी बात टूटती भी रहती है। लेकिन नरेश जी बात का सिरा नहीं भूलते। बात जहां थमी होती है , फोन बंद होते ही वहीँ से शुरू कर देते हैं। पूरे घर में सन्नाटा है। सन्नाटा हमारी बातचीत से ही टूटता रहता है। मुझे ऐसे समय में लिखने-पढ़ने और गीतों की चर्चा करना कुछ ठीक नहीं लगता पर नरेश जी का मन है सो वह बतियाते जा रहे हैं। जैसे किसी गायक के साथ संगतकार की सी संक्षिप्त भूमिका है मेरी। नरेश जी दुःख से उबरें , कोशिश यही है। पर क्या एक दिन में ऐसा दुःख जाता है भला। भले बहू के लिए वह कह रहे थे कि , जीवन भर का दुःख तो उस का है ही , पर जानता हूं कि पुत्र शोक में डूबे एक पिता का भी यह जीवन भर का दुःख है। नरेश जी की ही एक कविता है :

पुल पार करने से
पुल पार होता है
नदी पार नहीं होती

नदी पार नहीं होती नदी में धँसे बिना

नदी में धँसे बिना
पुल का अर्थ भी समझ में नहीं आता
नदी में धँसे बिना
पुल पार करने से
पुल पार नहीं होता
सिर्फ लोहा-लंगड़ पार होता है

कुछ भी नहीं होता पार
नदी में धँसे बिना
न पुल पार होता है
न नदी पार होती है।

मन करता है इस कविता में नदी की जगह दुःख शब्द लिख दूं। वह दुःख जो किसी के समझाने , किसी से बतियाने से नहीं जाता। कम नहीं होता। लेकिन नरेश जी तो ऐसे बतियाए जा रहे हैं जैसे कुछ बड़ा अनर्थ नहीं हुआ। उन के कंधे पर बेटे का शोक नहीं है। लिहाफ ओढ़े , पलंग पर लेटे  वह , किसी बुद्ध की तरह , किसी जनक की तरह इस दुःख से तटस्थ हो चुके हैं। डर लगता है , उन की यह तटस्थता देख कर। यह भी अजब संयोग है कि एक समय नरेश सक्सेना और विनोद भारद्वाज ने लखनऊ से एक त्रैमासिक पत्रिका आरंभ निकाली थी। यह 1967 की बात है। अब यह 2020 का समय है। अब इस दिसंबर में नरेश जी के इकलौते बेटे राघव नरेश को समय ने छीन लिया है। आरंभ की यह कौन सी परिणति है भला। यह कैसा समापन है भला उस आरंभ का। अभी जब कल मंगलेश डबराल के विदा होने की खबर आई थी तो नरेश जी ने फेसबुक की अपनी वाल पर लिखा था : 

मंगलेश मुझसे दस बरस छोटे थे।
 हमेशा वादा करते और अक्सर नहीं आते।
अब वे कभी नहीं आयेंगे।
मुझे ही जाना होगा।
 शब्द खोखले हो चुके। कुछ कहते नहीं बन रहा।
मंगलेश जी, नमस्कार।

और आज मंगलेश जी के पास उन का बेटा चला गया। न कुछ कहते बन रहा है , न कुछ सुनते। शब्द सचमुच खोखले हो गए हैं। अकसर जब कोई कवि , लेखक लखनऊ आता है तो नरेश जी बज़िद अपने यहां ठहराते हैं। जैसे अभी कुछ समय पहले विष्णु नागर आए। रघुवीर सहाय पर किताब लिखने के बाबत। कहीं और ठहरना था उन्हें पर नरेश जी ने अपने घर ठहरा लिया। जम्मू से अग्निशेखर आए हिंदी संस्थान के कार्यक्रम में। जम्मू कश्मीर से कई कवि , लेखक आए थे इस कार्यक्रम में। नरेश सक्सेना सब को उठा लाए अपने घर। भोजन करवा कर ही भेजा। अग्निशेखर आज तक इस की चर्चा करते हैं। ऐसे अनेक वाकये हैं। 

खैर आज शाम जब चलने को जब हुआ तो पूछा उन से कि तीन दिन वाला श्राद्ध करेंगे कि बारह-तेरह दिन वाला। तो वह बोले , अभी कुछ तय नहीं है। बेटी आ जाए तो तय करते हैं। हिंदू तो हम हैं ही। करेंगे सब कुछ जैसे हिंदुओं में होता है। ताकि बाद में कोई पछतावा न हो कि यह क्यों नहीं किया। मैं उन से विदा ले कर घर से बाहर आया तो फ़िराक़ गोरखपुरी की याद आ गई। 1982 में तब के दिनों फ़िराक़ साहब दिल्ली के एम्स में भर्ती थे। सर्वेश्वर दयाल सक्सेना के साथ उन्हें देखने गया था। तब दिल्ली में ही रहता था। सर्वेश्वर जी ने उन्हें जोश मलिहाबादी के निधन की सूचना दी। यह सुन कर फिराक साहब बहुत ज़ोर से चीखे , ओह , जोश ! फिर बात ही बात में सर्वेश्वर जी का हाथ पकड़ कर वह कहने लगे कि , सर्वेश्वर , मैं हिंदू हूं। इस लिए देखना कि कोई मेरे शव को दफना न दे। मुझे जलाना। सर्वेश्वर जी , भावुक हो कर बोले , फिराक साहब , हम सब जानते हैं कि आप हिंदू हैं। जलाए ही जाएंगे। यह कहते हुए सर्वश्वर जी की आंखें छलछला गई थीं। दुर्भाग्य से फिराक साहब का इकलौता बेटा भी भरी जवानी में दुनिया को अलविदा कह गया था। तो यह अनिश्चितता तो किसी भी को हो सकती है। कि इतने बड़े शायर को बताना पडता है कि , देखना मैं हिंदू हूं। मुझे जलाना। दफनाना नहीं। प्रयाग में राजकीय सम्मान के साथ उन्हें जलाया भी गया। लेकिन दिल्ली रेलवे स्टेशन पर फिराक साहब को अंतिम विदा देने तब की प्रधान मंत्री इंदिरा गांधी आई थीं। सारा प्रोटोकाल देख कर फिराक साहब की टीनएज नातिन अपनी बिलखती मां से पूछ रही थी , ममा , नाना इतने ग्रेट थे ? बिलखती मां सिर हिलाते हुए बता रही थी कि हां ! फ़िरोज़ गांधी तो पारसी थे। पर उन की भी इच्छा थी कि उन्हें जलाया जाए। दिल्ली के निगम बोध घाट पर उन्हें जलाया भी गया था। इसी निगम बोध घाट पर तब नए-नए बने बिजली वाले शवदाह गृह में सर्वेश्वर जी को उन की बेटी ने स्विच  दबा कर जलाया था। 1983 में। 

अभी जल्दी ही दीपावली , फिर चित्रगुप्त पूजा के बाद मुझे पता नहीं क्या सूझा कि नरेश जी को एक शाम को फोन किया पर उन का फोन नहीं उठा। बाद में रात 11 बजे उन का फोन आया। बड़ी देर तक बात होती रही थी। तो मैं ने उन्हें बताया कि बचपन से जवानी तक गोरखपुर के जिस मुहल्ले इलाहीबाग में मैं रहता रहा था , वह कायस्थों का मुहल्ला था। सो चित्रगुप्त पूजा पर कलम-दावात की पूजा मैं भी करता रहा हूं। पर चित्रगुप्त पौराणिक काल के हैं और कलम फारसी का शब्द है। तो यह कैसे हो गया भला। फारसी का शब्द चित्रगुप्त के साथ कैसे जुड़ गया ? नरेश जी बोले , हम ने तो कभी कलम-दावात की पूजा की नहीं। न इस बारे में पता है। फिर बात इधर-उधर घूमती हुई मीरा , कबीर , नानक , गोरख , रजनीश तक पहुंच गई। मैं ने जब उन्हें बताया कि कबीर , मीरा , जायसी , नानक आदि सब के सब गोरख की परंपरा के कवि हैं तो वह चकित हो गए। गोरख के कुछ पद का भी ज़िक्र किया। कालिदास पर बात आई तो मैं ने उन्हें सीता वनवास पर कालिदास का लिखा बताते हुए कहा कि इस पर लिखा तो बहुत लोगों ने है पर जिस तरह कालिदास ने लिखा है , किसी ने नहीं। कि लक्ष्मण जब सीता को वन में जब छोड़ कर जाने लगते हैं तो सीता को जब तक लक्ष्मण दीखते हैं , वह निश्चिंत रहती हैं। लक्ष्मण ओझल होते हैं तो जब तक रथ दीखता है , सीता निश्चिंत रहती हैं। रथ भी ओझल होता है तो जब तक रथ का ध्वज दीखता है , वह निश्चिंत रहती हैं। लेकिन जब रथ का ध्वज भी ओझल हो जाता है तो सीता बहुत ज़ोर से विलाप करती हैं। सीता का विलाप सुन कर मृग जो दूब चर रहे होते हैं , उन के मुंह से दूब गिर जाता है। उड़ रहे पक्षी जैसे ठहर जाते हैं। वृक्ष की शाखाएं आपस में रगड़ खा कर जैसे सीता के विलाप में सुर मिलाने लगती हैं। पूरा वन सीता वनवास के शोक में डूब जाता है। कालिदास का यह वर्णन रुला-रुला देता है। पार्वती प्रसंग का भी ज़िक्र आया। 

इस पर नरेश जी विह्वल हुए और बोले , ऐसा होता तो है। फिर उन्हों ने जबलपुर में अपने विद्यार्थी जीवन की एक घटना की याद की। कि जब इंजीनियरिंग की पढ़ाई के दौरान हॉस्टल में जगह नहीं मिली तो टीचर्स के लिए रहने के लिए जगह उन्हें इस लिए मिल गई क्यों कि वह कैंपस भुतहा घोषित हो गया था। नरेश जी उस में रहने के लिए तैयार हो गए। और जब साइकिल पर अपना सामान ले कर उस भुतहा कैंपस में रहने के लिए चले तो शाम को उन के साथ कुछ और लड़के भी चले। पर धीरे-धीरे वह छूटने लगे। और आखिर में जब उन्हों ने उस भुतहा घर पहुंच कर मुड़ कर देखा तो कोई एक भी नहीं था तब। थोड़ा घबराए वह पर उन्हों ने अकेले ही उस कैंपस में रहना शुरू किया। कोई भूत-वूत उन्हें कभी नहीं मिला। फिर वह कैंपस आबाद हो गया। लोग आ कर रहने लगे। तो नरेश सक्सेना की जिजीविषा के कहने। बार-बार हम ने देखा है। कई बार इस लखनऊ शहर में भी एकला चलो के भाव में उन्हें पाया है। आक्रमण और प्रहार वह हंसते हुए टाल देते हैं। और उस सब से सदा मुक्त भी हो जाते हैं। कोई पैतीस बरस से उन्हें तमाम गरमी-बरसात सहते देखा है। पर इस पुत्र शोक में भी गीतों की याद में विह्वल होते उन्हें पहली बार देखा है। अपनी पत्नी विजय नरेश के शोक में भी उन्हें देखा है। बल्कि प्रति वर्ष समारोह पूर्वक विजय जी का जन्म-दिन मनाते भी देखता आ रहा हूं। पर उन का यह पुत्र शोक हम सब को तोड़ गया है। जयपुर के विनोद भारद्वाज के पुत्र जीतेंद्र ऊर्फ जीतू के शोक टिप्पणी में ओम थानवी ने अशोक वाजपेयी की एक कविता उद्धृत की थी :

जो जाता है
थोड़ा थोड़ा हमें भी ले जाता है
और इसी लिए कभी
पूरी तरह नहीं जाता। 

तो क्या नरेश जी ने भी थोड़ा ही सही अपने पुत्र राघव नरेश को अपने भीतर बचा रखा है। वह पूरी तरह नहीं गया है। क्या इसी लिए नरेश सक्सेना उस के दुःख से तटस्थ दिख रहे हैं। बुद्ध और जनक की तरह। पर हम राजकिशोर जी के पुत्र शोक को भी भूले नहीं हैं। राजकिशोर जी भी ऐसे ही तटस्थ हुए दीखते रहे थे। वह यातना और फिर जल्दी ही कुछ दिनों में राजकिशोर जी का भी विदा हो जाना डराता है। नरेश सक्सेना ईश्वर में विश्वास नहीं करते। पर मैं ईश्वर में पूरी तरह विश्वास करता हूं। और ईश्वर से प्रार्थना करता हूं कि नरेश जी की यह जिजीविषा बनी रहे और उन का जीवन भी। नरेश सक्सेना की ही कविता याद आती है , उन के बेटे राघव के लिए :

शिशु लोरी के शब्द नहीं
संगीत समझता है
बाद में सीखेगा भाषा
अभी वह अर्थ समझता है

समझता है सबकी मुस्कान
सभी के अल्ले ले ले ले
तुम्हारे वेद पुराण कुरान
अभी वह व्यर्थ समझता है
अभी वह अर्थ समझता है

समझने में उसको, तुम हो
कितने असमर्थ, समझता है
बाद में सीखेगा भाषा
उसी से है, जो है आशा



बर्लिन में ब्रेख्त की मूर्ति के साथ नरेश सक्सेना और उन की बेटी 


तो राजनाथ सिंह की कुटिल कूटनीति को आज़मा लेने में कोई हर्ज तो नहीं


अब यह देखना भी दिलचस्प है कि किसान झुकते हैं कि सरकार। जो भी हो अगर कृषि बिल रद्द होता है तो तय मानिए कि मोदी सरकार का काउंट डाऊन शुरू। क्यों कि अभी सी ए ए पर शहर-दर-शहर शाहीन बाग़ और दंगों का प्रयोग हमारे सामने है। अलग बात है वह एक अर्थ में सफल नहीं हुआ। इस के सफल न हो पाने का बहुत बड़ा श्रेय कोरोना को भी जाता है। फिर कृषि बिल रद्द करने के लिए जिस तरह दिल्ली बार्डर का चौतरफा घेराव किया गया है , सरकार को घेरने के लिए वह भी शाहीन बाग़ से आगे का प्रयोग है। वह यह कि जब भी कोई अध्यादेश आए , क़ानून बने दिल्ली को बंधक बना लीजिए और सरकार का गला दबा दीजिए। सरकार असहाय , निकम्मी और लाचार हो कर हाथ पर हाथ धरे बैठी रहे। 

क्यों कि कांग्रेस सरकारों की तरह किसानों या किसी भी आंदोलनकारी पर गोली चलाने के प्रयोग से यह सरकार अभी तक तो बची हुई है। लोकतंत्र का तकाजा भी यही है किसी भी आंदोलनकारी पर गोली या लाठी न चले। फिर यह आंदोलनकारी तो अन्नदाता के वेश में हैं। जनरल डायर बन कर तो कोई सरकार अब सांस भी नहीं ले सकती। 

बाकी मोदी सरकार तो वैसे भी ऐसे मामलों में कायर है। तब्लीगी जमात के मौलाना साद को तो यह सरकार छू भी नहीं पाई है। बाकी मामलों का क्या कहना। सो मुझे लगता है कि अब देर-सवेर किसान आंदोलन मामले पर सुप्रीम कोर्ट के दखल से ही कुछ आर-पार या बीच का मामला निकले तो निकले। क्यों कि सरकार न तो घुटने टेकेगी , न सख्ती करेगी। फिर किसान भी अब मैया मैं तो चंद्र खिलौना लैहों ! पर अड़ गए हैं। 

चीन , पाकिस्तान , कांग्रेस और कम्युनिस्टों से तो यह मोदी सरकार हज़ार बार लड़ सकती है , जीत सकती है पर किसान और मुसलमान से किसी सूरत नहीं। लड़ना , अरे लड़ने का सपना भी नहीं देख सकती। यह मोदी सरकार कूटनीति जानती है , युद्ध नहीं। इस सरकार की सारी फतह इस की कूटनीति में है , युद्ध में नहीं। और पंजाब के किसान कूटनीति नहीं , कुटाई जानते हैं। 15 दिन से दिल्ली की छाती पर बैठ कर बेभाव मोदी सरकार को कूट रहे हैं। मोदी भी गलती पर गलती किए जा रहे हैं। अपनी ही सरकार के नंबर दो राजनाथ सिंह को जाने क्यों आज़मा नहीं रहे। 

राजनाथ सिंह कूटनीति को कुटिलता की हद तक ले जाने में प्रवीण हैं। उत्तर प्रदेश में बतौर मुख्य मंत्री वह अपनी इसी कुटिलता के बूते एक समय बेहद आग मूतने वाले महेंद्र सिंह टिकैत का पानी उतार चुके हैं। जब कि बतौर भाजपा अध्यक्ष , उत्तर प्रदेश मायावती का काम तमाम इसी कुटिलता के बूते कर चुके हैं , जो मुलायम सिंह यादव बहुत चाह कर भी कभी नहीं कर पाए। और तो और यह राजनाथ सिंह की कुटिलता भरी कूटनीति ही थी कि कल्याण सिंह जैसे बड़े कद के नेता जो कभी अटल , आडवाणी के बाद भाजपा में तीसरे नंबर के नेता के नाते शुमार थे , उन कल्याण का कद नागफनी की तरह काट कर , न सिर्फ मुख्य मंत्री पद से उन को चलता किया बल्कि पार्टी से भी बाहर का रास्ता इस तरह दिखाया कि कल्याण सिंह को मुलायम सिंह यादव की शरण में जाना पड़ा था। और तो और कल्याण सिंह जब चौतरफा अपमानित हो कर भाजपा में लौटे भी तो बतौर गृह मंत्री राजनाथ सिंह ने कल्याण सिंह को राज्यपाल नियुक्त कर दिया ताकि उत्तर प्रदेश की राजनीति में वह फिर सिर न उठा पाएं। 

राजनाथ सिंह अपनी कुटिलता की कूटनीति अभी तक अगर किसी से हारे हैं तो वह अकेले नरेंद्र मोदी हैं। अगर 2014 में मोदी का करिश्मा सिर चढ़ कर नहीं बोलता तो राजनाथ सिंह की पूरी तैयारी प्रधान मंत्री बनने की ही थी। यह उन की कुटिलता भरी बढ़ती महत्वाकांक्षाएं ही थीं कि मोदी ने पहले तो उन्हें अध्यक्ष पद से हटा कर गृह मंत्री बना कर लाचार किया।अक्षम साबित किया। कड़ी निंदा के सिवाय उन के पास कोई काम ही नहीं छोड़ा। फिर 2019 में पर काट कर रक्षा मंत्री बना कर पिंजरे में डाल दिया। अपने बचाव के लिए इतना सब करना तो गुड था पर किसान आंदोलन को बेअसर करने के लिए राजनाथ सिंह की कुटिल कूटनीति को आज़मा लेने में कोई हर्ज तो नहीं दीखता। 

Tuesday, 8 December 2020

दिल्ली पर चढ़ाई के लिए अब उन को किसान याद आ गए हैं


पाकिस्तान के इमरान खान को शांति दूत और चीन को अपना बाप बताने वालों को अब किसान याद आ गए हैं। सेना को बलात्कारी बताने वाले , सुप्रीम कोर्ट को भाजपाई , चुनाव आयोग को मोदी आयोग बताने वालों को अब किसान याद आ गए हैं। असहिष्णुता की आंधी चलाने वाले , अभिव्यक्ति की आज़ादी मांगने वालों को , मॉब लिंचिंग , सेक्यूलरिज़्म की रक्षा , संविधान बचाओ की मुहीम चलाने वालों को अब किसान याद आ गए हैं। 

हर घर से अफजल निकलेगा , भारत तेरे टुकड़े होंगे , भारत माता चोर है , भारत माता की जय बोलना पाप है , वंदेमातरम अपराध है , गाय का मांस खाना अधिकार है बताने वालों को अब किसान याद आ गए हैं। कश्मीर को पाकिस्तान को सौंप देने की पैरवी करने वाले , तीन तलाक खत्म करने को मज़हब में दखल बताने , पत्थरबाजों को मासूम बताने वाले लोग , आतंकियों के लिए आधी रात सुप्रीम कोर्ट खुलवा देने वालों और 370 का विरोध खत्म करने का विरोध करने वालों की किस्मत फिर भी नहीं जगी और अब जब सारे टोने-टोटके आज़मा कर थक-हार गए हैं तो उन्हें किसान याद आ गए हैं। 

कोरोना काल में अपने वतन लौटने वाले मज़दूरों को बिस्किट बांट कर क्रांति की अलख जगाने वाले लोग अब मज़दूरों के बाद किसानों का बोझ बनने को आतुर हैं। एक पुराना मुहावरा है नाखून कटवा कर शहीद बनना। यह वही लोग हैं। यह लोग अब इतने हताश हैं अपने अंधेरों में इतने गुम हैं कि हर जुगनू को सूर्य समझने का भ्रम बना लेते हैं। आप को याद ही होगा कि किसानों को बदनाम करने के लिए यही लोग सड़क पर कभी दूध , कभी आलू फेंकते नज़र आए हैं। वह एक गाना है न कि हमरे बलमा बेईमान हमें पटियाने आए हैं। 

और फिर यह व्यापारी किसान आंदोलन करने आए हैं कि दिल्ली शहर की छाती पर मूंग दलने आए हैं। यह पहली बार सुन-देख रहा हूं कि आंदोलनकारी महीनों का राशन ले कर आए हैं। बादाम घोंट रहे हैं। गरमी में रहने के लिए अभी से ए सी का बंदोबस्त तक कर के आए हैं। मय सोलर लाइट के। बढ़िया बिस्तर , बढ़िया कंबल वगैरह के साथ। गुड है किसानों की यह समृद्धि भी। अच्छा लगता है। पर पूछना तो फिर भी बनता है कि यह लोग आंदोलन करने आए हैं या दिल्ली पर चढ़ाई करने।  

पूर्वी पाकिस्तान में जब 90 हज़ार पाकिस्तानी सेना ने भारतीय सेना के आगे समर्पण किया तो जनरल जगजीत सिंह अरोड़ा ने पाकिस्तानी सेना के हथियार और राशन का अकूत भंडार देखा तो पाकिस्तान के जनरल नियाजी से चकित हो कर पूछा कि आप के पास इतनी सेना थी , हथियार थे , रसद था फिर आप ने आत्म समर्पण क्यों किया ? जनरल अरोड़ा के साथ उस समय भारतीय एयर फ़ोर्स के भी एक अफसर थे। जनरल नियाजी ने बहुत लाचार हो कर भारतीय एयर फ़ोर्स की ड्रेस पर बने भारतीय एयर फ़ोर्स के सिंबल को दिखाते हुए कहा , इन के कारण। सच यही था भी। 

भारतीय एयर फ़ोर्स ने पाकिस्तानी सेना पर इतने बम बरसाए कि वह हार गए। थक कर जान बचाने के लिए उन्हें आत्म समर्पण का ही रास्ता सूझा। क्यों कि पाकिस्तान ने पूर्वी पाकिस्तान को लूटा तो बहुत था पर वहां के लिए कुछ किया ही नहीं था। एयर बेस तक नहीं था। जो भी जहाज पश्चिमी पाकिस्तान से वहां पहुंचता , भारत के आकाश से हो कर गुज़रना होता। और भारत उन्हें मार गिराता। सो पूर्वी पाकिस्तान में तब हवाई हमलों से बचने का कोई रास्ता न था। लाचार हो कर तब पाकिस्तान ने अमरीका से मदद मांगी। 

अमरीका ने समुद्र के रास्ते अपना सातवां बड़ा भेजा। जिस में फाइटर प्लेन थे। तब की प्रधान मंत्री ने फौरन सोवियत संघ में ब्रेजनेव से बात की। ब्रेजनेव ने भी बिना किसी देरी के सोवियत संघ का बेडा अमरीका के पीछे लगा दिया। अमरीका को लगा कि ऐसे तो तीसरा विश्व युद्ध हो जाएगा। अमरीका ने बुद्धि से काम लिया और बीच रास्ते से अपना सातवां बड़ा वापस लौटा लिया। सोवियत संघ ने भी। पूर्वी पाकिस्तान में जनरल नियाजी को समर्पण करना पड़ा और बांगला देश हमारे सामने उपस्थित हो गया। दुनिया का भूगोल बदल गया। 

तय मानिए कि यह किसान आंदोलन भी आंदोलन का स्वरूप बदल देगा। अभी बिसात बिछी नहीं है। बिछने दीजिए। विपक्ष को किसानों के कंधे पर उछल-कूद कर लेने दीजिए। मोदी सरकार के लिए किसानों से निपटना सचमुच एक चक्रव्यूह तोड़ना था। पर किसानों के आंदोलन में यकबयक समूचे विपक्ष का कूद पड़ना केंद्र सरकार के लिए संजीवनी बन कर उपस्थित हो गया है। विपक्ष खुद तो टूटेगा ही , डूबेगा ही। हम तो डूबेंगे , सनम तुम को भी ले डूबेंगे की तर्ज़ पर किसान आंदोलन का भी गर्भपात करवा देगा। सरकार की दो ताकत है। एक तो मज़बूत कृषि बिल। जिस की पैरोकारी और ज़मीन आज विपक्ष में बैठे लोगों ने ही तैयार की हुई है। कायदे से यह कांग्रेस का बिल है। शरद पवार , मुलायम , वामपंथियों द्वारा पालित, पोषित। भाजपा ने अपनी पैकेजिंग लगा कर क़ानून बना दिया है। बस। क्या है कि किसी बैल , किसी कुत्ते यहां तक कि किसी शेर को भी समझाना आसान नहीं होता। पर उस के मालिक को समझाना बहुत आसान होता है। और अपने विपक्ष के लिए बशीर बद्र का एक शेर याद आता है :

चाबुक देखते ही झुक कर सलाम करते हैं 

शेर हम भी हैं , सर्कस में काम करते हैं। 

शाहीन बाग़ बसाना आसान होता है। उस को उजड़ने से बचाना बहुत कठिन। यह बात तो आप भी बहुत अच्छी तरह जानते हैं। दिल्ली में रामलीला मैदान के समीज सलवार वाले रामदेव भी आप को भूले नहीं होंगे। याद यह भी होगा कि कैसे तब पांच-पांच कैबिनेट मिनिस्टर रामदेव को रिसीव करने तब एयरपोर्ट पहुंचे थे। फिर समीज सलवार में देहरादून एयरपोर्ट पर भी इन्हीं लोगों ने रामदेव को पहुंचाया। याद आप को अन्ना आंदोलन भी होगा , जिस आंदोलन का गर्भपात करवा कर अरविंद केजरीवाल मुख्य मंत्री बन गए। लोग अन्ना को लगभग भूल गए। तो ऐसे हाई-फाई आंदोलनों का हश्र आप के सामने है। रामदेव बहुत सफल हो सकते थे अपने आंदोलन में अगर वह व्यवसाई न होते। कांग्रेस ने रामदेव के व्यवसाई को चहेट लिया था। अन्ना आंदोलन भी बहुत सफल हो सकता था अगर अरविंद केजरीवाल जैसा महत्वाकांक्षी गद्दार उन के साथ नहीं होता। तो इस किसान आंदोलन के छेद और इस से निकलने और निपटने के रास्ते आप को क्या लगता है नरेंद्र मोदी ने अब तक नहीं खोज लिए होंगे। 

जो आदमी भारतीय चुनावी राजनीति में किसिम-किसिम के वोट बैंक के मिथ और गणित नष्ट कर सकता है। एक साथ समूचे विपक्ष को पागल बना कर नचा-नचा कर शक्तिहीन कर सकता है। कांग्रेस जैसी कुटिल पार्टी को कोने-कोने से विपन्न कर सकता है। चीन जैसे चालबाज को झूला झुला कर झोला बना सकता है। पाकिस्तान को दुनिया भर से काट कर मुहल्ले का कुत्ता बना सकता है। कश्मीर में जिस सफाई से 370 खत्म कर शांति का सूरज उगा सकता है। अच्छा आप ही बताइए इस बार कश्मीर में संपन्न हुए पंचायती चुनाव को ले कर आप की क्या राय है। कहीं से किसी उपद्रव या बहिष्कार की खबर किसी को मिली हो तो बताए भी। 

वामपंथी अवधारणा है कि सब कुछ सब में बराबर-बराबर बांट दो। गुड बात है। पर आप ज़मीन , संपत्ति , जल , जंगल , ज़मीन सब बांट दीजिए सब में बराबर-बराबर। बुद्धि , प्रतिभा जो कहिए , सब में बराबर-बराबर ही बांट देंगे ?अच्छा कूटनीति , कमीनापन आदि भी राजनीति में एक अनिवार्य तत्व होता है। यह भी सभी में बराबर-बराबर बांट सकते हैं। अपने वामपंथी , यहीं मार खा जाते हैं। हम होंगे कामयाब एक दिन ! वह गाते रह जाते हैं। पर कभी कामयाब नहीं होते। पर देखिएगा कि यह किसान आंदोलन भले न कामयाब हो पर किसान ज़रूर कामयाब होंगे और सरकार भी। देखिएगा कि सरकार ही किसानों को उन के विचलन और भटकाव से बाहर निकालेगी। किसानों को जो अभी आक्रमणकारी भाव में दिल्ली पर हमलावर हैं , विपक्ष के साथ लामबंद हैं , उन्हें अन्नदाता के भाव में वापस भेजेगी। 


Saturday, 5 December 2020

गोदी मीडिया के बहाने और निशाने

इधर कुछ समय से एक जुमला बहुत तेज़ चल रहा है वह है , गोदी मीडिया। ख़ास कर मोदी वार्ड के मरीजों का यह बहुत प्रिय जुमला है। यह मरीज गोदी मीडिया का ज़िक्र ऐसे चिढ कर करते हैं गोया उन का सब कुछ छिन गया हो। और कि ऐसे बताते हैं जैसे ऐसा पहली बार हो रहा है कि मीडिया सरकार के सुर में सुर मिला रही हो। मैं तो बहुत पहले से यह लिखता और मानता रहा हूं कि जब जिस की सत्ता , तब तिस का अखबार। और अब तो मीडिया काले धन की गोद में है। कारपोरेट सेक्टर के तहत है। यानी पूरी तरह दुकान है। 

बहरहाल इमरजेंसी की याद कीजिए। गोदी मीडिया कहने वाले यही लोग तब इंदिरा गांधी के चरणों में साष्टांग लेटे हुए थे। इमरजेंसी के बाद जब जनता पार्टी की सरकार आई तो यही मीडिया फिर जनता सरकार के आगे लेट गई। तब के दिनों में विपक्ष में बैठी इंदिरा गांधी को यही मीडिया बिलकुल नहीं पूछती थी। इंदिरा गांधी बहुत परेशान हो गईं। कभी ब्रिटिश पीरियड में नेहरू भी इसी तरह परेशान थे कि मीडिया उन को भी घास नहीं डालती थी। उपेक्षा करती थी। बेबस हो कर नेहरू ने नेशनल हेरल्ड नाम से अंगरेजी अखबार खुद निकाला। कोआपरेटिव के तहत। बाद में हिंदी अखबार नवजीवन और उर्दू में कौमी आवाज़ भी निकाला। तीनों अखबार शानदार निकले। 

बहुत दिनों तक इन अखबारों का जलवा कायम रहा। पर बाद में कांग्रेस और कांग्रेस की निरंतर मिजाजपुर्सी करते-करते इन अखबारों की चमक और धमक फीकी पड़ गई। आहिस्ता-आहिस्ता इन अखबारों की हालत खस्ता हो गई। धीरे-धीरे बंद ही हो गए। या फाइलों में ही छपने लगे। जनता के बीच से गायब। तो जनता सरकार के समय में मीडिया में अपनी छुट्टी होते देख इंदिरा गांधी ने नेशनल हेरल्ड , नवजीवन , कौमी आवाज़ को नया जीवन देने की तैयारी शुरू की। पर जनता सरकार , मोदी सरकार की तरह भाग्यशाली नहीं थी। कुछ कांग्रेस की नज़र लग गई तो कुछ जनता पार्टी के लोगों की आपसी कलह के कारण जनता पार्टी की मोरार जी देसाई सरकार गिर गई। 

फिर जनता पार्टी से टूट कर चरण सिंह की सरकार बनी , कांग्रेस के समर्थन से। प्रधान मंत्री चरण सिंह को बतौर प्रधान मंत्री लालकिले से भाषण देने का अवसर तो मिला पर संसद का मुंह देखने का अवसर नहीं मिला। संसद में विश्वास मत पाने का अवसर नहीं मिला। कांग्रेस ने समर्थन वापस ले लिया और चरण सिंह सरकार गिर गई। फिर चुनाव हुए और कुल ढाई साल में ही इंदिरा गांधी फिर सत्ताशीन हो गईं। 

एक प्रेस कांफ्रेंस में इंदिरा गांधी से नेशनल हेरल्ड के शुरू करने के बारे में जब पूछा गया तो पहले तो वह टाल गईं इस सवाल को। पर जब कई बार यह सवाल पूछा गया तो अंतत: इंदिरा गांधी ने जवाब दिया। इंदिरा गांधी ने बहुत साफ़ कहा कि अब जब सारे अखबार मेरी बात सुन रहे हैं और छाप रहे हैं तो नेशनल हेरल्ड को फिर से शुरू करने की ज़रूरत ही क्या है। यह वही दिन थे जब कांग्रेस के तत्कालीन कार्यकारी अध्यक्ष देवकांत बरुआ इंदिरा इज इंडिया का नारा दे रहे थे और तब की मीडिया भी खूब खुल कर इंदिरा इज इंडिया के नारे में सुर में सुर मिला रही थी। 

आज की तरह तब सोशल मीडिया , वायर , कारवां , क्विंट जैसे जहरीले और एकपक्षीय वेबसाइट या एन डी टी वी जैसे तमाम एकपक्षीय चैनल वगैरह भी नहीं थे। सो तब के दिनों में गलत , सही सरकार जो भी कहे , वही सही था। बतर्ज न खाता , न बही , केसरी जो कहे , वही सही। यह वही दिन थे जब खुशवंत सिंह हिंदुस्तान टाइम्स के संपादक और राज्य सभा में सदस्य भी थे। यह दोनों सौभाग्य संजय गांधी की कृपा से उन्हें मिले थे। खुशवंत सिंह ने अपनी आत्मकथा में बहुत साफ़ लिखा है कि हां , मैं संजय गांधी का पिट्ठू था। 

तो अगर आज की तारीख में मीडिया का एक ख़ास पॉकेट मोदी का पिट्ठू बन गया है तो इस में अचरज क्या है भला। ब्रिटिश पीरियड से यह परंपरा जैसे भारतीय मीडिया का चलन बन गया है। मीडिया का एक ख़ास पॉकेट तो आज की तारीख में सोनिया और राहुल का भी पिट्ठू है। वामपंथियों का भी पिट्ठू है। जो इंदिरा गांधी के समय में मुमकिन नहीं था। हां , लेकिन पिट्ठू होते हुए भी तब की मीडिया इतनी एकपक्षीय और जहरीली नहीं थी। कुछ लाज-शर्म भी शेष थी तब की मीडिया में , जो अब लगभग मृतप्राय है। अभी आप आ जाइए न सत्ता में , मीडिया आप की। रही बात तानाशाही की तो इंदिरा गांधी ने 39 राज्य सरकारें बर्खास्त की थीं। नरेंद्र मोदी ने अभी तक एक भी राज्य सरकार बर्खास्त नहीं की है। 

तो गोदी मीडिया का तराना गाने वाले पतिव्रता टाइप टिप्पणीबाजों के लिए अंजुम रहबर के दो शेर खर्च करने का मन हो रहा है:

इल्जाम आइने पर लगाना फिजूल है

सच मान लीजिए चेहरे पर धूल है।

हां, फिर भी लोग हैं कि चारण गान में लगे ही रहते हैं तो यह उनका कुसूर नहीं है। अंजुम रहबर का ही दूसरा शेर सुनिए:

जिनके आंगन में अमीरी का शजर लगता है,

उनका हर ऐब भी जमाने को हुनर लगता है।


रही बात पत्रकारिता की तो आज की पत्रकारिता में कुछ नहीं धरा है। जो भी कुछ है, अब वह सिर्फ़ और सिर्फ़ भडुओं के लिए है। अब उन्हीं के लिए रह गई है पत्रकारिता। अब तो कोई गिरहकट भी अखबार या चैनल चला दे रहा है और एक से एक मेधावी, एक से एक जीनियस वहां पानी भर रहे हैं। एक मास्टर भी बेहतर है आज के किसी पत्रकार से। नौकरी के लिहाज़ से। कब किस की नौकरी चली जाए, कोई नहीं जानता। हर कोई अपनी-अपनी बचाने में लगा है। इसी यातना में जी रहा है। सुविधाओं और ज़रूरतों ने आदमी को कायर और नपुंसक बना दिया है। पत्रकारिता के ग्लैमर का अजगर बडे़-बडे़ प्रतिभावानों को डंस चुका है। किस्से एक नहीं, अनेक हैं।

पत्रकारिता के प्रोडक्ट में तब्दील होते जाने की यह यातना है। यह सब जो जल्दी नहीं रोका गया तो जानिए कि पानी नहीं मिलेगा। इस पतन को पाताल का पता भी नहीं मिलेगा। वास्तव में भड़ुआगिरी वाली पत्रकारिता की नींव इमरजेंसी में ही पड़ गई थी। बहुत कम कुलदीप नैय्यर तब खड़े हो पाए थे। पर सोचिए कि अगर रामनाथ गोयनका न चाहते तो कुलदीप नैय्यर क्या कर लेते? स्पष्ट है कि अगर अखबार या चैनल मालिक न चाहे तो सारी अभिव्यक्ति और उसके खतरे किसी पटवारी के खसरे खतौनी में बिला जाते हैं। जब जनता पार्टी की सरकार आई तो तबके सूचना प्रसारण मंत्री आडवाणी ने बयान दिया था कि इंदिरा गांधी ने इमरजेंसी में पत्रकारों से बैठने को कहा, पर वह तो लेट गए! पर दिक्कत यह थी कि जनता पार्टी सरकार भी पत्रकारों को लिटाने से बाज़ नहीं आई।

टाइम्स आफ़ इंडिया की एक कहानी की पत्रिका थी 'सारिका'। कमलेश्वरजी उसके संपादक थे। सारिका कहानी की पत्रिका थी, राजनीति से उसका कोई सरोकार नहीं था। पर कहानियों का चूंकि समाज से सरोकार होता है और समाज बिना राजनीति के चलता नहीं सो, कमलेश्वर की 'सारिका' के भी सरोकार में तब राजनीति समा गई। इस राजनीति की कोख में भी कारण एक कहानी बनी। कहानी थी आलमशाह खान की 'किराए की कोख'। डा. सुब्रहमन्यम स्वामी ने इसका विरोध किया कि यह 'किराए की कोख' देने वाली औरत हिदू ही क्यों है? इसके पहले भी डा. स्वामी और कमलेश्वर की भिड़ंत हो चुकी थी एक बार। उपन्यास 'काली आंधी' को लेकर। स्वामी ने कमलेश्वर को बधाई दी थी कि 'काली आंधी' में उन्होंने इंदिरा गांधी का बहुत अच्छा चरित्र चित्रण किया है। कमलेश्वर ने उन्हें सूचित किया कि उनके उपन्यास में वह जिसे इंदिरा गांधी समझ रहे हैं, दरअसल वह विजयाराजे सिंधिया हैं। स्वामी भड़क गए थे। फिर बात 'किराए की कोख' पर उलझी। बात बढ़ती गई। जनता पार्टी की सरकार आ गई। टकराव बढ़ता गया। मैनेजमेंट का दबाव भी। कमलेश्वर ने 'सारिका' के एक संपादकीय में साफ़ लिखा कि यह देश किसी एक मोरार जी देसाई, किसी एक चरण सिंह, किसी एक जगजीवन राम भर का नहीं है। सारिका छप गई। पर यह अंक बाज़ार में नहीं आया। सारिका बंबई से दिल्ली आ गई। बाद में कमलेश्वर की सारिका से भी विदाई हो गई। यह एक लंबी कथा है। पर कमलेश्वर तब नहीं झुके। कमलेश्वर को यह संपादकीय पढाने के लिए एक नई पत्रिका निकालनी पड़ी। 

इंदिरा गांधी की हत्या की याद होगी ही आप को। इंदिरा गांधी की हत्या के बाद हुए चुनाव में पूरे देश में इंदिरा लहर ही नहीं, आंधी चली। पर तबके प्रधानमंत्री राजीव गांधी और उनके मैनेजरों यथा अरूण नेहरू जैसों को फिर भी यकीन नहीं था अमेठी की जनता पर। बूथ कैपचरिंग पर यकीन था। करवाया भी। यह चुनाव कवर करने लखनऊ से भी कुछ पत्रकार गए थे। आज से अजय कुमार, जागरण से वीरेंद्र सक्सेना। बूथ कैपचरिंग की रिपोर्ट करने के चक्कर में सभी पिटे। फ़ोटोग्राफ़र के कैमरे से रील निकाल ली गई। वगैरह-वगैरह। जो-जो होता है ऐसे मौकों पर वह सब हुआ। हालांकि फ़ोटोग्राफ़र ने पहले ही तड़ लिया था कि रील निकाली जा सकती है। कैमरा छीना जा सकता है। सो वह फ़ोटो खींचते जाते थे और रील झाड़ियों में फेंकते जाते थे। और अंतत: हुआ वही। पिटाई-सिटाई के बाद उन्होंने रील बटोर लिया। आए सभी लखनऊ। पिटने का एहसास बड़ी खबर पा लेने के गुमान में धुल गया था। पर जब अपने-अपने आफ़िस पहुंचे ये पत्रकार सीना फ़ुलाए तो वहां भी उनकी धुलाई हो गई। डांटा गया कि आप लोग वहां खबर कवर करने गए थे कि झगड़ा करने? असल में तब तक सभी अखबारों के दफ़्तर में अरूण नेहरू का धमकी भरा फ़ोन आ चुका था। सभी लोगों को कहा गया कि बूथ कैपचरिंग भूल जाइए, प्लेन-सी खबर लिखिए। 'आज' अखबार के अजय कुमार तब लगभग रोते हुए बताते थे कि अमेठी में पिटने का बिल्कुल मलाल नहीं था। दिल में तसल्ली थी कि पिटे तो क्या, खबर तो है! पर जब दफ़्तर में भी आ कर डांट खानी पड़ी तो हम टूट गए।

बाद में जनसत्ता के तबके संवाददाता जयप्रकाश शाही को उस फ़ोटोग्राफ़र ने बताया कि उसके पास फ़ोटो है। शाही ने फ़ोटो ली और खबर लिखी। छपी भी तब जनसत्ता में। पर बाद में वह फ़ोटोग्राफ़र, साफ़ कहूं तो बिक गए। और बता दिया कि वह फ़ोटो फ़र्ज़ी है और ऐसी कोई फ़ोटो उन्होंने नहीं खींची। खैर।

राफेल पर राहुल गांधी के चैकीदार चोर है के सुर में सुर मिलाते हुए हिंदू , वायर , कारवां , क्विंट जैसे तमाम मीडिया की छापेमारी और उस का नतीजा तो आप अभी नहीं ही भूले होंगे। अगर गोदी मीडिया ही है , तो यह मामला इतना उछला कैसे भला ? बहरहाल जनता ने राफेल पर अपने निर्णय से मोदी वार्ड के इन मरीजों की बोलती बंद कर दी। अच्छा बोफ़ोर्स की याद है आप सब को? तब जिस तरह कुछ अखबार मालिकों ने लगभग पार्टी बंदी कर अखबारों का इस्तेमाल किया, यह भी याद है ना? फिर तो अखबारों को हथियार बना लिया गया। जब जिस की सत्ता तब तिस के अखबार।

2 जून , 1995 को लखनऊ में मुलायम सिंह ने सुबह-सुबह जिस तरह अपने गुंडों को मायावती पर हमले के लिए भेजा था, मुख्यमंत्री रहते हुए भी, वह तो अश्लील था ही, अपने पत्रकारों ने उस से भी ज़्यादा अश्लीलता बरती। पी.टी.आई ने इतनी बड़ी घटना को सिर्फ़ दो टेक में निपटा दिया तो टाइम्स आफ़ इंडिया ने शार्ट डी.सी. अंडरप्ले करके दिया। बाद में इसके कारणों की पड़ताल की गई तो पाया गया कि ऐसा इस लिए हुआ क्यों कि पी.टी.आई के व्यूरो चीफ़ खान और टाइम्स के तत्कालीन रेज़ीडेंट एडीटर ने मुलायम शासनकाल में विवेकाधीन कोष से लाखों रुपए खाए हुए थे। तमाम और पत्रकारों ने भी लाखों रुपए खाए थे। और वो जो कहते हैं कि राजा का बाजा बजा! तो भैय्या लोगों ने राजा का बाजा बजाया। आज भी बजा रहे हैं। 

सो राजा लोगों का दिमाग खराब हो जाता है। अब जैसे अखबार या चैनल प्रोड्क्ट में तब्दील हैं, वैसे ही अपने नेता भी राजा में तब्दील हैं। सामंती आचरण में लथ-पथ हैं। वो चाहे ममता बनर्जी ही क्यों न हों? ममता बनर्जी को कोई यह बताने वाला नहीं है कि सिर्फ़ हवाई चप्पल और सूती साड़ी पहनने या कुछ कविताएं या लेख लिखने, कुछ इंटेलेक्चुअल्स के साथ बैठ लेने भर से या गरीबों की बात या मुद्दे भर उठा लेने से कोई प्रजातांत्रिक नहीं हो जाता, जब तक वह व्यवहार में भी न दिखे। नहीं तो वज़ह क्या है कि दबे कुचलों की बात करने वाले तमाम नेता आज सरेआम तानाशाही और सामंती रौबदाब में आकंठ डूबते-उतराते दिखते हैं। वह चाहे ममता बनर्जी हों, मायावती हों, लालू या मुलायम हों। शालीनता या शिष्टता से जैसे इन सब का कोई सरोकार ही नहीं दीखता !

तो शायद इस लिए कि भडुआगिरी में न्यस्त हमारी पत्रकारिता राजा का बाजा बजाने में न्यस्त भी है और ध्वस्त भी। हमारी एक समस्या यह भी है कि हम पैकेजिंग में सजी दुकानों में पत्रकारिता नाम के आदर्श का खिलौना ढूंढ रहे हैं। जब कि हम जानते हैं कि यह नहीं होना है अब किसी भी सूरत में। पर हमारी ज़िद है कि- मैया मैं तो चंद्र खिलौना लैहों। किसी बंधु को मिले यह चंद्र खिलौना तो भैय्या हमें भी बताना। दूध भात लेकर आ जाऊंगा।

अभी और अभी तो बस राजा का बाजा बजा ! फर्क बस यही है कि किसी का राजा मोदी है , किसी का राहुल गांधी , किसी का लालू , मुलायम। अब प्रजातंत्र है , अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता है , सोशल मीडिया है तो आप भी अपने मन के राजा हैं। जिस का मन करे उस का बाजा बजाइए। जिस का मन करे उस की बैंड बजाइए। धन्य-धन्य लोग और धन्य-धन्य गोदी मीडिया का जुमला !

Thursday, 3 December 2020

जैसे ऐतराज के सारे जाल बट्टे ही उन की खेती हैं , किसान आंदोलन भी



जैसे ऐतराज के सारे जाल बट्टे ही उन की खेती हैं। और सारे आंदोलन भी। किसान आंदोलन भी। बताइए कि नोटबंदी पर उन को ऐतराज। जी एस टी पर भी। तीन तलाक पर भी। 370 पर भी। राम मंदिर पर भी। सी ए ए पर भी। शाहीनबाग का जंगल भी जल गया। अब कृषि बिल पर भी ऐतराज की दीवार खड़ी हो गई दिखती है। लेकिन ऐतराज की हर दीवार बिना छत के ही ध्वस्त हो गई। होती गई है। जैसे एक ही ट्रैक्टर पंजाब से दिल्ली तक बार-बार जलाना ही ज़ज़्बा है उन का। कोरोना काल में ठप्प अर्थव्यवस्था में जैसे उन्हें जी डी पी का तराना उन्हें नहीं भूलता। सेना बलात्कारी है उन की राय में। चुनाव आयोग मोदी आयोग है उन की राय में। सुप्रीम कोर्ट भाजपाई है उन की राय में। हर पॉजिटिव बात उन्हें बुरी लगती है। आखिर क्यों ? आखिर क्यों चीन भले मात खाता हो भारतीय सेना के हाथ पर भारत को नीचा दिखाना उन्हें बहुत भाता है। उरी की सर्जिकल स्ट्राइक , बालाकोट की एयर स्ट्राइक पर भी उन के सवाल सुलगते हैं। सुलगते हैं सरकार की तौहीन खातिर। अभिनंदन की वापसी में उन्हें इमरान खान का शांति दूत दीखता रहा। वैसे भी पाकिस्तान , कांग्रेस और कम्युनिस्टों की भाषा और अंदाज़ेबयां एक ही हैं। अजब है यह बीमारी भी। हर घर से अफजल निकालने की सनक भरी ज़िद में भारत तेरे टुकड़े होंगे इंशा अल्ला , इंशा अल्ला की दुहाई का विस्तार बहुत है। इस के एक्सटेंशन और डाइमेंशन भी बहुत हैं। ठीक वैसे ही जैसे 130 करोड़ के देश में 80 करोड़ लोग बीते मार्च से मुफ्त राशन उठा रहे हैं। तो कहां से ? सोचिए कि अगर 80 करोड़ लोगों को मुफ्त राशन नहीं मिलता , जन-धन खाते में पैसा नहीं मिलता तो ? अब तक तो यह ऐतराज के जाल-बट्टे वाले लोग देश को कच्चा भून कर खा गए होते। जगह-जगह आगजनी , लूट और हिंसा का मंज़र परोसते इन्हें देर लगती क्या। देश क्या गृह युद्ध की आग में नहीं जल रहा होता। अच्छा 80 करोड़ जो लोग मुफ्त राशन पा रहे हैं , उन में क्या किसान शुमार नहीं हैं ? 

बीते साल दिल्ली की एक सड़क घेरने की फतह थी , अब की साल दिल्ली को घेर लेने का नक्शा है। मतलब प्लान है। बीते बरस दंगे भी हुए दिल्ली में। तो क्या इस साल भी क्या कुछ ऐसा-वैसा होगा। मेरा मानना है कि ऐसा कुछ सरकार अब होने नहीं देगी। हिंदू , मुसलमान करना कांग्रेस और कम्युनिस्टों के लिए बहुत आसान है। पर किसान पर सरकार एक तो नरम है। दूसरे , पंजाब के किसान सिर्फ किसान नहीं व्यापारी भी हैं। व्यापारी आंदोलन शुरू करते ही खत्म करने के प्लान पर आ जाता है। एक पुराना लतीफा है। भारत बंद के दौरान एक आदमी कच्छा पहन कर सड़क पर निकला। तो लोगों ने पूछा कि यह क्या है। तो कच्छा पहने व्यक्ति बोला , अपना समर्थन मिला-जुला है। बंद समझो तो बंद , खुला समझो तो खुला है। तो इस किसान आंदोलन की भी यही गति है। यह गति हुई है अकाली दल द्वारा इस कृषि बिल को नाक का सवाल बना लेने पर। 

तब जब कि इस कृषि बिल के लिए हुई कैबिनेट मीटिंग में अकाली दल की सिमरत कौर ने बतौर मंत्री अपनी सहमति दी थी। अपनी मुहर मारी थी। पर जब पंजाब की राजनीति में कांग्रेस और मुख्य मंत्री कैप्टन अमरिंदर सिंह ने कृषि बिल के खिलाफ बढ़त ले ली तो अफना कर अकाली दल की मंत्री ने सरकार से इस्तीफ़ा दे दिया और एन डी ए से अलग हो कर किसान आंदोलन में अकाली दल कूद पड़ा। अब प्रकाश सिंह बादल जिन के चरण छू कर नरेंद्र मोदी ने 2019 के लोकसभा चुनाव में बनारस में नामांकन दर्ज किया था , उन्हीं प्रकाश सिंह बादल ने पद्म विभूषण को लौटाने का ऐलान कर अवार्ड वापसी का बिस्मिल्ला कर दिया है। पंजाब से जुड़े कुछ खिलाड़ी , कलाकार भी ऐसी मंशा जता चुके हैं। देखना दिलचस्प होगा कि लेखकों , पत्रकारों , फिल्म कलाकारों की अवार्ड वापसी का ऐलान कब शुरू होता है। बहरहाल ऐसे ड्रामों से इतर मेरा अनुमान है कि पंजाब के किसानों ने अपनी ताकत दिखा दी है। दो कदम आगे , चार कदम पीछे की रणनीति पर सरकार और किसान दोनों ही आ चुके हैं। वैसे भी मौजूदा कृषि बिल में किसानों के लिए ऐतराज लायक कुछ नहीं है। बस उन का ईगो मसाज अगर सरकार ठीक से कर ले गई तो दस-पंद्रह दिन में आंदोलन पर पानी पड़ जाएगा। संकेत यह भी है कि किसानों के आंदोलन पर पानी डालने के सरकार कृषि बिल में कुछ संशोधन भी स्वीकार कर ले। लेकिन तीनों कृषि बिल रद्द हो जाएंगे , यह सोचना भी निरा बचपना है। 

वैसे भी किसान और सरकार दोनों ही के लिए यह सोचने का सही समय है कि किसान आखिर कब तक अन्नदाता होते हुए भी भिखारी बना घूमता रहेगा। मेरा स्पष्ट मानना है कि किसानी जब तक शुद्ध रूप से व्यापार नहीं बनती तब तक किसान भिखारी बना घूमता रहेगा और उस का कोई कुछ नहीं कर सकता। सोचिए कि एक किसान का ही प्रोडक्ट है जिस पर मिनिमम सेल प्राइस तय किया जाता है। मतलब न्यूनतम समर्थन मूल्य। बाकी सारे प्रोडक्ट जूता , कपड़ा , कार , दवाई आदि-इत्यादि पर एम आर पी यानी मैक्सिमम रिटेल प्राइस होता है। यानी अधिकतम मूल्य। यहां तक कि किसान के अनाज , फल , सब्जी से बने प्रोडक्ट का भी मैक्सिमम रिटेल प्राइस तय होता है। और लोग बिना किसी हिच के आंख मूंद कर खरीद लेते हैं। तो क्यों ? क्यों कि बाकी व्यापार भिखारी बन कर नहीं व्यवसाय नहीं करते। एक खेती ही है जो व्यापार में अपने को तब्दील नहीं कर पाई। तब जब कि खेती में सब से ज़्यादा मेहनत और पूंजी लगती है। लेकिन हमारा किसान अपने को व्यापारी नहीं भिखारी समझता है। और सरकार कोई भी हो किसान को भिखारी बनाने में ही व्यस्त रहती है। किसान जब अपनी उपज की लागत जोड़ता है तब खाद , बीज , पानी , मज़दूरी , डीजल आदि की ही लागत जोड़ता है। अपनी लाखो , करोड़ो की ज़मीन को भी इस लागत में जोड़ते मैं ने किसी किसान को अभी तक नहीं देखा। तब जब कि सभी व्यापारी अपनी दुकान , गोदाम , लेबर , शोरूम आदि सारे खर्च लागत में जोड़ते हैं और मुनाफा लेते हैं। 

सवाल यह भी कि अपनी उपज को संभाल कर रखने के लिए गोदाम , कोल्ड स्टोरेज आदि की व्यवस्था किसान खुद क्यों नहीं करते। सरकार और बिचौलियों के भरोसे क्यों रहते हैं। अरे हमारा प्रोडक्ट है , हम अपनी शर्त पर , अपने दाम पर बेचेंगे। जब चाहे तब बेचेंगे। किसान अपने को इस लायक क्यों नहीं बना लेते। पर नहीं भैंस तो आप 51 लाख में बेच सकते हैं। मंहगी कार , मंहगा मोबाइल भी आप खरीद सकते हैं। पर अपने लिए गोदाम , कोल्ड स्टोरेज आप को सरकार से भीख में चाहिए। क्यों भाई ? व्यापार भीख मांग कर भी होता है क्या ? भीख मांग कर , आंदोलन कर , पोलिटिकल टूल बन कर न व्यापार होता है , न आंदोलन , न खेती। यह बात हमारे देश का किसान जितनी जल्दी समझ लेगा उतना बेहतर। रही बात इंफ्रास्ट्रक्चर और पूंजी की तो इस के लिए या तो खुद सक्षम बनिए या फिर कारपोरेट सेक्टर की मदद लीजिए। अपने पैर पर खड़े होइए। इस लिए भी कि दान और भीख के दम पर दुनिया में अभी तक कोई अमीर नहीं हुआ। और कि कोई भी अमीर किसी शहर को बंधक बना कर व्यापार नहीं करता। 

अव्वल तो अमीर आंदोलन नहीं , व्यापार करता है। शुद्ध व्यापार। राजनीतिक पार्टियों से इस्तेमाल नहीं होता , राजनीतिक पार्टियों को इस्तेमाल करता है। और कि मेरा स्पष्ट मानना है कि भारत में किसानों से ज़्यादा अमीर कोई नहीं है। अंबानी , अडानी , टाटा और बिरला भी नहीं। किसानों के पास अन्नपूर्णा और रत्नगर्भा धरती है। जो किसी और के पास नहीं। बस किसान अपनी पर आ जाए। तो देखिए क्या-क्या होता जाता है। अन्नदाता , सचमुच का अन्नदाता दिखेगा। आज की तरह भिखारी नहीं। इन आंदोलनकारी किसानों को अब से सही , ठीक से जान लेना चाहिए कि किसानी के लिए , व्यापार के लिए उन्हें पूंजी और इंफ्रास्ट्रक्चर ही चाहिए। राजनीतिक पार्टियां और आंदोलन नहीं। बस यह बात समझने में देर ज़रूर लगेगी कि वह भिखारी नहीं अन्नदाता हैं। सरकार को वह अपने घर बुला सकते हैं। किसी सरकार के दर पर उन्हें मत्था टेकने की ज़रूरत नहीं। इकबाल लिख ही गए हैं 

ख़ुदी को कर बुलंद इतना कि हर तक़दीर से पहले

ख़ुदा बंदे से ख़ुद पूछे बता तेरी रज़ा क्या है। 

कृषि बिल के खिलाफ एक बड़ा हौव्वा खड़ा किया गया है कि कारपोरेट सेक्टर , पूंजीपति किसानी को खा जाएंगे। क्या मूर्खता भरी बात है। कारपोरेट कपड़ा खा गए कि दवाई। कि कार खा गए कि ट्रैक्टर। कि आप के खेत खा जाएंगे। जो लोग आंख बंद कर बैठे हुए हैं और कारपोरेट , कारपोरेट का भूत दिखा रहे हैं , उन पर तरस आता है। आंख खोल कर देखिए कि कारपोरेट सेक्टर खेत में बरसों पहले घुस चुका है। मनमोहन सिंह यानी कांग्रेस राज में यह हुआ। टाटा से लगायत रिलायंस तक क्या दाल नहीं बेच रहे कि अन्य खाद्यान्न नहीं बेच रहे। तो क्या यह लोग अमरीका , जापान से ला कर बेच रहे। कि इन्हें खाद्यान्न बेचने का लाइसेंस मोदी सरकार ने दिया। अरे कांट्रैक्ट फार्मिंग और बाज़ार मनमोहन राज से चालू है। तुलसी तक की खेती बड़े पैमाने पर कारपोरेट के तहत ही हो रही है। हम लखनऊ में साढ़े तीन दशक से अधिक समय से रह रहे हैं। देख रहे हैं कि मलिहाबाद और बाकी जगहों का दशहरी आम के बाग़ का आम बौर लगते ही हर साल बड़े-बड़े व्यापारी बाग़ मालिकान से बाग़ खरीद लेते हैं। बाग़ मतलब बाग़ का आम। सिर्फ आम। पेड़ और ज़मीन नहीं। 

बढ़िया कमाई बाग़ मालिकान घर बैठे करते हैं। बाग़ खरीद लेने के बाद व्यापारी जाने कि कितना आम हुआ , कितनी आंधी आई और कितना आम बरबाद हुआ , कौन सी बीमारी लगी , आम की रखवाली , तोडना , बेचना सब व्यापारी का सिरदर्द है। अब व्यापारी वह आम लखनऊ में ही बेच दे रहा है कि अमरीका , दुबई में बेच रहा है , आम किसान से कुछ लेना-देना नहीं। आम किसान भी मालामाल है और व्यापारी भी। कुछ आम किसान जो व्यापार जानते हैं , वह अपना बाग़ नहीं बेचते। खुद आम बेचते हैं। लेकिन ऐसे आम किसान बहुत कम हैं। तमाम कारपोरेट कंपनियां अपनी ज़रूरत , अपने निर्देश पर किसानों को आलू , टमाटर , मटर जैसी चीज़ें बहुत पहले से बोने और खरीदने का काम कर रही हैं। यह टोमैटो सॉस , चिप्स के लिए क्या आलू , टमाटर अमरीका , जापान से आता है? जी नहीं। तमाम किसान सब्जी , फूल , मशरूम आदि उगाते हैं। तो क्या इस के लिए एम एस पी घोषित होता है कभी ? कभी नहीं। और यह किसान धान , गेहूं उगाने वाले किसानों से ज़्यादा कमाते हैं और ठाट से रहते हैं। केले तक की खेती लोग ज़मीन लीज पर ले कर , कर रहे हैं। 

कृषि बिल का विरोध निकम्मे , निठल्ले लोग कर रहे हैं। जिन्हें सरकारी बैसाखी पर चलने की बुरी आदत लग गई है। तय मानिए कि कृषि अगर व्यवसाय है तो बिना कारपोरेट खेती के कृषि व्यवसाय नहीं बन सकती। किसी सूरत व्यवसाय नहीं बन सकती। आप हवाई जहाज , मेट्रो और महंगी कार पर चल रहे हैं पर किसान से अपेक्षा कर रहे हैं कि वह बैल गाड़ी और ट्रैक्टर से ही चले। तो यह होशियारी बंद कीजिए। बड़ी मुश्किल से किसानों की कर्जा ले कर आत्महत्या करने के अभिशाप से , ऐसी नित्य प्रति की खबरों से मुक्ति मिली है , जो मनमोहन सरकार में आम बात हो चली थी। किसान  को कर्ज और आत्महत्या के चक्रव्यूह में फिर से मत घेरिए। किसान को भी सम्मान का जीवन जीने का अवसर दीजिए। अभी तो आलम यह है कि भले आप के पास दस-पांच एकड़ की खेती हो पर अगर घर में कोई और व्यवसाय नहीं है , कोई नौकरी करने वाला नहीं है तो उस किसान का परिवार सिर्फ खेती के बूते भूखे मर जाएगा। बाकी खर्च तो बहुत दूर की कौड़ी है। देश का ज़्यादतर किसान गरीबी रेखा से नीचे है। आखिर कब तक गरीबी रेखा से नीचे का पट्टा गले में बांध कर घूमता रहेगा किसान। अभी कुछ समय पहले एक हर्षद मेहता पर एक वेब सीरीज देखी थी। उस में हर्षद मेहता का घर देख कर उस स्कैम की जांच कर रहे एक सी बी आई अफसर की आंखें चौंधिया जाती हैं। वह हर्षद पूछता है कि कितने स्क्वायर फ़ीट में है तुम्हारा यह घर ? हर्षद बताता है , पंद्रह हज़ार स्क्वायर फ़ीट। सी बी आई अफसर चबाते हुए , आंख फैला कर दुहराता है पंद्रह हज़ार स्क्वायर फ़ीट ! 

अब समय बदल गया है। एक से एक हर्षद मेहता के ग्रैंड फादर उपस्थित हैं जो चार सौ , पांच सौ एकड़ के घर में रहते हैं। लोगों की आंख में धूल झोंकते हुए सारा क़ानून जेब में रख कर महामहिम बने हुए हैं यह लोग। और तो और चारा चोर लालू यादव बतौर कैदी 25 एकड़ के बंगले में रह लेता है। और आप कृषि बिल के खिलाफ किसान आंदोलन की चिंगारी जला कर चाहते हैं कि किसान सरकारी बैसाखी पर चलता रहे। कभी समृद्धि का स्वाद नहीं चखे। यह कैसे हो सकता है। बंद कीजिए अपने इस किसान आंदोलन का छल-कपट। कहते हैं कि पूंजी , पूंजी को खींचती है। तो बिना पूंजी के खेती को व्यवसाय नहीं बनाया जा सकता। और यह पूंजी कारपोरेट ही खेती को दे सकता है सरकार नहीं। सरकारी भरोसे पर तो किसानों की स्थिति बी एस एन एल से भी गई बीती है। जब सारे कारोबार कारपोरेट के हवाले हैं तो खेती भी क्यों न हो। खेत और किसान खुशहाल होंगे तो देश , समाज और लोग भी खुशहाल होंगे। सोचिए कि सरकार सिनेमा बनाए तो कैसा बनाएगी ? चला तो रही है दूरदर्शन पर चाहे समाचार हो या धारवाहिक या कोई शो कारपोरेट के चैनलों से पिट कर। कपड़ा , दवाई , शिक्षा , चिकित्सा कुछ भी तो सरकार भरोसे नहीं है अब। सुनने में अच्छा लगता है कि पूंजी का समान बंटवारा। तो क्या बुद्धि का , योग्यता , प्रतिभा , क्षमता और ताकत का भी समान बंटवारा हो सकता है ? हो सकता हो तो बताइएगा ज़रूर। हैदराबाद से आ रहे चुनाव परिणाम की बिसात पर भी सोचिएगा ज़रूर। और बताइएगा कि यह सिर्फ भाग्य नगर का निहितार्थ है या कुछ और भी।