Sunday, 29 December 2019

तो क्या मिनी पाकिस्तान और डायरेक्ट एक्शन प्लान को चकनाचूर करने का समय अब आ गया है ?

आप को भारत में मिनी पाकिस्तान की बात पर ऐतराज है। अच्छी बात है। किसी भी देशभक्त को होना चाहिए। लेकिन इस अवधारणा को खत्म कैसे किया जाए ? क्या कश्मीर की तरह ? कश्मीर तो कंप्लीट पाकिस्तान में तब्दील हो चुका था। मेरी जान , मेरी जान , पाकिस्तान , पाकिस्तान ! का नारा ही नहीं , पाकिस्तान का झंडा भी दिखाया जाता था। पर अब क्या हुआ ? क्या जैसे बलात्कारियों को दुरुस्त करने के लिए हैदराबादी जस्टिस अख्तियार किया गया है , पाकिस्तानपरस्तों को भी हैदराबादी जस्टिस की दरकार है ? पाकिस्तान ज़िंदाबाद से यह लोग तभी बाज आएंगे ? नहीं , जिन्ना का डायरेक्ट एक्शन प्लान चलाते हुए , मिनी पाकिस्तान को मज़बूत करते रहेंगे ? तो क्या मिनी पाकिस्तान और डायरेक्ट एक्शन प्लान को चकनाचूर करने का समय अब आ गया है ? डायरेक्ट एक्शन प्लान मतलब हिंदुओं को देखते ही गोली मार दो। तो पोलियो ड्राप को नसबंदी की दवा बताने वालों को पाकिस्तान ज़िंदाबाद का एंटी डोज देने का समय आ गया है ?

इस लिए भी कि अगर मुझे कोढ़ हो गया है तो उसे कपड़े से ढक कर तो हम ठीक नहीं कर सकते। ठीक कर सकते हैं लेकिन कारगर और तय सीमा तक नियमित दवा ले कर ही। फिर भी अगर कमोवेश देश के हर शहर में अगर मिनी पाकिस्तान हैं , तो क्या बोलेंगे भला उसे ? दुर्भाग्य है देश का यह। समाज पर कलंक हैं , यह मिनी पाकिस्तान। अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी में अभी तक जिन्ना की फोटो की तलब क्या कहती है ? अच्छा आप ही बताएं कि देश के किस शहर में नहीं है मिनी पाकिस्तान।  फिर मिनी पाकिस्तान का मतलब मुस्लिम बहुल इलाका नहीं है। मिनी पाकिस्तान उसे कहते हैं , जहां शासन , प्रशासन फेल हो जाते हैं। बिजली वाले हों , पुलिस वाले हों , उबर , ओला वाले भी जाने से कतराते हैं। कार्रवाई तो बहुत दूर की कौड़ी है। मैं लखनऊ में रहता हूं कोई 37 साल से। यहां जब भी दंगा , उपद्रव होता है , मुस्लिम बहुल इलाके में ही होता है। कर्फ्यू वगैरह भी वहीँ लगता हैं। जहां मैं रहता हूं , अभी तक कभी कर्फ्यू नहीं लगा। कभी उपद्रव नहीं हुआ। लखनऊ का चौक जो मुस्लिम बहुल है , अब वहां समझदार मुस्लिम भी नहीं रहना चाहते। वहां अब कोई प्रापर्टी नहीं खरीदना चाहता। सब लोग धीरे-धीरे वहां से निकलते जा रहे हैं। यही स्थिति कमोवेश हर शहर की है। चंडीगढ़ जैसे कुछ नए बसे शहरों को छोड़ कर। ऐसा क्यों है भला ? कभी सोच कर देखिए। गुड़गांव , नोएडा जैसे शहरों में भी नहीं हैं मिनी पाकिस्तान। यह नए बसे हुए शहर हैं सो यहां  तो यह सब कभी नहीं हो सकता। 

अब उत्तर प्रदेश के संभल को ही ले लीजिए। मेरठ , मुरादाबाद , संभल , अलीगढ़ , आज़मगढ़ ,तथा  दिल्ली , मुंबई , हैदराबाद आदि के कुछ हिस्से अपने आप में मुकम्मल मिनी पाकिस्तान हैं। वहां बहुत कम जगह भारतीय क़ानून यानी आई पी सी की बहाली है। अलीगढ़ यूनिवर्सिटी में कुछ भी हो जाए , पुलिस घुसने से पहले हज़ार बार सोचती है। और नहीं ही घुसती। वहां शरिया और मौलवी क़ानून चलता है। क्या यह भी बताने की ज़रूरत है। पाकिस्तान चले जाओ के जुमले पर भी आप को गहरा ऐतराज है। गुड बात है। बिलकुल होना चाहिए। पर इस बात की नौबत ही क्यों आती है ? कभी क्यों नहीं सोचते भला ? फिर भी यह जान लेने में नुकसान नहीं है कि नियमत: पाकिस्तानियों को ही पाकिस्तान भेजा जा सकता है। भारतीय नागरिकों को नहीं। भले ही वह पाकिस्तान ज़िंदाबाद करते रहें। किसी सूरत , किसी क़ानून से नहीं भेजा जा सकता। हां जेल ज़रूर भेजा जा सकता है। शासन और प्रशासन अगर चाह ले। पाकिस्तानी तो पाकिस्तानियों की लाश भी नहीं लेते। ज़िंदा इंसान को लेना तो बहुत दूर की कौड़ी है। आतंकी कसाब का शव लिया था क्या ? अलबत्ता अफजल गुरु और याकूब मेनन की फांसी पर भारत में तूफ़ान मच जाता है । यह तूफान मचाने वाले लोग ही पाकिस्तान ज़िंदाबाद बोलने वाले लोग हैं। यह वही लोग हैं जिन्हें भारत माता की जय बोलने में , वंदे मातरम बोलने में मुश्किल होती है। सोचिए कि लड़ के लिया है पाकिस्तान , हंस के लेंगे हिंदुस्तान जैसा नारा संघियों और भाजपाइयों ने तो नहीं ही गढ़ा है।

तो कब तक अपनी निगेटिव बातों के लिए भाजपा को कोसते रहेंगे ? नहीं जानते तो अब से जान लीजिए कि कांग्रेस के शासन में पाकिस्तान ज़िंदाबाद के नारे कहीं ज़्यादा लगते रहे हैं। पाकिस्तान क्रिकेट टीम के भारत से जीतने पर मिठाई भी खूब बंटती रही है। नतीजे में दंगे भी हम भुगतते रहे हैं। भाजपा राज में इस सब में अप्रत्याशित रूप से कमी ही नहीं आई है बल्कि अब यह सब न्यूनतम स्तर पर आ गया है। इस कार्यकाल के बाद अगर एक और कार्यकाल नरेंद्र मोदी को मिल गया तो लिख कर रख लीजिए कि भारत में मुसलमान तो रहेंगे , बड़े ठाट से रहेंगे , लेकिन भारत माता की जय बोलते हुए दिखेंगे। पाकिस्तान ज़िंदाबाद कहने का उन का अभ्यास सर्वदा-सर्वदा के लिए समाप्त हो जाएगा। लीगी बीमारी और जेहाद जैसी बातें भारत में इतिहास की बातें हो जाएंगी। यकीन न हो तो लिख कर यह बात भी लिख कर रख लीजिए। इस लिए भी कि पाकिस्तान ही तब तक मुकम्मल नहीं रह जाएगा। वह आतंकी फंडिंग करने की हैसियत में नहीं रह जाएगा। आज कल तो मंज़र यह है कि इमरान खान अपना और पाकिस्तान का अस्तित्व बचाने में लगा है , आप लोग इस बिंदु पर कभी क्यों नहीं सोच पाते ? जो पाकिस्तान कहता रहता था कि कश्मीर ले कर रहेंगे , वही पाकिस्तान अब श्रीनगर भूल कर अपने हिस्से के गुलाम कश्मीर पर भारत के आक्रमण के आशंका में सुबह , शाम मरा जा रहा है। और यहां अभी भी पाकिस्तान ज़िंदाबाद की खुमारी लगी हुई है। कब तक शेष रहेगी यह खुमारी भी ? कभी सोचा है ? नहीं सोचा है तो ज़रूर सोचिए। हज़ार बार सोचिए।

जो भी हो अभी तो आप नरेंद्र मोदी के न्याय का इस सर्दी में फुल आनंद लीजिए। रही बात कांशीराम और मायावती , अखिलेश , कांग्रेस आदि के तो यह अब भभकते दिए हैं। कोई नया कंधा खोजिए , अपनी नफरत और अपने लगी जहर को खाद , पानी पाने के लिए।

अम्मा बचपन में एक किस्सा सुनाती थी।

एक आदमी की शादी हुई। शादी के पहले वह मां के लिए कुर्बान रहता था। बात-बेबात कुर्बान रहता था। शादी के बाद भी। लेकिन उस की बीवी को यह अच्छा नहीं लगता। धीरे-धीरे उस ने पति को जैसे-तैसे काबू किया। और धीरे-धीरे ही पति को मां के जुड़ाव से दूर करना शुरू किया। बात फिर भी बनती नहीं दिखी तो उस ने एक रात पति से इसरार किया कि अगर मुझ से प्यार करते हो और मैं तुम्हारी ज़िंदगी में अगर कुछ भी मायने रखती हूं तो अपनी मां का कलेजा मुझे भेंट में दो। वह बीवी को खुश रखने के लिए प्रयासरत हो गया।

एक रात उस ने मां को घर से दूर ले जा कर मां को मार डाला। और मां को मार कर उस का कलेजा निकाल कर घर की तरफ चला। रास्ते में अंधेरा था। एक जगह अचानक उसे किसी चीज़ से ठोकर लगी। वह लड़खड़ा कर गिर पड़ा। अचानक मां का कलेजा बोला , बेटा तुम्हें कहीं चोट तो नहीं लगी ? यह सोच कर बेटा सोच में पड़ गया और रो पड़ा कि हाय , यह मैं ने क्या किया। मेरा इतना खयाल रखने वाली अपनी मां को मार डाला ? वह मां , जिस का कलेजा भी मुझे चोट तो नहीं लगी की परवाह में है। लेकिन अब वह कर भी क्या कर सकता था। मां को तो वह मार ही चुका था। अब पछताने से कुछ होना-हवाना नहीं था।

हमारे देश के कुछ लोग अकारण अपनी भारत माता को मारने और जलाने में लगे हैं। अपनी सत्ता , अपनी विचारधारा , अपनी ज़िद , सनक और एक व्यक्ति के विरोध में इतना आक्रामक इतना हिंसक और इतने अराजक हो गए हैं कि अपनी धरती , अपनी अस्मिता , अपने देश और अपने ही लोगों के खिलाफ खड़े हो गए हैं। गांधी गाते ही थे , सब को सन्मति दे भगवान। भगवान इन को सन्मति दे , यह प्रार्थना तो मैं भी कर ही रहा हूं। आप भी कीजिए।

जिन लोगों को भारत माता की जय कहने में घिन आती है। वंदे मातरम कहने में शर्म आती है। आज उन्हीं लोगों को संविधान की चिंता सता रही है। संविधान की चिंता में ही यह लोग देश और देश की संपत्ति खूब धूम-धाम से जला रहे हैं। गोया दीपावली और ईद मना रहे हों। इन को इस बेतुका जश्न की कीमत चुकानी ही होगी।

आखिर वह कौन लोग हैं जो भारत में रह कर भी , भारत के नागरिक हो कर भी पाकिस्तान ज़िंदाबाद कहने की हिमाकत करते हैं , दुस्साहस करते हैं ? तो वह चाहे कोई भी हों , उन को पाकिस्तान जाने की सलाह देना ही काफी नहीं है। इन पर देशद्रोह का मुकदमा होना चाहिए। मेरठ के एस पी सिटी अखिलेश नारायण को उक्त लोगों के खिलाफ देशद्रोह के आरोप में फौरन मुकदमा लिखवा कर जेल भेजना चाहिए। न्यायालय में ट्रायल हो और न्यायालय को ही गुण-दोष के आधार पर निर्णय लेना चाहिए। जो लोग लगातार यह कुतर्क करते हुए कह रहे हैं कि एस पी सिटी के शब्दों का चयन गलत है , उन पर भी तरस आता है। उपद्रवियों से निपटते हुए एस पी सिटी की जगह कोई भी ज़िम्मेदार भारतीय होता तो क्या करता ? एस पी सिटी ने तो बहुत संयम से काम लिया है। पाकिस्तान ज़िंदाबाद कहने की प्रवृत्ति को हर मुमकिन कानूनी रूप से कुचल देने की ज़रूरत है। यह वही लोग हैं जो अभी भी जिन्ना की फोटो अलीगढ यूनिवर्सिटी की दीवार पर टांग कर रखने में अपनी प्राथमिकता और बहादुरी समझते हैं। और दुनिया भर की सेक्यूलरिज्म की जुगाली करते हैं। इन सब के खिलाफ कड़ी से कड़ी कार्रवाई की जानी चाहिए। संविधान की आड़ में इन की तरफदारी करने वाले दोगले लोग हैं।

Friday, 20 December 2019

यह हिंसा नागरिकता बिल ही नहीं , तीन तलाक़ , 370 , राम मंदिर आदि के विरोध का एक पूरा पैकेज है


यह दंगा , यह हिंसा नागरिकता बिल के विरोध को ले कर ही नहीं है। यह एक पूरा पैकेज है। तीन तलाक़ , 370 , राम मंदिर का विरोध भी इस में शामिल है। सिविल कॉमन कोड और जनसंख्या नियंत्रण को रोकने की हारी हुई कोशिश भी है। कांग्रेस , कम्युनिस्ट समेत समूचे विपक्ष की हताशा भी है। यह एक कंप्लीट पैकेज है देश को जला कर , देश को अस्थिर करने के लिए। कभी मंहगाई , बेरोजगारी को ले कर ऐसा विरोध प्रदर्शन देखा आप ने ? लेकिन दलित और मुस्लिम सब से मुफ़ीद कड़ी है देश को अस्थिर करने के लिए। इस कड़ी का दुरूपयोग सर्वदा , सर्वदा से कांग्रेस और कम्युनिस्ट करते रहे हैं। करते रहेंगे। इस लाइलाज बीमारी की कोई दवा कभी नहीं खोज सकता।

तो क्या कांग्रेस शासित प्रदेशों में लोग नागरिकता बिल संशोधन से सहमत हैं ? कि यहां मुसलमान नहीं रहते। मध्यप्रदेश, राजस्थान, छत्तीसगढ़, पंजाब से हिंसा की कोई ख़बर नहीं है। कम से कम मीडिया न्यूज़ में नहीं है। तो क्या समझना इतना मुश्किल कि जहां भी कहीं हिंसा , उपद्रव आगजनी जारी है , वहां आग कांग्रेस और उन के समर्थक लोगों ने ही लगाई है। लगाते जा रही है। कांग्रेस न सिर्फ़ आग से खेल रही है , देश से खेल रही है बल्कि अपनी ताबूत में आख़िरी कील भी ठोंक रही है। लिख कर रख लीजिए कि अगले चुनाव में कांग्रेस कूड़ेदान में जाने की पूरी तैयारी में है। देश में सिर्फ भटके हुए , अनपढ़ , जाहिल , हिंसक और उपद्रवी मुसलमान ही नहीं रहते।


यह जो जुमे की नमाज़ है न ! इस से निकलने वाली नफ़रत और उपद्रव की जो आग है न ! कश्मीर को जलाने के बाद अब दिल्ली समेत सभी जगहों पर नफरत और उपद्रव की भाषा ले कर उपस्थित है। धर्म को अफीम बताने वाला कोई प्रोग्रेसिव , कोई कम्युनिस्ट इस पर भूल कर भी टिप्पणी नहीं करता। आंख मूंद लेता है।

नरेंद्र मोदी ने एक बड़ी गलती की है। शुरुआत उन्हें मुस्लिम समाज को पूरी तरह से शिक्षित करने से करनी चाहिए थी। अब अलग बात है कि देख रहा हूं कि बड़े-बड़े आलिम , फाजिल भी नागरिकता बिल को अशिक्षित मुसलमानों की तरह ही समझ रहे हैं और समझा रहे हैं। दंगा और उपद्रव की भाषा न सिर्फ बोल रहे हैं , बल्कि इस में पूरी तरह संलग्न हैं। बता रहे हैं कि सभी मुसलमानों को भारत से बाहर निकाल दिया जाएगा , नागरिकता बिल के मद्देनज़र। मुस्लिम समाज की यह बड़ी यातना है। बाक़ी जो है , सो हइये है।

धर्मनिरपेक्षता !

इस एक शब्द के पाखंड ने भारत का बहुत नुकसान किया है। आप ध्यान दीजिए कि हिंसा और उपद्रव से घिरे देश में एक भी धर्मनिरपेक्ष ने वह चाहे राजनीतिज्ञ हो , लेखक , पत्रकार , बुद्धिजीवी या संस्कृतिकर्मी ने शांति की अपील नहीं की है। देश को , देश की संपत्ति को जलाने का उन का मौन समर्थन उन के स्वभाव और विचारधारा से सहज ही परिचित करवाता है। पता नहीं धर्मनिरपेक्षता के नाम पर हिंसा , उपद्रव करने वालों के खिलाफ कोई क़ानून है भी कि नहीं। संविधान इस हिंसा से खतरे में पड़ता है कि नहीं। कोई बताए भी।

सांप्रदायिकता सर्वदा खतरनाक होती है । लेकिन एकतरफा धर्मनिरपेक्षता , सांप्रदायिकता से भी कहीं ज़्यादा खतरनाक होती है । सांप्रदायिकता से आप खुल कर लड़ सकते हैं । पर एकतरफा धर्मनिरपेक्षता तो दीमक की तरह काम करती है । कब आप को , आप के समाज को चाट कर ध्वस्त कर गई , ध्वस्त होने के बाद ही पता चलता है । तब तक आप उस से लड़ने लायक भी शेष नहीं रह जाते । सिवाय ढोल पीटने के ।

मेरा स्पष्ट मानना है कि क़ानून व्यवस्था और उपद्रवी तत्वों से प्रशासन को जब भी निपटना हो , सिविल पुलिस के भरोसे कभी न रहे। फौरन अर्ध सैनिक बल या सेना ही बुला ले। सिविल पुलिस को मुकदमा , पोस्टिंग और पैसा खाने तक ही सीमित रखना ठीक है। वह चाहे उत्तर प्रदेश की पुलिस हो , दिल्ली , पंजाब , तमिलनाडु , केरल , गुजरात , बंगाल आदि जहां भी कहीं की हो। सिविल पुलिस के वश के नहीं होते दंगाई और उपद्रवी। बात बिगड़ जाने के बाद आखिर प्रशासन अर्ध सैनिक बल या सेना को तैनात करता ही है। बात बिगड़ने का इंतज़ार करने की जगह , पहले ही राउंड में प्रशासन को सिविल पुलिस को हटा कर पूरा इलाका अर्ध सैनिक बलों के हवाले करने का अभ्यास अब से सही कर लेना चाहिए।

Thursday, 19 December 2019

हिंसक भीड़ की भाड़ में जल जाने से बचा

 
आज मैं भी बाल-बाल बचा। हिंसक भीड़ की भाड़ में जल जाने से बचा। मैं भी बचा , मेरी कार भी बची। दोपहर में कचहरी गया। हज़रतगंज होते हुए। प्रेस क्लब के रास्ते गुज़रते हुए पहली पुलिस बैरिकेटिंग मिली। पुलिस ही पुलिस थी। लोग नहीं। बेगम हजरतमहल पार्क के पास फिर पुलिस बैरिकेटिंग मिली। पुलिस भी खासी संख्या में। दफा 144 लागू होने के बावजूद सड़क पर भीड़ भी खूब थी। एक अख़बार के फोटोग्राफर को देखा तो उसे बुलाया और पूछा , ' अपना लखनऊ ठीक-ठाक तो है न ! ' वह हंसते हुए बोला , ' अभी तक तो सब ठीक-ठाक ही है भाई साहब ! ' 

मैं निश्चिंत हो कर आगे बढ़ गया। भीड़ लेकिन लगातार मिलती रही। दस-दस , बीस-बीस के जत्थे में। कुछ कर गुजरने के उन्माद में सुलगती हुई भीड़। लेकिन सड़क के किनारे-किनारे। झुंड के झुंड में। गुफ़्तगू करती हुई। भीड़ मुसलसल थी और राह भी रुकी हुई नहीं थी। कैसरबाग़ टेलीफोन एक्सचेंज के पास कार पार्क कर कचहरी की तरफ बढ़ा। भीड़ को चीरता हुआ। कचहरी में दाखिल हुआ। बरास्ता कचहरी सुरक्षा का कमरा और कैमरा पार करता हुआ। आम दिनों की तरह लेकिन कचहरी आज नहीं थी। हवा में गलन थी तो लोगों में तनाव। एक अजीब हलचल। सुलगन। एक अजीब कानफूसी। हर मुंह कचहरी की बात की जगह दिल्ली हिंसा और लखनऊ की संभावित हिंसा की घबराहट में बेचैन। एक वकील साहब ने कल रात की मेरी पोस्ट की चर्चा करते हुए पूछा , ' स्थिति इतनी विस्फोटक है ? ' मैं ने उन्हें बताया , ' है तो ! ' वह उदास हो गए। मुझे एक एफीडेविट बनवानी थी। और एक फैसले की नक़ल लेने के लिए सवाल लगाना था। एफिडेविट का प्रिंट निकलवाने के लिए बाहर की सड़क पर स्थित एक दुकान पर खड़ा था। कि अचानक तीन-चार नौजवानों को कुछ वकील दौड़ाते हुए , पीटते हुए दिखे। ज़ोर-ज़ोर चिल्लाते हुए। और वह लडके बेतहाशा भागते हुए। कुछ और वकीलों ने उन्हें घेर लिया। और पटक कर पीटने लगे। पता चला कि यह लडके वहां भीड़ की तरह बेतरतीब खड़ी गाड़ियों में आग लगा रहे थे कि किसी वकील ने समय रहते देख लिया। और इन हिंसक और अराजक लोगों को देख लिया। और चिल्लाते हुए इन पर टूट पड़ा। एक वकील , दो वकील , दस वकील , फिर वकीलों का हुजूम और इन हिंसक और अराजक लोगों की शामत। लखनऊ क्या समूचे देश की पुलिस भी वकीलों की हिंसा से डरती है तो कुछ अराजक लोगों की क्या बिसात। बस जान बची किसी तरह इन अराजक लोगों की। पर जल्दी ही अराजक और हिंसक लोगों का एक दल जो इस बार बड़ा था , अचानक फिर लौटा। इस उन्माद में कि जैसे वकीलों को निपटा देगा। लेकिन वकील उत्तर प्रदेश पुलिस की तरह सोए हुए नहीं थे। न ही बेखबर। वह फिर चीखते हुए टूट पड़े इन हिंसक और अराजक लोगों पर और पूरी ताक़त , और ज़्यादा संख्या बल के साथ। वह अराजक लोग उलटे पांव क्या , सिर पर पांव रख कर भागे। पर इस पूरे वाकये में पुलिस कहीं नहीं दिखी। कृपया मुझे यह कहने की अनुमति दीजिए कि इन हिंसक और अराजक तत्वों से अगर लखनऊ को बचाना है तो फौरन अर्ध सैनिक बलों या सेना को बुला लेना ही बेहतर है। उत्तर प्रदेश पुलिस के वश के नहीं हैं यह अराजक और हिंसक लोग। उत्तर प्रदेश पुलिस की सामर्थ्य से बाहर हैं यह लोग। सोचिए कि अगर कचहरी और वकीलों की गाड़ियों में आग लग गई होती तो लखनऊ में हिंसा और क़ानून व्यवस्था का क्या आलम होता ? सवाल तो यह भी है कि दफा 144 लागू होने के बावजूद पुलिस ने इतनी भीड़ इकट्ठी होने क्यों दी ? ऐसी भीड़ तो हम ने इस जगह तब भी नहीं कभी देखी थी जब बेगम हज़रतमहल पार्क में राजनीतिक रैलियां होती थीं। फिर यह तो उन्मादी भीड़ थी। हिंसा के लिए प्रतिबद्ध भीड़ थी। भीड़ थी कि गिद्ध थी। कहना कठिन है। 

ख़ैर , कचहरी के भीतर गया और एक वकील साहब से पूरा विवरण बताया तो वह डर से गए। कहने लगे घर कैसे जाया जाएगा। उन का डर देख कर उन से कहा कि चलिए हम आप को घर छोड़ देंगे। वह पलट कर बोले , आप के साथ जाने से बेहतर होगा कि हम अपने कुछ वकील साथियों के साथ ही लौटें। खैर कचहरी का काम निपटा कर बाहर निकला तो मंज़र बदल चुका था। कचहरी की सड़क पर भी अब हिंसक लोगों की भीड़ खड़ी थी। दस-दस , बीस-बीस के जत्थों में। टेलीफोन एक्सचेंज के चौराहे पर जहां पुलिस खड़ी होती है या फिर सांड़ , वहां कुछ ख़ास किसिम के वकील खड़े थे। ऐसे गोया अराजक और हिंसक भीड़ की सुरक्षा के लिए मेड़बंदी में खड़े हों। पुलिस सिरे से गायब थी। भीड़ ही भीड़। जाने कहां-कहां से आ कर नागफनी की तरह खड़ी हो गई थी। मैं अपनी कार की तरफ बढ़ा। कार के चारो तरफ भीड़। कार की डिग्गी पर भी चार-पांच लोग बैठे हुए थे। इन में से कुछ हथियारबंद लोग भी थे। अजीब कश्मकश थी। रिमोट से कार का दरवाज़ा खोला। सो आवाज़ भी हुई। लेकिन भीड़ का एक भी व्यक्ति टस से मस नहीं हुआ। फाटक खोल कर भीतर बैठते ही अंदर से गाड़ी लॉक कर ली। इस डर से कि कोई फाटक खोल कर भीतर न बैठ जाए। फिर एक क्षण को डर लगा कि नाराज हो कर कहीं यह लोग मुझे कार के भीतर ही जला न दें। एक अजीब सी घबराहट मन में तारी थी। लग रहा था कि अपनी कार में नहीं , किसी गैस चैंबर में बैठा हूं। किसी यातना गृह में बैठा हूं। कि अचानक एक मित्र का फोन आ गया। मन बाहर था और जुबान फोन पर बतिया रही थी। अजीब मंज़र था। बड़ी देर तक इधर-उधर की बतियाता रहा। कोई पंद्रह मिनट तो हो ही गया था बतियाते हुए। अच्छा यह हुआ था इस बीच कि भीड़ ने मेरी तरफ ज़रा भी ध्यान नहीं दिया था। मन से घबराहट उतर ही रही थी कि अचानक कुछ हलचल हुई। परिवर्तन चौक की तरफ से भागती हुई भीड़ का एक रेला आया।  शायद उधर से पुलिस ने दौड़ाया था। मेरी कार के आस-पास खड़ी भीड़ भी उन के साथ दौड़ गई। कार की डिग्गी पर बैठे लोग भी भागे। मैं ने बैक मिरर में पीछे की सड़क देखी। पल भर में पूरी सड़क वीरान हो गई थी। मैं ने मित्र का फोन अचानक काटा और कहा कि बाद में बात करता हूं। मित्र ने पूछा भी कि बात क्या हुई ? मैं ने मित्र को अनसुना किया और कार बैक कर टेलीफोन एक्सचेंज चौराहे की तरफ मोड़ दिया। क्यों कि परिवर्तन चौक की तरफ तो खतरे का आभास हो ही गया था। पर यह क्या मैं तो फिर भारी भीड़ में फंस गया। भीड़ दोनों तरफ से दौड़ती हुई पल भर में लौट आई थी। मैं और मेरी कार लग रहा था कि जैसे उछलते समुद्र की उछलती लहरों के बीच कोई डोंगी नाव हो। नाव अब डूबी कि तब डूबी। जाने कौन सी लहर ले डूबे। पाकिस्तानी शायर आली का दोहा याद आ गया :  तह के नीचे हाल वही जो तह के ऊपर हाल / मछली बच कर जाए कहां जब जल ही सारा जाल। भीड़ के इस जाल में फंसा मेरी हालत मछली से भी बुरी हो गई थी। अकल गुम हो गई थी। तो भी इस कठिन घड़ी में याद आ रहा था देवेंद्र कुमार का एक गीत : झील , नदी , सागर से रिश्ते मत जोड़ना / लहरों को आता है यहां वहां छोड़ना। तो भीड़ की कौन सी लहर मुझे कहां और कैसे पटक दे पता नहीं था। अराजक और हिंसक भीड़ में अनगिन बार फंसा हूं बतौर रिपोर्टर। जान हथेली पर ले कर रिपोर्टिंग की है। जाने कितने दंगों को रिपोर्ट किया है। इसी लखनऊ में शिया , सुन्नी दंगा। हिंदू , मुस्लिम दंगा। दिल्ली में सिखों का नरसंहार रिपोर्ट किया है। दो-चार बार जान जाते-जाते बची है। पर आज तो विशुद्ध नागरिक फंसा था और जान पर बन आई थी। बेतरह और निहत्था। गिद्धों की चंगुल में एक अकेला असहाय आदमी। 

खैर चींटी की तरह समुद्र सी इस भीड़ में रेंगता रहा। सोचता रहा कि आज कचरी आया ही क्यों। आया भी तो लौट कर हिंसक भीड़ को देखते हुए भी कार में आ कर बैठा भी क्यों। कार को बचाना ज़रूरी था कि खुद को। बहरहाल किसी तरह खुद पर नियंत्रण रखते हुए चींटी गति से रेंगता रहा। लगातार यह खयाल रखते हुए कि कार किसी को ग़लती से भी टच नहीं करे। ज़रा भी किसी को टच करने का नतीजा मैं जानता था कि भीड़ मुझ पर कैसे टूट पड़ती और मेरा और कार का क्या हश्र करती। ग़नीमत यह भी थी कि भीड़ अपने काम में थी , नारा लगाती हुई। उत्तेजित और हिंसक यह भीड़ मुझ से शायद पूरी तरह बेखबर थी। मैं ने भी सभी शीशे बंद कर रखे थे और कार अंदर से लॉक कर ही रखी थी। तो यह लॉक करना सुरक्षा भी थी और खतरा भी। दोनों ही स्थितियों का जायजा लेता हुआ मैं चींटी स्पीड से बढ़ता रहा। चौराहे पर आते-आते भीड़ के एक व्यक्ति ने मेरी और कार की नोटिस ली। और कस कर ली। कार के बोनट पर बाकायदा पैर रख कर। मैं ने कार बंद कर दी। हैंड ब्रेक लगा दिया। कार के आगे के शीशे पर बीचोबीच गणेश जी का चित्र चिपका हुआ है पर बाएं किनारे पर प्रेस भी लिखा हुआ है । वह व्यक्ति कुछ असमंजस में पड़ गया। कि तभी चौराहे पर खड़े एक वकील ने उसे मुझे जाने देने का इशारा किया। और वह एक झटके से हट गया। चौराहे से मैं बाएं मुड़ गया। मुड़ते ही कुछ सांस मिली और राह भी। हिंसक भीड़ का घनत्व इस सड़क पर कुछ कम था। कम क्या उधर से उन्नीस था। स्पीड अभी भी चींटी वाली ही थी। दो दिन पहले ही बलिया से लौटा हूं। जिस ट्रेन से लौट रहा था अचानक एक जगह दो घंटे खड़ी हो गई थी। पता चला कि किसी ने पत्थर मार दिया था इंजन पर और शीशा टूट गया था। यह खबर लगते ही लोग ट्रेन छोड़ कर भागने को हुए। लोगों ने समझा कि अराजक तत्वों का हमला है। तभी कुछ पुलिसकर्मी आ गए। पुलिस वालों ने बताया कि अराजक तत्व नहीं किसी मनचले लड़के का काम है। बनारस से दूसरा इंजन आया तो ट्रेन चली। दिल्ली में जामिया मिलिया की हिंसक ख़बरें , खबरों में तब तारी थी। बहरहाल यहां तो कोई मनचला नहीं , पूरी की पूरी हिंसक भीड़ के जबड़े में मैं फंसा था। किसी भी सूरत मेरी खैर नहीं थी। कार में बैठा रहूं तो शामत। उतर जाऊं तो भी शामत। बहरहाल खुद से लड़ता हुआ , चींटी की तरह रेंगता हुआ मैं था और आगे-पीछे , दाएं-बाएं हिंसक और अराजक भीड़ थी। होटल क्लार्क की तरफ किसी तरह  ज्यों मुड़ा , अचानक पुलिस दिखी तो जैसे जान में जान आई। होटल क्लार्क मोड़ पर भी पुलिस बैरिकेटिंग थी। मुझे देखते ही एक दारोगा दौड़ा हुआ मेरी तरफ आया। खिड़की का शीशा नॉक किया। शीशा खोलते ही वह बोला , इस पागल भीड़ में आप  क्या कर रहे हैं ? मैं ने बताया कि , ' क्या बताऊं , गलती से फंस गया हूं ! ' उस ने रास्ता देते हुए कहा , ' इधर से जाइए , इधर से नहीं। सीधे घर जाइए। कहीं और नहीं।' होटल क्लार्क के पीछे की तरफ मैं ने कार कर ली। कोई पांच सौ मीटर का यह रास्ता मैं ने करीब एक घंटे से अधिक समय में पार किया। क्लच प्लेट की हालत क्या हुई होगी , यह कार ही जाने या आने वाला समय। बहरहाल इस राह पर हिंसक और अराजक भीड़ अनुपस्थित थी। शनि मंदिर पार करते हुए , मोती महल लॉन के पास से गुज़ारा तो पाया कि लोग पौधे खरीद रहे हैं। फूल खरीद रहे हैं। यह देख कर जैसे जाने कितनी आक्सीजन मिल गई। थोड़ी देर बाद अचानक पत्नी का फोन आया। पूछा कि आप ठीक तो हैं ? मैं ने बताया कि मैं ठीक हूं लेकिन क्या हुआ ? पत्नी ने पूछा कि कचहरी में ही हैं कि वहां से निकल आए। बताया कि निकल आया हूं पर बात क्या है ? पत्नी ने बताया कि कुछ नहीं , आप निकल आए हैं तब ठीक है। क्यों कि परिवर्तन चौक पर बहुत आगजनी और उपद्रव हुआ है , न्यूज़ में आ रहा है। मीडिया की भी गाड़ियां जलाई गई हैं तो मैं डर गई कि कहीं आप भी तो नहीं फंस गए इस में। 

नहीं , नहीं। मैं बिलकुल ठीक हूं। और वहां से बहुत दूर निकल आया हूं। कह कर फोन रख दिया। लेकिन तभी से निरंतर सोच रहा हूं कि इस पागल भीड़ , गिद्धों की भीड़ से सुरक्षित बच कर निकल कैसे आया। जैसे किसी भयानक सपने से निकल आया। निकल आया हूं , ऐसा विश्वास ही नहीं हो रहा। पर निकल तो आया हूं। समय और ईश्वर को कोटिशः धन्यवाद। जैसे वह कोई सपना ही था। डरावना सपना। जब कि उसी भीड़ में अनगिन लोग और पुलिसजन बुरी तरह घायल हुए हैं। मारे गए हैं। तमाम वाहन स्वाहा हो गए हैं। 

Tuesday, 17 December 2019

सम्मानित नागरिक होना क़ुबूल है या हिंसक और जेहादी पहचान के साथ मर मिटना !


क्या यह वही कांग्रेस है , जिस के नेता महात्मा गांधी ने एक चौरीचौरा कांड जिस में उग्र भीड़ ने थाना जला दिया था , से आहत हो कर पूरे देश से असहयोग आंदोलन वापस ले लिया था। यह वही कांग्रेस है ? जो देश के मुसलमानों को भड़काने और बहकाने की हर संभव कोशिश में संलग्न है। देश और मनुष्यता धू-धू कर जले तो उन की बला से। तीन तलाक खत्म हुआ , मुसलमान जो कहते थे कि तीन तलाक खत्म किया तो देश में आग लगा देंगे , वही मुसलमान देश भर में चुप रहे। कश्मीर में 370 खत्म हुआ , देश के मुसलमान चुप रहे। अयोध्या में राम मंदिर के पक्ष में सुप्रीम कोर्ट का फैसला आया , देश के मुसलमान फिर भी चुप रहे। कांग्रेस का दम घुटने लगा। नागरिक संशोधन बिल आया तो कांग्रेस ने सारा धैर्य गंवा कर मुसलमानों को हिंसा के लिए हरी झंडी दिखा दिया। 

हिंसा की खुनी ट्रेन , अब चल पड़ी है। गोया ट्रेन टू पाकिस्तान हो। भाजपा और संघ को अफ़वाह का भंडार बताने वाली कांग्रेस अब अफ़वाह का सागर बन चुकी है। हर क्षण अफवाह की कोई न कोई लहर उठाती रहती है। आसाम शांत हुआ तो दिल्ली आसान लगा उसे। जामिया मिलिया सर्वश्रेष्ठ केंद्र दिखा इस काम के लिए। जामिया मिलिया की हिंसा की आग के बावजूद पुलिस ने एक भी गोली नहीं चलाई , एक भी व्यक्ति नहीं मरा। लेकिन कांग्रेस और उस के आई टी सेल ने कइयों की पुलिस की गोली से हत्या की खबर लहका दी। आम आदमी पार्टी ने भी कांग्रेस की इस अफवाह को अपना कंधा दे दिया। बता दिया कि पुलिस ही बसों में आग लगा रही थी। जब कि पुलिस आग बुझा रही थी। जामिया मिलिया की वाइस चांसलर ने अधिकृत बयान जारी कर बता दिया है कि जामिया मिलिया यूनिवर्सिटी का कोई भी छात्र नहीं मारा गया है। याद रखिए कि बाटला हाऊस कांड में भी जामिया मिलिया का इसी तरह दुरूपयोग किया गया था। खैर , जामिया मिलिया की आग ठंडी भी नहीं हुई कि दिल्ली के ही मुस्लिम बहुल सीलमपुर में आग लगा दी। अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी , और लखनऊ के नदवा में भी आग भड़का दी। जिस जामिया मिलिया में एक भी नहीं मारा गया , उस के शहीदों के लिए नए भड़काऊ नारे गढ़ लिए। आंदोलन शुरू कर दिया। 

क्या विरोध का मतलब हिंसा ही होता है। ग़नीमत है कि सुप्रीम कोर्ट ने आज समझ और विवेक से काम लिया है। कहा है कि पहले हिंसा बंद कीजिए , फिर हाईकोर्ट जाइए। बताइए कि कांग्रेस किस ज़िम्मेदारी से विपक्ष का काम अंजाम दे रही है , सोचने और समझने की बात है। रही बात मुसलमानों और वामपंथियों की तो यह जानिए कि हिंसा , इस्लाम और वाम का चोली-दामन का रिश्ता है। यकीन न हो तो दुनिया भर में इन का समूचा इतिहास उठा कर देख लीजिए। बिना हिंसा के इन का कोई मकसद पूरा नहीं होता। या यूं कहिए कि बिना हिंसा के यह रह नहीं सकते। जैसे दुःख हो , सुख हो , किसी शराबी को पीने का बहाना चाहिए। ठीक वैसे ही मसला कोई भी वाम और इस्लाम को हिंसा का बहाना चाहिए। यह लोग अहिंसा में यकीन नहीं रखते। एक को जेहाद चाहिए , दूसरे को सशस्त्र क्रांति। दिलचस्प यह कि वर्तमान समय में वाम और इस्लाम दोनों ही कांग्रेस के लिए बैटिंग में व्यस्त हैं। कांग्रेस जो चाहे , इन लोगों से करवा ले। तो चकित न हों किसी हिंसा , किसी आगजनी और उपद्रव से। अभी तो समान नागरिक संहिता और जनसंख्या नियंत्रण का बिल भी आने दीजिए। तो कांग्रेस अभी और भी कमाल करेगी और अपनी ताबूत में कील पर कील ठोंकेगी। यह अनायास नहीं है कि कांग्रेस एक साथ मुस्लिम लीग और शिवसेना दोनों से एक साथ हाथ मिला लेती है। यह कांग्रेस की अंतिम सांसें हैं। अपना जीवन बचाने के लिए लोग पॉजिटिव काम करते हैं। लेकिन कांग्रेस तो निरंतर आत्महत्या पर आमादा है। 

एक पुराना किस्सा है कि। किसी गांव की एक औरत ने अपने गले के लिए चांदी की हंसुली खरीदी। वह हंसुली पहन कर गांव में घूमती रही लेकिन किसी ने उस की नोटिस नहीं ली। वह औरत परेशान हो गई। अंतत: उस ने अपनी झोपड़ी में खुद आग लगा ली। गांव के लोग आग बुझाने में लग गए। एक आदमी से अचानक उस औरत ने कहा कि , झोपड़ी में से मेरी हंसुली भी निकाल लाना। वह आदमी झोपड़ी में से हंसुली निकाल लाया और औरत से पूछा , कि यह हंसुली कब खरीदी ? तो वह औरत बोली , यही बात पहले पूछ ली होती तो , झोपड़ी में आग ही क्यों लगाती मैं ? वह आदमी यह सुन कर हकबका गया। कांग्रेस आज की राजनीति में वह औरत है। मुस्लिम वोट की दुकानदारी खातिर वह देश जला देना चाहती है। कभी मुस्लिम , कभी दलित को वह हथियार बनाती है। गनीमत है कि दृढ़ संकल्प से लबरेज एक बहुमत की सरकार है देश में। कोई अपनी महत्वाकांक्षा में , अपने महत्वोन्माद की बीमारी में अपनी झोपड़ी भले जला ले , पर यह सरकार देश नहीं जलने देगी। 

अरे गलत या सही , सरकार ने संसद में एक बिल पास कर क़ानून बनाया। आप अगर उस बिल से , क़ानून से असहमत हैं तो यह आप का नागरिक अधिकार है। उस को कानूनी लड़ाई से ही समाप्त कीजिए। आंदोलन कीजिए , लड़ाई लड़िए। सब कुछ कीजिए। लेकिन हिंसा तो मत कीजिए। देश को तो मत जलाइए। जनता है , सुप्रीम कोर्ट है , संसद है। तमाम लोकतांत्रिक तरीक़े हैं। उन्हें आजमाइए। यह बुद्ध और गांधी का देश है। लोकतांत्रिक देश है। लोकतांत्रिक औज़ार से ही अपनी लड़ाई लड़िए। यह देश आप का है। अपना देश समझिए।  आक्रमणकारी बनने से परहेज़ कीजिए। देश की संपत्ति नष्ट मत कीजिए। यह आप की भी उतनी ही है , जितनी किसी और की। देश के भविष्य नौजवानों को पढ़ने दीजिए। अपना मुस्तकबिल संवारने दीजिए। अपनी सत्ता पिपासा के लिए उन्हें हिंसा की आग में झोंकने से बचिए। आप मारिए नरेंद्र मोदी और अमित शाह को गोली। गांधी को याद कीजिए। उन की अहिंसा और सत्य को याद कीजिए। देश को हिंसा की आग में मत झोंकिए। मुसलमानों को अब्दुल हमीद , मौलाना आज़ाद और ए पी जे अबुल कलाम की राह पर चलने को प्रेरित कीजिए। औरंगज़ेब , आज़म खान और ओवैसी की राह पर नहीं। गांधी कहते ही थे कि ईंट का जवाब , पत्थर से देने से दुनिया खत्म हो जाएगी। 

पाकिस्तान , अफगानिस्तान , बांग्लादेश बरबाद देश हैं। वहां के मुसलमानों की शिनाख्त आतंकी , बलात्कारी और अत्याचारी की है। उन के लिए क्यों अपने को कुर्बान करने पर आमादा हैं। अपने ही प्रधानमंत्री रहे ज़ुल्फ़िकार अली भुट्टो को पाकिस्तान फांसी दे देता है। अपने ही राष्ट्रपति ज़ियाउल हक़ को दुर्घटना के बहाने मार देता है। प्रधानमंत्री रही बेनज़ीर भुट्टो को सैनिक तानाशाह और राष्ट्रपति परवेज़ मुशर्रफ मरवा देता है। और इसी तानाशाह राष्ट्रपति रहे परवेज़ मुशर्रफ को भी आज फांसी की सज़ा सुना दी गई है। अफगानिस्तान बुद्ध की मूर्ति को डाइनामाइट से उड़ा देता है। पूरी दुनिया अपील करती रहती है , पर वह नहीं मानता। बांग्लादेश की लड़ाई लड़ने वाले शेख मुजीबुर्रहमान को वही बांग्लादेशी हत्या कर  देते हैं। 

म्यांमार एक बौद्ध देश है। बुद्ध , जिस ने दुनिया भर को अहिंसा का पाठ सिखाया। गांधी ने बुद्ध से ही अहिंसा सीखी। उस म्यांमार में रोहिंग्या ने इतनी हिंसा की और बलात्कार का अत्याचार किया कि वहां की सेना ने उन्हें चुन-चुन कर देश से बाहर किया। उन पाकिस्तानियों , बांग्लादेशियों , रोहिंग्या और अफगानिस्तान के तालिबानों को अपने भारत का नागरिक बनाने के लिए आप क्यों अपनी जान पर खेल रहे हैं ? सिर्फ कांग्रेस की सत्ता संतुष्टि के लिए ? फिर तो आप को यह हिंसा मुबारक ! लेकिन ध्यान रखिए आप की हिंसा को कुचलने के लिए देश की सेना तैयार खड़ी है। कश्मीर इस इस्लामिक हिंसा को कुचलने का नायाब उदहारण है। तय आप को करना है कि सभ्य , शांत और सम्मानित नागरिक होना क़ुबूल है या हिंसक और जेहादी पहचान के साथ मर मिटना। यह आप के हाथ है। 

Tuesday, 10 December 2019

छ महीने के कार्यकाल में तीन बड़े फैसले ले कर देश और समाज की दशा और दिशा बदल दी अमित शाह ने


अमित शाह को कुछ लोग तड़ी पार नाम से ही पुकार कर खुश होते हैं। नफ़रत और घृणा से ही उन का ज़िक्र करते हैं। लेकिन अमित शाह से आप असहमत रहिए , सहमत रहिए , नाराज रहिए या खुश लेकिन बतौर गृह मंत्री अमित शाह ने अपने छ महीने के कार्यकाल में तीन बड़े फैसले ले कर देश और समाज की दशा और दिशा बदल दी है। एक निर्णायक मोड़ पर देश को दुनिया के नक्शे पर उपस्थित कर दिया है। तीन तलाक़ , अनुच्छेद 370 और अब नागरिकता संशोधन बिल। तीनों ही असंभव कार्य थे जिन्हें अमित शाह ने संभव बना दिया है। अब चौथा कार्य समान नागरिक संहिता हो सकता है।

मेरा स्पष्ट मानना है कि देश के अब तक तमाम गृह मंत्रियों में सरदार पटेल के बाद अमित शाह ही इतने ताकतवर गृह मंत्री बन कर उपस्थित हैं। कड़े और कारगर फैसलों ने अमित शाह को निर्विवाद रूप से नरेंद्र मोदी का उत्तराधिकारी बना दिया है। और लिख कर रख लीजिए अमित शाह भविष्य के प्रधान मंत्री हैं। विपक्ष को बेदम करने में , कठोर फ़ैसला ले कर उसे कार्यान्वित कर सफलता के नए प्राचीर रचना अब अमित शाह की नियति है। आप कहेंगे , लेकिन महाराष्ट्र ? किसी कद्दावर आदमी के काम को ऐसी असफलता और ठोकर के पैमाने पर मापने का कोई औचित्य नहीं है। फिर किसी भी सफल राजनीतिज्ञ को ऐसी ठोकर और ऐसी असफलता का स्वाद मिलते रहना भी बहुत ज़रूरी है। ताकि बड़े और कड़े फैसलों में कोई चूक न हो , कभी। आप कहेंगे , आसाम सहित पूर्वोत्तर में नागरिकता संशोधन बिल के खिलाफ विद्रोह ? भारत एक ज़िंदा देश है। लोकतंत्र है। विरोध और असहमति भी दिखना ही चाहिए। अलग बात है पूर्वोत्तर में यह बिल प्रभावी नहीं है। बाक़ी विपक्ष को अब से सही , मुसलमानों को डराना बंद कर देना चाहिए। और कि मुसलमानों को बात-बेबात डरने का नाटक और उपद्रव बंद कर , देश की मुख्यधारा में पूरी ताक़त से खड़ा हो जाना चाहिए। पाकिस्तान और इमरान खान के सुर में सुर मिलाना भारतीय मुसलामानों और विपक्ष दोनों ही को बंद कर देना चाहिए।

आखिर पाकिस्तान , अफगानिस्तान और बंगलादेश के घुसपैठिए अगर देश से बाहर भगा दिए जाते हैं तो भारतीय मुसलमानों के हितों पर चोट कैसे पड़ता है भला ? भारतीय हैं , भारतीय बन कर शान से रहना सीखिए , मुस्लिम दोस्तों। पाकिस्तान , अफगानिस्तान और बांग्लादेशी घुसपैठियों को अपनी अस्मिता से मत जोड़िए। अपने घर में दिया जलाइए पहले। फिर दुनिया भर में दिया जलाइए। अपनी शिक्षा की चिंता कीजिए। अपनी गरीबी से लड़िए। नफरत की राजनीति करने वालों के साथ सुर मत मिलाइए। मत भूलिए कि पाकिस्तान , अफगानिस्तान और बंगलादेश के लोग आतंक की आग बांटने के लिए दुनिया भर में परिचित हैं। उन के साथ सेक्यूलरिज्म की नकली दवाई खा कर इन से नाता जोड़ना बंद कीजिए। विपक्ष का वोट बैंक बहुत बन चुके आप। अब अपना नेतृत्व खुद पैदा कीजिए। असदुद्दीन ओवैसी , आज़म खान जैसे जहरीले लोगों के नेतृत्व से बचिए। अपने समाज को शिक्षित करने पर ज़ोर दीजिए। रोहिंगिया देश में मुश्किल खड़ी कर रहे हैं। देश के मुस्लिम समाज के लिए ही यह खतरा हैं। इस बात को समझिए।

सोचिए कि बिलकुल अभी-अभी दिल्ली के अनाज मंडी में 600 गज की दूरी में बनी अवैध फैक्ट्री में 13 साल से 30 साल तक के जो 43 बच्चे दम घुटने से सोए-सोए मर गए। यह सभी मुसलमान थे। बिहार के गरीब घरों से थे। जिन के घरों के चिराग बुझे हैं , उन के दिल से पूछिए। लड़ना ही है तो अपनी गरीबी से , अपनी ज़िल्लत से लड़िए। देश , समाज और तरक्की से नहीं। कंधे से कंधा मिला कर देश के साथ खड़े होइए। घुसपैठियों के साथ नहीं। यह देश मुसलामानों का भी उतना ही है , जितना किसी और का। हां , जिन लोगों को लगता है कि सुप्रीम कोर्ट उन की आग में घी डाल कर उन की मदद करेगी तो जितनी जल्दी हो सके , इस मुगालते से बचिए। सोचिए कि यह सूचना क्या कम घृणित है कि ऐन गांधी जयंती के दिन बांग्लादेश में हिंदू समाज की 8 साल से 70 साल तक की औरतों के साथ मुस्लिम लोगों द्वारा सामूहिक बलात्कार किया गया। पाकिस्तान और अफगानिस्तान में आए दिन अल्पसंख्यक समाज के परिवार की बहन बेटियों को बहुसंख्यक मुस्लिम समाज के लोगों द्वारा उठा लिए जाने की खबर आती ही रहती है। खास कर सिख समाज और सिंधी समाज की बेटियों को। इस पर तो कहीं से कोई आवाज़ नहीं उठती।

और इसी मुस्लिम समाज के बलात्कारी , आतंकी घुसपैठियों को भारतीय नागरिक बनाने से इतनी मुहब्बत ? इस मुहब्बत के मायने अच्छी तरह समझा जा सकता है। वह सिर्फ मुस्लिम वोट को अपनी झोली में रखने की येन-केन-प्रकारेण प्रतिबद्धता ही है , कुछ और नहीं। बाकी , संविधान , धर्मनिरपेक्षता आदि की दुहाई देना हाथी के दिखाने वाले दांत हैं , खाने वाले नहीं। तो क्या भारतीय मुसलमान इतने मूर्ख हैं ? अभी तक ? अगर नहीं तो आंख क्यों नहीं खुलती इन की ?

Friday, 6 December 2019

बताइए भला कि इनकाउंटर देश के लिए बहुत भयानक है लेकिन बलात्कारी बहुत भले !


बताइए भला कि इनकाउंटर देश के लिए बहुत भयानक है लेकिन बलात्कारी बहुत भले ! है न , मेनका गांधी जी ! जो भी हो , न्याय हो और होता हुआ दिखाई दे सूत्र वाक्य की याद आ गई है। पंजाब के के पी एस गिल की याद आ गई है। पंजाब में आतंकियों के सफाए के लिए उन का एक अघोषित स्लोगन था , नो अरेस्ट , नो पेशी , नो सुनवाई। डायरेक्ट ऐक्शन , सीधे इंसाफ ! गिल ने इस में सफलता भी पाई थी। तेलंगाना पुलिस के डी सी पी रेड्डी ने के पी एस गिल को ही फॉलो किया है। सभी आतंकियों और बलात्कारियों के साथ के पी एस गिल के इस स्लोगन , नो अरेस्ट , नो पेशी , नो सुनवाई। डायरेक्ट ऐक्शन ! को फॉलो किया ही जाना चाहिए। इतना ही नहीं बलात्कारियों और आतंकियों को ज़मानत देने और तारीखों में उलझाने वाले जजों के साथ भी यही सुलूक किया जाना चाहिए। और ऐसे मामलों में मानवाधिकार के नाम पर खड़े होने वाले एन जी ओ के टट्टू लोगों को भी निपटा दिया जाना चाहिए। हो सकता है इस स्लोगन का कुछ दुरूपयोग भी हो। लेकिन बलात्कार और आतंक से ऐसे ही निपटना बहुत ज़रूरी हो गया है ।

दिलचस्प यह भी है कि समूचा देश इस इनकाउंटर का स्वागत कर रहा है। पुलिस पर फूल बरसा रहा है। मिठाई खिला रहा है। लेकिन एक असुदुद्दीन ओवैसी इस इनकाउंटर की जांच की मांग कर रहा है। एक जान दयाल भी ओवैसी के सुर में सुर मिला बैठा है। मानवाधिकार के नाम पर। कि क्या देश ऐसे ही चलेगा ? सुप्रीम कोर्ट की रूलिंग के मुताबिक हर इनकाउंटर की जांच होती है। इस की भी होगी। पर ओवैसी और जान दयाल का का दुःख देखिए। हैदराबाद पुलिस कमिश्नर सज्ज्नार वैसे भी ऐसे इनकाउंटर के लिए जाने जाते हैं। कुछ समय पहले एसिड अटैक करने वाले तीन लोगों को भी ऐसे ही इनकाउंटर में मार दिया गया था। यह सिलसिला जारी रहना चाहिए। मैं पूरी तरह अहिंसा में यकीन करता हूं लेकिन अहिंसा के नाम पर बलात्कारियों और आतंकियों को जश्न मनाते भी बहुत दिन तक नहीं देख सकता। जो भी हो डाक्टर प्रियंका रेड्डी की आत्मा को आज ज़रूर शांति मिली होगी। लेकिन काश कि बलात्कारियों को न्यायपालिका के मार्फ़त फांसी हुई होती तो ज़्यादा बेहतर होता। काश कि न्यायपालिका के लोग भी इस ताप को समझ सकते।

न्याय और न्यायपालिका के लिए आज शर्म का दिन है। न्यायपालिका अगर बलात्कार पीड़िताओं का दुःख समझती , उन के परिजनों का संताप समझती तो हैदराबाद पुलिस को आज इनकाउंटर कर डाक्टर प्रियंका रेड्डी को इंसाफ नहीं दिलाना पड़ता। देखिए न निर्भया के दोषियों को 7 साल बाद आज तक फांसी नहीं हुई। बल्कि एक दोषी लापता हो चुका है।

दुर्भाग्य देखिए कि न्यूज चैनलों , फेसबुक , वाट्स अप आदि पर दबी जुबान सही बलात्कारी भी अब सेक्यूलर नान सेक्यूलर हो गए हैं। जाहिर है पूरे देश को पसंद आने वाला हैदराबाद इनकाउंटर सेक्यूलरजन को रास नहीं आया है। सेक्यूलर शब्द ऐसे ही थोड़े बदबू करने लगा है। सत्तानशीनो को तो इस के खिलाफ होना ही है है। उन्हें डर है कि उन की मक्कारी का मजा कहीं पुलिस उन्हें भी न देने लगे। बस रिटायर्ड जज साहबान मुसलसल चुप हैं। क्यों कि इन्हीं मक्कार जजों के चक्कर में पुलिस को मुठभेड़ पर उतरना पड़ा। राहत इंदौरी का वह शेर है न :

नई हवाओं की सोहबत बिगाड़ देती है
कबूतरों को खुली छत बिगाड़ देती है।

वो जो जुर्म करते हैं इतने बुरे नहीं होते
सज़ा ना देकर अदालत बिगाड़ देती है।

जो लोग हैदराबाद इनकाउंटर पर सवाल दर सवाल की बोफोर्स दाग रहे हैं उन सभी से पूछने का मन होता है कि अगर बलात्कार और हत्या की शिकार वह बेटी , आप की खुद की बेटी होती तो ? यही तर्क और यही विमर्श करते ? अरे कमीनों बेटियां साझी होती हैं। वह तुम्हारी भी बेटी थी। सवाल उठाना ही है तो न्यायपालिका में बैठे कमीनों पर उठाओ जिन्हों ने हत्यारों , बलात्कारियों और भ्रष्टाचारियों को तारीखों और कानूनी प्रक्रिया की आड़ में अभयदान दे रखा है। कभी पढ़ते थे कि किसी भी देश के लिए सेना से भी ज़्यादा ज़रूरी होती है न्यायपालिका। पर हत्यारों , बलात्कारियों और भ्रष्टाचारियों को ज़मानत देने वाली यह बेल पालिका उर्फ़ नपुंसक न्यायपालिका तो हरगिज , हरगिज किसी देश को नहीं ही चाहिए होती है। जो रूल आफ ला बलात्कारियों , हत्यारों , आतंकियों और भ्रष्टाचारियों को सिर्फ जीवन देता हो , उस रूल आफ ला को अभी के अभी जला दो।