Thursday, 26 July 2018

हद है कि दिल्ली में भूख से मरने का अधिकार चाहिए


तुम्हें मेट्रो दे दिया
बुलेट ट्रेन बस देने ही जा रहा हूं
हद है कि तुम्हें रोटी भी चाहिए

तुम्हें स्मार्ट फोन दे दिया
कहीं फ्री , कहीं सस्ता इंटरनेट भी दे दिया
हद यह है कि तुम्हें भात भी चाहिए

तुम्हें सड़क , बिजली , आदि-इत्यादि दे दिया
दूध की तरह विकास देने वाली सरकार भी
हद है कि तुम्हें राशन के लिए राशन कार्ड भी चाहिए

तुम्हें अस्पताल दे दिया
भ्रूण हत्या की असीमित सुविधा भी
हद है कि तुम को भूख से मरने का प्रचार भी चाहिए

दहेज हत्या में मरो , सामूहिक बलात्कार के बाद मरो
तलाक़ और हलाला के बाद मरो , देश में कहीं भी , कैसे भी मरो
हद है कि तुम को दिल्ली में भूख से मरने का अधिकार चाहिए

देश में मरने की तमाम जगहें हैं ,
किसी डाक्टर ने कहा है कि दिल्ली ही में मरो
हद है कि तुम्हें दिल्ली में मर कर विपक्ष के बयान में स्थान चाहिए

[ 26 जुलाई , 2018 ] 

Wednesday, 25 July 2018

एक पिता के चार बेटे

दयानंद पांडेय 
 

एक पिता के चार बेटे
चारो बेटे एनिमल एक्टिविस्ट  
बस फ़ील्ड अलग-अलग 

एक बेटा टाइगर बचाता है 
मीडिया में उस की फ़ोटो छपती है 
सेमिनारों में जाता है 

एक बेटा एनिमल लवर है 
कुत्तों , बंदरों आदि को बचाता है 
शहर के अख़बारों में उस के चर्चे हैं 

एक बेटा विश्नोई समाज का गहरा दोस्त है 
वह काला हिरन बचाता है 
फ़िल्मी हीरो को भी सज़ा करवाता है 

एक बेटा कहता है , गाय हमारी माता है 
जान पर खेल कर गाय बचाता है 
वह कट्टर हिंदू और सांप्रदायिक कहलाता है

यह न्यू इंडिया है
यह भारत और इंडिया के बीच का है
इसे सेक्यूलर इंडिया भी कहा जाता है 

[ 25 जुलाई , 2018 ]

मैं बरस रहा हूं


अभी हवा में ढूंढ रहा था तुन्हें
तो बादल मिल गया 
तो उसी से तुम्हारा पता पूछ लिया 

बादल बोला , पता तो मुझे मालूम है
पर बहुत जल्दी में हूं 
सो पता बता पाना मुश्किल है
 
बरस सकते हो तो बरसो मेरे साथ 
पता ख़ुद-ब-ख़ुद मिल जाएगा 
पहुंच जाओगे उस के पास अनायास
जिस का पता पूछ रहे हो

सो अब बादल नहीं , मैं बरस रहा हूं 
तुम तक पहुंचने के लिए

[ 25 जुलाई , 2018 ]

Thursday, 19 July 2018

जैसे एक युग बीत गया है , गीतों का


जैसे एक युग बीत गया है , गीतों का । स्वप्न झरे फूल से, मीत चुभे शूल से गीत की ही तरह नीरज अब स्मृति-शेष हो गए हैं । नीरज और उन के गीतों का कारवां गुज़र गया है । गीतों को जो लय , मिठास , मादकता और बहार नीरज ने दी है , वह अनूठी है । खुल्लमखुल्ला जो रंगीन जीवन उन्हों ने जिया , वह क्या कोई जिएगा । रजनीश जैसे लोगों ने नीरज के तमाम गीतों पर प्रवचन दिए हैं । हिंदी फिल्मों में जो गीत उन्हों ने लिखे , जो मादकता और जो तबीयत उन्हों ने परोसी है , वह अविरल है , अनूठी है । वह बताते थे कि एक बार राजकपूर ने एक गीत में कुछ बदलने पर हस्तक्षेप किया तो उन्हों ने राज कपूर को डांटते हुए कहा कि देखो , तुम अपनी फील्ड के हीरो हो , मैं अपनी फील्ड का हीरो हूं । तुम अपना काम करो , मुझे अपना काम करने दो । और राज कपूर चुप हो कर उन की बात मान गए थे । एक समय एस डी वर्मन जैसे संगीतकारों से भी नीरज टकरा गए थे । देवानंद दो ही गीतकारों पर मोहित थे । एक साहिर लुधियानवी , दूसरे नीरज । ओमपुरी पहली बार जब लखनऊ में नीरज से मिले तो पूरी श्रद्धा से उन के पांव पकड़ कर लेट गए थे । यह उन के गीतों का जादू था । ओमपुरी उन के गीतों की मादकता पर ही मर मिटे थे । हम भी उन के गीतों पर न्यौछावर हैं । जलाओ दिये पर रहे ध्यान इतना , अंधेरा धरा पर कहीं रह न जाए जैसे आशावादी गीत रचने वाले नीरज आत्मा का गीत लिखते थे । औरतों और शराब में डूबे रहने वाले नीरज ने आध्यात्मिक गीत भी खूब लिखे हैं । रजनीश के अलावा बुद्ध से वह बहुत गहरे प्रभावित थे । बीमारी की जकड़न और 93 साल की उम्र में भी उन का जाना शूल सा चुभ रहा है । उन का एक सदाबहार गीत आज उन्हीं पर चस्पा हो गया है । और हम लुटे-लुटे उसे याद करने के लिए विवश हो गए हैं क्यों कि नीरज का कारवां तो आज सचमुच गुज़र गया है , बस उन की यादों का गुबार रह गया है :

स्वप्न झरे फूल से,
मीत चुभे शूल से,
लुट गए सिंगार सभी बाग के बबूल से,
और हम खड़े-खड़े बहार देखते रहे।
कारवाँ गुज़र गया, गुबार देखते रहे!

नींद भी खुली न थी कि हाय धूप ढल गई,
पाँव जब तलक उठें कि ज़िन्दगी फिसल गई,
पात-पात झर गए कि शाख़-शाख़ जल गई,
चाह तो निकल सकी न, पर उमर निकल गई,
गीत अश्क बन गए,
छंद हो दफन गए,
साथ के सभी दिए धुआँ-धुआँ पहन गए,
और हम झुके-झुके,
मोड़ पर रुके-रुके,
उम्र के चढ़ाव का उतार देखते रहे।
कारवाँ गुज़र गया, गुबार देखते रहे।

क्या शाबाब था कि फूल-फूल प्यार कर उठा,
क्या सुरूप था कि देख आइना सिहर उठा,
इस तरफ़ ज़मीन और आसमाँ उधर उठा
थाम कर जिगर उठा कि जो मिला नज़र उठा,
एक दिन मगर यहाँ,
ऐसी कुछ हवा चली,
लुट गई कली-कली कि घुट गई गली-गली,
और हम लुटे-लुटे,
वक़्त से पिटे-पिटे,
साँस की शराब का खुमार देखते रहे।
कारवाँ गुजर गया, गुबार देखते रहे।

हाथ थे मिले कि जुल्फ चाँद की सँवार दूँ,
होंठ थे खुले कि हर बहार को पुकार दूँ,
दर्द था दिया गया कि हर दुखी को प्यार दूँ,
और साँस यों कि स्वर्ग भूमि पर उतार दूँ,
हो सका न कुछ मगर,
शाम बन गई सहर,
वह उठी लहर कि दह गए किले बिखर-बिखर,
और हम डरे-डरे,
नीर नयन में भरे,
ओढ़कर कफ़न, पड़े मज़ार देखते रहे।
कारवाँ गुज़र गया, गुबार देखते रहे!

माँग भर चली कि एक, जब नई-नई किरन,
ढोलकें धुमुक उठीं, ठुमुक उठे चरन-चरन,
शोर मच गया कि लो चली दुल्हन, चली दुल्हन,
गाँव सब उमड़ पड़ा, बहक उठे नयन-नयन,
पर तभी ज़हर भरी,
गाज एक वह गिरी,
पोंछ गया सिंदूर तार-तार हुईं चूनरी,
और हम अजान-से,
दूर के मकान से,
पालकी लिए हुए कहार देखते रहे।
कारवाँ गुज़र गया, गुबार देखते रहे।

नीरज के कुछ मशहूर गीतों के मुखड़े 

1 कारवां गुज़र गया ग़ुबार देखते रहे....
2 ए भाई ज़रा देख के चलो, आगे ही नहीं पीछे भी
3 बस यही अपराध मैं हर बार करता हूँ, आदमी हूँ आदमी से प्यार करता हूँ
4 फूलों के रंग से दिल की कलम से तुझको लिखी रोज़ पाती
5 कैसे कहे हम प्यार ने हमको क्या क्या खेल दिखाए
6 शोखियों में घोला जाए फूलों का शबाब
7 ये दुनिया वाले पूछेंगे मुलाकात हुई क्या बात हुई
8 मेघा छाए आधी रात बैरन बन गई निंदिया
9 लिक्खे जो ख़त तुझे जो तेरी याद में हज़ारों रंग के नज़ारे बन गए
10 ओ मेरी ओ मेरी ओ मेरी शर्मीली.....
11 जीवन की बगिया महकेगी
12 दिल आज शायर है गम आज नग़मा है
13 खिलते हैं गुल यहाँ खिल के बिखरने को
14 वो हम न थे वो तुम न थे.....
15 जैसे राधा ने माला जपी श्याम की
16 रंगीला रे मेरे मन में यूँ समाए तेरा मन
17 मेरा मन तेरा प्यासा है मेरा मन तेरा

[ गीतों की यह सूची रिंकू चटर्जी द्वारा संकलित है ]

Tuesday, 17 July 2018

सिमी की ही तरह मुस्लिम पर्सनल ला बोर्ड पर भी बैन लगाने का यही माकूल समय है


ज़ी हिंदुस्तान पर लाइव डिसकसन में मुस्लिम स्त्रियों के साथ अभद्र भाषा के साथ मार-पीट करने वाले मौलाना कासिम के साथ आई पी सी के मुताबिक तो पूरी सज़ा नहीं मिल पाएगी । गिरफ्तार भले हो गए हैं वह पर अंततः ज़मानत पा जाएंगे । इन का इलाज तो इस्लामी क़ानून के मुताबिक ही मुमकिन है । चौराहे पर पत्थर मार-मार कर मार ही देना ही गुड है । और मौलाना कासमी ही क्यों ऐसे सारे जहरीले मौलानाओं के साथ यही सुलूक करना ज़रूरी है । जितने भी शरिया अदालत के पैरोकार हैं उन सभी के साथ । पूर्व उपराष्ट्रपति हामिद अंसारी जैसों के साथ भी । पर यह हो नहीं पाएगा । यह तो खयाली पुलाव भर है । जो भी हो , भारत का पूरा माहौल ख़राब कर रखा है इन बेहूदे लोगों ने । इस्लाम के नाम पर आतंक , हिंसा , अभद्रता ही इन की अंतरराष्ट्रीय पहचान हो चली है । जाने कब यह लोग सभ्य शहरी बनना मंज़ूर करेंगे ।

फिर यह जाहिल मौलाना कासिम ही क्यों पूरा पूरे मुस्लिम पर्सनल ला बोर्ड है कटघरे में है । सिमी की ही तरह मुस्लिम पर्सनल ला बोर्ड पर भी बैन लगाने का यही माकूल समय है । लेकिन आज खामोश दिखने वाली सेक्यूलर फोर्सेज के हिप्पोक्रेट कल को फिर इन की पैरवी में खड़े दिखेंगे । बताएंगे कि यह देश मुसलमानों के लिए असुरक्षित है । असहिष्णुता बहुत है । आदि-इत्यादि । नीम पर करेला यह कि गाय खाना भी इन का जन्म-सिद्ध अधिकार है । कुरान के मुताबिक औरतें इन की खेती हैं । तिहरा तलाक़ , हलाला और औरतों को यतीम बनाना इन का पेशा । मदरसा की पढ़ाई सदियों से इन को यही सब सिखा रही है । तिस पर सेक्यूलरिज्म के पाखंड ने इस्लामिक हिंसा को इस कदर संरक्षण दे रखा है कि यह अल्पसंख्यक की बीन बजा कर , अल्पसंख्यक प्रिविलेज के नशे से छुट्टी ही नहीं पाना चाहते । सेक्यूलरिज्म की आड़ में मीडिया ने भी इस इस्लामिक हिंसा को खूब घी पिलाया है ।

जिस तरह पूरी सख्ती से चीन अपने यहां इन कट्टरपंथी मुसलमानों से पेश आ रहा है , उस से ज़्यादा सख्ती इन से भारत में ज़रुरी हो गई हैं ।समान नागरिक संहिता भी पूरी सख्ती से लागू किया जाना बहुत ज़रूरी है। क्यों कि इस्लाम की रौशनी में तो यह सुधरने से रहे । इस लिए भी कि सेक्यूलरिज्म की हिप्पोक्रेसी ने इन्हें बिगाड़ बहुत दिया है । सोचिए कि जो मौलवी खुलेआम लाइव इस तरह तीन-तीन स्त्रियों से मार-पीट करता है , गाली देता है वह अपने घर में क्या करता होगा , अपने समाज में क्या करता होगा । गनीमत यह थी कि इस डिवेट में एंकर सहित सभी लोग मुस्लिम थे । दो स्त्रियां और , दो पुरुष । कोई भाजपाई , संघी या हिंदूवादी नहीं था । खुदा न खास्ता अगर होता तो इस स्त्री हिंसा की ख़बर और चर्चा कुछ और रंग में होती । भगवा कलर का जहरीला कलर पहना कर मौलाना और सेक्यूलर पाखंडी नया जहर उगल रहे होते । नया रंग दे रहे होते । अभी तो यह लोग या तो खामोश हैं या फेस सेविंग वाले बयान दे कर कतरा रहे हैं ।

खैर , निदा खान तो निदा खान , बरेली की एक औरत को तो एक आदमी बार-बार तलाक देता है और कभी अपने बाप से तो कभी अपने भाई से हलाला करने के लिए विवश करता है । यह कौन सा समाज है भला कि सोलह साल की नाबालिग लड़की , तीन बच्चों की मां बन कर तलाक़ का नरक भुगतने को अभिशप्त हो जाती है । आंबेडकर ने ठीक ही लिखा है कि इस्लाम और मुसलमान अभिशाप हैं इस समाज के लिए । दुनिया बदल गई है , चांद पर चली गई है लेकिन यह तो शरिया अदालत , और मुस्लिम पर्सनल ला बोर्ड में उलझे हैं । तलाक़ , हलाला और आतंक से इन्हें फुर्सत ही नहीं मिल रही। अब सरकार को संसद में लंबित तलाक़ के क़ानून को इस आसन्न सत्र में हर हाल में पारित कर सख्ती से लागू कर ही देना चाहिए ।

Sunday, 8 July 2018

संजय दत्त की बायोपिक नहीं , संजय दत्त का चेहरा साफ़ करने के लिए बनाई गई है संजू


कल रात संजू देखी। बहुत ही पावरफुल फ़िल्म है । मैं तो बहुत देर तक नि:शब्द रह गया। बहुत से लोगों की आत्मकथा पढ़ी है । जीवनी पढ़ी है । बायोपिक फ़िल्में देखी हैं । रिचर्ड एटनबरो की फिल्म गांधी से बेहतर बायोपिक अब तक नहीं बनी , आगे भी खैर क्या बनेगी । तीन फ़िल्मी लोगों की बायोपिक देखी है । एक मीना कुमारी पर मीना कुमारी की अमर कहानी जो बहुत ही लिजलिजी फ़िल्म थी और भटकी हुई भी । मीना कुमारी की फ़िल्मी क्लिपिंग से लदी-फदी । कोई ओर-छोर नहीं । सिर्फ़ मीना कुमारी के नाम पर भावनात्मक दोहन कर दर्शकों को सिनेमाघर तक बुला लिया गया था । दूसरी , मराठी अभिनेत्री हंसा वाडेकर पर श्याम बेनेगल की फ़िल्म भूमिका जिस का रोल स्मिता पाटिल ने किया था । उन के क्रूर पति के रूप में अमोल पालेकर थे । शानदार फ़िल्म थी । और अब संजय पर बनी संजू । राज कुमार हिरानी की यह फिल्म इन तीनों में बहुत बेहतर है । बहुत शानदार । लेकिन इस संजू को सिर्फ़ एक कमी के कारण हम अप्रतिम फ़िल्म कहते-कहते रुक से गए हैं । यह फिल्म संजय दत्त की बायोपिक कम , संजय दत्त का चेहरा साफ़ करने के लिए ज़्यादा बनाई गई है । बस यह संजय दत्त की तरफ से क़दम-क़दम पर सफाई देने वाली फ़िल्म के रूप में न बनाई गई होती , अपने सहज रूप में , सहज गति में चली होती , इसी ध्यान से लिखी और निर्देशित की गई होती तो निश्चित मानिए यह कालजयी फ़िल्म भी होती । सिर्फ़ पैसा कमाने वाली फ़िल्म नहीं होती। गाडफादर जैसी क्लासिक फ़िल्में भी आख़िर हमारे सामने हैं ।

इस फ़िल्म को देखने के बाद ज़रा ठहर कर सोचिए तो क़ायदे से यह सुनील दत्त के त्याग , साहस और धैर्य की फ़िल्म है । अब चूंकि फ़िल्म के लेखक और निर्देशक को सुनील दत्त की तरफ से कोई सफाई नहीं देनी थी , उन का चेहरा साफ़ नहीं करना था सो उन की भूमिका परेश रावल जैसे सधे हुए अभिनेता को निर्विकार ढंग से थमा दी है और परेश रावल ने उसी सहजता से उन्हें जी लिया है । फ़िल्म देख कर सुनील दत्त के प्रति करुणा और संवेदना जगती है , संजय दत्त के प्रति नहीं । यह तो फिल्म है लेकिन असल जीवन में संजय दत्त को ले कर सुनील दत्त ने कितना अपमान , कितना कष्ट , कितना लांछन और कितना टूटन जिया होगा , वह ही जानते रहे होंगे । फिल्म भी थोड़ा बहुत बताती ही है । जानने वाले जानते हैं कि संजय दत्त का 1993 के मुम्बई की आतंकवादी बम ब्लास्ट घटना में कितना हाथ था , कितना सहयोग था पर एक सुनील दत्त के सामाजिक और राजनीतिक पुण्य-प्रताप के कारण ही वह आतंकवादी घटना से जैसे-तैसे क़ानूनी तौर पर बरी हो पाए । सचमुच नहीं । होते तो इस फिल्म का इस एक बात पर इतना जोर नहीं होता कि संजय दत्त टेररिस्ट नहीं हैं । ए के - 56 रखने पर सिर्फ़ आर्म्स एक्ट पर सजा नाकाफी हैं संजय दत्त पर । क़ानून के जानकार और मुम्बई के लोग भी जानते हैं । जिन परिवारों के लोग तब मरे थे , उन से पूछिए ।

पुरानी कहावत है कि आदमी परिस्थितियों का दास होता है । संजय दत्त के लिए इस संजू फिल्म में बार-बार यही जतलाने की कोशिश भी की गई है । जब कि सच यह नहीं है । परिस्थितियों का दास आदमी एक बार , दो बार हो सकता है , बार-बार नहीं । फिर भी अगर यही तर्क मान लिया जाए कि आदमी परिस्थितियों का दास होता है तो इस बिना पर तो सभी ड्रगिस्ट , सभी आतंकवादी , सभी औरतबाज़ , सभी अपराधी बरी हो जाएंगे । जैसे संजय दत्त बरी हो गए हैं । संजय दत्त भले क़ानूनी रूप से बरी हो गए हैं , इस फिल्म के मार्फत अपना चेहरा साफ़ करने की सफाई पेश कर गए हैं लेकिन तथ्य अपनी जगह हैं । बहुत से हत्यारे और आतंकवादी कानून की आंख में धूल झोंक कर , पैसे के दम पर बरी हो जाते हैं , संजय दत्त इकलौते नहीं हैं । हां साढ़े तीन सौ से अधिक औरतों को भोगने का संजय दत्त का रिकार्ड ज़रुर अनूठा है । इस संख्या में उन्हों ने वेश्याओं की गिनती छोड़ दी है ।

अभी कुछ समय पहले एक फिल्म तलवार आई थी । वह भी बहुत बेहतरीन फिल्म थी । नायाब । जिसे तलवार दम्पति ने पैसा खर्च कर अपनी बेटी की हत्या के बाबत अपना चेहरा साफ़ किया था । हाईकोर्ट द्वारा जेल से भी बरी हो गए हैं । लेकिन जानने वाले जानते हैं कि तलवार दम्पति कितना बरी हैं , कितना दोषी। बहरहाल यह एक ग़लत ट्रेंड बन रहा है कि पैसे वाले लोग पैसा खर्च कर अपनी सफाई में फिल्म बना कर , किताब लिख-लिखवा कर अपने को महात्मा गांधी साबित करने लगे हैं । परिस्थितियों का दास साबित कर सारा ठीकरा बिकाऊ मीडिया पर फोड़ देना बहुत आसान है किसी फिल्म के मार्फत । आप दादागिरी की तर्ज पर गांधीगिरी कर सकते हैं और फ़िल्म कामयाब कर सकते हैं तो यह कौन सा कठिन काम है भला । पर यह न भूलिए कि कुछ दोगले इतिहासकारों के इतिहास लेखन से अभी तक इतिहास के परसेप्शन तो नहीं बदले हैं । लोग जानते हैं कि इतिहास क्या है और दोगले इतिहासकार क्या लिख रहे हैं या लिख गए हैं । फिल्मों से , किताब से आप के या किसी के पाप नहीं धुलते , परसेप्शन नहीं बदलते । रावण , रावण ही रहता है , राम नहीं बन जाता । ठीक वैसे ही जैसे गंगा नहाने से सचमुच पाप और अपराध नहीं धुलते । पाप और अपराध परछाई की तरह आप के साथ रहते हैं । मरने के बाद भी नहीं मिटते ।

रही बात संजू फिल्म की तो फिल्म के लिहाज से वंडरफुल फिल्म है । बतौर अभिनेता रणवीर कपूर ने अपने जीवन का श्रेष्ठ अभिनय परोसा है । रणवीर में संभावनाएं बहुत हैं अभी । उन के अभिनय में सिर्फ़ ड्रामा ही नहीं जीवन भी है , सादगी और निश्छलता भी भरपूर । संजय दत्त को जैसे शीशे में उतार दिया है अपने अभिनय में रणवीर कपूर ने । तिस पर उन्हें परेश रावल जैसे अनूठे अभिनेता का साथ मिल गया है । दोनों की बीट और ट्यून ज़बरदस्त है । मनीषा कोइराला ने भी नरगिस को जीने की कोशिश की है । अमरीकी दोस्त भी गज़ब है । विकी कौशल ने गज़ब अभिनय किया है । काश कि ऐसा समर्पित दोस्त सब के जीवन में हो । सोनम कपूर भी भली लगी हैं । और बोमन ईरानी के अभिनय के क्या कहने । पूरी फिल्म की पटकथा , परिकल्पना और निर्देशन लाजवाब है । बहुत दिन बाद इतनी कसी और सधी हुई फिल्म देखने को मिली । शार्प और सुंदर ।देखते समय आप एक क्षण के लिए भी फिल्म से फुर्सत नहीं ले सकते । सब कुछ कसा और सधा हुआ । देखने के बाद भी फ़िल्म मन में निरंतर चलती और गूंजती रहती है । अनुष्का शर्मा जैसी हिरोइन टाइप , पैसे वाली संपन्न लेखिका देखना किसी हिंदी फिल्म में ही मुमकिन है । एक दृश्य में तत्कालीन प्रधान मंत्री अटल बिहारी वाजपेयी की जिस तरह खिल्ली उड़ाई गई है वह न सिर्फ़ बहुत अभद्र है बल्कि अटल जी के चरित्र से भी मेल नहीं खाती । यह निर्देशक राजकुमार हिरानी की हार और संजय दत्त का अपना फ्रस्टेशन हो सकता है , सच नहीं । इसी तरह इंडियन मीडिया पर जिस तरह फ़िल्म टूट कर बरसती है तो मीडिया की कलई खोलती हुई हिट भी ख़ूब करती है लेकिन जानने वाले जानते हैं कि ऐसी सभी ख़बरें मीडिया में पुलिस की अनआफिशियल ब्रीफिंग पर आधारित होती हैं , जिन की ज़मीन भी कहीं न कहीं होती ही है । आधारहीन नहीं होती यह ब्रीफिंग भी । बिकाऊ मीडिया अब दूध की धुली नहीं है , मुम्बई में तो माफ़िया के दबाव में वैसे ही रहती है जैसे फ़िल्म इंडस्ट्री । आकंठ पाप में डूबी हुई है मीडिया भी पर संजय दत्त जैसा दाग़ी व्यक्ति जब मीडिया पर अपने फ्रस्ट्रेशन का घड़ा फोड़ता दीखता है तो हंसी आती है । सुनील दत्त जैसा व्यक्ति भी जब अख़बार के संपादक के पास अपने नालायक , ड्रगिस्ट और टेररिस्ट बेटे का उलाहना ले कर जाता है तो खीझ होती है ।

इस फिल्म में पहली बार गीतकारों को इतना सम्मान मिलता देख कर भी ख़ुशी हुई । गीतकारों को मुश्किल समय में याद कर उन्हें उस्ताद कह कर गुहराना अभिभूत करता है और चकित भी । अभी तक लोग फ़िल्मी गाने याद तो करते हैं पर अकसर गायकों के नाम से या कभी-कभार संगीतकारों के नाम से । लेकिन संजू में हर मुश्किल की घड़ी में जब उस्ताद कह कर गीतकारों को सुनील दत्त की भूमिका में परेश रावल याद करते हैं और अचानक बोलते हैं मज़रूह सुल्तानपुरी ! तो फ़िल्म का स्वाद बेहिसाब बढ़ जाता है । और वह उन का गीत याद करते हैं , रुक जाना नहीं , तू कभी हार के / कांटों पे चल के मिलेंगे साए बहार के ! नरगिस से शादी पर हाजी मस्तान के विरोध को वह एक दूसरे उस्ताद साहिर लुधियानवी को याद करते हैं , न सिर झुका के जियो , न मुंह छुपा के जियो ! आख़िर में एक तीसरे उस्ताद आनंद बक्षी आते हैं , कुछ तो लोग कहेंगे , लोगों का काम है कहना ! कुछ तो लोग कहेंगे नाम से ही अनुष्का शर्मा उन की जीवनी की किताब ले कर उपस्थित होती हैं । इस के पहले भी आनंद बक्षी मिलते हैं हाथी मेरे साथी के एक गीत के मार्फ़त , दुनिया में रहना है तो काम करो प्यारे ! इन उस्ताद लोगों को वह नरगिस की यादों को झरोखे से याद करते हैं तो बात में भावनात्मक और संवेदनात्मक दम आ जाता है । संजू फिल्म इस लिए भी याद की जानी चाहिए कि नरगिस और राजकपूर के परिवार का यह समानुपातिक मिलन भी है ।

रेखा , माधुरी दीक्षित जैसी अभिनेत्रियों के साथ संजय दत्त का प्रेम संबंध और गुपचुप शादी जैसे घटनाएं इस फ़िल्म में विलुप्त हैं । उन की पहली पत्नी ऋचा शर्मा और उन से उन की बेटी भी अनुपस्थित है फ़िल्म से । दूसरी पत्नी भी । मान्यता से उन के विवाह के प्रसंग और जुड़े विवाद भी गुम हैं । ऐसी बहुत सी नालायकी और फ़रेब भी संजय दत्त के छुपा ले गए हैं निर्देशक । संजय की बहन प्रिया दत्त का सारा अवदान फ़िल्म में भुला दिया गया है । तब जब कि प्रिया सुनील दत्त के जाने के बाद जिस तरह से संजय के साथ संघर्ष में कंधे से कंधा मिला कर खड़ी दिखी थीं , वह अदभुत था । संजय के वकील भी लापता हैं । सारी कायनात एक तरफ दूसरी तरफ एक बाला साहब ठाकरे न होते तो भी संजय दत्त का टेररिस्ट के जुर्म से छूट्टी पा पाना नामुमकिन था । लेकिन बाला साहब ठाकरे भी फ़िल्म से अनुपस्थित हैं । फिल्म में संजय दत्त का चेहरा साफ़ करने के लिए इसी तरह जहां बहुत से तथ्य छुपाए गए हैं वहीँ बहुत से तथ्य काल्पनिक रूप से गढ़े गए हैं । दाऊद इब्राहीम से सीधा संपर्क था संजय दत्त का । आमिर खान , शाहरुख़ खान जब अंडरवर्ल्ड के मार्फत संजय दत्त का नुकसान पर नुकसान कर रहे थे , यह सब भी फिल्म से पूरी तरह गोल है । नरगिस संजय का ड्रगिस्ट रूप नहीं जानती थीं , यह भी झूठ है । ऐसी बहुतेरी बातें हैं । जब बायोपिक ही बना रहे थे , पूरी बायोपिक बनाते । सच-झूठ करने से बातें क्या छुप जाती हैं । संजय दत्त का बिगड़ैल बचपन और स्कूली जीवन भी लापता है । तो यह बायोपिक बनाने की ज़िद भला क्यों थी । आप घोषित कर देते कि संजय दत्त के जीवन से प्रेरित या आधारित । पर शायद इस तरह दोस्ती नहीं निभ पाती । चेहरा साफ़ करने का मकसद कामयाब नहीं हो पाता । बावजूद इन सब बेवकूफियों के यह मकसद हासिल तो नहीं हो पाया है ।

हर नालायक और बिगड़े लड़के के पिता को यह फ़िल्म ज़रुर देखनी चाहिए । शायद सुनील दत्त के धैर्य को देख कर उसे सीख मिले । धैर्य धारण करने का साहस भी । वह अभागा पिता यह भी सोच सकता है कि उस का लड़का कितना भी नालायक और बिगड़ा हुआ हो पर संजय दत्त से तो बहुत बेहतर है । संजय दत्त जैसा ड्रगिस्ट , नशेड़ी , मनबढ़ और टेररिस्ट लड़का भगवान किसी को न दे । इस लिए भी कि दुनिया के सारे पिता सुनील दत्त जैसा धैर्य , पैसा , फ़िल्मी लोकप्रियता , सामाजिक और राजनीतिक जीवन नहीं पाते । विधु विनोद चोपड़ा , राजकुमार हिरानी को सुनील दत्त के जीवन पर भी एक फिल्म बनाने की सोचनी चाहिए । इसी जूनून और इसी समर्पण के साथ । वह शायद क्लासिक बन जाए ।

Friday, 6 July 2018

नौकरशाही से हारे हुए अराजक अरविंद केजरीवाल


नौकरशाही शेर की सवारी शुरू ही से मानी जाती रही है । लेकिन अरविंद केजरीवाल इसे नहीं साध पाए । अब शेर ने उन्हें उठा कर पटक दिया है और अब उन्हें खा जाने पर आमादा है । अनपढ़ राबड़ी देवी तक इस शेर की सवारी को इज्जत दे कर साध ले गई थीं । लालू जेल में थे , बच्चे छोटे लेकिन राबड़ी अपने सचिव पाठक जी का बस पांव भर नहीं छूती थीं सार्वजनिक रूप से । बाक़ी सब । सारा आदर सत्कार करती रहती थीं । पाठक जी की सलाह के बिना वह पत्ता नहीं हिलने देती थीं , अपने शासन में । तो पाठक जी ने भी कभी उन पर आंच नहीं आने दी । उत्तर प्रदेश के एक मुख्य मंत्री रामनरेश यादव तो एक समय अपने सचिव को देखते ही खड़े हो जाते थे । बाद में उस सचिव ने ही उन्हें उन की मर्यादा समझाई और कहा कि सर , आप खड़ा न हुआ करें । लेकिन रामनरेश यादव को यह अपनी आदत सुधारने में बहुत समय लगा था । हुआ यह था कि रामनरेश यादव के वह सचिव कभी उन के ज़िले में डीेएम रहे थे । और रामनरेश यादव मामूली वकील । तो उन्हें यह सम्मान देने की आदत बनी रही ।

नारायणदत्त तिवारी को तो विकास पुरुष कहा जाता रहा है लेकिन इमरजेंसी जैसे समय में लखनऊ के तत्कालीन ज़िलाधिकारी चतुर्वेदी जी ने उन के कहे के बावजूद एक राजनीतिक को मीसा में बंद करने के लिए सार्वजनिक रूप से इंकार करते हुए कहा कि सर , ज़िला मुझे संभालने और चलाने दीजिए । और तिवारी जी चुप रह गए थे । तिवारी जी को मैं ने अफसरों से विनयवत बात करते ही देखा है । एकाध बार तो मैं ने देखा कि फ़ाइल पर अफसर ने प्रतिकूल टिप्पणी लिख दी है लेकिन फ़ाइल लिए बैठे तिवारी जी लगभग हाथ जोड़े कह रहे हैं , देखिए कोई रास्ता निकलता है क्या। और थोड़ी देर में ही उसी अफसर ने रास्ता निकाल भी दिया है । वीरबहादुर सिंह को भी अपने एक सचिव एस पी आर्या को सिर पर बैठाए देखा है । अर्जुन सिंह जब मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री थे तब अशोक वाजपेयी उन के सचिव रहे थे । बिना अशोक वाजपेयी की सलाह के वह भी कुछ नहीं करते थे । नृपेंद्र मिश्र जो इन दिनों नरेंद्र मोदी के प्रधान सचिव हैं एक समय उत्तर प्रदेश में कल्याण सिंह के सचिव रहे हैं । नृपेंद्र मिश्र अगर एक बार संकेतों में भी कल्याण सिंह से किसी बात पर मना कर देते थे तो कल्याण सिंह फिर उस बात को दुहराते नहीं थे । नृपेंद्र मिश्र ऐसे अफसर हैं जो मुलायम और कल्याण दोनों के खास रहे हैं , सचिव रहे हैं ।

अब देखिए कि अशोक प्रियदर्शी की याद आ गई । अशोक प्रियदर्शी एक समय वीरबहादुर सिंह के समय वीरबहादुर के ख़ास थे । वीरबहादुर सिंह जब सिंचाई मंत्री थे तब वह सिचाई विभाग में संयुक्त सचिव थे। फिर जब मुख्यमंत्री बने वीरबहादुर तो अशोक प्रियदर्शी को सूचना निदेशक बना दिया । बाद में जब नारायणदत्त तिवारी फिर मुख्यमंत्री बने तो बहुत से अफसरों को बदला लेकिन अशोक प्रियदर्शी को बदला नहीं , सूचना निदेशक बने रहने दिया । तब जब कि वीरबहादुर और तिवारी के बीच छत्तीस का रिश्ता था उन दिनों । खैर , इसी के बाद मुलायम जब मुख्यमंत्री बने तो इन्हीं अशोक प्रियदर्शी को लखनऊ का डी एम बना दिया । इन्हीं अशोक प्रियदर्शी ने बतौर डी एम भाजपाइयों को पिस्तौल ले कर एक बार दौड़ा लिया । तब जब अयोध्या में कार सेवकों पर मुलायम ने गोली चलवाई थी , उस की प्रतिक्रिया में लखनऊ में दंगा भड़क गया था । बाद में रोमेश भंडारी जब राज्यपाल बने तो राष्ट्रपति शासन में अशोक प्रियदर्शी को अपना प्रधान सचिव बनाया था । बाद में राष्ट्रपति शासन को जारी रखने के लिए नोटिंग बनाने में अशोक प्रियदर्शी ने जितनी मेहनत की उतनी तो रोमेश भंडारी ने भी नहीं की । अशोक प्रियदर्शी उन दिनों मिलते तो कहते , इतनी मेहनत तो मैं ने आई ए एस की तैयारी में भी नहीं की थी । लेकिन जब अटल बिहारी वाजपेयी प्रधानमंत्री बने तो इन्हीं अशोक प्रियदर्शी को पी एम ओ में बतौर संयुक्त सचिव नियुक्ति दी । अशोक प्रियदर्शी थे ही ऐसे अफ़सर । सोचिए कि जब वह लखनऊ में डी एम थे तब उन की छोटी बहन की शादी थी पटना में । लेकिन अमेठी में कुछ मतकेन्द्रों पर पुनर्मतदान की स्थिति आ गई । राजीव गांधी चुनाव मैदान में थे । चुनाव आयोग ने निर्वाचन अधिकारी को बदल कर उस दिन का निर्वाचन अधिकारी अशोक प्रियदर्शी को नियुक्त किया । उसी दिन अशोक प्रियदर्शी की छोटी बहन की पटना में शादी थी । लेकिन अशोक प्रियदर्शी ने उफ्फ भी नहीं किया । अमेठी में उपचुनाव संपन्न करवा कर पटना गए । बस सुविधा के लिए स्टेट प्लेन उन्हें मिल गया था ।

ऐसे तमाम किस्से हैं अफसरों को विश्वास में ले कर चलने के । नेहरु से लगायत इंदिरा गांधी के तमाम अफसरों से लगायत प्रधानमन्त्री वी पी सिंह के खास अफसर रहे विनोद पाण्डेय और भूरे लाल तक के । पी एल पुनिया आज भले कांग्रेस में हैं लेकिन जब उत्तर प्रदेश में तमाम पदों पर रहे ख़ास कर मुलायम और मायावती के क्रमशः सचिव रहते हुए भी तमाम दलितोत्थान वाले एजेंडे के बावजूद उन के कार्यकाल को हम उन की सदाशयता के लिए ही याद रखते हैं । अलग बात है कि राजनीतिक हो कर वह कुतर्क के आदी हो गए हैं ।

लेकिन अपनी अराजक राजनीति में अरविंद केजरीवाल इसी शेर की सवारी को साधने में असफल हो गए हैं । लिख कर रख लीजिए कि सुप्रीम कोर्ट ही नहीं अल्ला मिया का भी वह आदेश लिखवा कर ले लें , दिल्ली की नौकरशाही अब उन्हें सही सलामत कभी भी शासन करने नहीं देगी । अपने मुख्य सचिव अंशु के साथ बदसुलूकी और पिटाई उन्हें बहुत भारी पड़ चुकी है । दिल्ली के आई ए एस अफसरों के आगे अब वह मुर्गा भी बन जाएं तो भी वह उन्हें माफ़ नहीं करने वाले । देश के आई एस अफसरों का चाहे जितना पतन हो गया हो पर अभी भी वह पूरे देश में अपने स्वाभिमान , सुरक्षा और स्वायत्तता के लिए एकमत हैं । अरविंद केजरीवाल की राजनीति पर उन की अराजक राजनीति ने सिर्फ़ ग्रहण लगाया था , नौकरशाही के साथ उन के अपमानजनक व्यवहार ने उन की राजनीति पर अब पूर्ण विराम लगा दिया है । मायावती और अखिलेश के राजनीतिक पतन में भी यही नौकरशाही ख़ामोशी से काम कर गई थी और इन लोगों को आज तक इस की सुधि नहीं आई है । मायावती की बदतमीजी नौकरशाही अभी भूली नहीं है । अखिलेश यादव अपनी बदतमीजी की याद जब-तब खुद ही दिलाते रहते हैं । कांग्रेस अगर आज भी सांस ले रही है तो इसी नौकरशाही में अपने विश्वास और आस के चलते । भाजपा में तमाम अंदरूनी उठापटक के बावजूद नरेंद्र मोदी आज भी तन कर खड़े दीखते हैं तो इसी शेर की सवारी को साध लेने की सफलता में । अरविंद केजरीवाल को उन की सवारी शेर ने पटक दिया है । अब उन को फिर से सवार बनाने को तैयार नहीं है । बशीर बद्र का एक शेर याद आता है :

चाबुक देखते ही झुक कर सलाम करते हैं 
शेर हम भी हैं सर्कस में काम करते हैं ।

लेकिन दिल्ली के यह शेर अरविंद केजरीवाल की बदसलूकी के कारण उन के सर्कस से बाहर आ चुके हैं । उन का चाबुक देखना और उन्हें झुक कर सलाम करना वह भूल चुके हैं । मुख्य सचिव अंशु के साथ हाथापाई और मारपीट पर अरविंद केजरीवाल एंड कंपनी के खिलाफ चार्जशीट , कोर्ट की राह देख रही है । इस नाटक का यह नया दृश्य देखने के लिए तैयार हो जाए अरविंद केजरीवाल एंड कंपनी । यह पटकथा मोदी या एल जी ने नहीं खुद अराजक अरविंद केजरीवाल ने लिखी है । अकबर की याद आती है । वीरबल , टोडरमल और तानसेन आदि की याद आती है । यह अकबर के नवरत्न थे मतलब उन के शेर । अकबर अपने नवरत्नों को कितना सम्मान देते थे , यह किसी से छुपा नहीं है । काश कि सेक्यूलर राजनीति का दंभ और पाखंड पालने वाले अराजक अरविंद केजरीवाल ने अकबर का ही इतिहास पढ़ा होता ।