Tuesday, 27 February 2018

श्रीदेवी यानी विश्वासघात के आंच की चांदनी में सिसकती सुंदरता


भइया को सइयां बना लेने वाली श्रीदेवी की चर्चा सुंदरता , सफलता और अभिनय के लिए तो होगी ही , विश्वासघात के लिए भी होगी । एक पर एक सफल फिल्मों की तरह ही एक पर एक विश्वासघात भी श्रीदेवी ने लगातार किए हैं । यह विश्वासघात और उस से उपजा अवसाद ही है जो उन्हें मदिरापान की इस हद तक ले गया कि बाथटब में भी वह अपने आप को संभाल नहीं सकीं और एक प्रतिष्ठित मौत पाने से वंचित रह गईं । उपन्यासकार श्रीलाल शुक्ल जब पचहत्तर वर्ष के हो गए तो दो चार पेग लगाने के बाद बड़े हर्ष के साथ कहते थे कि अब प्रतिष्ठित मौत मिलेगी । नहीं इस के पहले मर जाता तो लोग कहते अरे , शराबी था , मर गया । अब ऐसा नहीं होगा । यह कहते हुए ही झूमते हुए वह अगला पैग बनाने लगते । श्रीदेवी के साथ दुर्भाग्य से यह हो गया है । बाज़ार में टिकने और बिकने के लिए फ़िल्मी दुनिया के लोग नैतिकता से भरी फ़िल्में भले ही कभी बनाते और बेचते रहे हों लेकिन नैतिकता फ़िल्मी लोगों के जूते की नोक पर सर्वदा ही रही है । छल-कपट , सेक्स और पैसों की नकली दुनिया में खेलती फ़िल्मी दुनिया की फिल्मों में भी अब नैतिकता का पाठ समाप्त हो चला है । सो श्रीदेवी से किसी नैतिक पाठ की उम्मीद करना वैसे भी बेमानी है । सार्वजनिक जीवन जीने की कोई मर्यादा भी होती है , यह लोग नहीं जानते हैं । श्रीदेवी वैसे भी मगरूर और अहंकार प्रवृत्ति से लैस महिला थीं । रूप का दर्प और सफलता का अहंकार उन्हें सहज जीवन से दूर किए हुए था । अपनी फिल्मों के अभिनय में खिलखिलाहट और चुलबुलापन परोसने वाली श्रीदेवी अपने व्यक्तिगत जीवन में इस से वंचित थीं  । श्रीदेवी से मैं मिला हूं । इंटरव्यू किया है । जैसा कि अमूमन होता है कि परदे के जीवन और निजी जीवन की सुंदरता में भी तमाम हीरोइनें उलट होती हैं , मैं ने पाया कि श्रीदेवी भी इन में से ही थीं । आप निजी तौर पर मिलते तो शायद श्रीदेवी को यकबयक पहचान भी नहीं पाते । ऐसा बहुत सी सुंदर अभिनेत्रियों के साथ होता है । एक बार तो एक अभिनेत्री से मिलने गया तो मैं उसी अभिनेत्री से मैं उस को पूछ रहा था कि वह कहां हैं ? वह अभिनेत्री खिसियाती हुई बोली , मैं ही हूं ।

मैं जब श्रीदेवी से मिला था तब वह अपनी सफलता के शिखर पर थीं । उन की सुंदरता और सफलता का जादू सिर चढ़ कर बोलता था । सोचिए कि जब उन से मिलने जा रहा था तब हमारे अख़बार के एक फोटोग्राफर भी साथ थे । हम लिफ्ट के लिए खड़े थे । लिफ्ट आई और हम लिफ्ट में घुसे तो पाया कि हमारे फोटोग्राफर तो गायब हैं । फोटोग्राफर दो दिन बाद मिले तो पूछा उन से कि कहां गायब हो गए थे अचानक ? वह फिर घबरा गए । बोले , सर श्रीदेवी की फोटो मैं नहीं खींच पाता । नर्वस हो गया था मैं । डर गया था मैं । मुझे लैट्रिन आ गई थी सो मैं सीढ़ी से चुपचाप उतर गया था । यह श्रीदेवी की सुंदरता और सफलता का जादू था । सुनते हैं कि एक समय क्लियोपेट्रा की खूबसूरती का इतना डंका बजा था कि क्लियोपेट्रा के मरने के बाद उस का शव कब्र से निकाल कर एक दो नहीं , सैकड़ों लोगों ने उस के शव के साथ संभोग किया था । स्पष्ट है कि यह बीमार लोग थे । स्त्रियों की सुंदरता लोगों को बीमार बना ही देती है ।

अमिताभ बच्चन और श्रीदेवी 

तो बात श्रीदेवी के विश्वासघात की हो रही थी । बहुत लोग कयास लगाते हैं कि रेखा और अमिताभ बच्चन की दोस्ती और संबंध को अंतत:  जया भादुड़ी ने तुड़वाया । लोग गलत सोचते हैं । रेखा और अमिताभ बच्चन के बीच गांठ बनीं यही श्रीदेवी । रेखा और श्रीदेवी दोनों में मद्रासी होने की भावना काम आई और रेखा ने श्रीदेवी को अपना राजदार बना लिया । श्रीदेवी के फ़्लैट पर ही वह अमिताभ बच्चन से मिलने लगीं । आहिस्ता-आहिस्ता श्रीदेवी ही दोनों को फोन पर मिलने का समय तय करने लगीं । रेखा की उपस्थिति में ही अमिताभ बच्चन श्रीदेवी के हुस्न की तारीफ़ करने लगे । नतीज़ा यह हुआ कि बाद के दिनों में श्रीदेवी अमिताभ को तो फोन कर बुला लेतीं लेकिन रेखा को बुलाना भूल जातीं । अमिताभ बच्चन पुराने बेवफ़ा थे । याद कीजिए , ज़ीनत अमान , परवीन बॉबी आदि-इत्यादि । सो धीरे-धीरे अमिताभ रेखा की बजाय श्रीदेवी के औचक सौंदर्य में नहाने लगे , डूबने लगे। रेखा को बिसराने लगे । अमिताभ फिल्मों में अब श्रीदेवी को अपनी हीरोइन बनवाने लगे । अपनी मेहनत , रूप और अभिनय के दम पर , अमिताभ बच्चन के संयोग का कमाल देखिए कि श्रीदेवी एक करोड़ रुपए लेने वाली हिंदी फिल्मों की पहली हीरोइन बन गईं । लेडी अमिताभ बच्चन कहलाने लग गईं । जयाप्रदा को पछाड़ कर नंबर वन बन गईं । आखिरी रास्ता , और खुदा गवाह आदि का यह ज़माना था । और अब यह देखिए कि अमिताभ बच्चन की फ़िल्में पिटने लगीं तो यही श्रीदेवी अब अमिताभ बच्चन से किनारा करने लगीं । अमिताभ बच्चन की फ़िल्में मना करने लगीं । क्या तो रोल छोटा है आदि-इत्यादि । बहुत समय बाद अमिताभ बच्चन ही श्रीदेवी की एक फिल्म में गेस्ट आर्टिस्ट बन कर उन के साथ आए । इंग्लिश-विंग्लिश फिल्म में जहाज में उन्हें अंग्रेजी की मुश्किल से छुट्टी दिलाते , डबल मीनिंग डायलॉग के साथ । एक आह भर कर श्रीदेवी को संबोधित वह डबल मीनिंग डायलॉग मुझे भूलता नहीं कि , कमर हिलाए बहुत दिन हो गए !

तो क्या अमिताभ बच्चन अभी भी श्रीदेवी से भावनात्मक रूप से जुड़े हुए थे ? इतना कि श्रीदेवी के निधन से पहले ही वह आहट पा गए थे ? कि ट्यूटर पर अपनी बेचैनी बयान करने बैठ गए थे , ना जाने क्यों, अजीब सी घबराहट हो रही है !

क्या पता ?

मिथुन चक्रवर्ती और श्रीदेवी 
खैर , मिथुन चक्रवर्ती जिन दिनों श्रीदेवी के श्री बने हुए थे , बोनी कपूर भी कुर्बान हो रहे थे श्रीदेवी पर । मिथुन को श्रीदेवी पर तो भरोसा नहीं ही था , अपने आप पर भी नहीं था सो उन्हों ने श्रीदेवी को वश में करने के लिए बोनी कपूर को भइया बोलने के लिए मजबूर किया । श्रीदेवी से बोनी कपूर को भइया बोलने भर से संतोष नहीं हुआ मिथुन चक्रवर्ती को सो बोनी को राखी भी बंधवा दिया श्रीदेवी से । मिथुन चक्रवर्ती भूल गए कि किसी औरत को कभी बांधा नहीं जा सकता । राखी से भी नहीं , न ही किसी और चीज़ से । भोजपुरी में इस बाबत एक अभद्र और भदेस कहावत बहुत मशहूर है । कि बांध कर औरत की रखवाली नहीं होती । जो मर्द ऐसा करते हैं , वह मूर्ख होते हैं । ऐसे मर्दों को अपनी मर्दानियत और अपने प्रेम पर भरोसा नहीं होता । सो ऐसे लोग अंतत: मारे जाते हैं । औरत इस बंधन का पिंजरा तोड़ कर अंतत: उड़ जाती है । औरत जैसी भी हो , जो भी हो , किसी के पास रूकती है प्रेम , विश्वास और मर्दानियत के भरोसे । फालतू के इस या उस बंधन से नहीं । श्रीदेवी भी यह फालतू का बंधन तोड़ कर भइया बोनी कपूर को अंतत: सइयां बना बैठीं । दुनिया को ठेंगे पर रख कर विवाह कर लिया बोनी कपूर से । तब के समय कभी राखी की लाज रखने वाला हुमायूं भी लजा गया होगा । गांव में कही जाने वाली कहावत दिन में भइया , रात में सइयां चरितार्थ हो गई थी । इस एक विवाह से श्रीदेवी ने खुद को तो  श्री विहीन किया ही , मिथुन चक्रवर्ती का श्री भी भस्म कर दिया । भस्म किया अपने तमाम चाहने वालों का चाहना और बोनी कपूर की पहली पत्नी मोना का संसार भी उजाड़ दिया । श्रीदेवी कोई पहली अभिनेत्री नहीं हैं जो किसी का घर संसार उजाड़ रही थीं , ऐसी और भी ढेरों अभिनेत्रियां हैं वालीवुड में । पर मोना की खासियत यह थी कि मोना ने ही बोनी कपूर को श्रीदेवी से मिलवाया था । यह मिस्टर इण्डिया का समय था । मोना ने ही तैयार किया था श्रीदेवी को मिस्टर इण्डिया के लिए । मोना ने बोनी कपूर से तब कहा था , तुम मेरी तरफ देखो और श्रीदेवी से बात करो । शेखर कपूर निर्देशित मिस्टर इण्डिया ने अमरीशपुरी को बड़े खलनायक के रूप में तो स्थापित किया ही , श्रीदेवी को भी आसमान पर बिठा दिया था । हवा-हवाई बन कर आई लव यू गाती हुई करोड़ो लोगों के दिलों में वह समा गई थीं । इस फिल्म के एक गाने आई लव यू को देख कर ही यश चोपड़ा ने श्रीदेवी को चांदनी बना दिया । चांदनी श्रीदेवी की श्रेष्ठ फिल्म बन गई । लम्हे उस से भी खूबसूरत बनी । फिर तो श्रीदेवी सुंदरता , सफलता और अभिनय का एक नया प्रतिमान बन कर उपस्थित हो गईं । लेकिन जैसे मिस्टर इण्डिया में मिस्टर इण्डिया अदृश्य रहता है , बोनी कपूर की ज़िंदगी से मोना को श्रीदेवी ने अनुपस्थित कर दिया । अंतत: श्रीदेवी के विश्वासघात की फांस ले कर सौत की चुभन लिए मोना कैंसर के कांटे में फंस कर विदा हो गईं । श्रीदेवी खुद भी अपने सौतेले भाई बहनों की डाह भुगत चुकी थीं पर यह सब भूल कर अपने स्वार्थ में डूब कर अपने और मोना के बच्चों को भी सौतेला होने की आग में झोंक दिया। सौतिया डाह , सौतेलापन और विश्वासघात की आग ने उन्हें इस कदर अकेला किया कि वह अवसाद में घिर कर शराबनोशी में फंस कर रह गईं । अवसाद , शराब और अकेलापन उन्हें अप्रतिष्ठित मृत्यु के द्वार पर ले गया । अकेलेपन और शराब के कारण मीना कुमारी भी मरी थीं । मीना कुमारी भी कमाल अमरोही की दूसरी पत्नी थीं । मधुबाला का आलम यह था कि अशोक कुमार को चाहती थीं । अशोक कुमार से छूटीं तो दिलीप कुमार के प्यार में पड़ीं और अंतत: अशोक कुमार के छोटे भाई किशोर कुमार से विवाह कर कम उम्र में कैंसर से मरीं । नूतन भी बीमारी से कम उम्र में मरी थीं । लेकिन उन सब की मृत्यु प्रतिष्ठित मृत्यु थी । रुप की रानी श्रीदेवी की मृत्यु लेकिन दुःखदायी और लांछित मृत्यु बन कर उपस्थित हुई है । सदमा की तरह ।

एक सवाल अकसर मेरे मन में हिलोर मारता रहता है कि हिंदी फिल्मों की सुंदर स्त्रियों जिन पर करोड़ो लोग जां निसार रहते हैं , का जीवन अकसर इतना दुःखदायी क्यों होता है ? क्यों अपने से बहुत ज़्यादा उम्र के पुरुष इन के पल्ले पड़ते हैं और कि यह किसी न किसी की सौत या रखैल बनना ही क्यों क़ुबूल करती हैं । सब कुछ के बावजूद अपमानजनक जीवन जीना ही इन के हिस्से क्यों आता है । यह कौन सा कठिन संयोग है भला । सफलता और सुंदरता की यह कौन सी इबारत है । रुप की रानी के रुप के दर्प की यह कौन सी यातना है ।

श्रीदेवी और बोनी कपूर 


Sunday, 25 February 2018

मेरे बचपन की सहेली छोटकी मौसी भी चली गईं

दयानंद पांडेय 


छोटकी मौसी 

अम्मा अभी गई ही गई थीं कि परसों 23 फ़रवरी , 2018 को छोटकी मौसी भी चली गईं । छोटकी मौसी अम्मा से कोई तेरह बरस छोटी थीं सो मेरी बचपन की सहेली भी थीं । मुझे न सिर्फ़ वह खिलाती थीं , बल्कि मेरे साथ खेलती भी बहुत थीं । जब-जब मैं ननिहाल जाता , छोटकी मौसी और हम खूब खेलते । वह मुझे चिढ़ातीं , मैं उन्हें चिढ़ाता । वह मुंह बिरातीं , मैं भी मुंह बिराता । घर में , खेत में , पगडंडियों पर हम मौसी के साथ खेलते हुए निकल जाते । नाना के घर से जैती गांव से थोड़ी दूर पर उन का चक है , जिसे मोहन चक कहते हैं , वहां तक भी हम लोग कब चले जाते थे , पता नहीं चलता था । एक बार तो मुझे याद है , दोपहर में मौसी के साथ खेलते-खेलते , बकइयां-बकइयां चलते-चलते ताकि मौसी देख न सकें , गेहूं के खेत में एक चौड़े में जा कर मैं छुप गया । छुपे-छुपे ही मैं कब सो गया , पता नहीं चला । मौसी खोज-खोज कर थक गईं । दूर-दूर तक गेहूं के खेत की हरियाली थी और मैं हरा स्वेटर पहने था , हरे रंग का स्कार्फ बांधे , वह खोजें भी तो कैसे भला ? मुझे गुहरा-गुहरा कर थक गईं छोटकी मौसी । मौसी का रो-रो कर बुरा हाल हो गया । घर आ कर बताया कि बाबू जाने कहां बिला गइल , मिलत नइखै । अब मामा लोग , मामी लोग और नाना - नानी हर कोई मौसी को दोष देने लगा। अम्मा तो बेसुध हो गई । उन दिनों मामा के गांव के आस-पास शोर था कि बीघ बच्चों को रात में उठा ले जाता है । बकरी और बछिया तक संभाल कर रखी जाती थीं । तब भी बिघवा किसी न किसी को रात-बिरात उठा ले जाता था । लेकिन यह तो दिन था । खैर सब लोग युद्धस्तर पर खोजने में लग गए । मेड़-मेड़ , खेत-खेत खोजना , वह भी उस दूर-दूर तक फैली गेहूं के खेत की हरियाली में , आसान नहीं था। धीरे-धीरे पूरे गांव में यह ख़बर फैल गई । तो गांव के लोग भी जुटे मुझे खोजने में । अंतत: मेरे मझले मामा ने मुझे गेहूं के खेत में सोए हुए खोज लिया। मुझे गोद में उठा कर , मुझे बाहों में भींच कर वह , हमार भैने-हमार भैने , कर इतना तेज रोए कि उन के रुदन की वह चीख़ मेरे कानों में अभी तक शेष है ! उन का रोना सुन कर कुछ अनहोनी की आशंका में सब लोग बटुर आए । पर मुझे जीवित और सकुशल देख कर लोगों की जान में जान आई । घर आने पर अम्मा से पहले , छोटकी मौसी ने मुझे अपनी गोद में बिठा कर चिपटा कर दबोच लिया और चूम-चूम कर , मारे ख़ुशी के , हमार बाबू-हमार बाबू कह कर रोने लगीं । मझले मामा और छोटकी मौसी का वह रुदन और वह ममत्व , मेरे कानों में ही नहीं , दिल में , देह के रोएं-रोएं में अभी तक दर्ज है । छोटकी मौसी बहुत दिनों तक इस घटना को याद कर के मुझे सुनाती भी रहती रहीं और भावुक होती रहीं , यह घटना याद कर कर के दहल जाती रहीं 

छोटकी मौसी और मौसा 

अपने माता-पिता की सब से छोटी संतान छोटकी मौसी बहुत ही फुर्तीली और उतनी ही वाचाल भी थीं । दिल की साफ और काम-काज में निपुण। बाद के दिनों में छोटकी मौसी का विवाह हो गया । गौना भी हो गया । वह अपने ससुराल की हो गईं । जैसे मौसी दिल की साफ थीं , मौसा भी उन्हें संत स्वभाव के मिले । छोटका मौसा जैसा सरल , शांत और भावुक व्यक्ति मैं ने बहुत कम लोग देखे हैं । तिस पर छोटकी मौसी के प्रति उन का आत्मिक समर्पण तो जैसे गूलर का फूल ही है । बिन कुछ बोले , वह बहुत कुछ कर जाते हैं । इतना कि किसी को कुछ पता नहीं चलता । सभी घरों की तरह छोटकी मौसी का परिवार भी तब संयुक्त परिवार था । संयुक्त परिवार की यातनाएं भी छोटकी मौसी के हिस्से आईं , जैसे हमारी अम्मा के हिस्से भी थीं । पर छोटकी मौसी के साथ कुछ ज़्यादा ही था । तिस पर एक संकट यह भी छोटकी मौसी के हिस्से आया कि किसी बात पर कभी मझले मामा छोटकी मौसी से नाराज़ हो गए । न सिर्फ नाराज हो गए , छोटकी मौसी को मायके बुलाना भी बंद कर दिया । किसी शादी आदि में भी । अब गांव की परिपाटी में मान लिया जाता था तब कि जिस औरत की मायके में पूछ नहीं होती , ससुराल में भी उस की हेठी शुरू हो जाती थी । छोटकी मौसी की भी शुरू हो गई । बात-बेबात अपमान भरे ताने मौसी के लिए आए दिन की बात हो चली थी तब । मौसा तब तक एयर फ़ोर्स में भर्ती हो चुके थे । लेकिन वहां की सख्त ट्रेनिंग से आजिज आ कर एक बार ट्रेनिंग छोड़ कर भाग कर घर आ गए । पहले अपनी माई और फिर माई के सामने ही मौसी को पकड़ कर खूब रोए । गांव में जिसे कहते हैं , भोंकार मार कर रोना । रोते-रोते ही कहा कि , अब नाईं जाइब ! लेकिन अंतत: जाना पड़ा । मौसा के पिता जी और बड़े भाई ले जाकर उन्हें ट्रेनिंग सेंटर फिर से छोड़ आए । छोटकी मौसी पर अभी तक मायके की उपेक्षा की आफत तो थी ही अब एक और आफत आ गई कि मर्दे के एतना मोहले बा कि मर्द ट्रेनिंग छोड़ के , नौकरी छोड़ के भागि आइल । लेकिन घूंघट काढ़े छोटकी मौसी को इन्हीं तानों और उलाहनों में जीना और मरना था । सालों-साल जीना और मरना था । खैर एक बेटी हुई गीता । बेटी पैदा करना भी तीसरी अयोग्यता थी । लेकिन छोटकी मौसी ने अबोली और अबोध गीता में जैसे अपने जीने का सहारा ढूंढ लिया । भारतीय जीवन में जो प्रभाव और आसरा लोगों का गीता में है , लगभग वही प्रभाव और आसरा छोटकी मौसी ने अपनी अबोध बेटी गीता में खोज लिया । गीता जैसे-जैसे बड़ी होती गई , छोटकी मौसी का आसरा और भरोसा बनती गई । जल्दी ही एक बेटा और हुआ छोटकी मौसी के । गोरखपुर के सदर अस्पताल में वह भर्ती थीं । मैं तब तक टीनएज हो गया था । स्कूल से छुट्टी के बाद मौसी से मिलने अस्पताल गया । वह मुझे पकड़ कर भेंटने लगीं । रोने लगीं । बरसों बाद हम लोग मिल रहे थे । बाद में दबी जुबान लेकिन बड़ी ललक से छोटकी मौसी ने अपनी सास से छुपा कर मुझ से कहा , बाबू अपने अम्मा के भी बोला के भेंट करवा देत त बड़ा नीक करतs । अम्मा गांव में थी । खैर , दूसरे दिन मैं गांव गया , मुश्किलें अम्मा के पास भी थीं । पर बाबा से अनुमति ले कर अम्मा को गोरखपुर ले आया । अब दोनों बहनों का मिलन ऐसे था गोया गंगा-यमुना मिल रही हों । दोनों बहनों का रुदन बड़े-बड़ों को रुलाए दे रहा था । 

खैर जब दोनों बहनों का रोना-गाना खत्म हुआ तो छोटकी मौसी की दबी जुबान एक और फरमाइश आ गई कि , अपने मझिलकी मौसी से भी भेंट करवा देतs ए बाबू ! गया मझिलकी मौसी को भी उन के गांव से लिवा लाया । एक तो गांव की परिपाटी , दूसरे संयुक्त परिवार के टैबू सो मुश्किलें मझिलकी मौसी के यहां भी थीं पर इतनी नहीं , जितनी हमारी अम्मा और छोटकी मौसी के साथ थीं । अब तीनों बहनों का मिलन प्रयागराज में संगम का दृश्य रच रहा था । इन तीनों बहनों की मुश्किल का अंदाज़ा आप इसी एक बात से लगा लीजिए कि गोरखपुर में कुछ ही किलोमीटर की दूरी पर रहीं यह तीनों बहने तेरह बरस बाद एक साथ मिल रही थीं । मारे ख़ुशी के रोती-सुबकती तीनों बहनों का बहनापा देख कर सख्ती का पर्याय छोटकी मौसी की सास भी पिघल गईं । उन की आंख से भी आंसू बह निकले । मैं तो खैर अम्मा और मौसी लोगों के साथ पहले ही से रो रहा था । इस के पहले यह तीनों बहनें चिट्ठियों से एक दूसरे के हालचाल लेती रहती थीं । अम्मा की तरफ से यह चिट्ठियां मैं ही लिखता और पढ़ता था । लेकिन तब की चिट्ठियों में सुख ही सुख लिखा जाता था , दुःख भूल कर भी नहीं । फिर भी जाने क्यों सुख सुन कर भी अम्मा मौसी लोगों की चिट्ठियां लिखवाते और सुनते समय भी रोती ही रहती थी । शायद सुख की इबारतों में भी दुःख की इबारत हमारी अनपढ़ अम्मा पढ़ लेती थी । संभवत : मौसी लोग भी ऐसा ही करती रही होंगी तब । मौसी लोग भी दुर्भाग्य से नहीं पढ़ी थीं । लेकिन यह अनपढ़ बहनें जब मिलतीं तब भी और जब नहीं मिलतीं थीं , तब भी एक दूसरे को बहुत अच्छी तरह पढ़ती रहती थीं । एक बात तीनों बहनों में वैसे भी एक थी , वह यह कि तीनों बहनें रहें कहीं भी पर इन तीनों की आत्मा मायके में ही बसती थी । मायके में ही जैसे इन तीनों बहनों की जान रहती थी ।  इस बीच गोरखपुर अस्पताल में पैदा हुआ बेटा गांव में खेलते-खेलते घर के सामने की पोखरी में जाने कब जा कर डूब गया । छोटकी मौसी और उन के पूरे परिवार पर जैसे यह वज्रपात था 

छोटकी मौसी और अख़बार पढ़ती उन की बड़ी बेटी गीता 

बाद के दिनों में गरमी की छुट्टियों में गांव जाता तब अम्मा मुझे मामा और मौसी लोगों के पास भी भेजती थी । दो-दो , तीन-तीन दिन मैं रहता सब के यहां । छोटकी मौसी के घर उन की सास मेरे खाने-पीने का खास खयाल रखतीं । लेकिन जब मौसी से मिलना होता तो वह अपनी उपस्थिति में ही मिलवातीं । गीता भी बड़ी ख़ामोशी से मिलती । वैसे भी तब के दिनों वह बहुत कम बोलती थी । इतना कि उस की ख़ामोशी भी बोलती । बाद में पता चला कि घर में मौसी की सास का अनुशासन बहुत सख्त था । मौसा तीन भाई थे और बीच के थे । लेकिन सास का अनुशासन तीनों बेटों और बहुओं पर ही नहीं , अपने पति पर भी बहुत सख्त था । मौसा लोग , मौसी लोगों के पास भी अनुशासन में ही जाते थे । जैसे कि कोई भी , कोई सामान या पैसा ले कर घर के भीतर नहीं जा सकता था । एक बार छोटे मौसा ने मौसी को कुछ पैसा चुपचाप देने की सोची । उस का रास्ता यह निकाला कि  वह मुझे मनीआर्डर करें और मैं जा कर उन के गांव में मौसी को दे आऊं । वह यह भी चाहते थे कि यह बात मेरे घर में भी कोई नहीं जाने । मैं तब इंटर में पढ़ता था । सो स्कूल के पते पर मौसा ने पहले अंतर्देशीय लिख कर मुझे यह बात बताई साथ ही यह भी तस्दीक किया कि स्कूल के पते पर मुझे मनीआर्डर मिल भी जाएगा क्या । अपनी चिट्ठी का जवाब पा कर उन्हों ने तब पचहत्तर रुपए का मनीआर्डर भेजा । तब तक इतने पैसे एक साथ मैं ने भी कभी नहीं देखे थे । बड़ी मुश्किल थी इसे संभालने में । दस-दस रुपए के सात और एक पांच रुपए का नोट था । एक कॉपी के बीच में इसे संभाल कर बस्ते में रख लिया । और बस्ते की अतिरिक्त निगरानी में लग गया ताकि पैसा सुरक्षित रहे । सोचा था कि इतवार की छुट्टी में घूमने के बहाने मौसी के गांव जा कर चुपचाप मौसी को दे आऊंगा । लेकिन इतवार आने के पहले ही पोल खुल गई । बस्ते की अतिरिक्त निगरानी भारी पड़ गई । एक चचेरी बहन ने तड़ लिया । बस्ता मेरा खंगाल कर सवाल खड़ा कर दिया कि इतना पैसा कहां से लाए ? मैं चुप रहा । पर बात पिता जी तक आ गई । मेरी पिटाई हो गई । सवाल खड़ा था कि कहां से इतना पैसा आया ?  चाहते हुए भी भेद बताना पड़ गया । सुबूत में मनीआर्डर की पावती वाली रसीद दिखाई तो किसी तरह पिता शांत हुए । लेकिन फैसला भी सुना दिया कि यह पैसा देने मौसी के गांव वह खुद जाएंगे । कहा कि , तुम से पैसा कहीं गिर गया तो ? मौसा को पिता ने लानत भेजी सो अलग । अब मैं क्या करता भला ? कैसे बताता उन्हें कि भेद खुल जाएगा और कि मौसी तक पैसा तो नहीं ही पहुंचेगा , उन पर आफत अलग आ जाएगी। मौसा पर भी । पर मेरे पिता एक बार जब ज़िद पर आ जाते हैं तो अल्ला मिया भी उन को नहीं रोक सकते , उन की ज़िद नहीं तोड़ सकते । पिता की यह खासियत बड़ी है शुरू ही से कि भले खुद टूट जाएंगे पर ज़िद नहीं तोड़ सकते , नहीं छोड़ सकते । गए वह इतवार को छोटकी मौसी के गांव पानापार । और हुआ वही जिस का अंदेशा था । सास की उपस्थिति लगातार बनी रही , सास की उपस्थिति में ही मौसी को पैसा देना पड़ा था कि यह पैसा मनीआर्डर से आया है । अब सवाल उठा कि मनीआर्डर तो गांव में भी आ सकता था । फिर सवाल दर सवाल । साल दर साल । मौसा , मौसी सब निरुत्तर । लेकिन गरमी की छुट्टियों में मैं छोटकी मौसी के गांव उन से मिलने जाता रहा । मौसा एयरफोर्स में थे सो उन की पोस्टिंग लगातार बदलती रहती थी । अब मौसी की सास का अनुशासन मौसी के लिए मुश्किलें बढ़ा रहा था । घूंघट अब खुल रहा था और घुटन भी अब तौबा कर रही थी । मौसा अंतत: मौसी को चंडीगढ़ लिवा गए । पिता जी के साथ एक बार 1979 में एल टी सी पर घूमने हम भी गए चंडीगढ़ मौसी के पास । मौसी अब बदल रही थीं । घुटन और घूंघट से अब उन्हों ने मुक्ति पा ली थी । मैं ने पाया कि चंडीगढ़ का खुलापन अब उन को अपनी जद में ले रहा था । लगा गोया अब वह फिर से मायके में हैं , मेरे साथ खेलती हुई । अच्छा लगा । मौसा भी छुट्टी ले कर हम लोगों को चंडीगढ़ घुमाते रहे । सुखना झील , रॉक गार्डन , रोज गार्डन , पी जी आई और पिंजौर आदि । एयरफोर्स कालोनी का वह सरकारी घर मौसी के लिए ज़िंदगी की नई खिड़की थी । फिर तो वह शहर दर शहर घूमती रहीं । मौसा की पोस्टिंग उन्हें जहां जहां ले गई , वह गईं । मौसी जैसे गौरैया हो गई  थीं , इस शहर से उस शहर । गुड था यह भी । अब वह अपने ससुराल के गांव वैसे ही जातीं , जैसे कि मैं कभी गरमी की छुट्टियों में उन के पास जाता था । बाद के दिनों में नौकरी करने मैं भी दिल्ली चला गया । मेरी भी शादी हो गई । मौसी अब फिर वापस एक बार फिर चंडीगढ़ में थीं । एक बार मैं ने चिट्ठी में सिर्फ ज़िक्र किया कि सुना है , मिलेट्री कैंटीन में सामान सस्ता मिलता है , मुझे एक प्रेशर कुकर लेना है । कुछ दिन बाद मौसा प्रेशर कुकर ले कर दिल्ली में मेरे पास थे । मैं ने संकोच में कहा कि इतनी दूर से इसे ले कर आने की क्या ज़रूरत थी ? मौसा मुस्कुराते हुए बोले , दूरी कहां , प्रैक्टिस पर जहाज ले कर दिल्ली आया था तो लेता चला आया । संयोग देखिए कि 1982 में मौसा का दिया हुआ हाकिंस का वह प्रेशर कुकर मेरे पास आज भी है , वर्किंग कंडीशन में जिसे मौसी ने भिजवाया था पर मौसी आज नहीं हैं ।


बीमार मौसी की देखभाल करते मौसा 
1983 में सर्वोत्तम रीडर्स डाइजेस्ट छोड़ कर जब जनसत्ता ज्वाइन करना हुआ तब एक बार फिर चंडीगढ़ गया । हुआ यह कि पहले जो चिट्ठी मिली थी जनसत्ता ज्वाइन करने के लिए तब 20 जुलाई को ज्वाइन करने के लिए लिखा गया था । लेकिन जब 20 जुलाई को जनसत्ता दफ्तर गए तब बताया गया कि एक अगस्त से ज्वाइनिंग होगी । अब यह दस दिन क्या करें दिल्ली में बैठ कर ? तब गोरखपुर घर जाने के बजाय चंडीगढ़ छोटकी मौसी के पास चला गया । मौसी चिट्ठी में लगातार चंडीगढ़ आने को कहती भी रहती थीं । लेकिन अब की चंडीगढ़ में मैं ने देखा कि छोटकी मौसी बहुत बदल गई थीं । घूंघट में रहने वाली , सीधा पल्ला वाली साड़ी पहनने वाली मौसी अब उल्टा पल्ला साड़ी में उपस्थित थीं । और भी कई सारे बदलाव आ गए थे मौसी में । हालां कि मेरे साथ उन का खेलना फिर भी जारी था और पूरे ममत्व के साथ । एक दिन अचानक वह मेरा इम्तहान लेने पर आमादा हो गईं । कहने लगीं , लूज मौसम का मतलब का होला ? हम चक्कर में पड़ गए कि छोटकी मौसी आधा अंगरेजी , आधा हिंदी पर क्यों उतर गई हैं ? अम्मा भी गांव में फलने क मूड ख़राब बा , फलनवा आज कल बहुत टेंशन में बा जैसे शब्द अब बोलने लगी थी जब तब । लेकिन मौसी तो मौसम पर मुझ से इम्तहान ले रही थीं । वह भी ख़राब अंगरेजी में । तो भी मैं ने बताया उन्हें कि ख़राब मौसम । वह फौरन मेरी अज्ञानता पर ठहाका लगा कर हंस पड़ीं । कहने लगीं , एतनो अंगरेजी नाईं जान ला और दिल्ली में रहला । वह हंसते हुई ही बोलीं , बाबू अब से जान ले , लूज मौसम मतलब पेट ख़राब । मैं भी हंसा और बोला , अच्छा लूज मोशन क बात करत हऊ । वह उच्चारण पूरा सुने बिना बोल पड़ीं , त और का । ऐसे ही अकसर वह ऐसा ही कोई अंगरेजी मिश्रित या पंजाबी मिश्रित शब्द ले कर उपस्थित होती रहतीं और मुझे धर्मसंकट में डालती रहतीं । हंसती रहतीं । दोपहर में मैं अकसर सो जाता था । मौसा आफिस गए होते , बच्चे स्कूल , मौसी अकेली । मौसी चाहती थीं , कि  उन से बात करूं । पेट भर बतियाऊं । लेकिन मैं सो जाता था । तो भी वह कुछ न कुछ बना कर मुझे खिलाने के लिए जगा देतीं । मैं हरदम कुढ़ कर रह जाता कि , का मौसी ! लेकिन मौसी को मेरा कुढ़ना नहीं दीखता था , अपना बनाना और मुझे खिलाना ही दीखता था । उन दिनों वह साऊथ इंडियन डिश पर रियाज मार रही थीं । मैं चाय नहीं पीता तो वह मद्रासी काफी मुझे पिलाती रहतीं । जगा-जगा कर । फिर कहतीं , जा कहीं घूमि आव ! मैं कहता , चंडीगढ़ घूम चुका हूं , इस बार बस आराम करने और सोने आया हूं । लेकिन वह मेरे सोने से परेशान रहतीं , मुसलसल । और मैं उन के जगाने से । लेकिन मौसी अपना सारा अर्जित अनुभव और ज्ञान मुझे दे देना चाहती थीं । होता क्या है कि सेना , एयरफोर्स आदि में विभिन्न प्रदेशों के लोग एक साथ रहते हैं , अगल-बगल तो एक दूसरे की भाषा , खान-पान और संस्कृति भी जानने लगते हैं । तो मौसी अब सारा कुछ मुझ से शेयर कर लेना चाहती थीं , यह बात मैं समझ गया था । बावजूद इस के पूर्वी उत्तर प्रदेश के लोग , अपना समाज वहां भी खोज लेते थे । हमारी मौसी ने भी खोज लिया था । तो दोपहर में अपने तरफ की कुछ स्त्रियां इकट्ठी होती थीं , मौसी के पास । वह एक दूसरे को शुक्ला बहन जी , पांडेय बहन जी , तिवारी बहन जी , आदि कह कर संबोधित करती हुई एक दूसरे से अपनी समस्याएं , उलझन और अन्य डिटेल्स शेयर करतीं । एक दिन एक औरत कहने लगी ,  आप का तो परमोशन हो गया है , अब कहां ट्रांसफर होगा । मैं चौंका और शाम को मौसा से इस बात का ज़िक्र करते हुए पूछा  कि क्या अपने तरफ की औरतें एयर फ़ोर्स में नौकरी कर रही हैं ? मौसा चौंके और बोले , नहीं तो ! तब मैं ने दोपहर हुई बातचीत की डिटेल दी और बताया । तो वह हंसे और बोले , यह लोग अपने-अपने पतियों के प्रमोशन और ट्रांसफर बतिया रही होंगी । फिर याद आया कि एक औरत ट्रांसफर को ट्रांसफार्मर भी बोल रही थी । लेकिन यह सारी स्त्रियां , गांव घर से निकल कर शहर और सरकारी कालोनियों में रह रही स्त्रियां , अनपढ़ स्त्रियां चेतना से लैस हो रही थीं , घूंघट और घुटन से मुक्त हो कर अपने अधूरे पंख ही सही फैला रही थीं , यह देख कर मुझे अच्छा लगा । और हमारी मौसी इन में सब से आगे थीं ।

गांव के हमारे घर में बीमार अम्मा को जब देखने आईं दोनों मौसी और उन की बेटी गीता ।
बीच में मैक्सी में अम्मा , अगल-बगल दोनों मौसी ।

ननिहाल में रह रही मौसी , अपनी ससुराल के गांव में डरी , दबी , कुचली , सहमी और संकोच में डूबी मौसी , चंडीगढ़ की अपनी दूसरी पाली में एक दूसरी ही मौसी थीं । तो यह मेरे लिए बहुत सुखद था । लेकिन कई बार उन का रौद्र रूप भी देखने को मिला । तो यह भी ठीक नहीं लगा । ख़ास कर मौसा के साथ । वह लगभग ज्वालामुखी हो जातीं । उन को बुरी तरह झंपिला देतीं , बात बेबात । लेकिन मौसा थे कि एक चुप तो , हज़ार चुप । कभी पलट कर जवाब नहीं देते , न डांटते मौसी को । मुझे बहुत बुरा लगता । एक दिन शाम को मौसा के साथ बाज़ार घूमने गया तो मैं जैसे फट पड़ा और मौसा से पूछा कि कैसे बर्दाश्त करते हैं , इतनी बात ! मैं बार-बार कहता यह बात लेकिन मौसा चुप । और जब कई बार यह बात मौसा से कही तो वह धीरे से बोले , बर्दाश्त नहीं करता हूं  , बुरा मुझे भी लगता है पर घर में शांति बनाए रखता हूं । उलझने से क्या फायदा । मौसा की इस बात का मैं कायल हो गया । फिर पलट कर मौसी की पुरानी स्थितियों को याद किया और समझ गया कि बहुत दिनों तक दबा हुआ स्प्रिंग अब दबाव हटने पर उछाल पर है , खूब कस कर उछल गया है । दबे स्प्रिंग का यह उछलना मैं ने अपनी अम्मा में भी बाद के दिनों में बारंबार देखा । लेकिन मौसा के इस एक संक्षिप्त जवाब से उन का मान मेरे मन में और बढ़ गया । फ़ोर्स में काम करने के बावजूद इतना चुप , शांत , निर्मल और सरल प्रवृत्ति का कोई एक दूसरा व्यक्ति मैं ने फिर दूसरा नहीं देखा अभी तक । इतना संयमित और मितव्ययी भी नहीं देखा । फिर खूब वाचाल हो चली मौसी के प्रति उन का मौन समर्पण तो अप्रत्याशित और अविरल रहा है । न भूतो , न भविष्यति । अब क्या देखूंगा भला ।

बाद के दिनों में मैं दिल्ली से लखनऊ आ गया । 1985 में । पता चला मौसा रूस चले गए हैं ट्रेनिंग के लिए छह महीने खातिर । रूस की तमाम कहानियां और अनुभव लिए लौटे वह जिन को मौसी सुनाती फिरतीं , गोया वह खुद रूस से ट्रेनिंग ले कर लौटी हों । रूस से ट्रेनिंग के बाद मौसा की पोस्टिंग आगरा में हो गई । मौसी के बहुत बुलावे पर दिसंबर , 1988 में गया मैं आगरा भी । दोनों बेटियों और पत्नी के साथ । छोटी बेटी तब गोद में थी । कोई डेढ़ साल की ही रही होगी । मथुरा , वृंदावन , फतेहपुर सिकरी वगैरह गया घूमने तो ठंड लग जाने के डर मौसी की सलाह पर छोटी बेटी को घर पर ही छोड़ कर जाता । हां , ताजमहल जब दूसरी बार गया तो मौसी मौसा भी साथ गए। आगरा में मौसी को घर इस बार ग्राउंड फ्लोर पर मिला था । तो खूब साग सब्जी से हरा-भरा घर था । बाहर खूब हरियाली , खेलने की ढेर सारी जगह , घर के भीतर रुसी खिलौने । बेटियों को और क्या चाहिए था भला । दस दिन कैसे बीत गए , पता ही नहीं चला । एयर फ़ोर्स के विमान और हेलीकाप्टर के भी भीतर जा कर देखने का संयोग बना इसी आगरा में । रूस के ढेर सारे किस्से , वहां की सस्ती के बारे में । डालर और शराब के प्रति वहां के लोगों की लालच के भी कई सारे किस्से । जाने मौसा के रूस से वापसी का जादू था कि आगरा का असर मौसी इस बार ज्वालामुखी बनी नहीं दिखीं , मौसा के लिए । मेरे लिए भी यह सुखद था । छोटकी मौसी अब शहर और एयरफोर्स के रंग-ढंग में बाक़ायदा ढल चुकी थीं । गांव और गांव की मुश्किलें उन से बिसर रही थीं । इधर हमारी अम्मा थी कि किसी सूरत गांव छोड़ने और शहर में रहने को तैयार नहीं थी । जाने शहर उसे स्वीकार नहीं करता था कि वह शहर स्वीकार करना नहीं चाहती थी । पर यह तब के दिनों की बात थी । बाद के दिनों में तो अम्मा ने बाक़ायदा ऐलान कर दिया था कि शहर वह आती-जाती रहेगी पर कभी रहेगी नहीं । शहर को अम्मा ने अस्वीकार कर दिया था । फिर भी उस का अंतिम समय लखनऊ में बीता और मौसी का गोरखपुर में । आगरा में रहते समय ही मौसा ने गोरखपुर की एक आवास विकास कालोनी , शाहपुर में मिलेट्री कोटे में एक घर आवंटित करवा लिया था । बाद के समय में मौसा की पोस्टिंग दक्षिण भारत में होती रहीं और मौसी गोरखपुर में रहने लगीं । मौसा के खाने-पीने की समस्या शुरू हो गई थी । वह लगातार इडली डोसा खाते-खाते परेशान हो चले थे । कि तभी उन्हें फिर ट्रेनिंग के लिए रूस जाना पड़ा छह महीने के लिए । रूस में पहली पारी में भी वह मारे डर के सिर्फ दूध और ब्रेड पर छह महीने गुज़ार चुके थे । दूसरी पारी में भी वह दूध और ब्रेड पर रहने लगे । बाकी भोजन में उन्हें डर लगता था कि उस में कुछ न कुछ मांस ज़रूर मिला होगा । नतीजा यह हुआ कि रूस से वापस आने के बाद वह बीमार रहने लगे । अपने पांव पर खड़ा होना मुश्किल होने लगा । वह लखनऊ आए । कमांड हॉस्पिटल में इलाज करवाने के लिए । लेकिन कमांड हॉस्पिटल में कोई सुनवाई नहीं थी । मैं भी गया लेकिन वहां का टोटल सिस्टम बहरा था । अजब अराजकता और अफरातफरी थी । मुलायम सिंह यादव उन दिनों रक्षा मंत्री थे । संयोग से वह उन दिनों लखनऊ में थे । मैं मुलायम सिंह यादव से जा कर मिला , मौसा के इलाज की समस्या बताई । मुलायम सिंह ने फोन पर निर्देश जारी किए और मौसा को भर्ती कर के बाकायदा इलाज शुरू किया गया ।

गांव के हमारे घर में अम्मा , पिता जी और दोनों मौसी । मौसी का बड़ा बेटा मार्कण्डेय ।

सारा चेकअप करने के बाद पता चला कि उन की देह में बहुत सारे पोषक तत्व अनुपस्थित हो चुके थे , इसी लिए मौसा का अपने पैर पर खड़ा होना भी दुश्वार हो गया था । यह रूस में लगातार सिर्फ दूध और ब्रेड पर रहने का खामियाजा था । खैर मौसा धीरे-धीरे स्वस्थ होने लगे । उन्हीं दिनों मेरा एक भयंकर एक्सीडेंट हुआ तो मौसा मुझे देखने आए । उन दिनों मेरा पानी पीना भी मुश्किल था । लेकिन मौसा जब तक हॉस्पिटल में रहे , मेरी खुराक को ले कर चिंतित थे । वह लगातार एक सूत्रीय निर्देश देते रहे मुझ को और हर किसी को कि खुराक में कोई कमी नहीं होने चाहिए । यह उन के रूस में नियमित दूध और ब्रेड पर महीनों निर्भर रहने का मनोवैज्ञानिक असर था , यह मैं समझ गया था तब । आखिरी पोस्टिंग मौसा की संयोग से गोरखपुर में हुई । लेकिन जल्दी ही उन्हों ने वी आर एस ले लिया। सेवानिवृत्ति के दो साल पहले ही । मौसा के दोनों बेटे भी तब तक एयर फ़ोर्स ज्वाइन कर चुके थे । बाद के दिनों में बड़ा बेटा मार्कण्डेय भी एयरफोर्स से रिटायरमेंट ले कर गोरखपुर में ही यूको बैंक में मैनेजर हो गया । दोनों बेटियों और दोनों बेटों का विवाह हो चुका था । नाती पोते वाली मौसी अब गोरखपुर में खुश थीं । घर भी ठीक ठाक बनवा लिया था । तीन मंजिला । अब वह सुंदर कपड़ों में जेवरों से लदी फदी मिलतीं । मौसा के साथ मोटर साईकिल पर घूमतीं दिखतीं । मैं उन्हें खूब चिढ़ाता । वह बिसूरती हुई हंसती रहतीं । मैं उन्हें चिढ़ाता रहता वह हंसती रहतीं । मैं कहता बुढ़ौती में एतना भारी-भारी , ई नकली जेवर काहें पहिनेलू मौसी ! वह भड़कती हुई कहतीं , नकली जेवर पहिनें हमार दुश्मन ! और हंसने लगतीं । छोटकी मौसी के जीवन के यह सुनहरे दिन थे । बाद के दिनों में वह मौसा के स्वास्थ्य को ले कर चिंतित रहने लगीं । एयरफोर्स में नौकरी के नाते दोनों बेटे मार्कण्डेय और झारखंडेय बाहर रहते थे । दोनों बेटियां गीता और अनीता अपनी ससुराल में । तो सब कुछ मौसी को ही देखना होता था । फिर भी जीवन उन का खुशहाल गुज़र रहा था । इसी बीच उन का संयुक्त परिवार टूटने लगा था । उन के जेठ और देवर के परिवार से दूरियां बढ़ने लगीं । इस को ले कर वह एक समय बहुत परेशान हो गई थीं । उन की चिंता और दुश्वारी यह थी कि जिस घर के लिए , जिन लोगों के लिए इतना कुछ किया , वही लोग ऐसा कैसे कर सकते हैं ? मैं उन्हें समझाता कि , अब यह घर-घर की कहानी है । कि जो घर के लिए सब से ज़्यादा करता है , वही घर के लिए सब से बुरा हो जाता है । तो परेशान मत होइए । तो मौसी मुझे झिड़कतीं हुई कहतीं , कइसे परेशान न हुईं बाबू !

समय बदलता रहा । पारिवारिक तनाव ने उन्हें शुगर की बीमारी का गिफ्ट दे दिया । जल्दी ही ब्लड प्रेशर भी शुगर से अपनी दोस्ती निभाने आ गया । बेटी गीता की बेटी श्वेता मौसी के साथ ही रहती थी । मौसी की देख-रेख में लग गई । गीता भी आती जाती रहती थी । दूसरी बेटी अनीता भी । दोनों बहुएं भी । सब कुछ सामान्य चल रहा ही था कि एक दिन छोटकी मौसी घर में ही गिर गईं । अब वह कभी चल पातीं , कभी नहीं । सामान्य  दिनचर्या डिस्टर्ब हो गई । कोई न्यूरो प्राब्लम बताता , कोई कुछ और । गोरखपुर के विभिन्न अस्पताल से ले कर लखनऊ के पी जी आई तक इलाज हुआ । पर वह जो कहते हैं न कि  मर्ज बढ़ता गया , ज्यों-ज्यों दवा की । आहिस्ता-आहिस्ता छोटकी मौसी बिस्तर पर आ गईं । हरदम खिलखिलाने वाली , खूब बतियाने वाली , हम को हरदम चिढ़ाने वाली , मुंह बिराने वाली , हमारा जब-तब इम्तहान लेने वाली छोटकी मौसी अब जब मिलतीं रोती हुई मिलतीं । अपने स्वास्थ्य के दुखड़े गाती हुई मिलतीं । लेकिन बोलते समय उन की आवाज़ में खनक और चटक शेष थी । पांव छूने पर एक आशीर्वाद वह ज़रूर देतीं , खुश रह बाबू , भगवान जीव-जांगर बनवले रहैं ! फोन पर भी वह यही आशीष देतीं । लेकिन अब उन का ही जीव-जांगर बना नहीं रह गया था । अम्मा हमारी भले पहले चली गई लेकिन जब छोटकी मौसी से मिल कर आती या छोटकी मौसी का हाल सुनती तो कहती कि भगवान अब तोहरे मौसी के जल्दी बोला लें त नीक रहत । नाना ने अपनी तीनों बेटियों का नाम प्रभावती , कलावती और गायत्री रखा था । नाना की यह तीनों बेटियां अपने नाम के ही अनुरूप थीं । तीनों तीन स्वभाव की थीं पर तीनों में एक गुण समान था । खूब बोलना , बेबात बोलना । कह सकते हैं , वाचाल संपन्न थीं तीनों । मेरे पिता जी जब कभी अम्मा से ख़फ़ा होते तो कहते , तीनों बहनें पागल हैं ! कभी अम्मा से कहते , बेटों ने तुम्हारा दिमाग ख़राब कर दिया है । आदि-आदि । वास्तव में पहले यह तीनों बहनें घूंघट और घुटन में इतना लंबा समय गुज़ार चुकी थीं कि जब इन्हें खुला माहौल मिला तो यह दबे स्प्रिंग मौका मिलते ही उछल पड़े । बस इतनी सी बात थी । लेकिन यह बात सब लोग कहां समझते हैं । समझना कहां चाहते हैं । वैसे भी कहा जाता है कि जब सारी इंद्रियां बेकार हो जाती हैं तो सारी ताकत जुबान पर आ जाती है । अमूमन बुजुर्ग लोगों में ज़िद और बोलना ही उन की ताकत और कमजोरी दोनों बन जाता है । अलोकप्रिय बना जाता है । यही हमारी अम्मा के साथ भी हुआ , यही छोटकी मौसी के साथ हुआ । यही मझिलकी मौसी के साथ अभी हो रहा है । हो सकता है कि कल हमारे साथ भी हो । कौन जानता है भला ! लेकिन एक बात इन तीनों बहनों में और समान थी , वह यह कि तीनों का ममत्व मेरे लिए समान था । अम्मा , मझिलकी मौसी , छोटकी मौसी तीनों का ही मेरे प्रति ममत्व अगाध और अविस्मरणीय है । किसी में भी एक रत्ती कम नहीं , एक रत्ती ज़्यादा नहीं । इस मामले में मैं बहुत सौभाग्यशाली हूं , परम सौभाग्यशाली कह सकते हैं आप ।

छोटकी मौसी के अंतिम समय में मौसा ने जिस समर्पित भाव से मौसी का साथ दिया , मौसी की सेवा की वह बेमिसाल है । मौसी की बेटी गीता की बेटी श्वेता ने तो नानी की सेवा के लिए इस साल अपनी पढ़ाई छोड़ दी । मौसा और श्वेता ने मौसी की परछाईं बन कर जिस तरह लंबे समय तक सेवा की , वह आसान नहीं है । श्वेता तो युवा है पर मौसा खुद वृद्ध हैं , बीमार हैं , पैर में दिक्कत है , लेकिन मौसी की सेवा में कोई कसर नहीं छोड़ी । बहुत कम पति होते हैं , विरले होते हैं जो पत्नी की इस समर्पण भाव के साथ सेवा करें जैसी मौसा ने की । मौसी कोई दो साल तक बिस्तर पर रहीं और मौसा उन के साथ परछाईं बन कर सेवारत रहे । पूरी भावनात्मकता के साथ । घर हो या अस्पताल । अब पता चला था कि जो मौसी , मौसा को बच्चों की तरह डांट दिया करती थीं , वह मौसी ही मौसा की सब से बड़ी ताकत थीं । लेकिन कम बोलने वाले , अकसर चुप रहने वाले मौसा ने यह बात कभी अपनी जुबान से नहीं कही पर ऐसी बातें किसी का कहां छुपती हैं भला ? देर सवेर लोग जान ही जाते हैं । यह बहुत ही सैल्यूटिंग है ।

मौसी यानी मां सी । छोटकी मौसी भी मेरी मां ही थीं , बचपन की मेरी सहेली भी । डेढ़ महीने के बीच दो मां को खोने का दुःख आसान नहीं होता । मैं ने खोया है । भले व्यावहारिक स्तर पर अब इस उम्र में मां की वह भूमिका जीवन में नहीं रह जाती जैसी बचपन में रहती है पर भावनात्मक संबल भी एक चीज़ होती है । यह भावनात्मक संबल मेरा छूट गया है , टूट गया है । अब , बाबू खुश रहs , भगवान जीव-जांगर बनवले रहैं ! इस  आशीष से वंचित हो गया हूं । यह आशीष देने वाली छोटकी मौसी अब अपनी दीदी के पास जो चली गई हैं , हमारी अम्मा के पास । बहुत-बहुत प्रणाम मौसी ।

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4. हम पत्ता,  तुम ओस 




Sunday, 11 February 2018

सोशल मीडिया ने साहित्य के बड़े-बड़े माफ़ियाओं को धूल चटा कर उन की सत्ता को तहस-नहस कर दिया है

क्या कहूँ,
मस्तक-कुण्ड में जलती
सत्-चित्-वेदना-सचाई व ग़लती--
मस्तक शिराओं में तनाव दिन-रात।

अब अभिव्यक्ति के सारे ख़तरे
उठाने ही होंगे।
तोड़ने होंगे ही मठ और गढ़ सब।


अंधेरे में शीर्षक लंबी कविता में जब मुक्तिबोध यह लिख रहे थे तब वह भला क्या जानते थे कि उन की इस कविता पंक्ति का लफ्फाज और हिप्पोक्रेट साहित्यकार हद से अधिक दुरूपयोग करेंगे और कि इस कविता पंक्ति की आड़ में यह लफ्फाज और हिप्पोक्रेट साहित्यकार नित नए-नए गढ़ और मठ बनाते जाएंगे । मुक्तिबोध तो तब यह भी नहीं जानते थे कि साहित्य की ज़मीन कभी सोशल मीडिया की भी जद में आ जाएगी । और यह सोशल मीडिया इन बेगैरत लफ्फाजों और हिप्पोक्रेट साहित्यकारों की दुनिया तहस-नहस कर , उन के सारे मठ और गढ़ ध्वस्त कर देगा । सच सोशल मीडिया ने वह काम कर दिया है जो लोगों ने कभी सपने में भी नहीं सोचा था ।  फेसबुक , ब्लाग और साइट ने बड़े-बड़े महारथियों की पैंट उतार दी है , नींद उड़ा दी है । साहित्यिक परिदृश्य को तानाशाही , हिप्पोक्रेसी और लफ्फाजी से मुक्त कर नई खिड़की और नई ज़मीन परोस दी है । वह एक नारा था न कभी कि कमाने वाला खाएगा ! की तर्ज पर साबित हो गया है कि लिखने वाला ही पढ़ा जाएगा , गैंगबाज मारा जाएगा !  

इस लिए भी कि  साहित्यिक परिदृश्य में गुटबाजी और गैंगबाज़ी बहुत होती है । इतनी कि इन का कमीनापन देख कर अपराधियों के बड़े-बड़े गैंग भी शर्मा जाएं । पुरुषों के अलग गैंग हैं , महिलाओं के अलग गैंग । हां , इन गैंगबाजों के पास रचना या आलोचना नहीं है , एक जहर है , नफ़रत और छुआछूत है । इन के पास पत्रिका है , संगठन हैं, पालतू पत्रकार हैं , अख़बारों में इन के ही फ़ोटो , इन के ही भाषण हैं । सभा , सेमिनारों में इन का ही कब्जा है ।  यही नहीं तमाम नए-पुराने सशक्त रचनाकार इन गैंगबाजों की जहरीली और बदबूदार हवा में नाक पर रुमाल रख कर किनारे हो गए हैं । महिला गैंगबाज़ भी हैं तो इन पुरुष गैंगबाजों का बगल बच्चा ही लेकिन उन की महत्वाकांक्षा और आपसी डाह उन्हें पुरुषों से कहीं ज़्यादा जहरीली और बदबूदार बना गई है । अमृतलाल नागर अपने समय की गुटबाजी के मद्देनजर मुझे समझाते हुए कहते थे , रचा ही बचा रह जाएगा । तो मैं ने तो रचने पर ही सर्वदा ध्यान दिया है और इन गैंगबाजों को सर्वदा जूते की नोक पर रखा है । कभी इन की परवाह नहीं की । 

फिर सोशल मीडिया की अकूत ताक़त ने इन गैंगबाज़ों की हवा निकाल कर , इन्हें इन की औक़ात बता दी है । पहले भड़ास ने फिर मेरे ब्लाग सरोकारनामा ने जो असंख्य पाठक दुनिया भर में मुझे दिए हैं , कोई पत्रिका , अख़बार या कोई प्रकाशित किताब भी मुझे अभी तक नहीं दे पाई । सोने पर सुहागा फेसबुक है , जहां पाठकों से रुबरु न सिर्फ़ संवाद हो जाता है , अपनी औक़ात समझ में आ जाती है बल्कि दुनिया भर को , दोस्त-दुश्मन हर किसी को सूचना देने का सब से बड़ा प्लेटफार्म भी मिल जाता है । सच यह है कि सोशल मीडिया ने साहित्य के बड़े-बड़े माफ़ियाओं को धूल चटा दी है , उन की सत्ता को तहस-नहस कर सर्व सामान्य को भी सभी अवसर उपलब्ध करवा दिए हैं , मुफ्त में । बस यही है कि जिस बीज में ताक़त होगी , वह पत्थर फोड़ कर , कड़ी ज़मीन तोड़ कर भी उग आएगा और वृक्ष बन जाएगा । फूल और फल से सर्वदा लदा रहेगा । जिस बीज में कुछ नहीं होगा , वह तमाम सुविधाओं और बैसाखी के भी खिल न सकेगा , उग न सकेगा । यह भी सोशल मीडिया ने बता दिया है । यह भी कि रचना का सूरज तो उगेगा और पूरब से ही उगेगा । नेट पर लोग खोज ही लेते हैं अपना-अपना सूरज । कोई बादल , कोई पर्वत , कोई माफ़िया , कोई गैंगबाज़ , कोई तानाशाह , कोई लफ्फाज , कोई हिप्पोक्रेट उसे रोक नहीं पाता । उस के सारे मठ और गढ़ अनायास टूट जाते हैं । टूटते ही जाते हैं । इस लिए भी कि सोशल मीडिया वह नदी है जहां बहता पानी ही काम आता है , ठहरा और सड़ा जल नहीं ।

Thursday, 8 February 2018

औरतें बहुत ज़रूरी हैं दुनिया के लिए

चित्र  : जे पी सिंघल 

मैं बूढ़ा भले हो रहा हूं
लेकिन एक औरत है
जो मुझे जवान बनाए रखती है 

एक औरत थी 
जो मुझे बच्चा बनाए रखती थी 
लेकिन वह मुझे छोड़ कर चली गई 

औरतें कई हैं मेरी ज़िंदगी में 
किसिम-किसिम की औरतें 
यह औरतें ही हैं 
जो ज़िंदगी को ज़िंदगी बनाए रखती हैं

औरतें नदी होती हैं
बहती हुई नदी
ज़िंदगी को साफ़ सुथरा रखती हैं

औरतों से हमारी बहुत बनती है
बनिस्बत पुरुषों के
औरतों से अच्छा कोई दोस्त नहीं होता

इस की शुरुआत घर से ही हुई
पिता से मेरी कभी ठीक से नहीं बनी
अम्मा में लेकिन जान बसती थी

अम्मा ने बीज दिए औरतों से दोस्ती के
औरतों ने विश्वास
इतना कि मैं पहली संतान बेटी ही चाहने लगा

हुई भी

अब दो बेटियां हैं
एक ससुराल चली गई
दूसरी बस जाने की तैयारी में है
लेकिन दोस्ताना जारी है दोनों से

यह औरतें न हों दुनिया में
तो मैं जी कर भी क्या करूंगा
जीना भी क्यों चाहूंगा

भला किस के लिए जीयूंगा
रोमांस किस से करूंगा
जवान कैसे रहूंगा

कहा न कि एक औरत है
जो मुझे जवान बनाए रखती है
और मैं सर्वदा जवान बने रहना चाहता हूं

इस लिए औरतें बहुत ज़रूरी हैं दुनिया के लिए
दुनिया को जवान बनाए रखने के लिए

[ 8 फ़रवरी , 2018 ]