काश
कि उत्तर प्रदेश के यादव लैंड या दलित लैंड बनने पर भी लेखक मित्रों ने
कभी मुह खोला होता । मुस्लिम तुष्टिकरण पर भी सांस ली होती । एकपक्षीय
सेक्यूलरिज्म का पहाड़ा न पढ़ा होता तो शायद यह नतीज़े यह और इस तरह कतई नहीं
होते । हिंदी संस्थान जैसी जगह पर साहित्य के साथ यादववाद का भी पाठ पढ़ाया
जाने लगा । पुरस्कृत किया जाने लगा । दलित राज में तो हिंदी संस्थान को बंद
करने की साज़िश रची गई । लेकिन लेखक इस सब पर भी मासूम बन कर चुप थे । हर
थानेदार यादव , हर ठेकेदार यादव , हर प्राईज पोस्टिंग पर यादव । सौ में से
84 डिप्टी कलक्टर यादव । इस पर भी मुंह खुलना चाहिए था । क्यों नहीं खुला
भला ?
सर्जिकल स्ट्राइक और नोटबंदी जैसे मसलों पर किसी पार्टी के
कार्यकर्ता की तरह लामबंद हो गए । गिरोह की तरह काम करने लगे । कश्मीर की
आज़ादी जैसे मसलों पर अलगाववाद के पैरोकार बन गए , सेना को बलात्कारी बनाने
की मुहिम चलाने लगे । तिहरे तलाक़ जैसे मसलों पर शुतुरमुर्ग की तरह रेत में
सिर धंसा कर सिट डाऊन हो गए । स्त्रियों की यातना नहीं दिखी । जनता की
भावना और संवेदना नहीं , अपनी ज़िद , सनक और पूर्वाग्रह की ऐंठ में ऐंठे रहे
। दुश्मनी मोदी और भाजपा से करनी थी , देश से करने लगे । जो भी कोई रत्ती
भर असहमत हो , उसे भक्त कहने लगे । संघी बताने लगे ।
दादरी से लगायत
मुजफ्फर नगर तक सपा सरकार दोषी थी , जवाबदेह थी , पर उस के दोष पर परदा
डाल कर नरेंद्र मोदी को फ्रेम करने लगे । लड़ना था मोदी से , साहित्य अकादमी
से लड़ने लगे । पुरस्कार वापसी का रैकेट चलाने लगे । फिर ऐसे में नतीज़े अब
वल्गर हो गए । भाई वाह ! पूरा उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड भक्त हो गया ।
इतना कि उत्तर प्रदेश के 31 जिलों में भाजपा के सिवाय किसी का खाता नहीं
खुला । 403 सीट में से सौ सीट भी समूचा प्रतिपक्ष नहीं पा सका । 79 सीट पर
सिमट गया समूचा प्रतिपक्ष ।
लेखक , लेखक के बजाय जब पार्टी
कार्यकर्ता बन कर एक व्यक्ति से एकतरफा नफ़रत का खेल खेलने लगे तो उस समाज
को , लेखक के अंतर्विरोध को समझना बहुत मुश्किल नहीं है । पत्रकार तो पेड
मीडिया में गिरफ्तार हैं , चाकर हैं । लेकिन लेखक ? यह किस पेड अभियान में
हैं , किस के चाकर हैं ? अधिकांश लेखक भी इस संभावित दुर्घटना को कैसे
नज़रअंदाज़ कर गए ? कैसे नहीं देख पाए यह सब ? जनता भक्त हो रही थी और आप उस
को अपनी ज़िद और सनक में यह देख भी नहीं पा रहे थे ? एक फ़ासिस्ट का विरोध
करते-करते इतने अंधे क्यों हो गए कि ख़ुद भी फ़ासिस्ट हो गए ? वेरी गुड ! और
आप फिर भी लेखक हैं ? धन्य हैं आप लेखक शिरोमणि ! जनादेश का सम्मान करना
सीखिए लेखक शिरोमणि , नफ़रत नहीं । असहमत होना और नफ़रत करना दोनों दो बात है
। तिस पर आप लेखक जन की एक बड़ी शिकायत है कि आप को लोग पढ़ते नहीं । जनता
से , जन भावना से , उस की संवेदना से कट कर रहेंगे तो साहित्य भी तो नकली
ही लिखेंगे प्रभु ! नक्कालों से सावधान रहना जनता बहुत बेहतर जानती है । आप
यह भी कैसे भूल गए हैं ।
तो कैसे पढ़ेगी आप को जनता । बल्कि क्यों
पढ़ेगी । ख़ुद ही लिख कर , ख़ुद ही पढ़ लेने की आदत हो गई है आप को । यह बात तो
अब सब जानते हैं । हो सके तो यह आदत बदलिए । क्यों कि लेखन के लिए , समाज
के लिए यह बहुत गुड आदत नहीं है । हो सके तो अपने विचार , अपनी असहमतियां
कायम रखते हुए अपनी ज़िद , सनक और पूर्वाग्रह से बाहर निकलिए । कुंठा से
छुट्टी ले लीजिए । जनता अगर राजनीतिक पार्टियों को नकारना जानती है तो लेखक
किस खेत की मूली हैं । लेखकों को भी जनता नकार रही है वही जनता जिस को आप
पाठक कहते हैं । सभी पाठक भक्त नहीं होते , न संघी । सामान्य जन ही होते
हैं । यह भी कि आत्म-मंथन भी एक चीज़ होती है।
हालां कि लेखकों को यह समझाना बहुत मुश्किल है कि विचार अपनी जगह हैं ,
असहमति
अपनी जगह है पर तथ्य भी तो अपनी जगह हैं । लेकिन विचार
की बुनियाद पर , असहमति की बुनियाद पर तथ्यों पर पानी डालने की कसरत कर
कैसे लेते हैं आप ? आप की यह कसरत आप को मुबारक ! लेकिन चश्मा लगा कर धूप
में बरसात न दिखाएं , न देखें । रेत में सिर घुसा कर
चुप रहना भी गुड बात नहीं । जन मानस और जनता की नसों को समझिए , उन की
भावनाओं , समझ और पसंद को वैचारिकी के बूटों तले रौदना , कुचलना अब बंद भी
कीजिए । कृपया दिन को दिन , रात को रात कहने का अभ्यास कीजिए ।