अशोक मिश्र
कभी-कभी यह सवाल
मेरे मनोमस्तिष्क में ज़रूर कौंधता है कि आख़िर क्यों पढ़ा जाता है साहित्य?
इतने सालों बाद भी बंकिम चंद्र चट्टोपाध्याय, रवींद्रनाथ टैगोर, मुंशी
प्रेमचंद जैसे दुनिया भर के असंख्य कहानीकार, उपन्यासकार, कवि आज भी अपने
राष्ट्र की सीमाओं के बाहर क्यों पढ़े जाते हैं? इन सवालों के जवाब
भिन्न-भिन्न हो सकते हैं, हैं भी। लेकिन उन सभी जवाबों में शायद एक तत्व
उभयनिष्ठ (कॉमन) है और वह है अनुभूतियां। किसी भी रचनाकार की रचना में
व्यक्त की गई अनुभूतियां ही पात्रों के माध्यम से सर्वकालिक और सर्वदेशीय
हो जाती हैं। उनके पात्रों की पीड़ा हर देश के आम आदमी, दबे-कुचले,
शोषित-पीड़ित जनों की पीड़ा से जब तादात्मय स्थापित कर लेती हैं, तो वे सबकी
पीड़ा बन जाती हैं, जनमानस की पीड़ा हो जाती है। इन पात्रों की हंसी में सब की
हंसी का समावेश हो जाता है। आजादी से पहले के भारतीय किसानों की (कमोबेश
आज भी) व्यथा-कथा को जब मुंशी प्रेमचंद ने अपने प्रसिद्ध उपन्यास ‘गोदान’
के मुख्य पात्र ‘होरी’ और ‘धनिया’ के माध्यम से पेश किया, तो होरी और
धनिया में देश के प्रत्येक किसान का प्रतिबिंब नजर आया। यही मुंशी प्रेमचंद
की सफलता थी। यही प्रत्येक रचनाकार की सफलता का आधार भी है। सवाल यह नहीं
है कि उसे कितनों ने पढ़ा, कितनों ने उस की प्रशंसा की, कितने लोग उस के गुट
में थे। सवाल यह भी नहीं है कि उस की रचना पर कितने विद्वानों ने अपनी राय
पक्ष में दी, कितनों ने विपक्ष में। जब कल्पना और यथार्थ के संतुलित संयोग
से कोई रचना इतनी जीवंत हो जाए कि उस रचना का हर पाठक कह उठे कि अरे! यह तो
मेरी पीड़ा है। ठीक ऐसा ही मेरे साथ भी हुआ था या ऐसा ही मेरा भी अनुभव है,
तो वह रचना अपने आप में सार्थक हो जाती है।
वरिष्ठ
पत्रकार, उपन्यासकार, कहानीकार और कवि दयानंद पांडेय भी इसी कोटि के
साहित्यकार हैं। इन की कई पुस्तकों पर बहुत सारे विद्वानों और प्रतिष्ठित
साहित्यकारों ने समीक्षाएं लिखी हैं, उन पर लंबे-लंबे आलेख लिखे हैं।
पांडेय जी की उपलब्धि यह नहीं है कि प्रतिष्ठित साहित्यकारों और विद्वतजनों
ने उन की रचनाओं के बारे में कुछ लिखा। उपलब्धि यह है कि उन्हें एक बड़ा
पाठक वर्ग मिला, जिसने बड़े मनोयोग से उन्हें पढ़ा, उन की रचनाओं को गुना। इस
पुस्तक में विद्वत जनों के अलावा पाठकों की भी समीक्षाएं हैं। वे वही पाठक
हैं जिन्होंने उन की रचनाओं को सिर माथे पर लिया। उन्हें पढ़ा, पढ़ कर गुना।
उनके पात्र रोये, तो उन के भी आंसू छलक पड़े। कहानी या उपन्यास के पात्र
हंसे, तो उन के चेहरे पर भी हास्य झलक उठा। यह पाठक ही है, जो किसी को सिर
पर बिठा लेता है, तो किसी को गुमनामी के गहन अंधकार में ढकेल देता है। इस
मामले में दयानंद पांडेय जी बहुत भाग्यशाली हैं कि उन्हें पाठक खूब मिले,
भरपूर मिले। इन के साहित्य और जीवन पर इन प्रतिष्ठित साहित्यकारों और
विद्वानों के साथ-साथ पाठकों को भी लिखने पर मजबूर होना पड़ा। इस पुस्तक में
बहुतेरी समीक्षाएं उनके ब्लॉग ‘सरोकारनामा’ पर पोस्ट की गईं रचनाओं को पढ़
कर लिखी गई पाठकों की समीक्षाएं हैं। किताब पढ़ कर लिखने वाले समीक्षक भी कम
नहीं हैं। इन समीक्षकों में कोई पत्रकार है, तो कोई कहानीकार। कोई पुलिस
अधिकारी है, तो कोई लंदन में रहने वाली सामान्य गृहणी। कोई इस पेशे में है,
तो कोई उस पेशे में। कहने का मतलब यह है कि दयानंद पांडेय के उपन्यास,
कहानियों और आलेखों पर लिखने वाले किसी एक पेशे से जुड़े लोग नहीं हैं। इन का
आपस में कोई संबंध भी नहीं है। और मजे की बात यह है कि उपन्यास, कहानियों
और लेख संग्रहों पर लिखी गई टिप्पणियां, लिखने वालों के बेबाक विचार भी एक
पुस्तक के रूप में एक बार फिर लोगों की अदालत में है। पुस्तक ‘दयानंद
पांडेय समीक्षकों की नज़र में’ के मूल में भले ही दयानंद पांडेय जी के
उपन्यास, कहानी संग्रह और लेख संग्रह हों, लेकिन अब इस पुस्तक की
अच्छाई-बुराई के ज़िम्मेदार पांडेय जी नहीं हैं। अब तक पांडेय जी को अपने
निकष पर कस कर खरा-खोटा बताने वाले लोग ही निकष पर हैं, उनके विचार कसौटी
पर परखे-जांचे जाने को हैं। और यह कसौटी है पाठकों की। पाठक की नज़र से कभी
कुछ नहीं बच सकता है। अच्छाइयां भी। बुराइयां भी। इन से कोई भाग कर बच नहीं
सका है। जिसने भी पाठक से बचने, उसे चकमा देने का प्रयास किया, पाठकों ने
उसे धता बता दिया है। यह पांडेय जी का ही साहस है कि वे न सिर्फ़ लोगों से
आंख मिला कर बतियाते हैं, बल्कि उन की बातों पर विचार भी करते हैं। जहां
लगता है कि सामने वाला सही है, वे बड़ी विनम्रता से उस की बात को स्वीकार भी
करते हैं, लेकिन मैंने इतने साल के संबंधों के दौरान सिर्फ़ लोगों को
प्रसन्न करने के लिए किसी बात को मानते भी नहीं देखा है। उनके ब्लॉग
‘सरोकारनामा’ और फ़ेसबुक पर लोगों से, समीक्षकों से उन की लंबी-लंबी बहसें
भी पढ़ी हैं। वे तर्क के महारथी हैं, उन्हें सही बातों से डिगा पाना, मुमकिन
ही नहीं, असंभव है।
तो अब
बात करते हैं ‘दयानंद पांडेय समीक्षकों की नज़र में’ की। उपन्यास, कहानी
संग्रह और आलेख संग्रह पर तमाम पत्र-पत्रिकाओं में छपी समीक्षाओं के साथ
ही साथ ब्लाग ‘सरोकारनामा’ के पाठक और समीक्षक के रूप में लिखने वाले
साहित्यकार, पत्रकार, गृहणी, साहित्य में रुचि रखने वाले सामान्य पाठक और
वरिष्ठ पुलिस अधिकारी जैसे तमाम लोगों द्वारा लिखी गई टिप्पणियां,
समीक्षाएं अब पुस्तक ‘दयानंद पांडेय समीक्षकों की नज़र में’ में संग्रहीत
हैं। कुछ समीक्षकों ने बाकायदा दयानंद पांडेय के उपन्यास और कहानियों के
शिल्प, भाषा और इनके (कहानी या उपन्यास) परिवेश पर भी बात की है। कुछ
समीक्षकों ने सैद्धांतिक पद्धति का उपयोग किया है, तो ज़्यादातर ने इस के
समाजशास्त्राीय स्वरूप की ही चर्चा कर के अपने दृष्टिकोण को लोगों के सामने
रखने का प्रयास किया है। समीक्षकों ने दयानंद पांडेय के उपन्यास और
कहानियों में प्रयुक्त हुए कुछ शब्दों का उल्लेख करते हुए इस बात को
रेखांकित करने का प्रयास भी किया है कि वे भोजपुरी, अवधी और हिंदी के
किन-किन शब्दों के उपयोग के प्रति आग्रही हैं। मैं यह मानता हूं कि अपनी
मातृभाषा, अपनी बोली के प्रति किसी का भी लगाव स्वाभाविक है। इस का विरोध तब
उचित होता, अगर इन शब्दों का उपयोग अनुचित या ठूंसा हुआ लगता। स्वाभाविक
रूप से उपयोग किए गए शब्दों के प्रति कुछ कहना उचित नहीं है। दयानंद पांडेय
जी के देशज शब्द, छोटे-छोटे वाक्य विन्यास बिल्कुल मुग्ध कर देते हैं। कई
जगह तो उपन्यास और कहानियां एकदम काव्यात्मक हो गई हैं। पता ही नहीं चलता
कि गद्य पढ़ रहे हैं या पद्य। ऐसा कर पाना आसान नहीं है। ऐसा तब होता है, जब
भीतर से कोई बात निकल रही हो। एकदम दिल से। ठीक बांसुरी में फूंकी जा रही
वायु के समान और उस फूंक से निकली मधुर स्वर लहरियों के समान।
मैंने
पहले ही कहा कि भाषा और शिल्प तो साहित्य का वाह्य शरीर है। आत्मा है तो
अनुभूतियां। अनुभूतियां ही साहित्य को अच्छा-बुरा बनाती हैं। दयानंद पांडेय
का एक उपन्यास है ‘बांसगांव की मुनमुन।’ सब से ज़्यादा समीक्षा इसी उपन्यास
की हुई है। निस्संदेह उपन्यास ‘बांसगांव की मुनमुन’ गांव-कस्बे का एक
अप्रतिम दस्तावेज है। प्रामाणिकता के साथ गांव-कस्बों का जीवन पूरी शिद्दत
के साथ उभर कर सामने आया है। मैं एक वाकया बताऊं। दो साल पहले पांडेय जी ने
मुझे यह उपन्यास इस निर्देश के साथ दिया था कि इसकी समीक्षा तुम्हें लिखनी
है और जल्दी लिखनी है। उन दिनों मैं काफी व्यस्त रहता था, तो मैंने अपने
एक सहयोगी सुभाष झा को पांडेय जी के ही शब्दों को दोहराते हुए ‘बांसगांव की
मुनमुन’ की समीक्षा लिखने को कहा। तीसरे दिन सुभाष झा एक विस्तृत समीक्षा
लिख कर ले आए। मुझे ताज्जुब हुआ, तो मैंने पूछ लिया, ‘बड़ी जल्दी लिख लाए।
पढ़ा भी है?’ वे बोले, भाई साहब, न केवल पढ़ा है, बल्कि किताब पढ़ कर मैं
आश्चर्यचकित भी हूं। एक बार उपन्यास पढ़ना शुरू किया, तो मैं सारी रात पढ़ता
रहा। पढ़ने के चक्कर में ही कल मैं ऑफिस बिना नहाये-खाये आया था। उपन्यास
‘बांसगांव की मुनमुन’ मैं अपनी एक परिचिता को आज सुबह देता हुआ आया हूं।
जिस तरह की समस्याओं, परेशानियों, ऊहापोह से उपन्यास की मुख्य पात्र
मुनमुन राय गुज़र रही थी, ठीक ऐसी ही परिस्थितियों से मेरी एक दोस्त गुज़र रही है। सुभाष ने मोबाइल नंबर ले कर पांडेय जी से बात भी की। कुछ दिन बाद
सुभाष ने ही बताया कि उन की दोस्त ने उपन्यास पढ़ने के बाद वही फैसला किया,
जो मुनमुन राय ने लिया था। उपन्यास पढ़ने के बाद वे ऊहापोह की स्थिति से
उबरीं और उन्होंने वह कठोर फैसला लिया जिसने उनके जीवन की दशा बदल दी। यह
है शब्द की शक्ति। उपन्यास ने एक को अपने जीवन के फैसले लेेने की ताकत दी,
दुनिया से लड़ने की ताकत दी। शब्दों में बड़ी ताकत होती है। ये शब्द ही हैं,
जो जीवन संवार भी देते हैं, बिगाड़ भी देते हैं। राजा से रंक बना देते हैं,
तो शब्दों के चलते रंक से राजा बनने में भी देर नहीं लगती।
स्त्री को भोग्या, निजी संपत्ति मानने की मानसिकता बहुत पुरानी है। हमारे प्राचीन
शब्दकारों ने स्त्री की निजता, उस के स्वाभिमान, उस की स्वतंत्रता को
महत्व नहीं दिया। भारतीय समाज में आज भी उस की स्थिति में फर्क आया है, तो सिर्फ़ इतना कि वह अपने परिवार के लिए जीविकोपार्जन कर सकती है। अगर कोई
महिला स्वतंत्र रूप से अलग नहीं रह रही है, तो वह अपनी तनख्वाह अपनी मर्जी
से खर्च करके तो देखे। उस का पति, पुत्र, पिता, ससुर कैसे तिलमिलाते हैं।
बांसगांव की मुनमुन इसी मानसिकता के खिलाफ शंखनाद करती है। वह अपने
निकम्मे, काहिल और शराबी पति को न केवल उस की लंपटई के लिए पीटती है, बल्कि
आर्थिक स्वावलंबन का आधार नौकरी छोड़ने से मना कर देती है, तमाम लांछन लगाए
जाने के बावजूद। यौनिक शुचिता के नाम पर जितना शोषण और दोहन स्त्री का
होता है, उतना शायद किसी का नहीं होता है।
भारतीय
समाज में सेक्स को ले कर एक अजीब तरह की मानसिकता देखने को मिलती है। सेक्स
का आनंद तो हर कोई उठाना चाहता है, लेकिन उस पर खुलेआम बात करना कोई नहीं
चाहता है। सेक्स एक टैबू बन कर रह गया है भारतीय समाज में। पर्दे के पीछे
हो, तो जायज, लेकिन समाज में जाहिर हो जाए, खुलासा हो जाए, तो
नाजायज....शर्मनाक। यह कैसी दोहरी मानसिकता है?
बात
सन 2009 की है। उन दिनों मैं दैनिक जागरण, कानपुर में कार्यरत था। मेरे एक
सीनियर साथी दयानंद पांडेय जी का उपन्यास ‘अपने-अपने युद्ध’ भड़ास पोर्टल
पर पढ़ रहे थे। मैंने देखा, तो कहा, ‘आप कहां अटके हुए हैं। मैं यह किताब ही
ला देता हूं कल। आप आराम से घर पर पढ़िएगा।’ उन का जवाब बड़ा आश्चर्यजनक था,
‘यह किताब अकेले-दुकेले या मित्रों के साथ पढ़ी तो जा सकती है, लेकिन घर पर
रखी नहीं जा सकती है। इस उपन्यास में संभोग के ऐसे-ऐसे आसन हैं कि
वात्स्यायन भी इसे पढ़ कर शरमा जाएं।’ यह आम भारतीय की मानसिकता है। रात के
अंधेरे में ब्ल्यू फ़िल्म देखने, सारे नैतिक-अनैतिक कार्य करने वाले दिन के
उजाले में लड़के-लड़कियों को एक साथ बैठे देख कर मुंह बिचका देते हैं, उन्हें
भला बुरा कहते है। उन का वश चले, तो वे उन दोनों को जिंदा दफन कर दें।
समस्या की जड़ हमारी यही दोहरी मानसिकता है। लोग इस बात को समझने को कतई
तैयार नहीं हैं कि सेक्स एक नैसर्गिक भूख है, रोटी-पानी की तरह। यही बात
‘अपने-अपने युद्ध’ उपन्यास का मुख्य पात्रा संजय भी तो कहता है, ‘सेक्स एक
भूख है। जिस तरह पेट की भूख लगती है, उस के लिए रोटी-पानी चाहिए। ठीक उसी
तरह सेक्स की भूख है, उस का भी शमन होना चाहिए। जिस तरह हम रोटी, पानी के
बारे में बिना कोई झिझक किए बात कर सकते हैं, उसी तरह हम बिना किसी कुंठा
या विकार के सेक्स पर बात क्यों नहीं कर सकते। हां, जिस तरह सड़क पर बैठ कर
रोटी नहीं खाते, उसी तरह सड़क या सार्वजनिक स्थल पर सेक्स करने का हिमायती
नहीं हूं।’
अगर बात
उपन्यास ‘अपने-अपने युद्ध’ के बारे में की जाए, तो पत्रकारिता जगत में
व्याप्त तमाम बुराइयों, अच्छाइयों को उजागर करता है यह। मीडिया में व्याप्त
व्यवस्थागत जड़ता से लेकर पत्रकारों की निजी कुंठाओं, उन की
अच्छाइयों-बुराइयों, अख़बार के दफ्तर में होने वाली उठा-पटक, खींचतान, एक
दूसरे की फाइल निबटाने से ले कर नौकरी से निकलवाने तक की बातों का खुलासा
करता है उपन्यास। ट्रेड यूनियनों का वर्गीय चरित्र मजदूर वर्ग के पक्ष में
कभी नहीं रहा है, यह बात पता नहीं क्यों, कथित वामपंथी नहीं समझ पाते हैं।
सर्वहारा समाजवादी क्रांति के दौरान ट्रेड यूनियनों को मजबूरी में भले ही
मजदूर वर्ग के पक्ष में खड़ा होना पड़ा हो, लेकिन रूसी क्रांति के बाद पूरी
दुनिया की ट्रेड यूनियनों का वर्गीय चरित्र मजदूर विरोधी ही साबित हुआ है।
इस बात को बहुत साफ-साफ रेखांकित करता है उपन्यास ‘अपने-अपने युद्ध’ और
हारमोनियम के हज़ार टुकड़े। जहां तक न्यायपालिका के वर्गीय चरित्र की बात
है, तो इस को रेखांकित करने के लिए सिर्फ़ दो लाइनें काफी हैं, ‘कचहरी तो
बेवा का तन देखती है, कहां से खुलेगा बटन देखती है।’ इन पंक्तियों पर गौर
कीजिए, न्यायिक व्यवस्था द्वारा दी गई पीड़ा, हताशा, संत्रास, उपेक्षा,
अन्याय का कितना गहरा रूपक पेश किया गया है। किसी भी संवेदनशील व्यक्ति को
व्यथित कर देने वाली पंक्तियां हैं ये।
उपन्यास
‘अपने अपने युद्ध’ के बारे में एक बात और कहना चाहूंगा। जिन दिनों यह
उपन्यास लिखा जा रहा था, दयानंद पांडेय खुद स्वतंत्र भारत जैसे अख़बार के
मालिकान से मुकदमा लड़ रहे थे, ठीक मुख्य पात्र संजय की तरह। व्यक्ति जब
किसी पीड़ा को भोगता है, तो उस की अभिव्यक्ति भी उतनी ही प्रबल होती है। बात
1994-95 की है। उन दिनों वे राष्ट्रीय समाचार फीचर्स नेटवर्क (रासफीने) में
संपादक थे। मैं उन दिनों फ्रीलांसिग कर रहा था। किसी पत्र-पत्रिका में
काम मिल जाता था, तो कर लेता था। एक दिन मैंने अपना व्यंग्य भेजा रासफीने
को। तीन दिन बाद एक पत्र रासफीने से भेजा गया कि जब आप लखनऊ में ही हैं,
तो आ कर मिलिए। मैं वह पत्र ले कर मिलने गया। मैं इस से पहले भी रासफीने को
व्यंग्य और फीचर वगैरह भेजता रहता था और उन की बुलेटिन में प्रकाशित होता
रहता था। यह मेरी पांडेय जी से पहली मुलाकात थी। उसके बाद तो वे संपादक तो
नहीं रहे, पर मेरे बड़े भाई ज़रूर हो गए। उनके कहने पर मैंने रासफीने भी
ज्वाइन किया, लेकिन मात्र सत्ताइस दिन बाद ही रासफीने छोड़ भी दिया क्योंकि
पांडेय जी ने रासफीने छोड़ दिया था। कांग्रेस के कुछ दिन राष्ट्रीय
प्रवक्ता रहे सुबोध श्रीवास्तव जी उसके मालिक थे। कुछ दिनों बाद मेरे एक
पुराने साथी रामकिंकर गुप्ता ने बताया कि पांडेय जी का गंभीर एक्सीडेंट हो
गया है और वे अस्पताल में भर्ती हैं। उस हादसे में दो लोगों की मृत्यु भी
हो गई थी। तब पांडेय जी राष्ट्रीय सहारा के लखनऊ ब्यूरो में थे। मुलायम
सिंह यादव संभल से चुनाव लड़ रहे थे उस की कवरेज में पांडेय जी जा रहे थे और
उनकी अंबेस्डर ट्रक से लड़ गई थी। ड्राइवर और एक पत्रकार की मौके पर ही
मौत हो गई थी। काफी दिनों तक अस्पताल में रहने के बाद घर वापस लौटे। एक दिन
मैं उन का हालचाल पूछने गया, तो उन्होंने कहा कि अगर आप रोज एक घंटा दें,
तो मैं अपना अधूरा उपन्यास पूरा कर लूं। मैं भी उन दिनों उन के घर के पास से
ही प्रकाशित होने वाले एक साप्ताहिक अख़बार में काम करता था। मैंने कहा भी
कि अभी इतनी जल्दी क्या है? ठीक हो जाइए, तो फिर लिख लीजिएगा। पांडेय जी
नहीं माने, तो मैं मान गया। लगभग तीस-चालीस पेज उन्होंने बोल कर लिखवाए,
ठीक उसी तरह, जैसे कहते हैं कि महाभारत जैसा विशाल ग्रंथ व्यास जी ने गणेश
जी को बोल कर लिखवाया था। अफसोस कि मैं गणेश नहीं बन सका। वे धाराप्रवाह
बोलते जाते थे और मैं बीच-बीच में दोबारा बोलने का अनुरोध करने लगता था।
तालमेल गड़बड़ा रहा था बोलने और लिखने का। खैर....लगभग पच्चीस-तीस दिन के बाद
पांडेय जी ने कहा, अब बस....बाक़ी मैं लिख लूंगा। यह उपन्यास अपने-अपने
युद्ध था।
पांडेय जी ने
अपने उपन्यास और कहानियों के जरिये पूरे समाज की नब्ज पर हाथ रखा है। चाहे
वह उपन्यास ‘अपने अपने युद्ध’ हो, ‘बांसगांव की मुनमुन’ हो, ‘हारमोनियम के हज़ार टुकड़े’ हो, ‘वे जो हारे हुए’ या ‘लोक कवि अब गाते नहीं’ हों या फिर
कहानियों में ‘सूर्यनाथ की मौत हो’, ‘सुमि का स्पेस’, ‘वक्रता’, ‘चना जोर
गरमवाले चतुर्वेदी’, ‘बड़की दी का यक्ष प्रश्र’, ‘घोड़ेवाले बाऊ जी’, ‘सुंदर
भ्रम’, ‘फेसबुक में फंसे चेहरे’ सब में समाज का दोगला पन उभर कर सामने आया
है। ‘मन्ना जल्दी आना’ जैसी कहानी पढ कर तो कई दिनों तक मन व्यथित रहा कि
कोई व्यक्ति इतनी परेशानियों को झेल कर भी जिंदा रह सकता है?
कहानी
‘घोड़े वाले बाऊ साहब’ को जब भी पढ़ता हूं, तो अपने बचपन की एक घटना याद आ
जाती है। बलरामपुर जिले में बलरामपुर-बहराइच रोड पर ही करीब दो-तीन किमी
दूर एक गांव है छिटोहनी। उसी गांव के आस-पास बलरामपुर रियासत के महाराजा के
भाई-पट्टीदार रहते थे। इन भाई-पट्टीदारों को बलरामपुर रियासत से मदद भी
मिलती थी। कहते हैं कि उसी में एक भया सिंह (ठाकुर साहब, बलरामपुर में
ठाकुरों को नाम न जानने पर भया सिंह कहने का चलन है।) कभी हाथी पर सवार
होकर बलरामपुर आते थे। गर्दन एकदम तनी हुई। समय बदला। हाथी बिक गए, तो वे
घोड़े पर बलरामपुर आने लगे। दस-पांच साल बाद घोड़े भी विदा हो गए। तो वे
बैलगाड़ी पर मोटा गद्दा बिछा कर उस पर बैठ कर आने लगे। बैलगाड़ी के पीछे की तरफ
एक आदमी छाता ज़रूर ताने रहता था। भया सिंह की गर्दन तब भी एकदम तनी रहती
थी। बाद में बैलगाड़ी रखने की भी हैसियत नहीं रह गई। तो पैदल आने लगे, लेकिन
सेवक अब भी छाता ताने पीछे-पीछे चलता रहता था। आज से लगभग तीस साल पहले की
बात है। एक दिन बलरामपुर के बड़े डाकखाने के पास अपने बड़े भाई आनंद मिश्र
जी के साथ खड़ा था। भया सिंह अपने नौकर के साथ आए। उन की वेशभूषा अजीब सी
लगी, तो मैंने भाई साहब से पूछ लिया, तो उन्होंने पूरा किस्सा बताया। बड़े
भाई ने ही बताया कि अब अगर बलरामपुर से लौटते समय देर हो जाए, तो बेचारे घर
लौटते समय रास्ते में खेतों में बार-बार गिर पड़ते हैं। कारण कि ठाकुर होने
की वजह से गर्दन कैसे झुका कर चलें। जब गर्दन झुकती नहीं, तो पैरों के नीचे
आने वाले गड्ढे, ढेले पर पैर पड़ते हैं और बेचारे गिर पड़ते हैं। ऊपर से
उम्र हो जाने और रतौंधी का प्रकोप होने के चलते दिखाई भी कम देने लगा था।
सामंती ठसक और भीतरी खोखलेपन का जिस तरह का वर्णन दयानंद पांडेय जी ने
कहानी ‘घोड़े वाले बाऊ साहब’ में किया है, वह अद्भुत है।
कई
कहानियों और उपन्यासों में सेक्स का विशद वर्णन है, यह आरोप स्वीकार किया
जा सकता है, लेकिन उनकी वहां उपयोगिता भी है। गंदगी चाहे जैसी भी हो, सिर्फ
गंदगी शब्द लिख देने भर से पाठक सब कुछ नहीं समझ सकता, उसको यथा संभव
दिखाना पड़ता है। प्रेम, संभोग, घृणा, दया, ममता जैसी न जाने कितनी भावनाएं
हैं जिनका वर्णन करना पड़ता है। इसके साथ ही साथ एक बात और कहनी पड़ेगी कि
दयानंद पांडेय जी की भाषा जितनी सरल है, उतना ही उसमें प्रवाह भी है। जितने
भी रसों को मान्यता हिंदी और संस्कृत साहित्य में दी गई है, उन सब पर
पांडेय जी की कलम साधिकार चली है। उपन्यास ‘वे जो हारे हुए’ में एक प्रसंग
आता है कि एक भोजपुरिया छात्र छात्र संघ का चुनाव जीत जाता है। उसे
अंगरेजी नहीं आती है, लेकिन जब वह प्रिंसिपल से बात करने जाता है, तो
प्रिंसिपल उसे टालने के लिए अंगरेजी में धारा प्रवाह बोलने लगता है। बेचारा
वह बिना कुछ कहे-सुने बाहर आ जाता है। एक दिन उसका भोजपुरिया मिजाज जागता
है और वह सीना ठोक कर प्रिंसिपल रूम में जाता है और कहता है, ‘ह्वैन यू टाक
युवै टाक, ह्वैन आई टाक आईयै टाक। बट डोंट टाक इन सेंटर-सेंटर।’ यह वाक्य
आज भी जब याद आता है, तो हंसी छूट जाती है।
लगभग
ढाई दर्जन से अधिक किताबों के लेखक दयानंद पांडेय जी की रचनाओं के बारे
में क्या कहा जाए, इसके लिए तो समीक्षकों द्वारा कही गई बातों और
टिप्पणियों, समीक्षाओं को लेकर पूरी किताब छापनी पड़ रही है। अब इन
समीक्षकों के सामने यह समीक्षाएं हैं, पाठक ही फैसला करेंगे कि मैं अपने
कार्य में कितना सफल हो पाया हूं, लेकिन मैं इतना तो कहूंगा ही कि समीक्षा,
आलोचना किसी व्यक्ति या पात्र की नहीं होती है, उस प्रवृत्ति की होती है,
जिस को उकेरने का प्रयास रचनाकार करता है। इस पुस्तक में जितने भी पात्रों
का वर्णन किया गया है, वे इसी समाज की देन हैं। अच्छा या बुरा जो कुछ भी
है, इसी समाज में है, इसी समाज का है। बदलाव भी अगर आएगा, तो इसी समाज में
आएगा। सब कुछ समाज सापेक्ष है, व्यक्ति सापेक्ष तो कुछ भी नहीं है।
व्यक्तियों का क्या है? वे आते हैं, अपनी भूमिका का निर्वाह करते हैं और
चले जाते हैं। प्रवृत्तियां-कुप्रवृत्तियां समाज की देन हैं। व्यक्ति जब
पैदा होता है, तो तब वह न अच्छा होता है, न बुरा। वह अच्छा-बुरा जो कुछ भी
बनता है, इसी समाज में बनता है।
बहरहाल,
पुस्तक आप सभी सुधी पाठकों के हाथ में है। यह पाठकों को कितना संतुष्ट कर
पाएगी, यह मैं नहीं कह सकता हूं। लेकिन इतना ज़रूर कहूंगा कि इस पुस्तक में
जो कुछ भी अच्छा है, वह दयानंद पांडेय जी की रचनाओं के समीक्षकों की मेहनत
का नतीज़ा है। हां, जो कुछ खामियां रह गई हैं, उनके लिए मैं ज़िम्मेदार हूं।
[ जनवाणी प्रकाशन , दिल्ली से शीघ्र प्रकाश्य पुस्तक दयानंद पांडेय का रचना संसार संपादक अशोक मिश्र की भूमिका ]