लेखकों और चारणों में कुछ तो फ़र्क होता है। लेकिन लेखक और सत्ता का भी एक संबंध होता ही है , सतत होता है । बहुत समय नहीं हुए हैं आपातकाल गुज़रे हुए । हमारे वामपंथी लेखक मित्रों ने तब उस इमरजेंसी का खुला समर्थन किया था । इतना ही नहीं और क्या वामपंथी , क्या गैर वामपंथी सत्ता के इस हमाम में सभी नंगे हैं । उसी इमरजेंसी में इसी लखनऊ में संजय गांधी आए थे । रवींद्र कालिया ने उन की अगुवानी की थी । जगदीश पीयूष तब तक घोषित कांग्रेसी थे , कालिया जी तब उन्हीं के नेतृत्व में लेखकों को बटोर रहे थे । कालिया जी गोमती होटल में ठहरे । कई लेखकों को गोमती में बुला कर शराब पिलाई गई । जेबें नोटों की गड्डियों से भरी गईं और कहा गया कि संजय गांधी के पक्ष में लिखें । यह बहुत बड़ी कहानी है और दृश्य भी एक से एक । तब इस मयकशी में पहुंचे लेखकों के पास एक से एक किस्से हैं । बात यहीं तक होती तो गनीमत थी । बाबू भगवती चरण वर्मा जिन को मुद्राराक्षस जैसे लोग जाने किस बिना पर जनसंघी कह कर गरियाते रहे हैं , उन भगवती बाबू के घर एक रात लेखकों का जमावड़ा हुआ । और उस जमावड़े में संजय गांधी का स्वागत किया गया , लेखकों से मिलवाया गया । अमृतलाल नागर भी थे उस सभा में । शायद यशपाल भी । लखनऊ के लगभग सभी लेखक थे । भगवती बाबू बाद के दिनों पद्म सम्मानों से नवाज़े गए और राज्य सभा में भी नामित हुए । यह और ऐसी बेशुमार कहानियां आप और हम जानते ही हैं । जानते ही रहेंगे ।
खैर इन दिनों बड़ी चर्चा है रायपुर साहित्य समारोह की । आरोप प्रत्यारोप की । अभी रायपुर की आग ठंडी भी नहीं हुई थी की बनारस की आग लग गई है । अभिषेक श्रीवास्तव पत्रकार हैं । वह अपनी फेसबुक वाल पर लिखते हैं :
अगर रायपुर साहित्य महोत्सव में जाना
गलत था, तो बनारस के पांच दिवसीय ''संस्कृति'' महोत्सव में जाना सही कैसे
हो गया? अगर रमन सिंह से हाथ मिलाना गलत था, तो नरेंद्र मोदी द्वारा
उद्घाटन किए गए समारोह में कविता पढ़ना सही कैसे हो गया? अगर वहां
कार्यक्रम राजकीय था, तो यहां भी यह संस्कृति मंत्रालय, भारत सरकार का है।
दोनों आयोजक भाजपा की सरकारें हैं- रायपुर में राज्य सरकार और बनारस में
केंद्र सरकार।
कोई जवाब है ज्ञानेंद्रपति, विमल कुमार और हरिश्चंद्र पांडे के पास?
वही, पुराना घिसा-पिटा, कि हमने तो मोदी के विरोध में वहां पढ़ा था? शेर की
मांद में ललकार के आए हैं? बोलिए भाई, नरेंद्र मोदी की तस्वीर के नीचे
अपने नाम देखकर आप कैसा महसूस कर रहे हैं।
मित्रों, रायपुर बीस दिन में ही बनारस चला आया है। मौका था 25 दिसंबर
यानी गुड गवर्नेंस डे... यानी अटल बिहारी वाजपेयी और महामना का
जन्मदिवस... और जगह थी बनारस... यानी मोदीजी का चुनाव क्षेत्र। इस साल का
अंत ऐसे ही होना था। अब मैं किसी को कुछ नहीं बोलूंगा, कुछ नहीं पूछूंगा।
तस्वीर देखिए, नाम पढि़ए और नए साल का जश्न मनाइए। बस एक बात ध्यान रहे,
काशीनाथ सिंह कार्यक्रम में नहीं गए थे।
और अब लीजिए एक और पत्रकार हैं विमल कुमार । कविताएं भी लिखते हैं । वह इस बनारस के कार्यक्रम में दिल्ली से चल कर गए भी थे । अपनी फेसबुक वाल पर वह सफाई देते घूम रहे हैं । पढ़िए उन की सफाई भी :
साहित्य अकेडमी ने जो निमंत्रण पत्र भेजा उसमे मोदी का नाम नहीं था ,फ़ोन
पर भी मोदी की जानकारी नहीं दी ,और न ही पत्र में .हमलोग जब वनारस पहुंचे
तो पता चला कि मोदी आनेवाले हैं.हमने पंकज राग से पूछा जो संस्कृति
मंत्रालय में संयुक्त सचिव हैं ,और वामपंथी कवि भी ,उन्होंने बताया
साहित्य अकेडमी का कार्यक्रम पहले से तय था और वो संस्कृति मंत्रालय का
कार्यक्रम था फिर बाद में मानवसंसाधन विकास मंत्रालय का कार्यक्रम बना और
मोदी उसमे आये .साहित्य अकेडमी के कार्यक्रम की जगह अलग थी और मोदी का समारोह
अलग था .हमलोगों का काव्यपाठ मोदी के दिल्ली जाने के बाद हुआ .मैंने
ज्ञान्द्रपति और हरिश्चंद्र पाण्डेय ने इस मुद्दे पर चर्चा भी कि फिर हमने
तय किया कि साहित्य अकेडमी स्वायत्त संस्था है ,इसलिए काव्यपाठ किया जाये
और मोदी के खिलाफ कवितायेँ सुनायी जाये.और हमने सुनायी .कोई लेखक मोदी के
समारोह में गया भी नहीं काशीनाथ सिंह अगले दिन समारोह में आये।
.हमने साहित्य अकेडमी के अध्यक्ष से पूछा कि आपका कार्यक्रम क्या मोदी
के समारोह के साथ है उन्होंने बताया कि हमारा समारोह अलग है कार्ड भी अलग
पर बाद में जो कार्ड छपा संस्कृति मंत्रालय का और जो विज्ञापन आया उसमे
मोदी का नाम था इसलिए ये भ्रम हुआ को मोदी का समारोह है .हम लोग किसी भाजपा
नेता से न तो मिले और न ही वे हमारे समारोह में आये .हमने किसी से न तो
हाथ मिलाया और न ही उन्होंने मुझसे।
हालां कि लोग उन से उन की वाल पर पूछ भी रहे हैं कि आप से सफाई मांग कौन रहा है और कि आप दे भी क्यों रहे हैं ?
दिलचस्प यह कि रायपुर साहित्य समारोह को ले कर बहुत ज़ोर से गिला शिकवा करने वाले वीरेंद्र यादव भी आज फेसबुक की अपनी वाल पर जैसे आत्मसमर्पण की मुद्रा में आ गए । आज उन्हों ने लिखा है :
कुछ मित्रों का कहना है कि मुझे विवादों में नही पड़ना चाहिए . दरअसल
मेरे लिए ये विवाद थे भी नही हस्तक्षेप ही रहे हैं . फिर भी सच तो यह है
कि चाहे 'रायपुर प्रसंग' हो, सी आई ए-कमलेश का मुद्दा हो ,'छिनाल -प्रसंग'
हो या निराला-प्रेमचंद का भगवा अधिग्रहण हो या डॉ.धर्मवीर की प्रेमचंद
को 'सामंत का मुंशी' की मुहिम या अन्य कई और प्रसंग हों ,हर मसले या
मुद्दे पर मैंने अपनी सोच-समझ के अनुसार हस्तक्षेप किया है . यह करते हुए
मैंने अपने कई अच्छे मित्रों को नाराज़ किया है और खोया
भी है , वैसे इन मुद्दों पर साथ देने वाले साथी भी कम नही रहे हैं.लेकिन
मुझे लगता है कि आम प्रवृत्ति व्यावहारिक चुप्पी की होती जा रही है
.संगठन भी 'कांख भी ढकी रहे और मुठ्ठी भी तनी रहे' की व्यावहारिक भूमिका
में ही ढलते जा रहे हैं. ऐसे में बेहतर यही है कि 'काजी जी दुबले क्यों
,शहर के अंदेशे से' मसल अपने ऊपर ही क्यों लागू करवाई जाय..इसलिए जरूरी है
कि अपने लिखने-पढने पर अधिक केन्द्रित हुआ जाय और इस मुगालते से मुक्त
हुआ जाय कि कुछ कहने -सुनने या सिद्धांत ,सरोकार या पक्षधरता आदि से कुछ
बनना या बिगड़ना है .' होईहै वही जो राम रचि राखा' पर भरोसा न करने के
बावजूद हो तो वही रहा है जो 'राम' रच रहे हैं. इसलिए मन है कि फिलहाल कुछ
विराम लिया जाय अपने इस 'विवादी' स्वर से और फेसबुक से भी . अतः कह नही
सकता कि यहाँ कब ,कितनी उपस्थिति हो पायेगी. वैसे भी असली मुद्दों का समर
स्थल आभासी दुनिया न होकर वास्तविक दुनिया है . इसलिए फिलहाल जरूरत वहां
ज्यादा है .अभी के लिए फेसबुक से लम्बा अवकाश .धन्यवाद मित्रों.
आप सब को नववर्ष की हार्दिक शुभकामनाएं.
हालां कि वीरेंद्र यादव जिसे हस्तक्षेप बता रहे हैं वह उन्हों ने फ़ेसबुक के बजाय जनसत्ता में लिख कर किया और उन के हस्तक्षेप के केंद्र में रहे नरेश सक्सेना ने वीरेंद्र यादव पर लगभग हमलावर हो कर गहरा प्रतिवाद भी दर्ज़ किया उसी जनसत्ता में । पर इस हस्तक्षेप का पटाक्षेप जाने क्यों वीरेंद्र यादव फेसबुक पर कर रहे हैं । और फेसबुक से विदा होने की बात भी कर रहे हैं । यह बिलकुल ठीक बात नहीं है । सहमतियां और असहमतियां अपनी जगह हैं पर यह हस्तक्षेप और यह विमर्श बहुत ज़रूरी हैं इस हिंदी समाज के लिए । हम कोई राजनितिक दल तो हैं नहीं कि किसी मसले पर हाईकमान का ह्विप जारी हो जाए और हम उसी के अमल में लग जाएं । स्पष्ट है कि यह आल्हा ऊदल की कहानी कभी ख़त्म नहीं होने वाली । चलती रहेगी । आख़िर सत्ता और लेखक संबंध इतनी आसानी से तो जाते नहीं । अभी फ़रवरी , 2014 में दिल्ली में पुस्तक मेला लगेगा । यह भी सरकार ही लगाएगी । लगाती ही है । पर यह देखना दिलचस्प होगा कि यहां अपने हिप्पोक्रेट लेखक क्या-क्या गुल खिलाते हैं? कितने लोग बहिष्कार करते हैं , कितने लहालोट ! मूल्य , प्रतिबद्धता , वामपंथ और वगैरह-वगैरह का क्या-क्या होता पकता है ?
अब यहां ज़रा विषयांतर करता हूं । हमारे बहुतेरे लेखक मित्र ब्राह्मणवाद की दुहाई देते हुए तुलसीदास पर आक्रमण बहुत करते हैं । लेकिन तुलसीदास के सत्ता से क्या समीकरण थे कभी इस पर ग़ौर नहीं करते । करें भी तो कैसे भला ? तुलसीदास का चेहरा इस प्रसंग में उजला जो दीखता है ! तो सुनिए तुलसीदास का सत्ता से समीकरण का एक क़िस्सा भी :
हम सब जानते ही हैं कि तुलसीदास अकबर के
समय में हुए। बल्कि यह कहना ज़्यादा ठीक होगा कि तुलसीदास के समय में अकबर
हुए। खैर आप जैसे चाहें इस बात को समझ लें। पर हुआ यह कि अकबर ने तुलसी दास
को संदेश भिजवाया कि आ कर मिलें। संदेश एक से दो बार, तीन बार होते जब कई
बार हो गया और तुलसी दास नहीं गए तो अकबर ने उन्हें कैद कर के बुलवाया।
तुलसी दरबार में पेश किए गए। अकबर ने पूछा कि, ' इतनी बार आप को संदेश भेजा
आप आए क्यों नहीं?' तुलसी दास ने बताया कि, 'मन नहीं हुआ आने को। इस लिए
नहीं आया।' अकबर ज़रा नाराज़ हुआ और बोला कि, 'आप को क्यों बार-बार बुलाया आप
को मालूम है?' तुलसी दास ने कहा कि, 'हां मालूम है।' अकबर और रुष्ट हुआ और
बोला, 'आप को खाक मालूम है !' उस ने जोड़ा कि, 'मैं तो आप को अपना नवरत्न
बनाना चाहता हूं, आप को मालूम है?' तुलसी दास ने फिर उसी विनम्रता से जवाब
दिया, 'हां, मालूम है।' अब अकबर संशय में पड़ गया। धीरे से बोला, 'लोग यहां
नवरत्न बनने के लिए क्या नहीं कर रहे, नाक तक रगड़ रहे हैं और आप हैं कि
नवरत्न बनने के लिए इच्छुक ही नहीं दिख रहे? आखिर बात क्या है?' इस मौक़े के मद्देनज़र तुलसी का यह दोहा मन में आज भी गूंजता ही है:
हौं तो चाकर राम को पटौ लिखौ दरबार
तुलसी अब का होएंगे नर के मनसबदार ।
इस तरह तुलसी दास ने अकबर से दो टूक कहा कि, 'आप ही बताइए कि जिस ने नारायण की
मनसबदारी कर ली हो, वह किसी नर की मनसबदारी कैसे कर सकता है भला?' अकबर
निरुत्तर हो गया। और तुलसी दास से कहा कि, 'आप बिलकुल ठीक कह रहे हैं। अब
आप जा सकते हैं।' तुलसी दास चले गए। और यह नवरत्न बनाने का अकबर का यह
प्रस्ताव उन्हों ने तब ठुकराया था जब वह अपने भरण-पोषण के लिए भिक्षा पर
आश्रित थे। घर-घर घूम-घूम कर दाना-दाना भिक्षा मांगते थे फिर कहीं भोजन
करते थे। शायद वह अगर अकबर के दरबारी बन गए होते तो रामचरित मानस जैसी
अनमोल और विरल रचना दुनिया को नहीं दे पाते। सो उन्हों ने दरबारी दासता
स्वीकारने के बजाय रचना का आकाश चुना। आज की तारीख में तुलसी को गाली देने
वाले, उन की प्रशंसा करने वाले बहुतेरे मिल जाएंगे पर तुलसी का यह साहस
किसी एक में नहीं मिलेगा। शायद इसी लिए तुलसी से बड़ा रचनाकार अभी तक दुनिया
में कोई एक दूसरा नहीं हुआ। खैर, ग़नीमत थी कि तुलसी दास अकबर के समय में हुए और यह इंकार उन्हों ने अकबर से
किया पर खुदा न खास्ता जो कहीं तुलसी दास औरंगज़ेब के समय में वह हुए होते
और यही इंकार औरंगज़ेब से किया होता , जो अकबर से किया, अकबर ने तो उन्हें
जाने दिया, लेकिन औरंगज़ेब होता तो? निश्चित ही सर
कलम कर देता तुलसी दास का!
तो क्या यह लेखक अगर रायपुर न जाते तो क्या रमन सिंह इन का सर कलम कर देते ? कि बनारस न जाते तो नरेंद्र मोदी सर कलम कर देते इन क्रांतिकारी लेखकों का ? तो क्या यह दोनों राजनेता औरंगज़ेब के प्रतीक हैं ?
सच यही है। एक निर्मम सच यह भी है और कि हमारा दुर्भाग्य भी कि हम सब लोग
आज औरंगज़ेब के समय में ही जी रहे हैं। तो सर कलम होने से बचाना भी एक बेबसी
है। बेकल उत्साही का एक शेर है :
बेच दे जो तू अपनी जुबां, अपनी अना, अपना ज़मीर
फिर तेरे हाथ में सोने के निवाले होंगे।
सो सोने के निवाले हाथ में लिए लोगों की संख्या बेहिसाब बढ़ गई है, यह हम
सभी हाथ बांधे, सांस खींचे देखने को अभिशप्त हैं। अब रही बात एक धर्मनिरपेक्षता की । तो तुलसी से बड़ा धर्मनिरपेक्ष भी भला कौन होगा ? वह कह ही गए हैं :
मांगि के खइबों , मसीत में सोइबों
लेबे को एक , न देबो को दोऊ ।
कबीर को भी कितनी यातनाएं दी गई थीं। बार-बार वह क़ैद किए गए । बार-बार मारे-पीटे गए । साफ़ -साफ़ बोलने और कहने के लिए , हम सभी जानते हैं । लेकिन कबीर भी कभी झुके नहीं । किसी भी सत्ता के आगे । और एक आज का हमारा लेखक समाज है कि बेहिसाब झुकता जाता है । सत्ता व्यवस्था ही नहीं जिस तिस के आगे भी बेहिसाब झुकता हुआ ! प्रकाशक, पुरस्कार, फ़ेलोशिप , विदेश यात्राएं और जाने क्या-क्या ! जाने कौन-कौन से मंदिर, मस्जिद और गुरुद्वारे हैं जहां वह मत्था टेकता घूम रहा है। व्यवस्था से लड़ने के बजाय आपस में ही लड़ता हुआ मारा जा रहा है । तिस पर हिप्पोक्रेसी का मारा हुआ भी है यह हमारा लेखक । रचना पर वह विमर्श नहीं करता , चुप्पी साध लेता है । या फिर ठकुरसुहाती । हां , रायपुर और बनारस जैसे बेमियादी और खोखले विमर्शों पर वह ज़रुर निसार है ! और रहेगा !