८७ साल के नामवर अब बालसुलभ अदाओं के मारे हुए हैं
इन दिनों पप्पू यादव की किताब द्रोहकाल के पथिक का विमोचन कर के नामवर सिंह विवाद के बोफ़ोर्स पर सवार हैं। यह वही नामवर सिंह हैं जिन के ७५ वर्ष के होने पर देश भर में घूम-घूम कर समारोह करवाए थे प्रभाष जोशी ने। जीते जी इतना बड़ा सार्वजनिक सम्मान ७५ का होने पर किसी और हिंदी लेखक का देश भर में हुआ हो, यह मेरी जानकारी में नहीं है। हालां कि नामवर के यह सम्मान समरोह भी हलके विवाद में आए थे तब। लेकिन नामवर को तो जैसे ऐसे विवादों का शगल है। लोग लाख विरोध करें उन को फ़र्क नहीं पड़ता। क्यों कि वह सचमुच के नामवर हैं और रहेंगे भी। फ़ेसबुक पर भी इस को ले कर घमासान जारी है। नामवर सिंह द्वारा इस लोकार्पण की जितनी निंदा की जाए कम है। माना कि वाद, विवाद, संवाद उन का प्रिय विषय है लेकिन पतन की भी एक सीमा होती है। पतन के नित नए प्रतिमान गढ़ते नामवर अपनी नामवरी का इस कदर दुरुपयोग करेंगे, यह बात लोग शुरु से जानते रहे हैं। किसी के लिए यह आश्चर्य का विषय नहीं है। विवाद और नामवर का चोली-दामन का साथ है। एक समय राज्य सभा में जाने के फेर में वह भ्रष्टाचार के प्रतिमान और भारतीय राजनीति में सामंती लहज़े को ठसके के साथ उपस्थित करने के लिए जाने जाने वाले लालू प्रसाद यादव फ़ेज़ में अपनी फ़ज़ीहत करवा चुके हैं। अब दूसरी बार वह हत्यारे पप्पू यादव फ़ेज़ में फंस गए हैं। पप्पू की किताब का लोकार्पण कर खुद पप्पू बन गए हैं। हालां कि भाजपाई नेता जसवंत सिंह की किताब का जब उन्हों ने लोकार्पण किया तो उन्हें ठाकुरवाद से जोड़ा गया था। फिर यही पुनरावृत्ति आनंद मोहन सिंह के साथ हुई। ज्योति कुमारी के कथा-संग्रह के लोकार्पण में उन्हों ने उस किताब में छपी अपनी ही भूमिका पर सवाल खड़ा कर दिया। और कहा कि दस्तखत पर मेरे दस्तखत नहीं हैं। फिर कुछ दिन बाद उन का बयान आया कि मुझ से बातचीत के आधार पर भूमिका लिखी गई। फिर कुछ दिन बाद उन्हों ने लिख कर बयान जारी किया कि तब मेरे हाथ जाड़े के मारे कांप रहे थे, इस लिए बोल कर लिखवाया। ऐसे और भी बहुतेरे विवाद हैं जो नामवर के साथ नत्थी हैं। कुछ व्यक्तिगत तो कुछ साहित्यिक विमर्श के। बहुत दिन नहीं बीते हैं जब परमानंद श्रीवास्तव ने उन्हें तानाशाह आलोचक घोषित किया था। यह वही परमानंद थे जो नामवर के सेकेंड लाइनर कहलाते थे। बहुत लोग उन्हें नामवर का मुंशी भी कहते थे। आलोचना पत्रिका में नामवर ने परमानंद श्रीवास्तव को ही अपने साथ संपादक बनाया था। और वही परमानंद श्रीवास्तव उन्हें तानाशाह आलोचक कह गए तो बहुत आसानी से तो नहीं कहा होगा। अब परमानंद जी नहीं हैं तो भी सच यही है कि हिंदी जगत ने नामवर की तानाशाही खूब भुगती है। और उन की तानाशाही के विवाद भी। अब यह ताज़ा विवाद पप्पू यादव की किताब का न सिर्फ़ उन के द्वारा लोकार्पण है बल्कि उस की भूरि-भूरि प्रशंसा भी की है।
नामवर ने अपनी नामवरी में बता दिया है कि पप्पू और उन का लेखन हाथी है, बाकी सब चींटी हैं। किताब एक सांस में पढ़ जाने की कवायद आदि-आदि भी वह कर गए हैं। जो भी हो अब यह पूरी तरह स्पष्ट है कि नामवर अब एक छोटे बच्चे सरीखे हैं, जिन को कोई भी अगवा कर सकता है, अपनी सुविधा से। उन को चाकलेट खिला कर या कुछ भी लालच दे कर, दिखा कर उन से कुछ भी बुलवा और लिखवा सकता है। ८७ साल के नामवर अब बालसुलभ अदाओं के मारे हुए हैं। तो क्या इस सब को उस मनोवि्ज्ञान के आलोक में भी देखा जाना चाहिए कि बच्चे और वृद्ध एक जैसे होते हैं। एक समय था कि नामवर जल्दी किसी को पहचानते नहीं थे, अब सब को पहचानते हैं। यह उन के मौखिक ही मौलिक का विस्तार है। यह होना ही था। विष्णु खरे ने नामवर की इस प्रतिभा को बहुत पहले ही से पहचान लिया था, बतर्ज़ फ़िराक बहुत पहले से तेरे कदमों की आहट जान लेते हैं ! पर तब विष्णु खरे को लोगों ने नहीं सुना। उन्हें उन की कुंठा में ढकेल कर सो गए लोग। लेकिन नामवर तो निरंतर जाग रहे हैं। अपने अध्ययन, अपनी विद्वता और अपने व्यक्तित्व का निरंतर दुरुपयोग करते हुए। प्रकाशकों के बंधक बन चुके नामवर एक बार तब और विवाद में आए थे जब राजा राममोहन ट्रस्ट की खरीद समिति के सर्वेसर्वा थे। और करोड़ों की खरीद एक ही प्रकाशक को थमा दी। तब वह सी बी आई जांच के भंवर में आए थे। लेकिन तब अशोक वाजपेयी ताकतवर प्रशासक थे दिल्ली के सत्ता गलियारे में। नामवर अशोक वाजपेयी की शरण में गए। अशोक वाजपेयी ने सहिष्णुता दिखाई और नामवर बच गए। तो जीवन भर अशोक वाजपेयी को कोसने वाले नामवर ने भी अशोक वाजपेयी को साहित्य अकादमी दिलवाने में पूरी ताकत लगा दी। और दे दिया। नामवर की नामवरी का अंदाज़ा इसी एक बात से लगा लीजिए कि नामवर को साहित्य अकादमी पुरस्कार पहले मिला और उन के गुरु हजारी प्रसाद द्विवेदी को उन से दो साल बाद। वह भी आलोचना पर नहीं, उपन्यास पर। अनामदास का पोथा पर। खैर अभी तो आन रिकार्ड, आफ़ रिकार्ड हर जगह पप्पू यादव के रंग में नामवर रंगे मिल रहे हैं। अब जाने नामवर नाम के इस बच्चे को प्रकाशक ने टाफी दे कर फुसलाया है कि माफ़िया और हत्यारे पप्पू यादव ने। कहना कठिन है। पर यह जानना भी दिलचस्प है कि नामवर न सिर्फ़ कम्युनिस्ट हैं बल्कि भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के टिकट पर बनारस से चुनाव लड़ चुके हैं। कम्युनिस्ट पार्टी के अखबार जनयुग के संपादक भी रह चुके हैं। और यह पप्पू यादव बिहार में कम्युनिस्ट पार्टी के ही एक विधायक अजित सरकार का भी हत्यारा है। उस हत्या को ले कर सज़ा काट रहा है। अभी वह पेरोल पर है। फ़ेसबुक पर यह घमासान भी अलग-अलग रंगों में जारी है। मैं ने खुद अपनी वाल पर लिखा है :
पतन के नए प्रतिमान
बरास्ता द्रोहकाल का पथिक,पप्पू यादव -नामवर सिंह
और फिर एक दूसरी टिप्पणी भी है:
यह भी
क्या स्वर्णिम समय है ? प्रणाम कीजिए इस समय को भी। भारत रत्न सचिन
तेंदुलकर, पत्रकार शिरोमणि तरुण तेजपाल और अब महान लेखक राजेश रंजन ऊर्फ़
पप्पू यादव ! वो गाना है न आ जा तुझे भी सैर करा दूं, तमंचे पे डिस्को !
तमंचे पे डिस्को ! अब देखिए न कि एक से एक भीष्म पितामह, द्रोणाचार्य, सब
के सब नत हैं इस डिस्को के आगे और नाच रहे हैं। दुर्योधन, दुशासन समेत।
आमीन बुलेट राजा, आमीन !
इस पर ले कर बहुतेरी टिप्पणियां हैं, लाइक हैं।
हमारे प्रिय कथाकार और मित्र उदय प्रकाश भी इस को ले कर तंज और रंज में हैं।हिंदी साहित्य की नामवरी प्रवृत्ति पर उन के 'कोडेड फार्मूला' पर गौर कीजिए :
'जब लेखक और प्रकाशक के बीच विवाद हो तो प्रकाशक के साथ रहो, जब प्रशासन और स्टुडेंट के बीच विवाद हो तो प्रशासन का साथ दो, जब अफ़सर और मातहत की बात हो तो हमेशा अफ़सर के पक्ष में रहो, जब जातिवाद और उसके विरोध के बीच झगड़े हो तो सवर्णवाद का साथ दो, जब उत्कृष्टता और मीडियाकिरी के बीच चुनना हो तो दूसरे को ही चुनो... जब बंदूक और कलम के बीच बहस चले तो बंदूक के साथ रहो ....सामंतवाद और लोमड़ चतुराई यही सीख देते हैं।'
एक हमारे मित्र हैं चंद्रेश्वर जी। कवि हैं। बहुत सरल भी हैं। कि कोई गाली भी दे तो प्रतिवाद या विरोध नहीं करेंगे। कहेंगे क्या करना है, उसी का मुंह गंदा हो रहा है। इस हद तक सीधे हैं। लेकिन कभी कोई बात ज़्यादा हो जाती है तड़क जाते हैं। फ़ुल बिहारी अंदाज़ में। तो वह भी इस प्रसंग को ले कर बहुत आहत हैं। वह भी फ़ेसबुक पर बहस चलाए हुए हैं। लेकिन नामवर की नामवरी देखिए कि उन के विवाद को ले कर भी कई विवाद खड़े हो जाते हैं। और साहित्य में जाति के अलंबरदार लोग अपनी जाति का झंडा यहां भी अपनी सुविधा से गाड़ लेते हैं। बहस कोई भी हो, विषय कोई भी हो इन मित्रों को बस एक ही चश्मा सूझता है और एक ही राग। वह है जाति राग। इस विवाद पर चंद्रेश्वर जी की वाल पर मेरी भी कुछ फ़ेसबुकिया गुफ़्तगू का जायजा लीजिए:
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Friday, 29 November 2013
Wednesday, 27 November 2013
भारत रत्न यानी बेशर्मी के अपने-अपने अंदाज़ !
हमारा देश भारत एक विवाद प्रिय देश है। भारत रत्न जैसे अलंकरण भी विवाद में आ जाते हैं। राष्ट्रपिता जैसे मान के शब्द भी विवाद में आ जाते हैं। यहां तक कि राष्ट्रगीत वंदेमातरम भी। लोग उस की सरेआम उपेक्षा करते हैं और ठाट से रहते हैं। लोकसभा तक में आन रिकार्ड यह काम करते हैं और उन का बाल-बांका नहीं होता। बेशर्मी के अपने-अपने अंदाज़ हैं। लोगों के भी, कानून के भी, संविधान के भी। और हद तो तब हो गई जब खेल का व्यापार करने वाले एक खिलाड़ी को बाज़ार के जुनून में जिसे लोग क्रिकेट का भगवान कहने लगे उस सचिन तेंदुलकर को भारत रत्न देने का ऐलान कर दिया गया। साथ ही एक वैज्ञानिक सी एन आर राव का नाम भी भारत रत्न के लिए नत्थी कर दिया गया। यह भारत रत्न का अपमान तो था ही, उस वैज्ञानिक और विज्ञान का भी अपमान था, देश का भी अपमान था।
आप उस वैज्ञानिक सी एन आर राव की यातना का अंदाज़ा लगाइए कि भारत रत्न पाने के बाद तो उन्हें भाव-विभोर हो जाना चाहिए था। लेकिन इस वैज्ञानिक की पहली प्रतिक्रिया बहुत ही बौखलाई हुई थी। वह बोले, देश के नेता ईडियट हैं ! विवाद तूल पकड़ता कि नरेंद्र मोदी का महिला प्रेम सुर्खियों में छा गया। अभी यह उन के इश्कजादे का प्रसंग हवा में तारी था ही कि तरुण तेजपाल का दुराचार प्रसंग भारी पड़ गया। और यह देखिए अरुषि के माता-पिता तलवार दंपति को भी आजीवन कारावास हो गया। कुल मिला कर यह कि भारत रत्न के विवाद पर प्रेम और सेक्स कथाएं भारी पड़ गईं। इस से यह भी पता चल गया कि हमारा देश विवाद प्रिय तो है ही पर उस में भी उसे सेक्स विवाद ज़्यादा पसंद है। वास्तव में मुद्रा और और मैथुन यही दो आज के सार्वभौमिक सच बन चले हैं ! आज के हालात यही हैं। बाकी आप की मर्जी ! अब देखिए न कि तरुण तेजपाल का सेक्स प्रसंग ही नहीं उने आर्थिक साम्राज्य की भी कहानियां अब हमारे सामने हैं। देश में फ़ासीवाद का और सांप्रदायिकता का विरोध करते-करते वह पोंटी चड्ढा के पार्टनर कब बन गए यह तब किसी को पता ही नहीं चला। अब गांठें खुल रही हैं। यह आज के समाज का खौफ़नाक सच है। अब इस दौड़ में नैतिकता आदि शब्द बेमानी हो गए हैं। तो इस सेक्स विवाद में सचिन को भारत रत्न विवाद सर्द पड़ गया है। लेकिन क्या सचमुच? कांग्रेस ने तो अपनी डूबती नैया बचाने के फेर में सचिन को भारत रत्न दे दिया कि देश के युवाओं का वोट कांग्रेस को मिल जाएगा। अब वोट मिलेगा कि नहीं, कांग्रेस का राज बचेगा कि नहीं यह तो समय बताएगा लेकिन भारत रत्न की गरिमा तो सचिन और कांग्रेस की भेंट चढ़ गई। बताइए कि एक क्रिकेट से ज़्यादा विज्ञापन से कमाई करने वाला सचिन तेंदुलकर जिस की उम्र अभी चालीस साल की है यह भारत रत्न संभालेगा कैसे? इस की गरिमा को बचाएगा कैसे? यह एक अनुत्तरित प्रश्न है। इस पर फिर कभी। फ़िलहाल तो कुछ फ़ेसबुकिया नोट्स गौरतलब हैं :
आप उस वैज्ञानिक सी एन आर राव की यातना का अंदाज़ा लगाइए कि भारत रत्न पाने के बाद तो उन्हें भाव-विभोर हो जाना चाहिए था। लेकिन इस वैज्ञानिक की पहली प्रतिक्रिया बहुत ही बौखलाई हुई थी। वह बोले, देश के नेता ईडियट हैं ! विवाद तूल पकड़ता कि नरेंद्र मोदी का महिला प्रेम सुर्खियों में छा गया। अभी यह उन के इश्कजादे का प्रसंग हवा में तारी था ही कि तरुण तेजपाल का दुराचार प्रसंग भारी पड़ गया। और यह देखिए अरुषि के माता-पिता तलवार दंपति को भी आजीवन कारावास हो गया। कुल मिला कर यह कि भारत रत्न के विवाद पर प्रेम और सेक्स कथाएं भारी पड़ गईं। इस से यह भी पता चल गया कि हमारा देश विवाद प्रिय तो है ही पर उस में भी उसे सेक्स विवाद ज़्यादा पसंद है। वास्तव में मुद्रा और और मैथुन यही दो आज के सार्वभौमिक सच बन चले हैं ! आज के हालात यही हैं। बाकी आप की मर्जी ! अब देखिए न कि तरुण तेजपाल का सेक्स प्रसंग ही नहीं उने आर्थिक साम्राज्य की भी कहानियां अब हमारे सामने हैं। देश में फ़ासीवाद का और सांप्रदायिकता का विरोध करते-करते वह पोंटी चड्ढा के पार्टनर कब बन गए यह तब किसी को पता ही नहीं चला। अब गांठें खुल रही हैं। यह आज के समाज का खौफ़नाक सच है। अब इस दौड़ में नैतिकता आदि शब्द बेमानी हो गए हैं। तो इस सेक्स विवाद में सचिन को भारत रत्न विवाद सर्द पड़ गया है। लेकिन क्या सचमुच? कांग्रेस ने तो अपनी डूबती नैया बचाने के फेर में सचिन को भारत रत्न दे दिया कि देश के युवाओं का वोट कांग्रेस को मिल जाएगा। अब वोट मिलेगा कि नहीं, कांग्रेस का राज बचेगा कि नहीं यह तो समय बताएगा लेकिन भारत रत्न की गरिमा तो सचिन और कांग्रेस की भेंट चढ़ गई। बताइए कि एक क्रिकेट से ज़्यादा विज्ञापन से कमाई करने वाला सचिन तेंदुलकर जिस की उम्र अभी चालीस साल की है यह भारत रत्न संभालेगा कैसे? इस की गरिमा को बचाएगा कैसे? यह एक अनुत्तरित प्रश्न है। इस पर फिर कभी। फ़िलहाल तो कुछ फ़ेसबुकिया नोट्स गौरतलब हैं :
- किसी लेखक या पत्रकार को नोबल या बुकर तो मिल सकता है पर भारत रत्न? सोचा भी नहीं जा सकता। भारत रत्न तो दूर की कौड़ी है अब तो पद्म पुरस्कार, राज्य सभा सदस्यता या विधान परिषद की सदस्यता भी लेखकों से दूर हो गई है। सिनेमा, क्रिकेट और कारपोरेट की गठजोड़ ने देश को कितना दरिद्र और हीन बना दिया है। इस के लिए लेखक भी ज़िम्मेदार हैं और समाज भी। पत्रकार तो खैर दलाल हो ही गए हैं और बाज़ार की बांदी बन चले हैं। कामयाबियों और विचारों की सल्तनत का यह कौन सा मुकाम है? कितना कठिन समय है यह?
- यह दो कौड़ी का खेल क्रिकेट क्या इतना बड़ा है, कि विज्ञान की विशालता और एक वैज्ञानिक लोगों को दिखता ही नहीं। क्या मीडिया इतना बड़ा गधा है कि उसे पेप्सी बेचने वाले, कारपोरेट सेक्टर के तलुवे चाटने वाले और एक नामचीन वैज्ञानिक का फ़र्क नहीं मालूम, यह मोल और अनमोल का अंतर नहीं मालूम ? इंडिया इतना छोटा और टुडे इतना बड़ा क्यों हो गया है ? सवाल सिर्फ़ हाकी और क्रिकेट का ही नहीं है, ध्यानचंद और सचिन का ही नहीं है, सवाल तो रावण के नित बड़ा होते जाने का है ! वाकई यह कला, साहित्य, संगीत, विज्ञान और समाज को बहुत अपमानित करने वाला कठिन समय है !
- अच्छा यह बताइए कि जिस क्रिकेट मैच के कारण सन्नाटा होने का लाभ लेते हुए कसाब और अन्य आतंकी मुंबई में समुद्र के रास्ते घुस आए और २६/११ जैसा हादसा हो गया। कितनों की जान गई,. कितने घायल हुए। इसे देश पर हमला भी कहा गया। दुनिया के किसी और देश में जो इतना बड़ा ऐसा हादसा हुआ होता तो क्या वह देश भी क्रिकेट के प्रति ऐसी ही दीवानगी दिखाता ? और तो और पैसे के पीछे पागल एक खिलाड़ी को जिस ने अभी आधी उम्र भी न देखी हो, ऐसे ही सर्वोच्च सम्मान दे कर अपने सर पर बिठाता ? धन्य है यह भारत देश भी ! और इस अतुल्य भारत की महिमा भी ! राजनीति और कारपोरेट की यह शतरंजी चाल भी अतुल्य है !
Sunday, 24 November 2013
चंचल बी एच यू के बहाने कुछ फ़ेसबुकिया गुफ़्तगू
फ़ेसबुक पर हमारे एक मित्र हैं चंचल जी। फ़ेसबुक पर बेहद सक्रिय रहते हैं। पुराने समाजवादी हैं। चुनाव वगैरह भी लड़ चुके हैं। हार चुके हैं। कलाकार हैं। पर राजनीति में गहरी दिलचस्पी रखते हैं। एक समय हम उन्हें बी एच यू के छात्र संघ के अध्यक्ष के रुप में जानते थे। जानते क्या थे, सुनते थे। गोरखपुर के इलाहीबाग मुहल्ले में हमारे एक पड़ोेसी रहे हरिकेश प्रताप बहादुर सिंह जो हमें बड़े भाई की तरह तब प्यार करते थे, बचपन में। खेलते भी थे हम लोग साथ में। हालां कि वह बड़ी गोल के थे और हम छोटी गोल के। मतलब बहुत सीनियर थे तब हम से वह उम्र में। वह भी बी एच यू के छात्र संघ के अध्यक्ष रहे हैं और राजनीति में भी। गोरखपुर से दो बार सांसद भी रहे हैं। अब वह भी कांग्रेस में हैं। लेकिन साफ-सुथरी राजनीति के चलते परिदृष्य से भी बाहर हैं। कभी जब मैं दिल्ली में रहता था तो वह भी मीना बाग में रहते थे। उस इलाके में किसी भी शाम वह टहलते हुए मिल जाते थे। संसद भी बस से जाते थे। अच्छे पार्लियामेंटेरियन के रुप में जाने जाते थे। सादगी में लिपटे, ईमानदार और सिद्धांतों की गांठ के पक्के इस पीढ़ी के राजनीतिज्ञ मैं ने बिरले ही देखे हैं। हरिकेश प्रताप बहादुर सिंह को याद कर के भी मन सादगी से भर जाता है। उन के कई किस्से हैं मेरे पास। मेरा एक उपन्यास है वे जो हारे हुए। उस उपन्यास में वह एक राजनीतिज्ञ के चरित्र में उपस्थित हैं। अपनी पूरी गरिमा के साथ। लेकिन उस चरित्र की छाप देखिए कि रांची में प्रभात खबर के संपादक हरिवंश जी ने जब वह उपन्यास पढ़ा तो मुझ से पूछ लिया उन्हों ने कि क्या यह चरित्र हरिकेश बहादुर का है? मैं ने बताया कि हां, वही हैं। पर आप कैसे जान गए? तो वह बोले कि मैं भी बी एच यू का ही पढ़ा-लिखा हूं, जान गया। फिर वह हरिकेश जी के झारखंड के कांग्रेस प्रभारी होने के ज़िक्र पर आए और बताने लगे कि जो भी कांग्रेस का प्रभारी यहां आता है, अरबपति बन कर लौटता है। पर हरिकेश ने एक पैसा नहीं छुआ। हरिकेश जी, एक बार उत्तर प्रदेश कांग्रेस में भी उपाध्यक्ष थे। लेकिन प्रदेश कांग्रेस के दफ़्तर में एक बार एक स्त्री के साथ कुछ अराजक तत्वों ने रात का फ़ायदा उठा कर कुछ अप्रिय किया तो हरिकेश बाबू ने तुरंत इस्तीफ़ा दे दिया था, इस घटना के विरोध में। यह कह कर कि जिस पार्टी के प्रदेश कार्यालय में एक स्त्री के साथ कुछ अराजक तत्व ही सही कुछ अप्रिय कर देते है और हम अपने कार्यालय को सुरक्षित नही रख सकते तो हमें अपने पद पर रहने का क्या अधिकार है? खैर यह भी बहुत पुरानी बात हो गई।
बी एच यू के एक और छात्र संघ अध्यक्ष हुए हैं शतरुद्र प्रकाश। उन से तो मित्रता ही है। उन की पत्नी क्या उन की भी दोस्त ही हैं अंजना प्रकाश। वह भी उपाध्यक्ष रही हैं बी एच यू की। वह भी मेरी बहुत अच्छी मित्र हैं। मेरी कहानियों और उपन्यासों की बेबाक प्रशंसिका भी। हर दुख-सुख में खड़ी हो जाने वाली मित्र भी। वर्ष १९९८ में जब मैं एक बड़ी दुर्घटना के बाद जीवन और मृत्यु से जूझ रहा था तो शतरुद्र जी और अंजना जी कैसे तो संबल बन कर मेरे उस दुख में दिन रात एक किए थे। मैं वह कैसे भूल सकता हूं। अंजना जी के बड़े भाई आनंद कुमार जी मुझे इतना स्नेह देते हैं, छोटे भाई आलोक जी भी कितना चाहते हैं यह सब यहां बताने का विषय नहीं है। अब पूर्वी उत्तर प्रदेश आंदोलन की बात भले स्थगित है पर शतरुद्र प्रकाश और अंजना प्रकाश के उस संघर्ष को समय दर्ज किए हुए है। यह सब फिर कभी।
खैर वे जो हारे हुए में बी एच यू के एक और छात्र संघ अध्यक्ष का ज़िक्र है। उन को भी लोगों ने पहचान लिया। लेकिन उन का ज़िक्र एक लतीफ़े के तौर पर है। सो उन को पहचानना भी आसान था, है। उन की एक अंगरेजी बहुत मशहूर हुई थी तब, आई टाक तो आइयै टाक, यू टाक तो यूवै टाक, डोंट टाक इन सेंटर-सेंटर ! तो वह पहचान लिए गए। लेकिन एक बार मिले वह लखनऊ में गलती से। हुआ यह कि तब अटल जी लखनऊ आए हुए थे और मैं उन का इंटरव्यू करने पहुंचा हुआ था। माल एवेन्यू के एक गेस्ट हाऊस में वह ठहरे हुए थे। बाहर के कमरे में मुरली मनोहर जोशी भी अटल जी से मिलने के लिए बैठे हुए थे। और भी कुछ लोग प्रतीक्षारत थे। मैं भी बैठ गया। कि तभी एक जनाब आए और जब जाना कि मैं मीडिया से हूं, अटल जी से मिलूंगा तो लपक कर वह मुझ से हाथ मिलाते हुए मिले और बोले, माई सेल्फ़ भरत सिंह फ़्राम बलिया ! मैं ने छूटते हुए उन से कहा कि आप को मैं जानता हूं, भले मिल आज रहा हूं। तो वह ज़रा अचकचाए। तो मैं ने उन से कहा कि बी एच यू वाले भरत सिंह जी हैं न आप? तो वह कुछ खिले और बोले हां, हां ! मैं ने कहा कि आप को कौन नहीं जानता? आप की अंगरेजी इतनी मशहूर है कि कौन नहीं जानता। फिर मैं ने उन की अंगरेजी आई टाक तो आइयै टाक का बखान शुरु किया। वे जो हारे हुए में भरत सिंह की अंगरेजी का हुनर देखें फिर बात आगे की होगी:
‘चुप बे बकलोल।’ विश्वविद्यालय नेता बोला, ‘बोलने भी दोगे।’ फिर ज़रा रुका और जब देखा कि पूरी सभा शांत है तो बोलना शुरू किया, ‘क़िस्सा बी.एच.यू. का है। वहां छात्र संघ का अध्यक्ष अंगरेज़ी नहीं जानता था। चुनाव जीतने के बाद वह जब भी कोई मेमोरेंडम ले कर वाइस चांसलर के पास जाता। वाइस चांसलर उसे देख कर पहले तो मुसकुराता फिर कहता, ‘यस मिस्टर प्रेसिडेंट।’ कह कर वह अंगरेज़ी में ही कुछ गिटपिटाता और यह तुरंत वापस आ जाता। अपनी कोई बात कहे बिना, कोई मेमोरेडंम दिए बिना अंगरेज़ी की हीनता में मार खा कर लौट आता पांच मिनट में। बाहर खड़े छात्रों की ओर भी नहीं देखता और आंख चुरा कर भाग लेता। अंततः कुछ लवंडों ने रिसर्च की कि आखि़र मामला क्या है? रिसर्च में पता चला कि अपना अध्यक्ष अंगरेज़ी का जूता खा कर भाग आता है। फिर अध्यक्ष को अंगरेज़ी में बात करने की डट कर प्रैक्टिस कराई गई। प्रैक्टिस क्या बिलकुल रट्टा लगवा दिया गया। लेकिन बेचारा अध्यक्ष हिंदी मीडियम का होनहार था जा कर वहां लथड़ गया। पर ऐसा लथड़ा कि वाइस चांसलर की सिट्टी पिट्टी गुम हो गई।’
‘क्या गाली वाली बक दी?’
‘गाली?’ पान की पीक थूकते हुए विश्वविद्यालय नेता बोला, ‘इससे भी बड़ा काम कर दिया। गाली वाली क्या चीज़ होती है?’
‘तो क्या पीट दिया?’ एक दूसरा छात्र उकता कर बोला।
‘पीट दिया?’ विश्वविद्यालय नेता बोला, ‘अरे इस से भी बड़ा काम कर दिया।’
‘गोली मार दी?’
‘नहीं भाई इस से भी बड़ा काम किया।’ वह बिना रुके बोला, ‘हुआ यह कि जब अपना अध्यक्ष पहुंचा वाइस चांसलर के पास तो रवायत के अनुसार वाइस चांसलर मुसकुराते हुए ज्यों स्टार्ट हुआ कि, ‘यस मिस्टर प्रेसिडेंट।’ तो अपना अध्यक्ष भी फुल टास में बोल पड़ा, ‘यस मिस्टर वाइस चांसलर!’ वाइस चांसलर ने कुछ टोका टाकी की तो अपने अध्यक्ष ने मेज़ पीटते हुए कहा, ‘नो मिस्टर वाइस चांसलर! ह्वेन आई टाक तो आइयै टाक, ह्वेन यू टाक तो यूवै टाक! बट डोंट टाक इन सेंटर-सेंटर!’ और फिर मेज़ पीटा। अध्यक्ष ने इधर मेज़ पीटा, उधर वाइस चांसलर ने अपना माथा। फिर अपना अध्यक्ष हिंदियाइट अंगरेज़ी बोलता रहा, वाइस चांसलर सुनता रहा। जो अध्यक्ष दो मिनट में वाइस चांसलर के यहां से भाग निकलता था, एक घंटे बाद बाहर आया। और बाहर तक वाइस चांसलर सी ऑफ़ करने आया। फिर तो छात्र एकता ज़िंदाबाद से धरती हिल गई।’ वह रुका नहीं, बोलता रहा, ‘तो आनंद अगर कहो तो तुम्हें भी अंगरेज़ी का रट्टा लगवाने का इंतज़ाम किया जाए।’ वह बोला, ‘लगे हाथ दो काम हो जाएंगे। अंगरेज़ी की भी ऐसी तैसी कर देंगे और छात्र संघ ज़िंदाबाद भी।’
‘गाली?’ पान की पीक थूकते हुए विश्वविद्यालय नेता बोला, ‘इससे भी बड़ा काम कर दिया। गाली वाली क्या चीज़ होती है?’
‘तो क्या पीट दिया?’ एक दूसरा छात्र उकता कर बोला।
‘पीट दिया?’ विश्वविद्यालय नेता बोला, ‘अरे इस से भी बड़ा काम कर दिया।’
‘गोली मार दी?’
‘नहीं भाई इस से भी बड़ा काम किया।’ वह बिना रुके बोला, ‘हुआ यह कि जब अपना अध्यक्ष पहुंचा वाइस चांसलर के पास तो रवायत के अनुसार वाइस चांसलर मुसकुराते हुए ज्यों स्टार्ट हुआ कि, ‘यस मिस्टर प्रेसिडेंट।’ तो अपना अध्यक्ष भी फुल टास में बोल पड़ा, ‘यस मिस्टर वाइस चांसलर!’ वाइस चांसलर ने कुछ टोका टाकी की तो अपने अध्यक्ष ने मेज़ पीटते हुए कहा, ‘नो मिस्टर वाइस चांसलर! ह्वेन आई टाक तो आइयै टाक, ह्वेन यू टाक तो यूवै टाक! बट डोंट टाक इन सेंटर-सेंटर!’ और फिर मेज़ पीटा। अध्यक्ष ने इधर मेज़ पीटा, उधर वाइस चांसलर ने अपना माथा। फिर अपना अध्यक्ष हिंदियाइट अंगरेज़ी बोलता रहा, वाइस चांसलर सुनता रहा। जो अध्यक्ष दो मिनट में वाइस चांसलर के यहां से भाग निकलता था, एक घंटे बाद बाहर आया। और बाहर तक वाइस चांसलर सी ऑफ़ करने आया। फिर तो छात्र एकता ज़िंदाबाद से धरती हिल गई।’ वह रुका नहीं, बोलता रहा, ‘तो आनंद अगर कहो तो तुम्हें भी अंगरेज़ी का रट्टा लगवाने का इंतज़ाम किया जाए।’ वह बोला, ‘लगे हाथ दो काम हो जाएंगे। अंगरेज़ी की भी ऐसी तैसी कर देंगे और छात्र संघ ज़िंदाबाद भी।’
खैर यह आई टाक तो आइयै टाक वाली अंगरेजी जब वहां बैठे लोगों ने सुनी तो सब के सब हंसने लगे। मुरली मनोहर जोशी भी। लेकिन तभी जोशी जी को भीतर से अटल जी का बुलावा आ गया। वह हंसते हुए ही गए। अब भरत सिंह फिर मेरे साथ बतियाने लग गए। कहने लगे कि यह या ऐसी अंगरेजी कभी नहीं बोली मैं ने। यह सब चंचलवा ने हम को बदनाम करने के लिए किस्सा गढ़ दिया था बी एच यू में तब ! वह बोले इस मज़ाक को छोड़िए और आगे की बात कीजिए। मैटर गंभीर है और कि मैं यह चुहुल छोड़ दूं। और यह सब भूल जाऊं। वह चाहते थे कि मैं किसी भी तरह अटल जी से उन के होनहार होने की चर्चा कर दूं। ताकि उस समय तैयार हो रही कल्याण सिंह की मंत्री परिषद की सूची में भरत सिंह का नाम भी जुड़ जाए। कल्याण सिंह तब शपथ लेने वाले थे। राजनीतिक गहमागहमी बहुत थी। तो हर कोई अपने-अपने जुगाड़ में था। भरत सिंह भी। वह बता रहे थे कि उन का बायोडाटा भी तगड़ा है और साथ ही शाम को अपने पार्क रोड स्थित आवास पर शाम को लिट्टी-चोखा की दावत पर आमंत्रित करते जा रहे थे। कि तभी भीतर से अटल जी ने मुझे भी बुलवा लिया। मै जाने लगा तो भरत सिंह ने फिर मुझ से लगभग चिरौरी की कि येन-केन-प्रकारेण मैं उन का नाम ज़रुर ले लूं अटल जी के सामने। वह जैसे जोड़ते जा रहे थे कि आप के कहने से बहुत अच्छा प्रभाव पड़ेगा। खैर मैं गया भीतर तो अटल जी, जोशी जी हंसते जा रहे थे। अटल जी मुझ से हंसते हुए ही बोले, इंटरव्यू तो बाद में पहले आप वह आई टाक वाली पूरी बात सुनाइए ! हुआ यह था कि जब जोशी जी अटल जी के पास गए तो हंसते हुए गए। सो अटल जी ने उन से पूछा कि माज़रा क्या है। तो जोशी जी ने आई टाक तो आइयै टाक, यू टाक तो यूवै टाक, डोंट टाक इन सेंटर-सेंटर ! वाली बात बताई। तो अटल जी आमोद-प्रमोद के क्षण में आ गए। कहा कि पूरी बात बताइए। जोशी जी ने कहा कि मुझ से क्या पूछ रहे हैं सीधे सही आदमी से फ़र्स्ट हैंड सुनिए। और मेरा ज़िक्र कर दिया। सो मैं बुला लिया गया। तो मैं ने अटल जी से कहा कि फ़र्स्ट हैंड ही सुनना है तो मुझ से क्यों सीधे जिस की अंगरेजी है यह उसी से सुनिए, उसी को बुला लीजिए। अटल जी ने पूछा कि वह कौन है? मैं ने बताया कि आप की पार्टी के विधायक है। नाम है, भरत सिंह। बाहर वह बैठे हैं आप के सामने आने और मिलने के लिए लालयित भी हैं। मंत्री पद के प्रार्थी हैं। यह सुन कर अटल जी ने माथे पर थोड़ा जोर डाला। खैर बुलाए गए भरत सिंह भी। अब अटल जी, लाख कहें कि भरत सिंह जी, वह अंगरेजी सुनाइए। पर भरत सिंह अंगरेजी तो बोले पर, कभी यस सर, कभी नो सर, कभी सारी सर ! बस यही तीन शब्द। इस के आगे उन की घिघ्घी बंध-बंध गई। और अंतत: वह बाहर चले गए।
बाद में मैं जब अटल जी का इंटरव्यू कर के बाहर निकला तो भरत सिंह बाहर मेरी प्रतीक्षा में खड़े मिले। बिलकुल आग्नेय नेत्रों से देखते हुए। उन का वश चलता तो वह मुझे शर्तिया गोली मार देते। जो व्यक्ति लिट्टी चोखे की दावत पर थोड़ी देर पहले मुझे न्यौत रहा था, वही अब आग्नेय नेत्रों से देख रहा था। मैं ने माहौल को हलका बनाने की गरज़ से कहा कि भरत सिंह जी, आप का तो अटल जी से इंट्रोडक्शन हो ही गया अब तो ! भरत सिंह गोली की ही तरह बमक कर बोले, हां बहुत इज़्ज़त करवा दिए हमारा आप ! धन्यवाद ! कह कर उन्हों ने दोनों हाथ कस कर जोड़े ऐसे कि बस मुझे मार ही देना चाहते हैं। कहने लगे ऊ चंचलवा के चक्कर में आप हम को कहीं का नहीं छोड़े हैं ! और वह तेज़-तेज़ कदमों से चले गए। खैर कारण जो भी रहा हो उस बार मंत्री नहीं बन पाए भरत सिंह। लेकिन बाद के दिनों में वह मंत्री पद की शपथ पा गए थे।
अब इस आई टाक तो आइयै टाक, यू टाक तो यूवै टाक, डोंट टाक इन सेंटर-सेंटर ! मामले में कितना योगदान भरत सिंह का था, कितना चंचलवा का, हम नहीं जानते। पर चंचल जी को मैं ने पहली बार दिल्ली के १० दरियागंज स्थित दिनमान कार्यालय में ही देखा था। मैं उन दिनों दिनमान नियमित जाता था। वह चुपचाप बैठते थे। खादी के सफ़ेद कपड़ों में। कभी पैंट बुशर्ट में, कभी कुरता -पायज़ामा में। चुपचाप सिगरेट फूंकते हुए। शायद उदय प्रकाश जी ने कि राम सेवक जी ने पहली बार उन से मिलवाया। पर बहुत खुले नहीं चंचल जी। तब बहुत सब से बोलते भी नहीं थे। शायद राजेश खन्ना जैसों से दोस्ती का नशा रहा हो। खैर तो जब दिनमान जाता तो उन्हें देखते हुए ही चला आता। फिर जब अचानक वह दिखना बंद हो गए तो पूछा लोगों से। तो बताया गया कि अब वह नौकरी छोड़ कर चुनाव लड़ने गए हैं। शायद मछली शहर से वह श्रीपति मिश्र के खिलाफ़ चुनाव लड़े थे। ठीक याद नहीं। फिर मैं दिल्ली छोड़ कर लखनऊ आ गया। पर अब यही चंचल जी फ़ेसबुक पर
कुछ दिनों से मिल गए हैं। खूब बोलते हुए, खूब बतियाते हुए। धकापेल। अकसर कांग्रेस का जयगान करते हुए। सारी दुनिया एक तरफ़, कांग्रेस एक तरफ़। कांग्रेस न हो उन की माशूका हो। कि होंगे उस में हज़ार ऐब ! पर हम तो उस की गाएंगे ! कहा ही गया कि दिल तो आखिर दिल है, गधी पर भी आ जाए तो आप को क्या ! लैला काली थी कि गोरी, मजनू हिसाब कर लेगा उस का, आप से क्या? कुछ-कुछ ऐसी ही तबीयत है इन दिनों चंचल बी एच यू की फ़ेसबुक पर। सोचता हूं कि बी एच यू छात्र संघ की आबोहवा भी कितने-कितने रंग में रही है। हरिकेश बहादुर प्रताप सिंह भी है, शतरुद्र प्रकाश भी। चंचल जी भी हैं और भरत सिंह भी। मदन मोहन मालवीय का तो खैर वह सपना ही है। और कि कांग्रेस का पानी भी कितने रंग का है। कि एक तरफ़ हरिकेश प्रताप बहादुर सिंह है कि एक घटना घट जाती है प्रदेश कांग्रेस कार्यालय में और वह पद से इस्तीफ़ा दे देते है, जिस में उन का कोई दोष नहीं। बस नैतिकता का तकाज़ा है। और नेपथ्य में चले जाते हैं। दूसरी तरफ़ हमारे चंचल जी भी हैं तो नेपथ्य में ही और कि दबी ज़ुबान मानते भी हैं कि कांग्रेस में खामी है। पर साथ ही पूछते भी फिरते हैं कि कौन सी डगर जाऊं फिर? और इस सवाल के साथ कांग्रेस का उन का जयगान जारी रहता है। उन की यह यातना हिला कर रख देती है। बहुत कठिन है डगर पनघट की चंचल जी, यह तो हम भी जानते हैं। पर क्या करें हम सब एक आग में हैं। और यह कोई आग का दरिया भी नहीं है कि जिस में डूब कर भी जाया जा सके ! बहरहाल आज उन से उन की एक पोस्ट पर कई बार गुफ़्तगू हुई तो सोचा कि ब्लाग पर इस बतकही के अपने हिस्से को तो डाल ही दूं। और भी बतकही हुई है कई बार चंचल जी से फ़ेसबुक पर। पर वह बहुत खोजने पर भी नहीं मिली। या तो चंचल जी ने वह पोस्टें मिटा दी हैं या मैं खोज नहीं पाया। कहना बहुत कठिन है। पर मैं ने खोजा बहुत इस लिए भी कि वह सब भी ब्लाग पर सरिया दूं। आखिर सरोकार की ही बाते हैं। तो सरोकारनामा पर नहीं होंगी यह बातें तो और कहां होंगी भला?
- चंचल जी, आप पुरानी बातें लिखने में तथ्यों की बड़ी गड़बड़ी कर जाते हैं। राजेश खन्ना, राज बब्बर के नाम ले कर उन के बारे में कुछ भी लिखिए कोई बात नहीं। लोग हजम कर लेंगे। कांग्रेसी चश्मा लगा कर मोदी को भी आप कुत्ता बनाए रखिए लोग बर्दाश्त कर लेंगे। अच्छा यह भी ज़रुरी है कि आप अपनी बात में वज़न डालने के लिए फ़िल्मी लोगों की हरदम टेर लेते ही रहें? जो सिर्फ़ पैसे के लिए ही जीते-मरते रहे हैं? अपने आप पर भरोसा नहीं है? यह सब समाजवादी होने की आड़ में आप कहते हैं। किसी समाजवादी को यह शोभा नहीं देता। खैर, सारिका जब मुंबई से दिल्ली आई थी तब कमलेश्वर को हटाने की मुहिम में आई थी। यह १९७७-७८ की बात है। जब कमलेश्वर ने एक संपादकीय लिखा था कि यह देश किसी मोरार जी देसाई, किसी चरण सिंह, किसी जगजीवन राम भर का नहीं है। यह जनता पार्टी के पतन काल का दौर था। टाइम्स मैनेजमेंट ने सारिका का वह अंक जलवा दिया था। सारिका को दिल्ली शिफ़्ट किया कमलेश्वर को खाली करने के लिए। अवध नारायण मुदगल तब उप संपा्दक बन कर ही आए थे, संपादक बन कर नहीं। बाद में जब कमलेश्वर के चक्कर में रह कर आनंद प्रकाश सिंह भी मुंबई छोड़ कर दिल्ली नहीं आए तब मुदगल जी को उप मुख्य संपादक बनाया गया। संपादक नंदन जी बनाए गए थे। जो पहले से पराग के संपादक थे। रघुवीर सहाय को जब दिनमान से हटाया गया तब दिनमान के भी वह संपादक बना दिए गए। फिर बाद के दिनों में नंदन जी के ही प्रयास से सर्वेश्वर जी, जो तब दिनमान के मुख्य उप संपादक थे को , सहायक संपादक बना कर पराग के संपादन की ज़िम्मेदारी दी गई। लेकिन संपादक नहीं बनाया गया। आप पराग की पुरानी फ़ाइलें देखिए उस में संपादक की जगह संपादन लिखा मिलेगा। यह १९८२- १९८३ की बात है। हां, जब नंदन जी के भी बुरे दिन आए और उन्हें नवभारत टाइम्स में शिफ़्ट किया गया तब मुदगल जी को सारिका का सहायक संपादक बना दिया गया। संपादक नहीं। तो मुदगल जी ने भी सारिका के प्राण ले कर ही छोड़े। देह कथा विशेषांकों की झड़ी लगा दी। और जाने क्या-क्या किया। यह कथा फिर कभी। और जो बार-बार आप राज बब्बर का नाम रटते रहते हैं तो एक बात और नोट कर लीजिए और जान लीजिए कि राज बब्बर ने दलाली भी की है, करते ही हैं। राजनीतिक पार्टियों की भी और कारपोरेट सेक्टर के लिए भी। इसी लिए, इसी नशे में वह मुंबई में बारह रुपए में भरपेट खाना पाने का बेशर्म बयान भी दाग लेते हैं। और आप जैसे वाचाल लोग इस पर चुप रहते हैं। राज बब्बर, राजीव शुक्ला जैसों से किसी भी अर्थ में अलग नहीं हैं। बस कैरेट अलग है। हैं एक ही धातु के।
- चंचल जी, मैं तो समाजवादियों को उन की लोकतांत्रिकता के लिए जानता हूं। कम्युनिस्ट साथियों को अलबत्ता अपने से असहमत होने वालों को दरकिनार करते देखता-भुगतता रहता हूं।भला-बुरा कहते या असंतुलित भाषा का प्रयोग करते भी यह लोग मिल जाते हैं। बहरहाल, अमिताभ बच्चन के ज़्यादा क्या बिलकुल करीब नहीं हूं। और जो मिल बतिया लेने से ही कोई करीब हो जाता है किसी से तो राज बब्बर से भी कई दफ़ा मिला हूं इसी लखनऊ में। अमिताभ बच्चन और राज बब्बर दोनों ही लोग बड़ी मुहब्बत से मिलते हैं। अमिताभ बच्चन के साथ तो नहीं लेकिन राज बब्बर के साथ मयकशी भी की है। लेकिन अब जब देखता हूं कि वह बारह रुपए में मुंबई में भरपेट भोजन करवा देते हैं तो तकलीफ़ होती है। वैसे अमिताभ बच्चन और राज बब्बर अभिनेता दोनों ही जन अच्छे हैं। बाकी कारोबार में दोनों एक हैं। चाहे अमर सिंह के साथ रहें या लड़ कर रहें। राही उसी राह के हैं। हां, भाषा मेरी कलक्टरी नहीं है, यह मैं ज़रुर अर्ज करना चाहता हूं। रही बात घटिया मानने न मानने की यह आप के अपने विवेक पर मुन:सर है। आप हमारे आदरणीय हैं, हक है आप को। हां, चिखुरी बिचारे की बात क्यों यहां इन सब के बीच ला रहे हैं, वह तो आप का मुल्ला नसिरुद्दीन है ही और आप की ताकत भी।
- अफ़सोस तो चंचल जी इसी बात का है कि हम सभी सापनाथ -नागनाथ से घिर गए हैं। कोई इन की नकेल कसने वाला हम में से ही निकलना चाहिए। बतर्ज़ दुष्यंत इस आकाश से कोई गंगा निकलनी चाहिए !
- मुझे किसी चश्मे से चिढ़ नहीं है। न किसी चश्मे की ज़िद है। जिस को जो नंबर फिट लगे, लगाए ! हम कोई फ़ासिस्ट थोड़े ही हैं। कि यही चाहिए, और यह नहीं चाहिए का पहाड़ा पढ़ें। बात बस तार्किक हो और आसानी से गले उतर जाए।
- कोई एक नहीं। अब सारे अखबार छक्के हो गए हैं। बेहतर होगा कि आप अपने ब्लाग पर ही लिख डालिए। बस एक बात का खयाल रखिएगा कि इस लिखे में कांग्रेसी नज़रिया मत घुसेड़िएगा। कांग्रेसी नज़रिए के साथ आप का लिखना बेईमानी भरी लफ़्फ़ाज़ी हो जाती है !
- चंचल जी, आप तो भैया हो कर भी भौजी की तरह कोंहा गए ! यह गुड बात नहीं है। मैं ने किसी का मज़ाक नहीं उड़ाया है। भरत सिंह का भी नहीं। सिर्फ़ एक वाकया बताया है। अंगरेजी मुझे भी नहीं आती। मैं तो हिंदी का भी नहीं, भोजपुरी का आदमी हूं।भोजपुरी ही हमारी मातृभाषा है। भोजपुरी में ही खाता, पहनता, रहता, जीता हूं। भोजपुरी में ही सांस लेता हूं। हिंदी तो हमारी रोजगार की भाषा है। बहुत छोटा था तब अंगरेजी हटाओ आंदोलन में कूद गया था। इस के लिए किशोरावस्था में ही पुलिस की लाठियां भी खाई हैं और पिता की थप्पड़ और डांट भी। मैं ने अंगरेजी पढ़ना छोड़ दिया था। पिता जी कहते थे कि अंगरेजी जान कर, अंगरेजी छोड़ो, अंगरेजी हटाओ आंदोलन चलाओ तब ठीक लगेगा। लेकिन तब मै ने पिता जी की बात नहीं मानी थी। अब पछताता हूं। गोरखपुर में रवींद्र सिंह तब हमारे इस आंदोलन के नेता थे। कुछ समाजवादियों और कम्युनिस्टों की सोहबत हो गई थी। उन्हीं दिनों मार्क्सवाद का सौंदर्य शास्त्र और लोहिया को साथ-साथ पढ़ा है। लोहिया ही कहते थे, अंगरेजी छोड़ो। दाम बांधो, डेरा डालो, हल्ला बोल ! हम इसी में पले-बढ़े और पढ़े हैं। और जब हम पढ़ते थे तब गोरखपुर विश्वविद्यालय नाम होता था। दीनदयाल उपाध्याय विश्वविद्यालय नही। यहां यह कहने का मतलब हरगिज़ नहीं है कि दीनदयाल जी कोई मामूली आदमी थे। उन का एकात्म मानववाद भी मैं ने पढ़ा है। और वह भी बड़े विचारक हैं।
- चंचल
जी, आप की बात पर अब एक गंवई जुमला याद आता है कि पंचों की राय सर माथे
लेकिन खूंटा वहीं रहेगा ! ठीक है यह आप की अपनी सुविधा है। लेकिन बहस
मुबाहिसे में एकतरफ़ा पुलिसिया कार्रवाई से काम चलता नहीं है। सभी जानते हैं
कि राजबब्बर छात्र जीवन से समाजवादी हैं। आप को यह बताने की ज़रुरत नहीं
है। लेकिन अब वह क्या कर रहे हैं इसे बताने की ज़रुरत है। बारह रुपए में आप
का पान भी नहीं आता और वह भोजन भरपेट करवा देते हैं। समाजवाद अब उन के लिए
सिर्फ़ सुविधा है, एक औज़ार है, विचार नहीं। व्यवहार तो कतई नहीं। और जो आप में समाजवादी धैर्य का तेल
कुछ शेष रह गया हो, कांग्रेसी होने में चुक न गया हो तो थोड़ा दूसरों को
सुनने-समझने की भी कोशिश करने में कोई हर्ज़ नहीं है। कर लिया कीजिए। आप तो
एक बहुत बड़े आदमी महामना मदन मोहन मालवीय की बनाई यूनिवर्सिटी के पढ़े हैं।
बता दूं कि हमारी गोरखपुर यूनिवर्सिटी जिस का नाम अब दीनदयाल उपाध्याय
विश्वविद्यालय है उस के संस्थापकों में एक आचार्य नरेंद्र देव भी हैं। खैर
लीजिए उदय प्रकाश की एक कविता का पाठन- वाचन कीजिए। शायद बात के मर्म तक आप
को पहुंचने और एकतरफ़ा बहस से बचने में मदद करे। कविता का शीर्षक है न्याय :
उन्होंने कहा हम न्याय करेंगे
हम न्याय के लिए जांच करेंगे
मैं जानता था
वे क्या करेंगे
तो मैं हंसा
हंसना ऐसी अंधेरी रात में
अपराध है
मैं गिरफ़्तार कर लिया गया. - चंचल जी, कोई भी विश्वविद्यालय हर किसी का है। तेरा-मेरा की कोई बात ही नहीं है। रही बात बी एच यू की तो उस पर भी मुझे नाज़ है। मैं वहां का पढ़ा भले नहीं हूं पर बी एच यू में पढ़ाने और परीक्षक होने का सौभाग्य भी मुझे है। बहस को और बात को भटकाइए नहीं गोविंदाचार्य की तरह। रही बात दस-बारह रुपए में भोजन की तो आप के एक कांग्रेसी नेता राशीद मसूद तो पांच रुपए में भी भोजन करवा कर जेल चले गए हैं। लोग तो भूखे भी इस देश में सोना जानते हैं। वैसे भी दुष्यंत यों ही तो नहीं लिख गए हैं कि, 'न हो कमीज़ तो पाँओं से पेट ढँक लेंगे/ ये लोग कितने मुनासिब हैं इस सफ़र के लिए । और जिस मुख्तार अनीस की बात आप कर रहे हैं, डालीबाग में मैं रहता हूं, मेरे पड़ोसी रहे हैं। स्वास्थ्य मंत्री रहे हैं। सीतापुर के उन के क्षेत्र में चुनावी दौरे भी मैं ने किए हैं। अब वह नहीं हैं सो उन के बारे में कोई टिप्पणी नहीं करना चाहता।
- अब तो मान लीजिए चंचल जी कि आप की भाषा एक तानाशाह की भाषा हो गई है। आप जो लिख रहे हैं कि, 'राजनीति कविता की जड़ के बाहर एक व्यवस्था है . और वह इतनी छूट देती है के कविता भी उस पर लांछन लगा सके !' यह कौन सी राजनीति है जो कविता को छूट देती है? और यह राजनीति होती कौन है किसी को छूट देने वाली? माफ़ कीजिए राजनीति सिर्फ़ बेईमानों को लूट की छूट दे सकती है, देती ही है। कवि और कविता तो राजनीति और सत्ता की छाती पर चढ़ कर अपना काम कर लेते हैं। ब्रेख्त से लगायत नेरुदा, नाज़िम हिकमत, बिस्मिल, नज़रुल इस्लाम, फ़ैज़, पाश आदि की एक लंबी फ़ेहरिस्त है। और 'वह कवि' जी कौन हैं जो राजनीति से रोटी की मांग कर रहे थे। नाम का खुलासा कीजिए। इस लिए भी ज़रुरी है कि बिना नाम के तो कोई किसी को कुछ कह सकता है। और फिर रोटी मांगना कोई अपराध भी नहीं है। और वही राजनीति गरीब की बीवी होती है, देश को गरीब बनाती है, जो भ्रष्ट होती है। जैसे कांग्रेस, जैसे भाजपा, जैसे सपा, जैसे बसपा, जैसे द्रमुक, जैसे अन्ना द्रमुक आदि। इन्हीं की राजनीति गरीब की बीवी होती है। और कोई भी गरिया सकता है। क्यों कि यह भ्रष्ट और बेईमान राजनीति है। और यही राजनीति जब कोई बचाव, कोई तर्क नहीं पाती तो तानाशाही में तब्दील हो जाती है। तानाशाही की भाषा से इस की शुरुआत होती है। यह बहुत खतरनाक होती है।
Saturday, 23 November 2013
तो क्या तरुण तेजपाल की झांसेबाज़ी रंग लाएगी, कि जेल की हवा खिलाएगी ?
बताइए कि आप एक फ़र्जी कंपनी के नाम पर फ़र्ज़ी सौदा कर नेताओं के घर में घुस कर ज़बरदस्ती चंदा देने पर आमादा हो जाएं और उस सब को हिडेन कैमरे में उतार कर सब के सामने परोस दें और राणा प्रताप बन कर हुंकार भी भरें कि यह देखिए, मैं ने फला-फला को नंगा कर दिया ! और हमारे देश में धर्मनिरपेक्षता के जाड़े में कुम्हलाए लोग इस पर वाह-वाह ! की टेर लगाने लगे तो कुछ क्या बहुत अजीब था। एक मूर्ख बंगारु
लक्ष्मण जो भाजपा का तब राष्ट्रीय अध्यक्ष था चंदे की रकम जल्दी-जल्दी मेज़ की दराज में सहेज रहा है, ऐसे जैसे बाप की जागीर सहेज रहा हो और पूछ रहा है कि डालर में भी मिल सकता है क्या? सोचिए कि भाजपा में भी कैसे-कैसे नवरत्न भरे पड़े हैं। कि चंदा भी डालर में बटोरना चाहते हैं। जाहिर है कि बंगारु लक्ष्मण यह बात तो जानते ही थे कि यह चंदा के रुप में रिश्वत है, सो डालर की प्यास भी जताते जा रहे थे। एक महिला हैं जया जेटली जो जार्ज फ़र्नांडीज़ की महिला मित्र हैं और सच्ची महिला मित्र हैं यह उन्हों ने अब तो सौ फ़ीसदी साबित कर दिया है कि अल्जाइमर जैसी बीमारी से जूझ रहे जार्ज को भावनात्मक संबल देने के लिए इस उम्र में भी कि लोग क्या कहेंगे को बिसार कर हाईकोर्ट तक का दरवाज़ा खटखटा लेती हैं और हाईकोर्ट से आदेश ले कर ही सही उन से नियमित मिलती भी रहती हैं। उन को बार-बार सैल्यूट करने को मन करता है इस एक नेक काम के लिए। तो जार्ज के घर में इन्हीं जया जेटली को भी चंदा देने के लिए तरुण तेजपाल और उन की तहलका टीम पहुंची कि लीजिए यह चंदा, और हमारी एक रक्षा सौदे की डील में मदद कीजिए। जया बार-बार कहती हैं कि डील में मदद करने के लिए चंदा देने की ज़रुरत नहीं है। मैं वैसे ही कह दूंगी। लेकिन तरुण तेजपाल की टीम है कि बस चंदा ज़बरदस्ती उन्हें थमा देना चाहती है। जया चंदे की रकम फिर भी बंगारु लक्ष्मण की तरह हाथ में नहीं लेतीं और कहती हैं कि यह कोषाध्यक्ष को दे दीजिए। और रसीद ले लीजिए। लेकिन तहलका ने इस ज़बरदस्ती दिए गए चंदे को भी स्टिंग का मसाला बना कर परोस दिया और धर्मनिरपेक्षता की मोतियाबिंद के मारे लोगों ने तरुण तेजपाल को सर पर बिठा लिया। और अब इसी धर्मनिरपेक्षता की मोतियाबिंद के मारे लोग यह भी कहना शुरु कर चुके हैं कि तरुण तेजपाल ने चूंकि भाजपाइयों का स्टिंग किया था सो भाजपाई उन्हें फंसा रहे हैं। हद है यह तो !
सुहेब इलियासी की याद है आप लोगों को? भारत में फर्ज़ी स्टिंग मास्टरी के लिए बहुत जाने गए थे एक समय।
याद है ! तो चलिए उन के भी फ़र्ज़ी स्टिग भी याद होंगे आप लोगों को। नहीं याद है तो चलिए हम याद दिला देते हैं। सुहेब इलियासी एक लड़की ले कर कुछ फ़िल्मी कलाकारों के पास पहुंचते थे। लड़की उन कलाकारों को अपने देहजाल में फंसाती थी और जो न फंसना चाहे उसे ज़बरदस्ती फंसाती थी। अब बताइए कि दुनिया में ऐसे कितने मर्द होंगे जो किसी स्त्री के देह आमंत्रण को आसानी से ठुकरा देंगे? खैर वो फ़िल्मीे कलाकार भी नहीं ठुकराते थे और सुहेब इलियासी के स्टिंग में फंस जाते थे। और सुहेब इलियासी इसे इंडिया टी वी. पर दिखाते थे। लंबे-चौड़े नैरेशन के साथ। चीख-चीख कर। याद कीजिए कि शक्ति कपूर जैसे कई सिने कलाकार सुहेब इलियासी के इस लड़की जाल के ट्रैप में आ गए थे। कहते हैं कि सुहेब इलियासी ने तब कई कलाकारों को ब्लैकमेल भी किया था और खूब पैसा बटोरा था। कहते यह भी हैं कि तब राजेश खन्ना तक उन के इस ट्रैप में आ गए थे। लेकिन उन से डील हो गई सो वह परदे व्पर नहीं आए। ऐसी और भी कई कथाएं हैं। और इन्हीं आबिद सुहेल के खाते में चीख-चीख कर एक क्राइम शो भी पेश करना भी दर्ज है। और बाद के दिनों में उन के दूध में इतना उबाल आ गया कि वह अपनी पत्नी की हत्या के जुर्म में जेल की हवाखोरी पर चले गए।
और अब देखिए कि एक और फर्ज़ी स्टिंग मास्टर तरुण तेजपाल जेल की हवाखोरी पर बस निकलने ही वाले हैं। धर्मनिरपेक्षता का अंध मोतियाबिंद उन के हाथ से सरक चुका है। आशाराम की तरह वह झांसेबाज़ी वाली ट्रिक पर आ चुके हैं। और कह रहे हैं कि मुझे फंसाया गया है। लेकिन आप को क्या लगता है कि उन के यह ट्रिक काम आ जाएंगे? गोवा में जो भाजपा के अलावा किसी और की सरकार होती तो शायद हां। पर वहां भाजपा सरकार उन्हें छोड़ने वाली है नहीं। अभी बहुत दिन नहीं हुए एक दूसरे पत्रकार तरुण विजय पर भी भोपाल में उन की महिला मित्र जो मुस्लिम थी की हत्या में उन का नाम घसीटा गया, उन के टूटते-रिसते दांपत्य की कहानियां भी खूब उछाली गई पर वह सारी जांच में बेकसूर साबित हुए।
तो क्या तरुण तेजपाल भी जांच में बेकसूर साबित होंगे?
मुझे नहीं लगता। ठीक है कि लिफ़्ट की क्लिपिंग सी सी कैमरा वहां न होने से नहीं है। पर क्या उस लड़की की आहत आंखों और आहत देह-मन के कमरे से तरुण तेजपाल निकल भागेंगे? कैसे भला? जो कानून आशाराम के झांसे में नहीं आया, वही कानून तरुण तेजपाल के झांसे में कैसे झुलस जाएगा भला? सिर्फ़ इस लिए कि वहां भाजपा सरकार है? तो क्या इंडियन पेनल कोड राजस्थान के लिए अलग है और गोवा के लिए अलग? तरुण तेजपाल का पक्ष लेने वाले मित्रों , बंद कीजिए यह सारा प्रलाप और तरुण तेजपाल को कानून की आंच में तपने दीजिए। तरुण तेजपाल निर्दोष होंगे तो खुद बाहर आ जाएंगे नहीं तो उन्हें भुगतने दीजिए जेल की हवा। यह तरुण तेजपाल जैसे लोग ही हैं कि जिन के कारण मीडिया की महिलाओं को समाज अब बहुत अच्छी नज़र से नहीं देखता। औरतों की हर कीमत पर आगे बढ़ते जाने की भूख भी इस के लिए ज़िम्मेदार है। हालां कि यह मौका नहीं है यह सवाल करने का। पर फिर भी उस पीड़ित महिला पत्रकार से पूछ ही लेता हूं कि जब पहली बार यौन उत्पीड़न हुआ, लिफ़्ट में आप की बिकनी उतार कर तरुण तेजपाल झुका, आप का यौन उत्पीड़न किया, जैसा कि अपनी चिट्ठी में लिखा है आप ने, तो तभी क्यों नहीं पुलिस में जा कर रिपोर्ट दर्ज करवाई? क्यों नहीं वह मीटिग और वह गोवा छोड़ दिया तभी? आखिर किस दबाव और किस लालच में वहां बनी रहीं? और फिर जब दूसरी बार भी उत्पीड़न हुआ तब भी क्यों नहीं पुलिस में गईं? यहां-वहां आफ़िशियल मेल भेज कर, फ़ोन कर के न्याय मांगने की मूर्खता क्या इतनी ज़रुरी थी? आप पत्रकार हैं और अपने ही हितों और कानून से आप वाकिफ़ नहीं हैं?
शाहजहांपुर की एक नाबालिग लड़की राजस्थान में इतने बड़े फ़्राड आशाराम के द्वारा यौन उत्पीड़न की शिकार हो कर दिल्ली में आ कर रिपोर्ट लिखा सकती है और आप दिल्ली में रह कर भी इतने दिन बाद भी रिपोर्ट नहीं दर्ज करवा पातीं? तो यह क्या है? अगर गोवा पुलिस न जागती तो क्या आप अभी भी सोई रहतीं? तरुण तेजपाल तो माफ़ी मांग कर प्रायश्चित भी बड़ी मासूमियत के साथ घोषित कर ही चुके थे। लेकिन आप की दिक्कत मैं समझ सकता हूं फिर भी। क्यों कि हमारी सी बी आई का डाइरेक्टर बलात्कार को जब इंज्वायमेंट की बात कहता हो और हमारा देश, समाज और कानून उसे सज़ा देने की बजाय उस की इस बात को ही भूल जाने की क्षमता रखता हो तो इस धिक्कार समय में कोई जिए भी तो कैसे, और कोई प्रतिरोध करे भी तो कैसे? आखिर यह तरुण तेजपाल नाम का गिद्ध भी तो तुम्हारे पिता का दोस्त और सहकर्मी ही तो है। तुम्हारा तो खैर बलात्कारी भी है ! माफ़ मत करना इसे किसी भी कीमत या किसी भी प्रलोभन पर, यह कसम है तुम्हें इस अपरिचित दोस्त की ! हालां कि मैं एक सत्य यह भी जानता हूं कि हमारे देश में न्याय भी लक्ष्मी की दासी है। और हां, गांधी का वह एक कहा भी याद आता है कि साध्य ही नहीं, साधन भी पवित्र होने चाहिए। तरुण तेजपाल, सुहेब इलियासी या आशाराम जैसे व्यापारियों और धूर्तों को लेकिन यह बात भला कैसे गले उतरेगी, हम यह भी जानते हैं। आमीन !
Monday, 18 November 2013
प्रीति करीं अइसे जइसे, कटहर क लासा !
मोहम्मद खलील बलिया के थे। रेलवे में चतुर्थ श्रेणी की नौकरी करते थे। गाने बजाने का शौक था सो बलिया में ही झंकार नाम से एक पार्टी बनाई। बलिया के ही पंडित सीताराम चतुर्वेदी उन की गायकी से बहुत प्रभावित हुए तो उन्हों ने अपना एक गीत छलकल गगरिया मोर निरमोहिया गाने के लिए दिया। खलील ने इसे दिल खोल कर गाया। फिर तो खलील का डंका बज गया। १९६५ में खलील का ट्रांसफ़र बलिया से इलाहाबाद हो गया। इलाहाबाद में भोजपुरी भाषियों को कोई पूछने वाला नहीं था। उन की तादाद भी कम थी। लेकिन इलाहाबाद में भी खलील भोजपुरी गाते रहे। उन के बच्चों से लोग पूछते कि यह अइली, गइली क्या गाते हैं तुम्हारे पिता ! बच्चे निरुत्तर रहते। खैर, खलील को हारमोनियम बजाने नहीं आता था। वह तबले के डग्गे को ले कर गाने लगे। उसी से गानों की धुन बनाते थे। लेकिन जल्दी ही उन की मुलाकात उदय चंद्र परदेसी से हो गई। फिर तो उन का काम आसान हो गया। और उन्हों ने इलाहाबाद में भी फिर से झंकार पार्टी गठित कर ली। तभी खलील को एक और गीतकार मिल गए गाज़ीपुर के भोलानाथ गहमरी। कौने खोंतवा में लुकइलू आहि रे बालम चिरई गीत उन्हों ने खलील को दिया। खलील ने इस गीत को भी झूम कर गाया। अब खलील ही खलील थे। उन के आगे-पीछे कोई और नहीं। कौने खोंतवा में लुकइलू, आहि रे बालम चिरई गीत खलील की पहचान बन गया। भोजपुरी गीतों का प्रतिमान बन गया। आज भी है। खलील की गायकी में आकर्षण ही आकर्षण था। एक तो ठहरा हुआ मीठा स्वर, दूसरे ताल और लय का अदभुत संतुलन। तीसरे खलील की अदाकारी। और फिर सोने पर सुहागा यह कि गीतों में नयापन। महेंद्र मिश्र का लिखा, 'अंगुरी में डसले बिया नगिनिया हो, हे ननदो दियना जरा द !' गीत ने जैसे खलील को भोजपुरी गायकी का मुकुट पहना दिया। फिर तो भोजपुरी गानों को भी मान मिलने लगा। माना जाने लगा कि भोजपुरी गायकी में भी साहित्य है, लालित्य है। सिर्फ़ सैंया-गोंइया वाली गायकी ही नहीं है भोजपुरी में। बेकल उत्साही का गीत, 'गंवई में लागल बा अगहन क मेला/ गोरी झुकि-झुकि काटेलीं धान/ खेतिय भइल भगवान/ हो गोरी झुकि-झुकि काटेली धान !' जैसे गीतों ने खलील और भोजपुरी दोनों का मान और बढ़ा दिया। छिंटिया पहिन गोरी बिटिया हो गइलीं या फिर ले ले अइह बालम बजरिया से चुनरी, या फिर लाली लाली बिंदिया जैसे गीतों ने खलील की गायकी के रंग को और चटक कर दिया। लागल गंगा जी क मेला, छोड़ा घरवा क झमेला ! जैसे गीत जो खलील की गयकी ही नहीं भोजपुरी गायकी की भी धरोहर बन गए। मोती बी.ए., भोलानाथ गहमरी, हरिराम द्विवेदी, महेंद्र मिश्र, राहगीर बनारसी, युक्तिभद्र दीेक्षित, जनार्दन प्रसाद अनुरागी जैसे भोजपुरी गीतकारों के गीतों को खलील ने न सिर्फ़ अपनी
गायकी में परोसा बल्कि उन गीतों को संगीतमय आत्मा भी दी। यह अनायास नहीं था कि उमाकांत मालवीय, शंभूनाथ सिंह, उमाशंकर तिवारी, ठाकुरप्रसाद सिंह, पंडित श्रीधर शास्त्री जैसे हिंदी के गीतकार भी खलील के घर बैठकी करते थे इलाहाबाद में।
बताते हैं कि उन की गायकी से प्रभावित हो कर एक बार नौशाद उन्हें मुंबई ले गए। फ़िल्मों में गवाने के लिए। खलील अपनी मंडली के साथ गए भी मय नगाड़ा आदि के। रहे कुछ दिन मुंबई। लेकिन जब नौशाद उन से गायकी में कुछ बदलाव के लिए लगातार कहने लगे कि यह ऐसे नहीं, ऐसे कर दीजिए ! तो जब बहुत हो गया तो एक दिन खलील ने नौशाद से हाथ जोड़ लिया और कहा कि नौशाद साहब ज़रुरत पड़ी तो मैं भोजपुरी के लिए खुद को बेंच दूंगा, पर अपनी कमाई के लिए भोजपुरी को नहीं बेचूंगा। और वह चुपचाप अपनी टीम को ले कर वापस इलाहाबाद लौट आए। सोचिए कि एक वह दिन था भोजपुरी गायकी का, एक यह दिन है कि ढेर सारे गायक लोग अपनी प्रसिद्धी और पैसे के लिए भोजपुरी को नित नए दाम में नीलाम करते जा रहे हैं। भोजपुरी भाड़ में चली गई है तो उन की बला से। १९९१ में जब शुगर की बीमारी के चलते खलील का निधन हुआ तो वह ५५ साल के ही थे। उन के जनाजे में समूचा इलाहाबाद हाजिर था। हिंदू, मुसलमान, बंगाली, पंजाबी, छोटे-बड़े, अमीर गरीब सभी उपस्थित थे।
पता नहीं क्यों अब यह बार-बार लगता है कि उन के निधन के साथ ही भोजपुरी गायकी का वह स्वर्णकाल विदा हो गया। उन के गाने में ही जो कहूं तो किसी खोंतवा में लुका गई, किसी अतरे में समा गई वह भोजपुरी गायकी। अब भोजपुरी गायकी में न वह अगहन का मेला लगता है, न गोरी झुक-झुक कर धान काटती है। खलील का गाया वह एक गाना याद आता है, प्रीति में न धोखा धड़ी, प्यार में न झांसा, प्रीति करीं अइसे जइसे कटहर का लासा ! फिर वह नगाड़ा बजता है और उस की गूंज भी ! तो अब भोजपुरी गायकों ने भोजपुरी गायकी में पैसे के लिए इतनी धोखाधड़ी कर दी है, भोजपुरी गायकी को इतना झांसा दे दिया है कि बिला गई है भोजपुरी गायकी अश्लीलता और आर्केस्ट्रा के शोर में। जो अब किसी सुगना पर लोभाती नहीं है, किसी फुनगी पर लुकाती नहीं है। और किसी अंतरे, किसी खोंतवा में नहीं बाज़ार के भाड़ में समा गई लगती है ! जाने कौन सी नागिन है यह जो भोजपुरी गायकी को इस तरह डस गई है। जिसे पटना का या कहीं का भी वैद्य अब बुलाने से यह जहर उतरता नहीं दिखता हाल-फ़िलहाल ! भोजपुरी गायकी में समाया प्रीति का वह कटहर का लासा अब बिसर गया है। भोजपुरी गीतों से वह रस सूख गया है जिस में जग की जवानी झूम-झूम जाती थी। वह मादकता, मिठास और उस की मांसलता जो कभी खलील ने बोई थी, बिला गई है।
इस लिंक पर मुहम्मद खलील को सुनें :
https://www.youtube.com/watch?v=fLPeS-Xh9LU
Friday, 15 November 2013
विपदा की नदी से पार ले जाती, विलाप की बांसुरी में डूबी कविताएं
असल में जैसे कोई स्त्री स्वेटर बुनती है वैसे ही नरेश सक्सेना की कविता सांघातिक तनाव बुनती है। जैसे कोई स्त्री मटर छीलती है वैसे ही नरेश की कविता व्यवस्था के खाल छीलती है। वह कविता में खतरे के निशान गढ़ते है ऐसे जैसे वह बता रहे हों कि चीज़ें, सारी चीज़ें खतरे के निशान पार कर गई हों जैसे बाढ़ में उफ़नाई किसी शहर की कोई नदी खतरे के निशान पार कर गई हो। जैसे कोई समाज अपनी ही असंगतियों से टूट रहा हो, और उस में फंसा व्यक्ति छटपटा रहा हो। जैसे कोई व्यवस्था अपनी ही हिप्पोक्रेसी से, अपने ही गुरुर से लोगों की नसों को तड़का रही हो और नरेश अपनी कविता की नाव लिए खड़े हों और कह रहे हों कि आओ इस विपदा की नदी से तुम्हें पार ले चलूं। नरेश की कविता में यही तनाव बुलबुले की तरह आ कर फूट पड़ता है। और एक आश्वश्ति भी देता है :
क्या वह डर और लाचारी और शर्मिंदगी
शीशे की तरह उस के चेहरे में
आप ने नहीं देखी
जो उसे अपनी कविताओं के पीछे
छिपने पर मज़बूर करती है
जिस नदी में डूबो कर हत्याएं की गईं
क्या उस ने बहना बंद कर दिया
जिस पेड़ के नीचे बलात्कार हुए
क्या उस ने खिलना छोड़ दिया
देखिए यह प्यारा और मासूम चेहरा
कहीं किसी बहती हुई नदी
किसी फूलों भरे पेड़ का तो नहीं है
कभी-कभी गुर्राता
और उसी के साथ पूंछ हिलाता
यह आदमी का चेहरा है ही नहीं।
नरेश की कविता में बेचैनी है, छटपाहट है, लेकिन हाहाकार नहीं है। हां उम्मीद की कुछ सलवटें ज़रुर दस्तक देती मिलती हैं। अज्ञेय की कविता का औचक सौंदर्य उन की कविता में बड़े हौले से उतरता है जैसे किसी नवयौवना का पांव हो ठहरे हुए जल में उतरता हुआ। शमशेर की वह सरलता जैसे कोई पुरवा बह गई हो। और मुक्तिबोध की वह आग अपने ताप में जैसे झुलसा गई हो। नरेश की कविता में लोग तो लोग चट्टानें तक उड़ती और झुलसी मिलती हैं, अपनी खुशफ़हमी में जीती हुई, झुलस कर अपनी संवेदना में सिसकती हुई स्वर पाती हैं :
चट्टानें उड़ रही हैं
बारूद के धुंएं और धमाकों के साथ
चट्टानों के कानों में भी उड़ती-उड़ती
पड़ी तो थी अपने उड़ाए जाने की बात
वे बड़ी खुश थीं
उन्हें लगता था
उन्हें उड़ाने के लिए वे लोग
पंख ले कर आएंगे।
नरेश सक्सेना अपनी कविता में इसी तरह छोटे-छोटे व्यौरे के साथ एक बड़ी टीस बोते चलते हैं और पिन की तरह, किसी शीशे की किरिच की तरह चुभन टांक देते हैं। जो मन में निरंतर दरकती और किसी कपड़े की तरह मसकती रहती है। गश्त मारती रहती है यह चुभन। यह टीस। कि कविता से भले आप बाहर निकल आएं, इस टीस और चुभन से तो हरगिज़ नहीं। हां लेकिन उन की कविता में उम्मीद की एक थपकी भी निरंतर मिलती चलती है जो किसी सरदी की धूप सी मनुष्यता पर न्यौछावर भी होती चलती है। दरवाज़ा उन की ऐसी ही एक कविता है। जो तमाम ऊबड़-खाबड़ तय करती हुई इस राह तक ले आती है :
दरवाज़ा होना तो किसी ऐसे घर का
जिस पर पड़ने वाली थपकियों से ही
समझ लेते हों घर के लोग
कि कौन आया है, परिचित या अपरिचित
और बिना डरे कहते हों हर बार
खुला है चले आइए।
ऐसी निडरता और निश्चिंतता, ऐसी थाप, ऐसी थपकी नरेश की कविताओं में भी पानी की तरह मिलती है। कभी-कभी पान की तरह भी। कि मुंह में जाते ही घुल जाए। ठीक ऐसे ही जैसे उन की पानी की इंजीनियरी,उन का फ़िल्मकार, उन का बांसुरी-वादक भी उन की कविताओं में जब-तब ऐसे झांकता फिरता है जैसे कोई बच्चा अपनी मां की गोद से झांक रहा हो। न सिर्फ़ झांक रहा हो बल्कि मचल रहा हो कि मां, हम अब गोद से उतरेंगे भी। नरेश की कविताओं में यह सब कुछ सायास नहीं अनायास घटता मिलता है। उन की कविता में शब्द के साथ लय और अर्थ भी एक साथ इसी लिए गूंजते हैं:
शिशु लोरी के शब्द नहीं
संगीत समझता है
बाद में सीखेगा भाषा
अभी वह अर्थ समझता है
वह भाषा से बाहर कविता में इसी बात को जैसे और आगे ले जाते हैं :
बेहतर हो
कुछ दिनों के लिए हम लौट चलें
उस समय में जब मनुष्यों के पास भाषा नहीं थी
और हर बात
कह के नहीं, कर के दिखानी होती थी।
पहले बच्चे के जन्म से पहले कविता में बात यही है पर उस की अर्थध्वनि बदल जाती है :
सांप के मुंह में दो जुबाने होती हैं
मेरे मुंह में कितनी हैं
अपने बच्चे को दुआ किस ज़ुबान से दूंगा
खून सनी उंगलियां
झर तो नहीं जाएंगी पतझर में
अपनी कौन-सी उंगली उसे पकड़ाऊंगा
सात रंग बदलता है गिरगिट
मैं कितने बदलता हूं
किस रंग की रोशनी का पाठ उसे पढ़ाऊंगा
आओ मेरे बच्चे
मुझे पुनर्जन्म देते हुए
आओ मेरे मैल पर तेज़ाब की तरह !
नरेश की यह या ऐसी और कविताओं से भी एक गहरी यातना, एक गहरा घाव बरबस छलक पड़ता है। यह कविताएं निश्चय ही एक तीक्ष्ण अनुभव से हमें गुज़ारती हैं। नरेश की कविता नारे वाली कविता नहीं है। वह जैसे संवेदना की कविता लिखते हैं और संवेदना की अनेक गुफाओं से, अनेक सुरंगों और अनेक रंगों से गुज़ारते हुए हमें लिए चलते हैं। और भीतर ही भीतर झकझोर कर रख देते हैं:
नींद पलकों में सुलग कर बुझ गई जैसे
स्याह कड़ुवा धुंआं आंखों में घुमड़ता है
उजाले से घिरे इस गहरे धुंधलके में
एक घायल दृष्य चारों तरफ़ उड़ता है।
नरेश की कविताओं में एक ही चीज़ कई-कई बार और कई-कई तरह से उपस्थित होती रहती है। जैसे कि पुल, जैसे कि ईंट, जैसे कि प्रकृति, कौए, लालटेन, बरसात, पत्ते आदि। अब देखिए कि पार कविता में वह लिखते हैं :
पुल पार करने से
पुल पार होता है
नदी पार नहीं होती
नदी पार नहीं होती नदी में धंसे बिना
पर उन की दूसरी कविता सेतु में उन की ध्वनि बदल कर और घायल कर जाती है :
सेनाएं जब सेतु से गुज़रती हैं
तो सैनिक अपने कदमों की लय तोड़ देते हैं
क्यों कि इस से सेतु टूट जाने का खतरा
उठ खड़ा होता है
एक ईंट भी देखिए कि नरेश के यहां कितने-कितने तरह से उपस्थित होती है। और हर बार उस का अर्थ, उस की ध्वनि, यहां तक कि उस की काया, कार्य और धर्म भी बदलता जाता है :
ईंटों के चट्टे की छाया में
तीन ईंटें थीं एक मज़दूरनी का चूल्हा
दो उस के बच्चे की खुड्डी बनी थीं
एक उस के थके हुए सिर के नीचे लगी थी
बाद में जो लगने से बच गईं
उन को तो करने थे और बड़े काम
वह इसी कविता में जैसे पूछते फिरते हैं :
अगर लखनऊ की ईंटें बनी हैं
लखनऊ की मिट्टी से
तो लखनऊ के लोग क्या किसी और मिट्टी से बने हैं।
ईंटें दो में ईंट जैसे धधकने लगती है :
एक दिन सदियों पुराने अंधकार से
बाहर निकल आएंगी
रोशनी से भरी ईंटें
और बताएंगी अपने समय की
घृणा और हिंसा और सहिष्णुता के बारे में
हम तो होंगे नहीं
पता नहीं पृथ्वी पर जीवन भी होगा या नहीं
शायद आण्विक राख से सनी हुई
ईंटें ही कहेंगी कथा
और ईंटें ही सुनेंगी।
जाने यह अनायास है कि सायास कि क्या है नरेश सक्सेना की कविताओं में भवानी प्रसाद मिश्र की धमक भी जब-तब आती रहती है। उन की सरलता भी, उन का अंदाज़ भी, ध्वनि विन्यास भी और उन का वह प्रकृति से लगाव भी। भवानी प्रसाद मि्श्र लिखते हैं, ' अभी बैन, अभी बान, अभी बानों के सिलसिले !' तो नरेश लिखते हैं, ' अभी अभी पत्थर/ अभी अभी पानी/ अभी अभी जानवर/ अभी अभी आदमी/ वे कटे हुए होंठ/ टूटी हुई नाक और फूटी हुई आंखें।' समुद्र पर हो रही है बारिश में भी वह इस अंदाज़ को भूलते नहीं हैं, ' अभी-अभी बादल/ अभी-अभी बर्फ़/ अभी-अभी बर्फ़/ अभी-अभी बादल।' वह तो लिखते हैं, 'पूरी नदी पत्थरों से भरी है/ जैसे कि यह पानी की नहीं, पत्थरों की नदी हो/ अचानक शीशे की तरह कुछ चमकता है/ एक खास कोण पर/ हर पत्थर सूर्य हो जाता है।/ चंद्रमा हो जाता होगा, चांदनी रातों में,/ हर पत्थर ' इस लंबी कविता में वह एक जगह लिखते हैं, ' हम कितने जल्दी भूल जाते हैं/ अपने रिश्ते/ पत्थर नहीं भूलते।' कन्हैयालाल नंदन अपनी एक कविता में सीधे ईश्वर से टकराते मिलते हैं. वह साफ कहते हैं कि 'लोग तुम्हारे पास प्रार्थना ले कर आते हैं/मैं ऐतराज़ ले कर आ रहा हूं.' तो नरेश सक्सेना भी अपनी सूर्य कविता में जैसे सूर्य को चुनौती ही नहीं देते, उसे खारिज़ भी कर देना चाहते हैं :
ऊर्जा से भरे लेकिन
अक्ल से लाचार, अपने भुवन भास्कर
इंच भर भी हिल नहीं पाते
कि सुलगा दें किसी का सर्द चूल्हा
ठेल उढ़का हुआ दरवाज़ा
चाय भर की ऊष्मा औ' रोशनी भर दें
किसी बीमार की अंधी कुठरिया में
सुना संपाती उड़ा था
इसी जगमग ज्योति को छूने
झुलस कर देह जिस की गिरी धरती पर
धुआं बन पंख जिस के उड़ गए आकाश में
हे अपरिमित ऊर्जा के शोत
कोई देवता हो अगर सचमुच सूर्य तुम तो
क्रूर क्यों हो इस कदर
तुम्हारी यह अलौकिक विकलांगता
भयभीत करती है।
दीवारें कविता में भी उन का स्वर यही है, ' ढहता है पूरा इतिहास/ देखो तो दिख जाए शायद/ किसी कोने में लिखी कोई तारीख/ कोई फ़ोन नंबर/ और उंगलियों से लिखा कोई नाम।' कई बार नरेश की कविताओं मे विलाप भी मिलता है। जैसे किसी स्त्री का विलाप हों उन की कविताएं। अधिकाधिक कविताओं में विलाप जुदा-जुदा कारणों में लिपटा और चुभता मिलता है। लेकिन यह विलाप दहाड़ में तब्दील होता भी नहीं मिलता है उन की कविताओं में। कई बार वह नीम की पत्तियों के झरने में दिखता है तो कभी किसी और बहाने। चुभता हुआ, टीस देता हुआ। देखना जो ऐसा ही रहा में यह विलाप ऐसे न्यस्त है जैसे वह किसी विलाप की कोई डाक्यूमेंट्री रच रहे हों, ' देखना जो ऐसा ही रहा तो, एक दिन/ पेड़ नहीं होंगे/ घोंसले नहीं होंगे/ चिड़िया ज़रुर होंगी, लेकिन पिंजरों में/ नदिया नहीं होंगी/ झीलें नहीं होंगी/ मछलियां ज़रुर होंगी लेकिन टोकरियों में।/ जंगल नहीं होंगे/ झाड़ियां नहीं होंगी/ खरगोश और हिरन ज़रुर होंगे/ लेकिन सर्कस में साइकिल चलाते हुए/ बस्तियां नहीं होंगी,/ मनुष्य नहीं होंगे,/ सिर्फ़ बाज़ार होंगे, जहां होंगी कविताएं/ पेड़ों, नदियों, चिड़ियों, मछलियों और खरगोशों का/ विज्ञापन करती हुई।' कितनी भयावह स्थिति को कल्पित करते हैं नरेश इस एक छोटी सी सरल कविता में। वह ऐसे नैरेट करते हैं इन स्थितियों को जैसे मनुष्यता को रौंद गया हो कोई, प्रकृति बच गई हो किसी तरह। अपनी ताकत से। उन की इस कविता में यह जो विज्ञापन का बिंब है न बिलकुल मार डालने वाला है। लेकिन चुपके से। नीम की पत्तियां बहुत से कवियों की कविता में झरती मिलती हैं। खास कर केदारनाथ सिंह की कविता में तो वह उदासी का रुपक ले कर आती है।
झरने लगे नीम के पत्ते बढ़ने लगी उदासी मन की,
उड़ने लगी बुझे खेतों से
झुर-झुर सरसों की रंगीनी,
धूसर धूप हुई मन पर ज्यों-
सुधियों की चादर अनबीनी,
दिन के इस सुनसान पहर में रुक-सी गई प्रगति जीवन की ।
लेकिन नरेश के यहां नीम की पत्ती की जो खनक है, जो संगीत है और जो उस की गमक है एक आह्लादकारी विलाप का जो आस्वाद है वह कहीं और किसी कविता में उपस्थित नहीं है। वह लिखते हैं, ' कितनी सुंदर होती हैं पत्तियां नीम की/ ये कोई कविता क्या बताएगी/ जो उन्हें मीठे दूध में बदल देती है/ उस बकरी से पूछो/ पूछो उस मां से/ जिस ने अपने शिशु को किया है निरोग उन पत्तियों से/ जिस के छप्पर पर उन का धुआं/ ध्वजा की तरह लहराता है/ और जिस के आंगन में पत्तियां/ आशीषों की तरह झरती हैं।' एक और कविता में नीम के पेड़ के कटने का विलाप कैसे तो किसी स्त्री की रुदन की तरह वह दर्ज करते हैं, ' देखो कैसे कटी उस की छाल/ उस की छाल में धंसी कुल्हाड़ी की धार/ मेरे गीतों में धंसी मनौती में धंसी/ मेरे घावों में धंसी/ कुल्हाड़ी की धार।' नरेश के यहा अगर नीम की पत्तियां हैं तो चीड़ की भी हैं। बिलकुल निर्मल वर्मा की किसी कहानी की तरह भेद खोलती। असल में नरेश की कविताओं की एक अदा यह भी है कि वह धीरे-धीरे खुलती हैं, जैसे कोई स्त्री धीरे-धीरे खुलती हो ! स्त्री और प्रकृति ही नरेश की कविताओं की एक स्थाई छवि है।
जैसे स्त्री और प्रकृति मासूम, कोमल और अपनी नैसर्गिकता में उदात्त होती हैं नरेश सक्सेना की कविताएं भी उसी तरह, उसी मुलायमियत में तरबतर मिलती हैं। जैसे स्त्री और प्रकृति अपने त्याग और हरदम दाता रुप में ही मनुष्यता के सामने उपस्थित मिलती हैं, नरेश की कविताओं में भी उन का यह रुप अविकल रुप में हमारे सामने उपस्थित होता है। जैसे उन की एक कविता है पृथ्वी। पृथ्वी केदार के यहां भी है :
मुझे विश्वास है
यह पृथ्वी रहेगी
यदि और कहीं नहीं तो मेरी हड्डियों में
यह रहेगी जैसे पेड़ के तने में
रहते हैं दीमक
जैसे दाने में रह लेता है घुन
यह रहेगी प्रलय के बाद भी मेरे अंदर
यदि और कहीं नहीं तो मेरी ज़बान
और मेरी नश्वरता में
यह रहेगी
और एक सुबह मैं उठूंगा
मैं उठूंगा पृथ्वी-समेत
जल और कच्छप-समेत मैं उठूंगा
मैं उठूंगा और चल दूंगा उस से मिलने
जिस से वादा है
कि मिलूंगा।
पर नरेश की पृथ्वी तो जैसे अविरल है, अलौकिक है। ऐसी पृथ्वी की कल्पना शायद ही किसी कवि के यहां उपस्थित हो। नरेश की पृथ्वी तो स्त्री से भी नीचे है। स्त्री ऊपर है, पृथ्वी नीचे है नरेश की कविता में। स्त्री और पृथ्वी का यह रुपक वास्तव में एक संयुक्त विलाप का आख्यान है। स्त्री के विलाप में डूबी उन की कविताओं की जो बांसुरी है, उस की विपदा में नहाई जो आंच है न, वह जो अर्थ, जो ध्वनि, जो आग, जो संगीत रचती है, वह समूचा आप को लपेट लेती है अपने आप में और आप अबोले हो जाते हैं। नि:शब्द हो जाते हैं। थर-थर कांपते हुए। कविता जैसे कलपती हुई पूछती है पृथ्वी से :
पृथ्वी क्या तुम कोई स्त्री हो
तुम्हारी सतह पर कितना जल है
तुम्हारी सतह के नीचे भी जल ही है
लेकिन तुम्हारे गर्भ में
गर्भ के केंद्र में तो अग्नि है
सिर्फ़ अग्नि
पृथ्वी क्या तुम कोई स्त्री हो
नरेश की कविता में जो आर्द्रता और इस का जो गिरता-चढ़ता तापमान है वह कम से कम हिंदी कविता में बहुत जगह नहीं मिलता। उन की कविताओं में जो यत्र-तत्र अंतर्मन की आर्द्र पुकार है वह बार-बार दर्ज करने का अनकहा आग्रह करती चलती है :
कैसे पुकारे
मीठे पानी में रहने वाली मछलियों को
प्यासों को क्या मुंह दिखाए
कहां जा कर डूब मरे
खुद अपने आप पर बरस रहा है समुद्र
समुद्र पर हो रही है बारिश
कई बार नरेश अपनी कविताओं में व्यवस्था पर ऐसे चिकोटी काटते हैं गोया कोई चींटी हाथी के सूंड़ में काट रही हो :
लेकिन क्या किसी जज को दिखेंगे
लहराते हुए चाबुक और झुकी हुई पीठों पर
उभरती हुई धारियां इन धारियों में
क्यों कि जज साहब के पास भी तो
होगी एक मेज़
और उस पर बिछा होगा मेज़पोश।
नक्शे कविता में भी एक अजब छटपटाहट दिखती है :
नक्शे में जंगल हैं पेड़ नहीं नक्शे में नदियां हैं पानी नहीं
नक्शे में पहाड़ हैं पत्थर नहीं
समझ ही गए होंगे आप कि हम सब
एक नक्शे में रहते हैं
किले में बच्चे कविता में वह जैसे व्यवस्था की पोल ही नहीं खोलते, उस का खोखलापन ही नहीं बांचते, चोट भी भरपूर करते हैं :
अब वे पूछ रहे हैं सवाल
कि सुलतान के घर का इतना बड़ा दरवाज़ा
उस की इतनी ऊंची दीवारें
उन के चारो तरफ़ इतनी सारी खाइयां
इतने सारे तहखाने छुपने के लिए
और भागने के लिए इतनी लंबी सुरंगे
और चोर रास्ते
आखिर...
सुल्तान इतना डरपोक क्यों था !
नरेश के सवाल अपने कवि से भी हैं। परसाई जी के बहाने वह अपनी पड़ताल भी करते हैं और शायद समूचे कविता परिदृष्य की भी :
पैंतालिस साल पहले, जबलपुर में
परसाई जी के पीछे लगभग भागते हुए
मैं ने सुनाई अपनी कविता
और पूछा
क्या इस पर ईनाम मिल सकता है
"अच्छी कविता पर सज़ा भी मिल सकती है"
सुन कर मैं सन्न रह गया
क्यों कि उसी शाम, विद्यार्थियों की कविता प्रतियोगिता में
मैं हिस्सा लेना चाहता था
और परसाई जी उस की अध्यक्षता करने वाले थे।
आज जब सुन रहा हूं, वाह, वाह
मित्र लोग ले रहे हैं हाथों हाथ
सज़ा जैसी कोई सख़्त बात तक नहीं कहता
तो शक होने लगता है
परसाई जी की बात पर, नहीं
अपनी कविता पर।
नरेश की कविताओं में ६ दिसंबर भी ह, गुजरात भी है, कौए भी कई-कई बार हैं। रोशनी है, बारिश है, दीमक और चिड़िया हैं, पानी है, सीढ़ी है और बच्चे भी। फूल भी हैं और पत्ते भी। लेकिन इन सब में जो एक बात है, जो एक तत्व है वह है रुदन, वह है विलाप। फूल तक विलाप करते हैं उन की कविताओं में। पानी भी। पर पानी कैसे लड़ता भी है इस विलाप में एक यह स्वर यह भी देखें :
आज जब पड़ रही है कड़ाके की ठण्ड
और पानी पीना तो दूर
उसे छूने से बच रहे हैं लोग
तो ज़रा चल कर देख लेना चाहिए
कि अपने संकट की इस घड़ी में
पानी क्या कर रहा है.
अरे ! वह तो शीर्षासन कर रहा है
सचमुच झीलों, तालाबों और नदियों का पानी
सिर के बल खड़ा हो रहा है
सतह का पानी ठण्डा और भारी हो
लगाता है डुबकी
और नीचे से गर्म और हल्के पानी को
ऊपर भेज देता है ठण्ड से जूझने
नरेश सक्सेना के यहां विलाप भी किसिम-किसिम के हैं। पानी का विलाप है तो मौसम का विलाप भी है। किसान का विलाप भी वह नहीं भूलते। किसान के विस्थापन की तफ़सील वह बारिश में बांचते हैं। इस बारिश में उन की ऐसी ही कविता है :
जिस के पास चली गई मेरी ज़मीन
उसी के पास अब मेरी
बारिश भी चली गई
अब जो घिरती हैं काली घटाएं
उसी के लिए घिरती है
कूकती हैं कोयलें उसी के लिए
उसी के लिए उठती है
धरती के सीने से सोंधी सुगंध
अब नहीं मेरे लिए
हल नही बैल नहीं
खेतों की गैल नहीं
एक हरी बूँद नहीं
तोते नहीं, ताल नहीं, नदी नहीं, आर्द्रा नक्षत्र नहीं,
कजरी मल्हार नहीं मेरे लिए
जिस की नहीं कोई ज़मीन
उस का नहीं कोई आसमान।
छोटी-छोटी कविता में बड़ी-बड़ी बात कह जाने वाले नरेश सक्सेना के नाम कुछ बड़ी-बड़ी कविताएं भी दर्ज हैं। गिरना उन की लंबी कविता है। लेकिन इस गिरना में भी एक आह्वान है, एक जद्दोजहद और जूझ है :
बचपन से ऐसी नसीहतें मिलती रहीं
कि गिरना हो तो घर में गिरो
बाहर मत गिरो
यानी चिट्ठी में गिरो
लिफ़ाफ़े में बचे रहो, यानी
आँखों में गिरो
चश्मे में बचे रहो, यानी
शब्दों में बचे रहो
अर्थों में गिरो
गिरना की तफ़सील इतनी है, उस का विस्तार इतना है कि बस पूछिए मत :
गिरो जैसे गिरती है बर्फ़
ऊँची चोटियों पर
जहाँ से फूटती हैं मीठे पानी की नदियाँ
गिरो प्यासे हलक में एक घूँट जल की तरह
रीते पात्र में पानी की तरह गिरो
उसे भरे जाने के संगीत से भरते हुए
गिरो आँसू की एक बूंद की तरह
किसी के दुख में
गेंद की तरह गिरो
खेलते बच्चों के बीच
गिरो पतझर की पहली पत्ती की तरह
एक कोंपल के लिये जगह खाली करते हुए
गाते हुए ऋतुओं का गीत
कि जहाँ पत्तियाँ नहीं झरतीं
वहाँ वसंत नहीं आता'
गिरो पहली ईंट की तरह नींव में
किसी का घर बनाते हुए
इसी कविता में वह लिखते हैं, 'चीज़ों के गिरने की असलियत का पर्दाफ़ाश हुआ/ सत्रहवीं शताब्दी के मध्य,' इस के मार्फ़त वह इतिहास के अंतर्विरोध भी टटोलते हैं। अज्ञेय की कविताओं में मॄत्यु का विलाप और विवरण बहुत मिलता है लेकिन नरेश के यहां इस की गूंज अलग तरह से विन्यस्त है। इसी कविता में वह कहते हैं :
गिर गए बाल
दाँत गिर गए
गिर गई नज़र और
स्मृतियों के खोखल से गिरते चले जा रहे हैं
नाम, तारीख़ें, और शहर और चेहरे...
और रक्तचाप गिर रहा है
तापमान गिर रहा है
गिर रही है ख़ून में निकदार होमो ग्लोबीन की
खड़े क्या हो बिजूके से नरेश
इस से पहले कि गिर जाए समूचा वजूद
एकबारगी
तय करो अपना गिरना
अपने गिरने की सही वज़ह और वक़्त
और गिरो किसी दुश्मन पर
गाज की तरह गिरो
उल्कापात की तरह गिरो
वज्रपात की तरह गिरो
मैं कहता हूँ
गिरो
कैलाश गौतम का एक गीत है, 'हंसो और धार-धार तोड़ कर हंसो !/ ओ मेरी लौंगकली पान में हंसो तुम/ गुबरीले आंगन, दालान में हंसो/ बरखा की पहली बौछार हंसो तुम !' इस कविता में कैलाश गौतम की यह ध्वनि-योजना भी गूंजती है, उस का मनुहार भी। रघुवीर सहाय की उजली हंसी के छोर पर के बिंब भी भी। सुनो चारुशीला नाम से नरेश सक्सेना का एक संग्रह ही है। इस कविता को उन्हों ने अपनी पत्नी को संबोधित किया है। पत्नी वियोग में बहुतेरी कविताएं हैं हिंदी में और हिंदी से इतर भी। पर सुनो चारुशीला का जो अंतर्नाद है वह विरल है। ऐसे जैसे किसी सोते से फूट रहा निर्झर आंसू है :
तुम अपनी दो आँखों से देखती हो एक दृश्य
दो हाथों से करती हो एक काम
दो पाँवों से
दो रास्तों पर नहीं एक ही पर चलती हो
सुनो चारुशीला !
एक रंग और एक रंग मिल कर एक ही रंग होता है
एक बादल और एक बादल मिल कर एक ही बादल होता है
एक नदी और एक नदी मिल कर एक ही नदी होती है
नदी नहीं होंगे हम
बादल नहीं होंगे हम
रंग नहीं होंगे तो फिर क्या होंगे
अच्छा ज़रा सोच कर बताओ
कि एक मैं और तुम मिल कर कितने हुए
क्या कोई बता सकता है
कि तुम्हारे बिन मेरी एक वसंत ऋतु
कितने फूलों से बन सकती है
और अगर तुम हो तो क्या मैं बना नहीं सकता
एक तारे से अपना आकाश
नरेश की कविता के आकाश में ऐसे कई बिंब हैं जो अन्यत्र किसी और की कविता में नहीं मिलते :
टूटते तारों की आवाज़ें सुनाई नहीं देतीं
वे इतनी दूर होते हैं
कि उन की आवाज़ें कहीं
राह में भटक कर रह जाती हैं
हम तक पहुंच ही नहीं पातीं
कविता के नरेश कभी गीतों के भी राजकुमार हुआ करते थे यह बात लोग क्या शायद नरेश सक्सेना भी भूल चले होंगे। लेकिन यहां जो उन के उन गीतों की पुलक को, उस अनफूले कचनार को जो नहीं याद करेंगे तो शायद बात अधूरी मानी जाएगी:
वही शाम पीले पत्तों की
गुमसुम और उदास
वही रोज़ का मन का कुछ-
खो जाने का एहसास
टाँग रही है मन को एक नुकीले खालीपन से
बहुत दूर चिड़ियों की कोई उड़ती हुई कतार ।
फूले फूल बबूल कौन सुख, अनफूले कचनार ।
जाने; कैसी-कैसी बातें
सुना रहे सन्नाटे
सुन कर सचमुच अंग-अंग में
उग आते हैं काँटें
बदहवास, गिरती-पड़ती-सी; लगीं दौड़ने मन में-
अजब-अजब विकृतियाँ अपने वस्त्र उतार-उतार
फूले फूल बबूल कौन सुख, अनफूले कचनार ।
या फिर
सूनी संझा, झॉंके चाँद
मुड़ेर पकड़ कर आँगना
हमें, कसम से नहीं सुहाता---रात-रात भर जागना
और
तनिक देर को छत पर हो आओ
चांद तुम्हारे घर के पिछवारे निकला है।
नरेश सक्सेना का काव्यपाठ जिस भी किसी ने सुना है, वह जानता है कि कैसे तो वह अपने काव्यपाठ में अपनी कविताओं का विलाप भी बउरा-बउरा कर बांचते हैं। लेकिन वह चीखते-चिल्लाते नहीं हैं। आकुल भाव में जब वह अपनी कविता में बोलते हैं तो जैसे घटा घहरा जाती है। विलाप आर्तनाद बन कर फूट पड़ता है :
कहते हैं रास्ता भी एक जगह होता है
जिस पर ज़िंदगी गुज़ार देते हैं लोग
और रास्ते पांवों से ही निकलते हैं
पांव शायद इसी लिए पूजे जाते हैं
हाथों को पूजने की कोई परंपरा नहीं
हमारी संस्कृति में
ये कितनी अजीब बात है !
नरेश की कविताओं में कई बातें इतने चुपके से दर्ज़ होती हैं कि जैसे कोई हवा आप को छू कर निकल जाए और आप अचानक उस के स्पर्श के बाद जागें और उस की लपट में लिपट जाएं। मुर्दे कविता का पाठ ऐसे ही है :
मरने के बाद शुरू होता है
मुर्दों का अमर जीवन
दोस्त आएँ या दुश्मन
वे ठंडे पड़े रहते हैं
लेकिन अगर आपने देर कर दी
तो फिर
उन्हें अकडऩे से कोई नहीं रोक सकता
मज़े ही मज़े होते हैं मुर्दों के
बस इसके लिए एक बार
मरना पड़ता है ।
नरेश सक्सेना की कविता में यह मरना, यह अकड़ को तोड़ना जैसा मेटाफ़र बार-बार संभव बनता मिलता है। उन की एक कविता है धातुएं। उस का एक रंग देखिए :
अभी वे विचारों में फैल रही हैं लेकिन
एक दिन वे बैठी मिलेंगी
हमारी आत्मा में
फिर क्या होगा
गर्मी में गर्म और सर्दी में ठंडी
खींचो तो खिंचती चली जाएंगी
पीटो तो पिटती चली जाएंगी
ऐसा भी नहीं है
कि इस से पूरी तरह बेख़बर हैं लोग
मुझ से तो कई बार पूछ चुके हैं मेरे दोस्त
कि यार नरेश
तुम किस धातु के बने हो!
नरेश के यहां यह अंदाज़ कई बार और कई कविताओं में मिलता है और गुमसुम कर देता है। आदमी ही नहीं मछली , बच्ची और पर्यावरण का बारीक संघर्ष कैसे तो तिल-तिल कर सामने आता जाता है, चुपचाप :
पापा, इस पर मछली बना दो
मैं ने उसे छेड़ने के लिए काग़ज़ पर लिख दिया- मछली
कुछ देर राखी उसे गौर से देखती रही
फिर परेशान हो कर बोली- यह कैसी मछली !
पापा, इस की पूँछ कहाँ और सिर कहाँ
मैं ने उसे समझाया
यह मछली का म
यह छ, यह उस की ली
इस तरह लिखा जाता है- म...छ...ली
उसने गंभीर हो कर कहा- अच्छा ! तो जहाँ लिखा है मछली
वहाँ पानी भी लिख दो
तभी उस की माँ ने पुकारा तो वह दौड़ कर जाने लगी
लेकिन अचानक मुड़ी और दूर से चिल्ला कर बोली-
साफ़ पानी लिखना, पापा !
नरेश की कविता में यह अचानक जो चोट है न वह हिलाती भी है और उकसाती भी है। नरेश हालां कि स्त्री संवेदना को परिभाषित करने वाले, स्त्री के विलाप की तरह कविता में अपने रंग के लिए जाने जाते हैं। पर उन की एक कविता है मोनोपाज़। इस कविता में जो उन का एक डर है, उन का जो संशय है कुछ स्त्रियों को वह आपत्तिजनक लगा है। बावजूद इस के उस कविता का भय, संशय और मानी गौरतलब है :
मोनोपाज के निकट पहुंचती स्त्रियों को
डराते हैं धर्मग्रंथ
जिन में स्त्रियों को
पुरुषों की खेतियां बताया जाता है
स्त्रियां जानती हैं
बंजर ज़मीनों का हश्र, जिन्हें
उन के मालिक
बेच देना चाहते हैं
लेकिन ग्राहक ढूंढे नहीं मिलता
हालां कि नरेश की यह कविता उन के किसी संग्रह में नहीं मिलती है लेकिन इस कविता पर स्त्री विरोधी कविता होने का प्रतिवाद तो दर्ज है। ठीक वैसे ही जैसे धूमिल की एक कविता में , जिस-जिस की पूंछ उठाया, मादा पाया, को भी स्त्री विरोधी होने का प्रतिवाद अब दर्ज होने लगा है। नरेश के कविता संग्रह में कुछ कविताओं के पाठ भी बदल गए हैं। बिना किसी नोट के। हालां कि नरेश सक्सेना बहुत कम लिखने वाले कवियों में शुमार हैं पर उन की नोटिस हिंदी कविता में बहुत ज़्यादा लिखने वाले से कहीं ज़्यादा ली जाती है। हालां कि उन के चित्ताकर्षक गीतों का कोई संग्रह नहीं है तो शायद उन के आलस में ही वह कहीं दुबका हुआ है। या किसी अहिल्या की तरह उसे किसी राम रुपी सुशीला पुरी की प्रतीक्षा है जो नरेश सक्सेना के गीतों की सुधि ले और उसे किसी संग्रह की शक्ल दे। या कोई ज्ञानरंजन उन्हें फिर कोई पहल सा सम्मान दे ताकि उन के गीतों और बची हुई कविताओं की बांसुरी हम सब को सुनाए। उन की कविताओं में गुथी विलाप की बांसुरी। विपदा की नदी से पार ले जाती कविताओं की बासुरी !
Sunday, 10 November 2013
कथाक्रम और शुतुरमुर्गी अदा के मारे लफ़्फ़ाज़ रणबांकुरे !
कथाक्रम के दो दिवसीय सम्मेलन में इस बार हिंदी लेखकों की लफ़्फ़ाज़ी के क्या कहने ? अजब नज़ारा था। यह जो हिंदी लेखक किसी प्रकाशक से रायल्टी की बात करने के सपने से भी डर जाते हैं, उलटे पैसा दे कर किताब छपवाने के उपक्रम में लगे रहते हैं। संपादकों की इच्छा कहिए डिक्टेशन कहिए अपनी रचना में शीर्षासन कर पूरी करते हैं। तीन सौ या पांच सौ किताब छपने का रोना रोते हैं। गरज यह कि पाठकों से वंचित और कुंठित यह लेखक खुद ही पाद कर खुद ही खुश हो लेते हैं। [दूसरों को इस से दिक्कत हो या बदबू आए , इस से उन को फ़र्क नहीं पड़ता।] ऐसे लेखक भूमंडलीकृत समाज और साहित्य की मशाल विषय पर धुंआंधार लफ़्फ़ाज़ी का धुंआ ऐसे छोड़ रहे थे गोया कोयले वाला इंजन हों। साबित यही हुआ कि जैसी बांझ रचनाएं यह हिंदी लेखक करते हैं, वैसी ही बांझ बहस भी वह करते हैं। कि बताइए दू ठो पाठक बटोर नहीं सकते, चार ठो श्रोता बटोर नहीं सकते और लड़ेंगे भूमंडलीकरण से। आग लगा देंगे समूची व्यवस्था में।
यह सारी लफ़्फ़ाज़ी देख-सुन कर बार-बार पाकिस्तान की याद आती रही। कि जैसे पाकिस्तान अमरीका के दिए गए भीख से पेट भरता है, हथियार भी अमरीका से भीख में लेता है और हिंदुस्तान पर भूंकता रहता है अमरीका के दम पर। और जब अमरीका वहां ड्रोन हमले करता है और वहां के लोगों को जब-तब मारता रहता है तो पाकिस्तान अमरीका पर गुर्राता है कि अब जो कर लिया सो कर लिया, अब जो ड्रोन हमला किया तो ठीक नहीं होगा। और अमरीका फिर जल्दी ही एक और ड्रोन हमला कर देता है। अब तो यह पाकिस्तान का यह भूकना भी लगभग बंद हो गया है। पर हमारे हिंदी लेखक अभी यह काम जारी रखे हुए हैं। इन की लफ़्फ़ाज़ी में अभी जीवन बाकी है। बताइए कि बाज़ार की सारी सहूलियत भी चाहिए और बाज़ार से युद्ध भी ? वह भी कोरी लफ़्फ़ाज़ी के बूते?
यह कौन सा अंतर्विरोध है हमारे हिंदी लेखकों ?
अहंकार में डूबा व्यवहार, सामंतवाद की हदें पार करता हुआ, शालीनता की सारी हदें तोड़ता, कि हिप्पोक्रेसी की सारी आयतें शर्मा-शर्मा जाएं। एक तो रचना नहीं और जो इक्की दुक्की हैं भी बोझिल बौद्धिकता में तरबतर रचनाएं, जिन के दो पन्ने पढ़ना भी किसी सामान्य पाठक के लिए मानसिक उमस का सबब बन जाती हैं लेकिन आप का झंडा ऊंचा रहता है। क्यों कि आप साहित्य के बाज़ार में भले न हों पर एक गिरोह में आप ज़रुर हैं। फ़ासिस्टों का विरोध करते-करते खुद फ़ासिस्ट बन जाते हैं। पर यह फ़सिज़्म, यह गिरोहबंदी कितने दिन किसी रचना, किसी रचनाकार की आयु तय करती है यह भी हम सब जानते हैं। इस लिए कि गिरोहबंदी में तात्कालिक रुप से झंडा तो ऊंचा दिखता है लेकिन सर्वकालिक बन पाता नहीं।
हमारे यह क्रांतिकारी लेखक बात तो ऐसे करते हैं कि समूची व्यवस्था में बस अभी आग लगा देंगे। लेकिन हालत यह है कि उन को आग लगाने के लिए भी ब्रेख्त, नेरुदा, नाज़िम हिकमत आदि की मदद लेनी पड़ती है। यह कभी सोचा क्या हमारे साथियों ने कि क्यों नहीं अभी तक हिंदी में भी एक ब्रेख्त का विकल्प वह रचना के स्तर खड़ा कर पाए। बताइए कि इतने सालों में हिंदी के पास कोई ब्रेख्त, कोई नेरुदा, कोई नाज़िम हिकमत क्यों नहीं हो पाया? इस लिए कि ब्रेख्त या नेरुदा, नाज़िम हिकमत कोरी लफ़्फ़ाज़ी से नहीं बनते। हमारे हिंदी के साथी इस तथ्य से जाने कब तक आंख चुराएंगे? जाने कब जागेंगे? क्या जब हिंदी समूची विदा हो जाएगी तब? तुलसीदास लिख गए हैं कि का वर्षा जब कृषि सुखाने ! लेकिन दिक्कत यह है कि आप तो तुलसीदास को भी लतियाते हैं, गरियाते हैं। विषय कोई भी हो ब्राह्मणवादी व्यवस्था के खंडहर से टकराना हमारे साथियों का प्रिय शगल है। बात अमरीकी दादागिरी से टकराने की होगी, लेकिन आप को ब्राह्मणवाद के जिन्न से फ़ुर्सत नहीं। क्या तो अमरीका भी ब्राह्मणवादी व्यवस्था का एक्सटेंशन है। अमरीका और चीन कैसे तो समूची दुनिया के बाज़ार पर काबिज़ हो गए हैं, उद्योग से लगायत भाषा तक पर वह काबिज़ हो चुके हैं पर उन से सीधे टकराने में आप को खतरा है। क्यों कि वह ताकतवर हैं। बताइए कि जिस देश में बड़े-बड़े उद्योगपति खुदरा बाज़ार में भी अपने पांव डाल दें, दाल, सब्ज़ी बेचने लग जाएं, उस देश की किसी भी भाषा का क्या होगा? सोचते हैं हमारे यह क्रांतिकारी साथी? सोचते हैं कभी यह कि मोबाइल, कंप्यूटर से लगायत कार तक कुछ भी अपने देश में क्यों नहीं बनता? जिस देश में उद्योगपति और बिल्डर सरकार खरीद लेते हों, सरकार को गुलाम बना लेते हों, घरेलू नौकर बना लेते हों और आप की सारी क्रांतिकारिता इन के खिलाफ़ खामोश हो। फिर भी आप लड़ेंगे भूमंडलीकरण से। बहुत अच्छा !
एक लतीफ़ा याद आता है। आप को भी सुनाए देता हूं।
एक मुहल्ले में एक नया परिवार बसा। सब के घर में मिया बीवी में कुछ न कुछ खटपट होती रहती थी। पर उस नए आए सज्जन के घर में बहुत दिन के बाद भी ऐसा कुछ नहीं दिखा तो एक दिन कुछ लोग उस नए आए सज्जन के घर गए। और बात ही बात में पूछ लिया घर के मुखिया से कि आखिर इस का राज़ क्या है? कैसे मैनेज करते हैं आप? जनाब बोले वेरी सिंपिल ! हम लोगों ने आपस में काम बांट लिए हैं। बड़े-बड़े काम मैं देख लेता हूं। छोटे-छोटे काम पत्नी देख लेती हैं। सो कोई झंझट नहीं होती। सिंपल ! कहते हुए जनाब खुद खुश हो लिए। अब लोगों ने पूछा कि ज़रा छोटे काम क्या हैं, और बड़े काम क्या हैं लगे हाथ यह भी बता दीजिए। जनाब बोले कि देखिए घर में क्या खाना पकेगा, क्या कपड़ा आएगा, कहां घूमने जाएंगे, क्या खरीदा जाएगा, कौन आएगा, कौन जाएगा क्या होगा, क्या नहीं होगा आदि-आदि छोटे-छोटे काम मेरी पत्नी देख लेती हैं। और बाकी बड़े-बड़े काम मैं देख लेता हूं। पूछा गया कि यह बड़े-बड़े काम क्या हैं? जनाब बोले यही कि अमरीका क्या कर रहा है, रुस और चीन में क्या हो रहा है? वियतनाम, जापान आदि में क्या हो रहा है, क्या होना चाहिए आदि-आदि मामले मैं देख लेता हूं। बताते हुए जनाब फिर खुश हुए और बोले कि इस तरह हमारे यहां सब कुछ स्मूथली हो जाता है, कोई खटपट नहीं होती। लोग समझ गए और अपने-अपने घर लौट गए। तो बस अपने हिंदी के क्रांतिकारी लेखक भी यही काम कर रहे हैं। और बड़े-बड़े मसलों को लफ़्फ़ाज़ी के मार्फ़त तय कर रहे हैं रचना में भी और बोलने में भी। रचना जैसे निकृष्ट काम से इन्हें कोई सरोकार ही नहीं । फिर दूसरे छोटे-छोटे मसले भी इन लेखकों ने भ्रष्ट राजनीतिक पार्टियों, कारपोरेट सेक्टरों, बिल्डरों के ज़िम्मे छोड़ दिया है। भूमंडलीकरण, बाज़ार विरोध, अमरीका की दादागिरी, मोदी की सांप्रदायिकता आदि बड़े-बड़े काम खुद संभाल लिए हैं।
कथाक्रम में बड़े कहे जाने वाले एक लेखक पहले दिन जब बोल रहे थे और जाहिर है विषय से भटक कर बोल रहे थे और बहुत खराब बोल रहे थे तो श्रोताओं में बैठे कुछ लेखक बिदकने लगे। तो एक लेखक ने बड़ी शालीनता से भवानी प्रसाद मिश्र की एक कविता की याद दिलाई और कहा कि जैसे तू बोलता है, वैसा ही लिख! तो यह जैसा लिखते हैं, वैसा ही बोल भी रहे हैं ! इस में हैरत किस बात की? लोग हंसने लगे। इन साथियों के साथ एक दिक्कत यह भी कि वह अपनी पसंद को ही फ़ैसला मान लेते हैं। उन को अगर गुलाब पसंद है तो वह चाहते हैं कि बागीचे में सारे फूल गुलाब के ही हों। गलती से भी कोई दूसरा फूल देखना उन्हें व्यवस्था में आग लगाने की लफ़्फ़ाज़ी पर मज़बूर कर देता है। अजब सनक है। इस का क्या करें? खैर,साहित्य की मशाल की बात जब प्रेमचंद ने की थी तब माहौल वही था, लेखक तब यही कर रहे थे। इस लिए प्रेमचंद ने यह कहा।
गांधी के हिंद स्वराज की याद है?
हिंद स्वराज में गांधी ने देश और समाज के तीन दुश्मन बताए हैं। एक रेल, दूसरे डाक्टर और तीसरे वकील । इस के पीछे उन का सुविचारित तर्क था। यह कि रेल लूट का, जमाखोरी का सब से बड़ा औज़ार है। कि कहीं कुछ उत्पादित होता है उसे एक साथ बहुत सारा आप रेल से कहीं दूसरी जगह ले जा सकते हैं। और वहां उस चीज़ का अकाल पड़ सकता है। आप देखिए न कि उड़ीसा से हावड़ा तक एक रेल लाइन है जो बस्तर से गुज़रती है लेकिन वहां बस्तर या आस-पास के लिए एक भी पैसेंजर ट्रेन नहीं है। मालगाड़ियां चलती हैं। तो किस लिए चलती है यह मालगाड़ियां? स्पष्ट है कि अंबानी, टाटा आदि कारपोरेट द्वारा देश के संसाधनों की लूट के कारोबार की सहूलियत के लिए चलती हैं यह मालगाड़ियां। पर देखिए न कि हमारे एक क्रांतिकारी साथी को गांधी और उन का हिंद स्वराज भी बकवास लगा। इस लिए कि उन्हें भगत सिंह को गांधी से बड़ा साबित करना था। वह भूल गए कि भाषण में गांधी को बिना खारिज किए भी वह भगत सिंह को बड़ा कह सकते थे। सच यही है कि गांधी और भगत सिंह दोनों ही बड़े लोग हैं। पर कहा न कि अगर उन्हें गुलाब पसंद है तो बाकी फूलों का कत्ल ज़रुरी है उन के बागीचे में। खैर, गांधी समाज और देश का दूसरा दुश्मन डाक्टर को बताते हैं हिंद स्वराज में। वह कहते हैं कि अगर डाक्टर न हों तो लोग अनाप-शनाप ढंग से रहना-खाना बंद कर देंगे। क्यों कि वह जब जानेंगे कि गड़बड़ी करेंगे खाने-पीने या जीवन में तो कष्ट होगा। और डरेंगे सो गड़बड़ नहीं करेंगे। लेकिन आज वह जानते हैं कि कुछ गड़्बड़ करेंगे खाने-पीने या रहन -सहन में तो डाक्टर है ना ! दवा दे देगा, ठीक हो जाएंगे। और अब देखिए न कि अस्पताल लूट के कितने बड़े अड्डे बन चले हैं। गांधी के हिंद स्वराज में देश और समाज का तीसरा दुश्मन वकील है। ध्यान रहे कि गांधी खुद भी वकील थे। लेकिन गांधी की राय में अगर वकील न होता तो देश में लोग कचहरी नहीं जाते और अंगरेजों का कानून लागू नहीं हो पाता। वकील ही लोगों को कचहरी ले गए और लोगों ने इस बहाने अंगरेजों का कानून स्वीकार लिया। आज भी देखिए न कि वकील अगर न बचाएं देश के अपराधियों और भ्रष्टाचारियों को तो उन की जगह जेल ही होगी। बच्चा-बच्चा जानता है कि फला हत्यारा है, डकैत है, भ्रष्ट पर अदालतें उन्हें बख्शे रहती हैं तो इन्हीं वकीलों की कुतर्क और भ्रष्ट तरकीबों के बूते। सोचिए कि एक से एक वकील हैं कि एक-एक पेशी के वह तीस-तीस लाख रुपए लेते हैं। तो यह कौन लोग हैं जो इन वकीलों को बिना उफ़्फ़ किए एक-एक पेशी के तीस -तीस लाख देते हैं? और हमारे क्रांतिकारी साथी कहते हैं कि गांधी और उन का हिंद स्वराज बकवास है। खैर यह उन की राय है। उन्हें यह कहने का हक भी है। पर हम बात कर रहे थे प्रेमचंद के साहित्य के मशाल की। तो दोस्तों जो अभी हमने ज़िक्र किया गांधी के हिंद स्वराज में वर्णित तीन दुश्मनों का तो क्या आप जानते हैं कि यह रेल, डाक्टर और वकील को देश और समाज का दुश्मन बताने की अवधारणा किस की है? क्या गांधी की है? हरगिज़ नहीं। यह पूरी की पूरी अवधारणा टालस्टाय की है। सोचिए कि गांधी जैसा बड़ा नेता भी टालस्टाय जैसे लेखक के विचारों पर चलता था। गांधी तो टाल्स्टाय से इतना प्रभावित थे कि जब दक्षिण अफ़्रीका में जो पहला आश्रम बनाया तो उस का नाम भी टाल्स्टाय के नाम पर ही रखा। गांधी रवींद्र नाथ टैगोर से भी बहुत प्रभावित थे। बहुत कम लोग जानते हैं कि गांधी को महात्मा उपाधि से विभूषित करने वाले टैगोर ही हैं। वह टैगोर ही थे जिन्हों ने नेता जी सुभाष चंद्र बोस को समझाया था कि वह गांधी का विरोध छोड़ दें। और दिलचस्प यह कि सुभाष चंद्र बोस टैगोर की सलाह सहर्ष मान गए थे। तो प्रेमचंद के सामने यह सब घट रहा था तो वह लिख रहे थे कि साहित्य राजनीति के आगे चलने वाली मशाल है।
और आज का लेखक और आज का साहित्य?
राजनीति, कारपोरेट, अफ़सरों और बिल्डरों कि पिछाड़ी धोने में न्यस्त और व्यस्त है। बस कोई पद और पुरस्कार मिल जाए। पिछाड़ी खोलने में भी देरी नहीं लगती। बताइए कि एक टाल्स्टाय थे, टैगोर थे, प्रेमचंद थे और एक आज हम लोग हैं। अपने-अपने अहंकार में व्यस्त-न्यस्त और पस्त ! और लड़ने चले हैं भूमंडलीकरण से।
एक कालीचरण स्नेही हैं। लखनऊ विश्वविद्यालय में हिंदी के आचार्य हैं। कथाक्रम में कहने लगे कि अगर मेरा वश चलता तो भूमंडलीकृत की जगह कमंडलीकृत लिखता और फिर अपने मनपसंद शगल ब्राह्मणवाद के खंडहर से छद्म तलवारबाज़ी पर आ गए। कालीचरण स्नेही जैसे आचार्यों की दिक्कत यह है कि विषय कोई भी हो उन के पास बस एक ही आर्केस्ट्रा होता है, वही बजाने लगते हैं। दलित विमर्श की दुकानदारी का यह बड़ा चटक रंग है। बताइए कि अगर उन के कुतर्क को स्वीकार ही कर लें एक बार तो उस हिसाब से यह सारे विश्ववि्द्यालय तो ब्राह्मणवाद के ही केंद्र हैं। तो आप ब्राह्मणवाद की गोद में क्यों बैठे हैं भाई? उतर क्यों नहीं जाते? कालीचरण ने बीते दिनों हिंदी संस्थान द्वारा दिए गए पुरस्कारों का भी हवाला दिया और तंज़ कसा। ठीक बात है। पर जब दलितों की महारानी मायावती ने इसी हिंदी संस्थान की चूलें हिला दी थीं, अट्ठासी से अधिक पुरस्कार रद्द कर दिए थे तब आप के मुंह में क्यों दही जमी रह गई थी? तब एक सांस भी नहीं निकाली किसी क्रांतिकारी लेखक ने भी? किसी दलित विमर्शकार ने तब। स्थिति तो यह थी कि मायावती की डील एक बिल्डर से हो रही थी। हिंदी संस्थान के भवन को गिरा कर वहां एक बहुमंज़िला कांप्लेक्स बनाने के लिए। करोड़ो रुपए की डील थी। सो मायावती तो हिंदी संस्थान बंद करने पर आमादा थीं। अपने कार्यकाल में कई साल तक न वहां निदेशक नियुक्त किया न कार्यकारी अध्यक्ष। वहां के कर्मचारी पसीना-पसीना हो रहे थे। पर यह दलित विमर्शकार और क्रांतिकारी लेखक सब चुप थे। अखबारों तक की यह हैसियत नहीं रह गई थी कि इस बारे में खबर छाप सकें। दलितों की महारानी मायावती का यह आतंक था। मैं ने हार कर तब आर टी आई ऐक्टिविस्ट नूतन ठाकुर से चर्चा की । मेरे निवेदन पर उन्हों ने एक जनहित याचिका दायर की हाईकोर्ट में। हाईकोर्ट के आदेश का भी मायावती ने संज्ञान नहीं लिया। डेढं-दो साल तक। अंतत: जब नौबत कंटेंप्ट आफ़ कोर्ट की आ गई तब जाते-जाते मायावती ने कार्यकारी अध्यक्ष और निदेशक नियुक्त किया। हिंदी संस्थान के प्राण बचे। अखिलेश सरकार आई तो पुरस्कार सब बहाल हुए। कुछ नए पुरस्कार भी शुरु हुए। पुरस्कार राशि बढ़ी। तो अब कालीचरण स्नेही भी बोलने लगे। लेकिन तब तो बोलती बंद हो गई थी। लेकिन हिंदी लेखकों की एहसानफ़रामोशी देखिए कि सब कुछ हो गया लेकिन एक भी लेखक ने नूतन ठाकुर को एक औपचारिक धन्यवाद भी देना ज़रुरी नहीं समझा आज तक ! और देखिए कि अपनी छोटी-छोटी लड़ाइयों से भी कतरा कर शुतुर्मुर्गी अदा के मालिक यह लेखक भूमंडलीकरण से लड़ते रहे दो दिन तक। कोरी लफ़्फ़ाज़ी हांक-हांक कर। अब उन की इस अदा पर कोई कैसे न कुर्बान हो भला?
एक पुराना चुनावी वाकया याद आ गया है।
१९८५ में उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनाव हो रहे थे। तब मैं जनसत्ता, दिल्ली छोड़ कर नया-नया स्वतंत्र भारत, लखनऊ आया था। तत्कालीन सिंचाई मंत्री वीरबहादुर सिंह तब गोरखपुर में पनियरा विधानसभा क्षेत्र से चुनाव लड़ रहे थे। स्वतंत्र भारत के सर्वेसर्वा जयपुरिया ने मुझे बुलाया और बड़ी शालीनता से कहा कि आप जनसता, दिल्ली से आए हैं, उस तरह की रिपोर्टिंग में वीरबहादुर के खिलाफ़ कुछ मत लिख दीजिएगा। वीरबहादुर सिंह उत्तर प्रदेश के भावी मुख्यमंत्री हैं। तो ज़रा ध्यान रखिएगा। हमारे पचास काम पड़ते हैं मुख्यमंत्री से। खैर मैं गया पनियरा। पनियरा में वीरबहादुर ने विकास के इतने सारे काम कर दिए थे कि पूछिए मत। जहां पुलिया बननी चाहिए थी, वहां भी पुल बना दिया था। दिल्ली, लखनऊ के लिए सीधी बसें थीं। गांव-गांव बिजली के खभे। नहरें, ट्यूबवेल। उस धुर तराई और पिछड़े इलाके में विकास की रोशनी दूर से ही दिख जाती थी। और चुनाव में भी उन के अलावा किसी और का प्रचार कहीं नहीं दिखा। जब कि उम्मीदवार कई थे वहां से। वीरबहादुर सिंह के मुख्य प्रतिद्वंद्वी थे चौधरी चरण सिंह की पार्टी भारती क्रांति दल से दयाशंकर दुबे। दुबे जी से मेरी व्यक्तिगत मित्रता भी थी। उन को प्रचार में भी शून्य देख कर मुझे तकलीफ़ हुई। गोरखपुर उन के घर गया। लगातार दो दिन। वह नहीं मिले। जब कि वीरबहादुर सिंह रोज मिल जाते थे। खैर एक दिन एकदम सुबह पहुंचा दयाशंकर दुबे के घर। बताया गया कि हैं। उन के बैठके में मैं बठ गया। थोड़ी देर में वह आए। उन के चेहरे का भाव देख कर मैं समझ गया कि मेरा आना उन्हें बिलकुल अच्छा नहीं लगा है। तो भी मेरे पुराने मित्र थे। सो अपनी अकुलाहट नहीं छुपा पाया। और पूछ ही बैठा कि अगर इसी तरह चुनाव लड़ना था तो क्या ज़रुरत थी यह चुनाव लड़ने की भी ? बताता चलूं कि गोरखपुर विश्वविद्यालय की छात्र राजनीति में दयाशंकर दुबे वीरबहादुर सिंह से बहुत सीनियर थे। और कल्पनाथ राय से भी पहले वह छात्र संघ के अध्यक्ष रह चुके थे। तब छात्र राजनीति का बहुत महत्व था और कि प्रतिष्ठा भी। लेकिन कुछ अहंकार और कुछ गलत फ़ैसलों के चलते दयाशंकर दुबे की यह गति बन गई थी। खैर जब मैं एकाधिक बार उन के इस तरह चुनाव लड़ने की बात पर अपना अफ़सोस ज़ाहिर कर चुका तो वह थोड़ा असहज होते हुए भी कुछ सहज बनने की कोशिश करते हुए बोले कि हुआ क्या कुछ बताओगे भी ! कि बस ऐसे ही डांटते रहोगे ? मैं ने उन्हें बताया कि दो दिन से पनियरा घूम रहा हूं और आप का कहीं नामोनिशान नहीं है। न प्रचार गाडियां हैं, न पोस्टर, न बैनर। एकदम शून्य की स्थिति है। तो वह धीरे से हंसे और बोले कि देखो मैं पनियरा में वीरबहदुरा से क्या चुनाव लड़ूंगा ? पनियरा चुनाव में वीरबहुदुरा से मेरा बाजना वैसे ही बाजना है जैसे बाघ से कोई बिलार बाज जाए ! तो क्या लड़ना ? फिर चुनाव लड़ने की ज़रुरत क्या थी? सुन कर दयाशंकर दुबे बोले, मैं तो दिल्ली गया था गोरखपुर शहर से कांग्रेस का टिकट मांगने। बड़ा उछल कूद के बाद भी जब गोरखपुर शहर से कांग्रेस का टिकट नहीं मिला तो घूमते-घामते चौधरी चरण सिंह से जा कर मिला और गोरखपुर शहर से उन की पार्टी का टिकट मांगा तो वह बोले कि गोरखपुर शहर से तो नहीं लेकिन जो पनियरा से लड़ों तो मैं तुम्हें अपना टिकट दे सकता हूं। तुम्हें चुनाव लड़ने का खर्चा, झंडा, पोस्टर, गाड़ी भी दूंगा और खुद आ कर एक बढ़िया लेक्चर भी दूंगा। तो मैं मान गया। और लड़ गया। यह सोच कर कि चलो इस में से कुछ आगे का खर्चा भी बचा लूंगा। मैं ने कहा कि आप की एक भी गाड़ी दिखी नहीं क्षेत्र में। तो वह बोले कि कैसे दिखेगी? दो गाड़ी मिली है। एक पर खुद चढ़ रहा हूं दूसरी को टैक्सी में चलवा दिया है। कह कर वह फ़िक्क से हंसे। मैं ने पूछा, और पोस्टर, बैनर? वह थोड़ा गंभीर हुए पर मुस्कुराए और उठ कर खड़े हो गए। धीरे से बोले, मेरे साथ आओ ! फिर वह भीतर के एक कमरे में ले गए। अजब नज़ारा था। एक कबाड़ी उन के पोस्टर तौल रहा था। उन्हों ने हाथ के इशारे से दिखाया और फिर मुझ से धीरे से बोले, यह रहा पोस्टर ! मैं अवाक रह गया। फिर वह मुझे ले कर बाहर के कमरे में आ गए। मै ने पूछा कि यह क्या है? चुनाव के पहले ही पोस्टर तौलवा दे रहे हैं? वह बोले अभी अच्छा भाव मिल जा रहा है। चुनाव बाद तो सभी बेचेंगे और भाव गिर जाएगा। मैं ने कहा चिपकवाया क्यों नहीं? वह बोले व्यर्थ में पोस्टर भी जाता, चिपकाने के लिए मज़दूरी देनी पड़ती, लेई बनवानी पड़ती। बड़ा झमेला है। और फिर वीरबहदुरा भी अपना मित्र है, वह भी अपने ढंग से मदद कर रहा है। कह कर वह मुसकुराए। मैं समझ गया। और उन से विदा ले कर चला आया। बाद के दिनों में जैसा कि जयपुरिया ने कहा था वीरबहादुर सिंह मुख्यमंत्री भी बने। और यही दयाशंकर दुबे उन के साथ-साथ घूमते देखे जाते थे। अब सोचिए कि जैसे वीरबहादुर सिंह के साथ दयाशंकर दुबे घूमने लगे थे हमारे हिंदी लेखक भी भूमंडलीकरण के साथ नहीं डोल रहे हैं? हां लेकिन जैसे दयाशंकर दुबे जो एक सच देख रहे थे और कह भी रहे थे बेलाग हो कर कि वीरबहदुरा से बाजना वैसे ही है जैसे किसी बाघ से बिलार बाज जाए ! यही काम अपने हिंदी लेखक भी नहीं कर रहे हैं? सच यह है कि मुहावरों से लड़ना भी बड़ा कठिन होता है। हम आज की तारीख में भूमंडलीकरण से लड़ाई में इसी कठिन काम में अपनी ऊर्जा भस्म कर रहे हैं। भूमंडलीकरण अब दुनिया का एक सच है। लफ़्फ़ाज़ी के बूते उस से लड़ना हो नहीं सकता। ज़मीनी तैयारी है नहीं आप के पास। भूमंडलीकरण से लड़ना वैसे ही है आज की तारीख में जैसे पाकिस्तान अमरीका से लड़ रहा है। जैसे मुस्लिम देश अमरीका से लड़ रहे हैं। अमरीका की रोटी, अमरीकी संसाधन, अमरीका का हथियार और ड्रोन हमलों पर बिल्ली की सी गुर्राहट ! गांधी वैसे ही नहीं कहते थे कि साध्य तो पवित्र होने ही चाहिए, साधन भी उतने ही पवित्र होने चाहिए। अमरीकी औज़ारों से, भूमंडलीकरण के औज़ारों से ही आप उस से लड़ेंगे? तो लड़ चुके फिर आप।
काशीनाथ सिंह ने कुछ दिन पहले कहा था कि राजनीति में जो हो रहा है, दुर्भाग्य से वैसा ही कुछ साहित्य में भी हो रहा है और आज आलोचना में रचना की बजाय रचनाकार को ध्यान में रखा जाता है। काशीनाथ सिंह ज़मीन से जुड़े रचनाकार हैं। इस लिए साफ देख पाते हैं, साफ लिख पाते हैं और साफ बोल भी पाते हैं। याद कीजिए कि जैसा तू बोलता है वैसा ही लिख ! काशी की इस बात में थोड़ा मैं और जोड़ना चाहता हूं कि साहित्य में आज राजनीति की ही तरह जाति भी एक फ़ैक्टर हो चला है। इतना ही नहीं जैसे कांग्रेस, सपा, बसपा आदि पार्टियां अपना निकम्मापन, भ्रष्टाचार आदि छिपाने के लिए एक फर्जी धर्मनिरपेक्षता का तंबू तान कर खड़ी हो जाती हैं ठीक उसी तरह हिंदी पट्टी के लेखक रचना की कमज़ोरी छुपाने के लिए प्रगतिशीलता, विचारधारा आदि का फर्ज़ी खेल शुरु कर देते हैं। दलित विमर्श, ब्राह्मण विमर्श का खाना खींच देते हैं। बात रचना की न हो कर लफ़्फ़ाज़ी विमर्श में बदल देते हैं। ब्रेख्त, नेरुदा, नाज़िम हिकमत का उद्धरण ठोंकने लगते हैं। हिंदी के रचनाकार नहीं याद आते उन्हें।
काशीनाथ सिंह ने कथाक्रम में भी भूमंडलीकरण के हस्तक्षेप को ईमानदारी से स्वीकार किया। अपने घर का ही हवाला दिया। अपने बेटे, अपने पोते का हवाला दिया। और बताया कि जैसे बेटा भोजपुरी बोलने से कतराता है, पोता हिंदी बोलने से कतराता है। उन्हों ने भूमंडलीकरण की अच्छी चीज़ों को स्वीकार करने पर हामी भी भरी। और कहा कि इतना खराब शब्द भी नहीं है भूमंडलीकरण। काशी ने तो यहां तक कहा कि अगर बाज़ार है तो हम हिंदी लेखकों को भी अपना बाज़ार क्यों नहीं बनाना चाहिए? जया जादवानी ने भी भूमंडलीकरण से अब न बच पाने की बात को स्वीकार किया। प्रांजल धर ने अच्छी सूचनाएं भी परोसीं। जै्से कि वह अपने लिखने में धारदार होते हैं, विषय से नहीं भटकते, बोलने में भी नहीं भटके। महेश कटारे भी विषय पर बने रहे। अखिलेश भी विषय पर बोले और संतुलित बोले। लेकिन ज़्यादातर लेखक विषय से भटके रहे और अपने मनगढ़ंत निष्कर्षों और विमर्श पर समूची शक्ति और दुराग्रह से डटे रहे। कहूंगा कि पूरी बेशर्मी से। एक विद्वान तो जयनंदन के सम्मान पर बोल रहे थे। तमाम दाएं-बाएं बोल गए पर जयनंदन की किसी एक रचना का नाम नहीं ले पाए। अलबत्ता यह फ़तवा ज़रुर जारी कर गए कि जयनंदन मुझ से बड़ी रचना नहीं लिख पाए हैं। वाह ! क्या किसी लेखक के सम्मान का भाषण यही होता है? खैर, यह लखनऊ है आप कुछ भी बोल लीजिए, सुन लेता है।
कथाक्रम में एक समय नामवर सिंह और राजेंद्र यादव में अपनी-अपनी स्थापनाओं को ले कर खूब गरमागरमी होती थी, विमर्श का आनंद आता था। नामवर का व्याख्यान गहरे ले जाता था, राजेंद्र यादव की सूचनाएं और विमर्श एक नई खिड़की खोलती थी, पूरे दो दिन तक गरमाहट बनी रहती थी, एक आग सुलगती रहती थी, जिस की आंच साल भर तक बनी रहती थी और कथाक्रम की प्रतीक्षा भी एक आकुल भूख के साथ बनी रहती थी। लेकिन एक बार अशोक वाजपेयी आए तो नामवर सिंह और राजेंद्र यादव भी बिखर गए उस बार। अशोक वाजपेयी के व्याख्यान की आंच में। कथाक्रम के आयोजन के वह सुनहरे विमर्श के दिन अब याद बन कर रह गए हैं। कह सकते हैं कि लेखकों की अब विषय पर बिना तैयारी के आना, रचना, सूचना और समझ के स्तर पर निरंतर दरिद्र होते जाना, विषय कोई भी हो एक ही रिकार्ड हर बार, हर जगह बजाना कुछ ज़्यादा होने लगा है। शैलेंद्र सागर जिस मीरा भाव से कथाक्रम का आयोजन करते हैं, लेखक साथियों को उन की इस पवित्र भावना का भी आदर करते हुए आना चाहिए इस कार्यक्रम में। कथाक्रम अपनी कुंठाएं उतारने का मंच तो नहीं ही है, न ही बनाए जाने की ज़रुरत है। जिस तरह दो-तीन लेखिकाओं के बीच मंच से व्यक्तिगत आरोप-प्रत्यारोप हुए और लगभग झोंटा-झोटव्वल विमर्श की नौबत आई वह कतई अशोभनीय था। मैं ने इसी कथाक्रम में नामवर-राजेंद्र के आरोप-प्रत्यारोप भी देखे हैं। लेकिन उन दोनों ने या उन के अनुयायियों में भी कभी लेशमात्र भी व्यक्तिगत विमर्श सामने नहीं आए। उसी मुहब्बत से मिलते-जुलते दिखते थे, एक दूसरे की आलोचना को बर्दाश्त करते हुए। मैं ने इसी कथाक्रम में रवींद्र कालिया को मंच पर नामवर सिंह की बात का कड़ा प्रतिवाद करते देखा है। इस के बाद मंच से नीचे उतर कर नामवर सिंह से रवींद्र कालिया को बिलकुल आनंद भाव में प्रभु मोरे अवगुन चित न धरो ! भी कहते और नामवर को पान कूंचते मंद-मंद मुसकुराते भी देखा है। यह भाव बना रहना चाहिए। कथाक्रम या किसी भी विमर्श का सम्मान इसी भाव में निहित है। व्यक्तिगत कुंठा या गरमा गरमी में नहीं। जैसा कि इस बार कुछ लेखिकाओं ने कर दिया। भेद-मतभेद होते हैं, आलोचना होती है, उस को हजम करना सीखना चाहिए। उस के प्रतिरोध के और भी रास्ते हैं। और भी तरीके हैं। यह तो हरगिज़ नहीं। कि आप आंख में आंख डाल कर बात भी नहीं कर पाएं। सलाम-दुआ भी न कर पाएं? इस घटिया राजनीति में भी तमाम गिरावट और मुश्किलों के बावजूद पराजित व्यक्ति भी विजेता को गले मिल कर, हाथ मिला कर बधाई देता ही है। और आप तो साहित्य रच रहे हैं। और किसी भी साहित्य, किसी भी रचना का काम जोड़ना ही है, तोड़ना नहीं है। कथाक्रम भी जोड़ने के लिए ही साल भर में एक बार सब को बटोरता है, तोड़ने के लिए नहीं। लेकिन क्या कीजिएगा फर्जी विमर्शों को सर चढ़ाने की उपज की यह यातना भी हम नहीं तो क्या चेतन भगत भुगतेंगे? बोएंगे बबूल और चाहेंगे आम ? सोचिए कि मुहावरों से भी लड़ना सचमुच कितना कठिन है। और हम हैं कि लड़ने चले हैं भूमंडलीकरण से ! भाई वाह !