Saturday, 27 April 2013

पीड़ा को आवाज़ देती कहानियां

सुभाष झा

 

कोई रचनाकार तभी सफल माना जाता है, जब उसकी रचनाएं पाठकों को अपनी लगें। अपनी जैसी लगें। आस-पड़ोस की लगें। रचनाएं भी वही मौजूं होती हैं, जिससे कोई संदेश समाज को मिलता हो। जो देशकाल का प्रतिनिधित्व करता हो। इस लिहाज से दयानंद पांडेय समर्थ रचनाकार हैं। उनकी सबसे बड़ी खासियत यही है कि वे अपनी रचनाओं में नाटकी
यता को हावी नहीं होने देते। सीधे-सीधे पाठकों से संवाद करने में उनकी कलम समर्थ है। बेहतरीन शिल्प के साथ रोजमर्रा घटित हो रही घटनाओं को वे बड़ी तल्खी से उजागर करने में माहिर हैं। ऐसे ही तमाम पक्षों को समेटते हुए उनकी पुस्तक है ‘फेसबुक में फंसे चेहरे’।
कहानी संग्रह ‘फेसबुक में फंसे चेहरे’ शीर्षक कहानी की सबसे पहले बात की जाए, तो इसमें लेखक ने बाजार में स्याह होती संवेदनाओं को पुरजोर तरीके से पाठकों के सामने रखा है। इस कहानी के मुख्य पात्र राम सिंगार की इस चिंता से ही शुरू होती है कि आदमी के आत्म विज्ञापन की यह राह (फेसबुक) क्या उसे अकेलेपन की आह और आंधी से बचा पाएगी? अपनी कहानी में कथाकार स्वयं बताते हैं कि रामसिंगार भाई यह जानकर मुदित होते हैं कि बड़े बाबू ने अकेले ही गांव के विकास में बहुत योगदान दिया, जिससे गांव में बिजली, सड़क स्कूल आदि सुलभ हो गए हंै। राम सिंगार भाई सोचते हैं कि यह फेसबुक पर नहीं है। फेसबुक पर वे लोग हैं, जो आत्म विज्ञापन के चोंचले में डूबे हुए हैं। वहां अतिरिक्त कामुकता है, अपराध है, बेशर्मी है। ऐसे लोगों के मुखौटे उधेड़ती यह कहानी वहां खत्म होती है, जहां एक मॉडल की कुछ लिखी हुई नंगी पीठ की पोस्ट लगाते ही सौ से ज्यादा कमेंट आ जाते हैं, लेकिन जब जन सरोकार संबंधी गांव की पोस्ट लगाई जाती है, तो उस पर सिर्फ दो कमेंट आते हैं, वह भी शिकायती अंदाज में। मजे की बात यह है कि सब जानने के बाद भी राम सिंगार भाई फेसबुक पर उपस्थित हैं।
झूठे रंग-रोगन में चमकते चेहरे और बाजार मनुष्यता को किस प्रकार लील रहे हैं, उस पर तल्ख टिप्पणी कथाकार ने ‘सूर्यनाथ की मौत’ शीर्षक कहानी में की है। इस कहानी में वे बताते हैं कि एक आदमी जिस परिवेश को अपने अनुकूल नहीं समझता है, उसी में रहने के लिए किस तरह विवश होता है। इसमें मॉल कल्चर की अमानवीयता को दिखाया गया है। इसमें यह दिखाने की कोशिश की गई है कि इतना बड़ा बाजार, इतने अधिक उत्पाद मनुष्य को बौना बना रहे हैं। उनकी मौलिकता के पंख को नोचकर उनमें केवल क्रेता या विक्रेता का भाव भर रहे हैं। कहानी का नायक सूर्यनाथ है, प्रकाशमान, न्यायी और खरा है, इसीलिए वह धीरे-धीरे मौत की ओर खिसक रहा है। कहानी में एक बार नायक के मन में आता है कि ‘बिरला भवन’ में ‘गांधी स्मृति’ चला जाए, जहां महात्मा गांधी को गोडसे ने गोली मारी थी, वहीं खड़ा होकर प्रार्थना के बजाय चीख-चीख कर कहे कि ‘हे गोडसे आओ, हमें और हम जैसों को भी मार डालो।’ दरअसल, इस कहानी मेंकथाकार दयानंद पांडेय देश की जनता की सबसे कमजोर और दुखती रग पर अंगुली रखते हैं। कहानी के अंत में स्वयं वे कहते हैं, ‘कोई गोडसे गोली नहीं मारता। सब व्यस्त हैं, बाजार में दाम बढ़ाने में व्यस्त हैं। सूर्यनाथ बिना गोली खाए ही मर जाते हैं।’
‘घोड वाले बाऊ साहब’ खोखले अहंकार और नैतिकता के टूटने की कहानी है। इस कहानी में झाड़-फूंक, संन्यासी, आश्रम, पुलिस स्टेशन आदि के दोगलपन का वर्णन है। ‘एक जीनियस की विवादास्पद मौत’ में कथाकार ने बड़े ही साफगोई के साथ स्वार्थ पर टिके हुए विवाहेत्तर संबंध को बयां किया है। कभी-कभी जीनियस से जीनियस किस कदर पतन के गर्त में चला जाता है, जहां मौत भी पनाह नहीं देती, उसे हत्या या आत्महत्या के दौर से गुजरना होता है, इस बात को बड़ी बेबाकीपन से बयां किया है। ‘बर्फ में फंसी मछली’ कहानी में नायक को कई लड़कियों से प्रेम, फ्लर्ट, चैटिंग और उनसे पीछा छुड़ाते हुए आखिर उसे एक रशियन लड़की से प्यार हो जाता है। रशियन पुरुषों से अतृप्त रीम्मा भारतीय पुरुष से प्यार पाना चाहती है, वह हिंदुस्तान आना चाहती है। इस कहानी का नायक देखता है कि समूचा अंतरजाल सेक्स को समर्पित है। कहानी संग्रह की सबसे लंबी कहानी ‘मैत्रोयी की मुश्किलें’ है। इसकी नायिका जितना ही प्रेम, सम्मान और सुरक्षा पाना चाहती है, उतनी ही मुश्किलों में फंसती जाती है। इसमें कथाकार ने बड़ी ही खूबी से पल-पल बदलते स्त्री-पुरुष के संबंध को पाठकों के समक्ष पेश किया है।
इस सबके बीच यदि कहानी संग्रह की पहली कहानी की जिक्र नहीं की जाए, तो पुस्तक और कहानीकार के साथ न्याय नहीं होगा। ‘हवाई पट्टी के हवा सिंह’ नामक शीर्षक कहानी में दयानंद पांडेय ने अपनी खिलदंड़े अंदाज को पाठकों से रू-ब-रू कराया है। हालांकि, इसमें अशिक्षित, बेलगाम युवाओं की समस्या उठाई गई है। गांव का चित्रण, ग्रामीण परिवेश के लोगों की सोच को लोगों के सामने रखा है। संग्रह की तमाम कहानियों और उसके कथ्य को समष्टीय में देखा जाए, तो पहली कहानी पाठकों को औरों से अलग दिखती है। यदि यह कहा जाए, तो संग्रह की सबसे कमजोर कहानी पहली कहानी ही है, तो गलत नहीं होगा।
कुछ मिलाकर कहानी संग्रह की सभी कहानियां उत्तम हैं। सही मायने में अपने पास-पड़ोस की घटनाओं पर लेखनी चलाने में दयानंद पांडेय सिद्धहस्त हैं। उनकी भाषा में प्रवाह है। प्रांजलता है। शिल्प के स्तर पर वह सशक्त हैं। संवाद अदायगी प्रभावपूर्ण है। इन सबसे बड़ी खूबी है उनकी किस्सागोई, जो उन्हें समकालीन कहानीकारों से अलग करती है। आम आदमी की पीड़ा को आवाज देने में काफी सफल हुए हैं।

समीक्ष्य पुस्तक 

कहानी संग्रह - फ़ेसबुक में फंसे चेहरे
कहानीकार - दयानंद पांडेय
पृष्ठ-216
मूल्य-350 रुप॔ए

प्रकाशक
जनवाणी प्रकाशन प्रा. लि.
30/35-36, गली नंबर- 9, विश्वास नगर
दिल्ली- 110032
प्रकाशन वर्ष-2012

अटल बिहारी वाजपेयी की प्रासंगिकता का प्रताप


अटल बिहारी वाजपेयी की भाजपा में प्रासंगिकता का सवाल ही मुझे सिरे से अप्रासंगिक लगता है। दरअसल राजनीतिक पार्टियों के कारपोरेट कल्चर में तब्दील होते जाने की विकृति की खाद में उपजा यह सवाल अटल बिहारी वाजपेयी की अस्मिता पर ही नहीं भारतीय राजनीति की अस्मिता पर भी प्रश्न चिन्ह लगाना है। यह और ऐसे सवाल उठाने वाले लोग भारतीय परंपरा और संस्कृति को भूल कर ही ऐसी बातें करते हैं। क्या भारतीय समाज में ऐसा संभव है कि कोई बुजुर्ग रिटायर हो जाए, कमाना बंद कर दे, बीमार पड़ जाए तो उसे घर से बाहर निकाल कर सड़क पर फेंक दिया जाए? वह भारतीय परंपरा जहां प्रकृति, पेड़ पक्षी, नदियां, पत्थर सभी पूजे जाते हैं? बुद्ध, महावीर और फिर गांधी की प्रासंगिकता अगर इस तेज़ी से बदल रहे हिंसक समाज में है तो तय मानिए कि सिर्फ़ भारतीय जनता पार्टी में ही नहीं भारतीय राजनीति और भारतीय समाज में भी अटल बिहारी वाजपेयी की प्रासंगिकता है और कि रहेगी भी।
अटल बिहारी वाजपेयी भारतीय माटी की वह सुगंध हैं जो मिटाए नहीं मिटती। वो कहते हैं न कि ‘हज़ारों साल नरगिस अपनी बेनूरी पर रोती है, बड़ी मुश्किल से हो
ता है चमन में दीदावर पैदा’ तो अटल बिहारी वाजपेयी वही दीदावर हैं। यकीन नहीं होता तो ज़्यादा नहीं एक साथ चार-पांच घटनाएं याद कीजिए। एक पोखरण में परमाणु परीक्षण, दूसरी उन की लाहौर बस यात्रा और फिर कारगिल। फिर मुशर्रफ की आगरा यात्रा और फिर भारतीय संसद भवन पर हमला। वाजपेयी जी लगातार शांति के कबूतर उड़ाते रहे। पहले कहते रूर रहे थे कि ‘आतंकवाद और संवाद एक साथ नहीं चलेगा’ और फिर संसद पर हमले के बाद वह अब लड़ाई आर या पार की होगी। सीमा पर सेनाएं भी तैनात हो गईं। समूचा देश उन के इस फैसले के साथ था। अब यह अटल बिहारी वाजपेयी पर मुनःसर था कि वह पाकिस्तान के खिलाफ युद्ध का बिगुल बजाएं कि नहीं बजाएं। सेनाएं आमने सामने थीं। हो सकता था कि पाकिस्तान तहस नहस हो जाता। हो सकता था कि पाकिस्तान एटमी लड़ाई छेड़ देता। कुछ भी हो सकता था। पर ऐसे में मानवता का क्या होता? हिरोशिमा नागासाकी के दं आज भी दुनिया में मौजूद हैं। फिर इस नई तबाही का अंजाम क्या होता? मनुष्यता कांप न जाती? फिर आज की दुनिया का भूगोल क्या होता? इतिहास क्या होता? और कि क्या यह बांचने देखने के लिए हम आप भी होते? होते भी तो क्या ऐसे ही होते? सैल्यूट कीजिए अटल बिहारी वाजपेयी को कि तमाम-तमाम थुक्का फज़ीहत के उन्हों ने युद्ध का बिगुल नहीं बजाया। बजा दिया होता जो युद्ध उन्हों ने तो मनुष्यता उन्हें क्षमा नहीं कर और तय मानिए कि अगर पोखरण नहीं किया होता उन्हों ने तो पाकिस्तान भारत को जीने नहीं देता। और तमाम इन विसंगतियों और बाधाओं के वह बस यात्रा पर जाते हैं। मिलता है पीठ में कारगिल का छुरा। फिर भी वह कारगिल के खलनायक जो तब तक पाकिस्तान के राष्ट्रपति बन जाते हैं, उस मुशर्रफ को आगरा बुला भेजते हैं। तो सच मानिए कि यह गांधी के देश में ही संभव बन सकता है, जिन्ना या किसी क्लिंटन, बुश या ओबामा के देश में नहीं।
तो उस अटल बिहारी वाजपेयी को आप भूल जाएंगे? और उस शांति के कबूतर उड़ाने वाले की प्रासंगिकता के फिजूल सवाल सुलगाएंगे? भई यह तो हद है।

आज की तारीख में मनमोहन सिंह सरकार के मंत्री ए. राजा जो सत्तर हज़ार करोड़ के घोटाले में गले तक फंसे पड़े हैं, महंगाई से ले कर आई.पी.एल. तक के दल दल में धंसे पड़े शरद पवार हैं, बिगड़ैल और बड़बोली ममता बनर्जी हैं, और जाने कौन-कौन हैं पर मनमोहन सिंह संकेतों में भी इन को कुछ कह पाने का साहस नहीं कर पाते। पर अटल बिहारी बाजपेयी?
केंद्र में गठबंधन सरकार का बिस्मिल्ला करने वाले अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार में यह अराजकता ऐसे तो नहीं ही देखी गई। और फिर यही वाजपेयी थे जिन्हों ने पार्टी की राय को दरकिनार कर नरेंद्र मोदी को राजधर्म का पाठ याद दिलाया था और इस्तीफा देने की सलाह दी थी। पर आडवाणी काकस ने इस राजधर्म को ठेंगा दिखा दिया। फिर तो गोवा में जब अटल बिहारी  कहा कि ना टायर्ड, ना रिटायर्ड, आडवाणी जी के नेतृत्व में विजय की ओर प्रस्थान। जिसे पूरे देश ने सुना और देखा कि कैसे तो इस एक जुमले में समूची भाजपा दहल गई थी और फिर वाजपेयी के चरणों में नतमस्तक हो गई थी।
यह वाजपेयी ही हैं जिन को नेहरू भी दुलारते थे। यह वाजपेयी ही हैं जो लाख विरोध के बावजूद १९७१ में पाकिस्तान को हराने और बंगलादेश बनने पर इंदिरा गांधी को दुर्गा कह रहे थे। यह वही वाजपेयी हैं जिन को नरसिंह राव और चंद्रशेखर सरीखे लोग भी बड़े सम्मान से गुरुदेव कह कर संबोधित करते थे। एक शिक्षक का बेटा जो विद्यार्थी जीवन में वाद-विवाद प्रतियोगिताओं में हिस्सा लेता था, फिर कविताएं लिखने लगा और देखते देखते पत्रकार हो गया। तरुण भारत, राष्ट्र धर्म और पांचजन्य के संपादक रहे अटल बिहारी वाजपेयी राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के अनुशासित स्वयं सेवक भी रहे रूर पर किसी की तानाशाही को स्वीकार किया हो मुझे याद नहीं आता। अकसर लोग उन के लिए कहते रहे हैं कि ‘सही आदमी पर गलत पार्टी में’ तो यह क्या है? दरअसल वाजपेयी जी कवि चाहे जितने खराब रहे हों पर राजनीतिज्ञ वह हमेशा से अच्छे ही रहे। प्रजातांत्रिक मर्यादाओं से कभी वह च्युत नहीं हुए। जय पराजय का स्वाद वह निरंतर चखते रहे पर कभी विचलित नहीं हुए। प्रजातंत्र में सहमति-असहमति दोनों ही शब्दों की प्रासंगिकता हमेशा ही से रही है। तो किसी बिंदु पर, किसी मुद्दे पर अगर किसी से या पार्टी में ही सही असहमति या सहमति हो जाती है तो उसे किसी व्यक्ति विशेष की प्रासंगिकता से जोड़ कर देखना छोटी और तर्कहीन बात होती है। असहमति के स्वर वहां नहीं उठते जहां तानाशाही होती है। प्रजातांत्रिक धागे से बुनी व्यवस्था में असहमति होना एक स्वस्थ परंपरा ही है। हां, असहमति और अनुशासनहीनता दोनों ही दो बातें हैं। तो यह ठीक है कि वाजपेयी से असहमत लोग भी भाजपा में हमेशा से रहे हैं।
पर वाजपेयी से ज़्यादातर असहमत लोगों का हश्र क्या हुआ सभी जानते हैं। जानते हैं कि वाजपेयी से जो भी टकराया टूट गया। टूट कर चूर हो गया। नाम एक नहीं अनेक हैं। बलराज मधोक, प्रकाशवीर शास्त्री, सुब्रमण्यम स्वामी, गोविंदाचार्य, उमा भारती, कल्याण सिंह से लगायत लालकृष्ण आडवाणी तक जाने कितने जाने अनजाने नाम हैं। यह सब के सब लोग पार्टी में खुद ही अप्रासंगिक होते गए। पर वाजपेयी?
जसवंत सिंह फिजूल में पार्टी से निकाले जाते हैं तो वह वाजपेयी के पास जाते हैं। शिबू सोरेन मुख्यमंत्री बनते हैं तो आशीर्वाद लेने वाजपेयी के पास जाते हैं। राजनाथ सिंह, नितिन गडकरी या और लोग भी आशीर्वाद लेने जाते ही रहते हैं वाजपेयी के पास। हां, उमा भारती भी। अब यह ताज़ा सवाल जो भाजपा में अटल बिहारी वाजपेयी की प्रासंगिकता का उठाया गया है तो मैं समझता हूं कि राम जेठमलानी की राज्यसभा में भाजपा की ओर से भेजे जाने की आड़ में ही उठाया गया है या उठवाया गया है। वह जेठमलानी जो कभी वाजपेयी मंत्रिमंडल में रहे हैं और वाजपेयी के खिलाफ चुनाव लड़ कर मानत भी गंवा चुके हैं। फिर भी वह भाजपा की ओर से राज्यसभा में भेजे जा रहे हैं तो यह प्रजातांत्रिक धागे की बुनावट का सुफल है कुछ और नहीं। कि जहां असहमति के स्वर का भी सम्मान होता है। लोग भूल जाते हैं कि नेहरू के धुर विरोधी लोहिया लगातार नेहरू के खिलाफ चुनाव लड़ते रहे। नेहरू ने लोहिया को संदेश भेजा कि मैं आप को संसद में बैठे देखना चाहता हूं, आप कहीं और से चुनाव लड़ें। लोहिया मान गए थे और चुनाव क्षेत्र फूलपुर के बजाय कन्नौज कर लिया और संसद पहुंचे। नेहरू जैसे लोग चाहते थे कि अच्छे लोग संसद पहुंचें। चाहे वह उन के धुर विरोधी ही क्यों न हों। वह प्रजातंत्र प्रेमी लोग थे। वह तो बाद में उन की बेटी इंदिरा ने प्रजांतंत्र का वृक्ष उखाड़ फेंका और नाती राजीव गांधी तक आते-आते बात यहां तक आ गई कि कैसे नाकेबंदी कर बड़े-बड़े राजनीतिज्ञों को संसद या विधान सभा में आने से रोका जाए। भले ही हेमवती नंदन बहुगुणा के खिलाफ अमिताभ बच्चन को उतारा जाए या कि अब किसी मुरली मनोहर जोशी के खिलाफ मुख्तार अंसारी को खड़ा कर दिया जाए। पर वाजपेयी जैसे लोग इस बात के साक्षी हैं कि हमारे प्रजातांत्रिक दिये में अभी भी तेल है और कि वह अवशेष रहेगा। सहमतियां-असहमतियां अपनी जगह हैं वाजपेयी जी अपनी जगह। तो यह क्या है?
स्पष्ट है कि यह अटल बिहारी वाजपेयी की प्रासंगिकता का प्रताप ही है कुछ और नहीं। एक समय था कि जब जेठमलानी लगातार बयान पर बयान ठोंके जा रहे थे। बोफोर्स के जामाने से ही उन की यह आदत थी रोज ब रोज सवाल पूछने की। तो वह वाजपेयी जी से भी सवाल पर सवाल पूछ रहे थे। बहुत आजिज   अटल बिहारी वाजपेयी ने कहा था कि, ‘मेरे मित्र जेठमलानी को यह नहीं मालूम कि चुप रहना भी एक कला है’। वाजपेयी जी की प्रासंगिकता का फोड़ा फोड़ने वाले राजनीतिक पंडितों को वाजपेयी जी का यह कहा ही याद दिलाना मैं समझता हूं काफी है।

Thursday, 25 April 2013

कथारस में डूबी हकीकत बयां करती कहानियां

कृष्ण बिहारी

 


`एक जीनियस की विवादास्पदमौत` दयानंद पांडेय की एक दर्जन कहानियों का संग्रह है जिसे पढ़ते हुए कई धरातलों को जीते हुए कहानीकार की व्यापक दृष्टि और भुगते हुए जीवनानुभवों के छीलते एहसास से चाक-चाक होना पड़ता है। इस संग्रह की कहानियों की सब से बड़ी विशेषता है कहानीकार का विषय वस्तु में धंस कर लिखना। अपनी किसी भी कहानी में वह तमाशाई नहीं है। यह भी कि लेखन उस के जीने की शर्त है। शौक नहीं। और यह केवल सादगी से बड़ी बात कहने के दिखावे के लिए कहा गया स्टेटमेंट भर नहीं है बल्कि शिद्दत से महसूस किए हुए को कागज पर फिर से दुबारा जीने की उस जहमत को जीना है जिस से एक सच्चे रचनाकार को गुरना ही गुरना है चाहे वह लहुलूहान ही क्यों न होता चले। जब पाठक कहानियों को पढ़ते हुए कभी तपने और कभी   र्फ़ की तरह जमने लगे तो कहानीकार कैसे इस एहसास से अछूता रह सकता है। निश्चय ही इन कहानियों की रचना प्रक्रिया तकलीफदेह रही होगी।
विवाहेत्तर संबंध चाहे जिन अवस्थाओं में और जिन आवश्यकताओं को प्राथमिकता देते हुए बनें, अंततः वे ज़िंदगी उजाड़ देते हैं। बसने की कोशिश में अपना ही अस्तित्व मिट जाता है या यूं भी कह सकते हैं कि बसते-बसते दिल की बस्ती उजड़ जाती है। ‘एक जीनियस की विवादास्पद मौत’ संग्रह की शीर्ष कहानी में विवाहेतर संबंध से उत्पन्न हत्या और आत्महत्या के बीच का लिखा-अनलिखा या कोरे कैनवास पर अपनी कल्पना से बनाई आकृति पाठक को झिंझोड़ कर रख देती है।
’चनाजोर गरम वाले चतुर्वेदीजी’ कहानी में एक कतर्व्यपरायण अधिकारी का यह बयान, ‘देश का भाग्य तो ठीक से संवार न पाया, मौका ही नहीं मिला जातिवादी सरकारों की फज़ीहत में तो क्या करता भला? सिनिकल मान लिया लोगों ने उलटे’ यह स्थिति क्या उस से अलग है? जिस में कहा जाता है कि सीधे का मुंह कुत्ता चाटता है या यह कि हर सीधे और सरल व्यक्ति को लोग चूतिया कहते हैं।
’राम अवतार बाबू’ जैसे लोग दुनिया में होते हैं। क्या गांधी जी को उन के बेटे ने नहीं कहा कि आप दुनिया के बापू हो गए पर हमारे आप बाप नहीं हो सके। ‘भूचाल’ कहानी एक ऐसी औरत की कहानी है जिस का हर स्तर पर शोषण हुआ है। आए दिन ऐसे हादसों की रपट क्राइम फाइल में देखने को मिलती है मगर कहानी में शब्दांकन से जो चित्र उभरता है वह ‘मर्द’ कौम को निचोड़ता है।
दयानंद के पास केवल सुगठित भाषा ही नहीं बरदस्त कथ्य भी है। अपनी बात कहने के लिए जिन उपयुक्त शब्दों की आवश्यकता होती है उस के लिए दयानंद को कहीं दूर तक भटकना नहीं पड़ता। वह लेखक कुछ ज़्यादा धनी होता है जिस के पास आंचलिक बोलियों का शब्दकोश भी होता है। इस दृष्टि से दयानंद पांडेय के पास अवधी और पूर्वी उत्तर प्रदेश में बोली जाने वाली भोजपुरी के अलावा बोल- चाल के शब्दों का एक ऐसा खजाना है जिस का उन्हों ने जगह-जगह पर उचित प्रयोग किया है।
एक कर्मचारी निरंकुश मैनेजमें और नपुंसक यूनियन के बीच किस तरह असहाय हुआ अपने वर्तमान को स्वीकारता है उस टूटन को ‘प्लाज़ा कहानी से बखूबी जाना जा सकता है। इसी तरह ‘सुंर लड़कियों वाला शहर’ कहानी में बरदस्त मोहभंग है। लेखक की दृष्टि का सूक्ष्म पर्यवेक्षण और कहानी के सधे संवाद न केवल वातावरण की रचना करते चलते हैं बल्कि बदलाव को रेखांकित भी करते हैं। कहानियों में कुछ भी ठूंसा हुआ नहीं लगता। पिछले तीस वर्षों में दुनिया जिस गति से बदली है वह किसी से छिपा नहीं है और इस ते गति से अगर कुछ मुर्दा हुआ है तो वह है अपने देश का हर गांव। ‘मेड़ की दूब’ कहानी गांव की उस मुर्दा ज़िंदगी का जीवित दस्तावेज है जिसमें व्यवस्था के संक्रमित शोषण ने हरियाली निगल ली है। गांव में कोई रहना नहीं चाहता और शहर में सब के लिए जगह नहीं है। ‘घोड़े वाले बाऊ साहब’ आज के दौर में कहानी से लुप्त होती पठनीयता को बचाए रख कर एक सीधा संदेश देती है कि शिल्प के नए प्रयोग कहानीपन के लिए घातक हैं। बाऊ साहब का घोड़ा रखने का शौक उन की दिन-ब-दिन खस्ता होती जाती माली हालत यह बता देती है कि इश्क वह खेल नहीं जिसे लौण्डे खेला करें।
संग्रह की कहानी ‘मन्नाजल्दी आना’ अपने ही देश में एक मुसलमान के अचानक और अनायास संदिग्ध और घुसपैठिया करार दिए जाने की दर्दनाक दास्तान है। कहानी पाठक को दहशत के उस माहौल में ले जाती है जहां उस के मुंह से बरबस निकल पड़ता है कि अब बहुत हो गया। अब्दुल मन्नान की जो फजीहत होती है उस का अंत होता नहीं दिखता। एक लुटे-पिटे व्यक्ति की पीड़ा को कहानीकार ने जिस तरह से जुबान दी है वह उस की गहरी मनोवैज्ञानिक दृष्टि का परिचय देती है।
‘मुजरिम चांद’ इस संग्रह की सब से अच्छी कहानी है। कहानी की विशेषता कहानी की सहजता को आगे लिए जाने में इतनी सधी हुई है कि कहीं भी उबाऊपन नहीं उपजता। इसी तरह ‘बड़की दी का यक्ष प्रश्न’ और ‘संवाद’ कहानियां भी अपने परिवेश के प्रति न्याय करती हैं। आशा है कि आलोचकों की पूर्वाग्रहमुक्त निगाह इन कहानियों पर रूर पड़ेगी।
दयानंद पांडेय के लेखन में अनुभवजन्य प्रामाणिकता है। पात्र और स्थिति के अनुकूल समर्थ भाषा है। संवादों में वही बेबाकी है जो आज कल परिवेश में सुनने को मिल रही है। कहानीकार ने अपने इस संग्रह द्वारा जो संभावनाएं जगाई हैं उस से यह उम्मीद तो की ही जा सकती है कि भविष्य में अपने लेखन से मौजूदा कहानीकारों में एक सशक्त हस्ताक्षर बन कर उभरने की पर्याप्त क्षमता उन में है।


समीक्ष्य पुस्तक :
एक जीनियस की विवादास्पद मौत
पृष्ठ-200
मूल्य-200 रुप॔ए

प्रकाशक
जनवाणी प्रकाशन प्रा. लि.
30/35-36, गली नंबर- 9, विश्वास नगर
दिल्ली- 110032
प्रकाशन वर्ष-2004