Saturday, 28 July 2012

जैविक पिता और लांछित पिता की त्रासदी

दयानंद पांडेय 

सोचिए कि कर्ण को जब पता चला होगा कि सूर्य उस के नाज़ायज़ पिता हैं तो क्या कर्ण ने भी कभी मांग की होगी सूर्य से कि अपनी रोशनी और अपनी आग मुझे भी दे दो नहीं मैं तुम्हें बदनाम कर दूंगा? खैर, नारायणदत्त तिवारी अब रोहित शेखर के प्रमाणित पिता हो गए हैं। डी.एन.ए. रिपोर्ट का खुलासा हो गया है। रोहित शर्मा अब रोहित तिवारी हो कर उपस्थित हैं । चैनलों पर शहीदाना अंदाज़ में हैं और विजेता भाव में भी। मां उज्जवला भी हैं उन के सुर में सुर मिलाती। अगर नहीं है कोई तो नारायणदत्त तिवारी और बी पी शर्मा नहीं हैं। एक जैविक पिता हैं और दूसरे लांछित पिता। नारायणदत्त तिवारी का बयान तो उन के ओ.एस.डी. भट्ट ने पढ कर सुना दिया है। पर बी.पी शर्मा शुरु ही से इस पूरे परिदृश्य से अनुपस्थित हैं। उन की उपस्थिति होती भी तो भला किस तरह होती? क्या वह भी रोहित और उज्जवला के सुर में सुर मिलाते? कहना कुछ नहीं बहुत कठिन् है। अभी तो समूचा मीडिया तिवारी जी पर टूट पड़ा है। रोहित के बचपन से जवान होते जाने की तमाम-तमाम फ़ोटुओं के साथ जिन में तिवारी जी का रोहित के प्रति छलकता उत्साह साफ दिखता है। उज्जवला भी हैं इन फ़ोटुओं में छलकती और इतराती हुई। और अभी भी तिवारी जी का कहना है कि रोहित से उन्हें कोई शिकायत नहीं है।

तो क्या पुरुष होना इतना बडा़ गुनाह है?

तिवारी जी अगर इस पूरे मामले में दोषी हैं तो उज्जवला शर्मा क्या दूध की धोई हुई हैं? यह सवाल कोई नहीं कर रहा है। किया जाना चाहिए। मीडिया तिवारी जी को ऐसे कोस रही है गोया वह अपराधी हों। जैसे अमरमणि त्रिपाठी, आनंद सेन या राजस्थान के भंवरी केस के सुराणा की तरह हत्यारे हों। यह ठीक है कि वह नाजायज पिता होने के दोषी हैं। पर अपराधी नहीं हैं। भारतीय कानून की निगाह में वह अपराधी नहीं हैं। उन्हों ने अपने बयान में कहा भी है कि उन की सरलता के चलते उन्हें साज़िश के तहत फंसा दिया गया है। सार्वजनिक जीवन जीने की मर्यादा उन्हों ने खंडित की है। यह तो हम सब पहले ही से जानते रहे हैं। पर उन्हें अपराधी की तरह मीडिया में परोसना शर्मनाक है।

दिक्कत यह भी है कि जिस लालच में उज्जवला शर्मा और रोहित ने तिवारी जी की टोपी उछाली है सरे आम उस लालच में भी वह कामयाब होते दीखते नहीं हैं। रोहित की तकलीफ़ यह है कि घर में तो तिवारी जी उन्हें बेटा कह कर बुलाते थे पर बाहर निकलते ही टोपी पहन कर वह उन्हें भूल जाते थे। अजीब त्रासदी है यह? इतनी सारी फ़ोटो में तिवारी जी रोहित और उज्जवला के साथ हैं और हर फ़ोटो में रोहित के प्रति उन का वात्सल्य छलकता बार-बार दिखता है। रोहित और क्या चाहते थे? कि वह एक सार्वजनिक जीवन जीते हुए सब को बताते फिरते कि देखो मैं रोहित का नाज़ायज़ पिता हूं और कि इस की मां मेरी रखैल है?

सच यह है कि जब तक तिवारी जी सत्ता में रहे, सत्ता के फ़ायदे रोहित और उन की मा उज्जवला लूटती रहीं। बाद में जब तिवारी जी उन्हें फ़ायदा देने की स्थिति में नहीं रह गए तब यह मां-बेटे उन्हें भावनात्मक ब्लैकमेल करने लगे। तिवारी जी की संपत्ति के लिए। पर तिवारी जी के पास कोई संपत्ति होती तब न वह उन को देते? अपनी पैतृक संपत्ति तक का तो उन्हों ने ट्रस्ट बना दिया है। वह देते भी तो क्या देते उन्हें? और अभी भी वह क्या पा जाएंगे? दहाड़ तो रहे हैं रोहित कि हर कानूनी हक के लिए वह लड़ेंगे। अब बाकी तो संपत्ति की ही लड़ाई रह गई है न?

खैर। कल्पना कीजिए कि अगर तिवारी जी भी रोहित और उज्जवला के स्तर की बेशर्मी पर कहीं उतर गए होते तो परिदृष्य कैसा होता भला? लेकिन तिवारी जी तो शुरु ही से विरोधियों का भी सम्मान करने के अभ्यस्त रहे हैं। वह अभी भी रोहित के खिलाफ़ कुछ नहीं कह रहे। बल्कि रोहित के साथ सहानुभूति जता रहे हैं। नहीं जानने को कौन नहीं जानता था कि तिवारी जी रोहित के नाज़ायज़ पिता हैं। बिलकुल शुरु ही से। रोहित ने खुद कहा है कि उन के दफ़्तर के लोग उन्हें बहुत आत्मीयता से खिलाते थे। तो क्या मुफ़्त में? फिर भी वह दुहराते हैं कि घर से बाहर निकलते ही टोपी पहन कर वह उन्हें भूल जाते थे। शशि कपूर द्वारा निर्मित श्याम बेनेगल की एक बहुत महत्वपूर्ण फ़िल्म है कलयुग। महाभारत की ही कथा को आधुनिक परिवेश में उन्हों ने इस फ़िल्म में बुना है। दो उद्योगपति परिवार की कहानी है। गांधारी, कुंती, धृतराष्ट्र, भीष्म पितामह सभी हैं। जिस में कर्ण की भूमिका खुद शशि कपूर ने की है। रेखा द्रौपदी की भूमिका में हैं, कुलभूषण खरबंदा भीम और अनंत नाग अर्जुन वाली भूमिका में। अदभुत फ़िल्म है। जब कर्ण को मारने की बात चलती है तो कुंती डर जाती है। और सभी बेटों को इकट्ठा बैठा कर राय मशविरा करते हुए ऐसा करने से मना करती है। और बताती है कि कर्ण तुम सब का सब से बडा़ भाई है। यह सुनते ही अर्जुन की भूमिका में अनंतनाग जैसे कुंती पर टूट पड़ता है। और लगभग दौडा़ लेता है मारने के लिए। चीखता है, 'कुलटा कहीं की !' बडी़ मुश्किल से राज बब्बर, कुलभूषण वगैरह अनंतनाग को काबू कर पाते हैं।

फ़िल्मी ही सही एक दृष्य वह है और एक दृष्य यह है रोहित और उज्जवला का।

तिवारी जी जैसे विनम्र व्यक्ति के साथ यह हादसा ही है। जो लोग तिवारी जी और उन की विनम्रता को जानते हैं, वह लोग समझ सकते होंगे उन का अंतर्द्वद्व। यहां अभी और बिलकुल अभी एक बार की घटना याद आ रही है। नारायणदत्त तिवारी तब उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री हुआ करते थे। वोट बैंक के चक्कर में हाइकमान के निर्देश पर उन्हों ने उर्दू को दूसरी राजभाषा का दर्जा दे दिया था। इस के विरोध में पंडित श्रीनारायण चतुर्वेदी ने लगभग मुहिम सी चला दी थी तब। धरना प्रदर्शन सब किया। एक बार उन्हों ने लखनऊ में हिंदी संस्थान से जी.पी.ओ. तक जुलूस निकाला। और मुख्यमंत्री को ज्ञापन देने की बात थी। अमूमन होता यही है कि मुख्यमंत्री वगैरह के औपचारिक ज्ञापन आदि ज़िला प्रशासन के अधिकारी या उन से जुडे़ अधिकारी् ही ले कर इतिश्री कर लेते हैं और ज्ञापन वहां तक ज़रुरी समझते हैं तो पहुंचा देते हैं। पर उस बार उपस्थित अधिकारियों को जब ज्ञापन देने की औपचारिक बात की चतुर्वेदी जी ने और पूछा कि ज्ञापन आप ही लोग लेंगे या मुख्यमंत्री जी लेंगे? तो उपस्थित अधिकारियों ने उन से कहा कि, 'माननीय मुख्यमंत्री जी आप की प्रतीक्षा में हैं।' चतुर्वेदी जी पहुंचे मुख्यमंत्री कार्यालय अपने साथियों के साथ। तिवारी जी न सिर्फ़ प्रतीक्षारत थे बल्कि खडे़ हो कर उन्हों ने चतुर्वेदी जी का लगभग स्वागत किया। प्रणाम कहा। और खड़े हो कर ही हाथ जोड़ कर ही उन से ज्ञापन लिया। चतुर्वेदी जी बहुत गुस्से में थे, तिवारी जी की इस विनम्रता ने उन का सारा गुस्सा पी लिया था। वह मुसकुराते हुए लौटे थे। बाद के दिनों में तिवारी जी से मैं ने पूछा कि, 'अगर आप उन से सहमत थे, उन की मांगों को इस तरह स्वीकार कर रहे थे मान लेने में भी क्या हर्ज़ था?' तिवारी जी ने कहा कि, 'शासन और राजनीति की अपनी ज़रुरतें होती हैं पर इस सब के बावजूद, विरोध के बावजूद हम किसी को सम्मान तो दे ही सकते हैं, देना ही चाहिए। और फिर चतुर्वेदी जी विद्वान व्यक्ति हैं बुजुर्ग हैं, सम्मान का हक बनता है उन का।' ऐसे ही एक बार संस्कृत अकादमी की ओर से सम्मान समारोह आयोजित था। राजभवन में। अध्यक्षता राज्यपाल कर रहे थे। सम्मन तिवारी जी दे रहे थे। मैं ने देखा कि किसी भी विद्वान को उन्हों ने मंच पर नहीं आने दिया। खुद दौड़-दौड़ कर सभी विद्वानों के पास वह पहुंचे और कि सब को सम्मानित किया। अपने भाषण में भी वह विनम्र हुए। और कहा कि वेद्पाठी पंडितों को ढाई हज़ार रुपए सम्मान राशि बहुत कम है। अब वेदपाठी पंडित मिलते कहां हैं? उन्हों ने सम्मान राशि बढा़ कर तुरंत दस हज़ार कर दी और कहा कि अभी तो चेक बन गया है पर बची राशि भी विद्वानों के घर पहुंच जाएगी।

आज कल तो राजनेताओं से सरकारी या कोई अन्य सम्मान लेना भी लगभग अपमान हो गया है। वह ऐसे हिकारत से पेश आते हैं विद्वानों से कि जैसे कोई बहुत निकृष्ट काम कर रहे हों। अव्वल तो अब राजनेता ऐसे सम्मान समारोहों से कतराने लगे हैं। जैसे कि उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान का पुरस्कार कभी मुख्यमंत्री ही आते थे देने। पर मायावती कभी नहीं आईं ऐसे किसी समारोह में। किसी मंत्री को अपना प्रतिनिधि बना कर भेज देती थीं। मुलायम भी पिछले कार्यकाल में नहीं आते थे। और अब तो मायावती ने जाते-जाते दो-तीन पुरस्कार छोड़ कर सब रद्द कर दिए थे। अखिलेश सरकार ने उसे अभी तक बहाल नहीं किया है।

एक समय यह पुरस्कार प्रधानमंत्री देने आते थे। एक बार मोरार जी देसाई आए थे। आचार्य किशोरीदास वाजपेयी को भारत-भारती सम्मान मिलना था। उन का नाम पुकारा गया पर वह मंच पर नहीं पहुंचे। दो बार, तीन बार पुकारा गया। वह नहीं गए। मोरार जी ने आयोजकों से खिन्न हो कर पूछा कि वह आए भी हैं? उन्हें बताया गया कि आए हुए हैं और वह सामने की लाइन में बैठे हुए हैं। मोरार जी समझ गए। वह मंच से खुद उतर कर वाजपेयी जी के पास पहुंचे और उन्हें सम्मानित किया। रघुवीर सहाय ने तब दिनमान में इस विषय पर संपादकीय लिखी थी और बताया था कि यह पहली बार है कि सम्मान पाने वाले का चेहरा फ़ोटो में दिखा। नहीं अमूमन सम्मान देने वाले का चेहरा दिखता है।

क्षमा करें ज़रा विषयांतर हो गया।

पर क्या यह सम्मान समाज में किसी लेखक या किसी भी व्यक्ति का इस तरह रह गया है क्या? तिवारी जी का जो हाल मीडिया ने बीते कुछ वर्षों से बना रखा है, इस पितृत्व विवाद के चलते, लगता है जैसे वह कभी विकास पुरुष नहीं रहे, गिरहकट या लुच्चे हों। यह बहुत शर्मनाक है। किसी की निजी ज़िंदगी में मीडिया का इस तरह घुसपैठ किसी भी सूरत में ठीक नहीं है। पिता एक सम्मानित संस्था है उस को इस तरह लांछित करना किसी भी सभ्य समाज के लिए उचित नहीं है। पिता शब्द की गरिमा को बनाए रखना ज़रुरी भी है। तिवारी जी रोहित के पिता थे, यह रोहित और उज्ज्वला ही नहीं बहुतेरे लोग वर्षों से जानते थे। डी.एन.ए.टेस्ट ने अब उस पर एक मुहर लगा दी है। उन फ़ोटुओं को एक बार फिर से निहारिए जिस में रोहित के प्रति तिवारी जी का प्यार उन का वात्सल्य छ्लक रहा है। अनेक फ़ोटो इस की गवाह हैं। अगर सिर्फ़ ऐयाशी ही की ही भावना रही होती तो वह तमाम पुरुषों की तरह कतरा गए होते। और कम से कम साल दर साल हर जन्म-दिन पर फ़ोटो तो नहीं ही खिंचवाते। गलती उन से हुई है, सार्वजनिक जीवन जीने की मर्यादा उन्हों ने लांघी है पर इस बिना पर उन के पितृत्व को इस तरह चौराहे पर खडा़ कर लांछित तो मत कीजिए। सुन रही हैं उज्जवला जी, रोहित जी और मीडिया की दुकानें? और फिर बिचारे बी.पी शर्मा को भी समाज में मुंह दिखाने भर के लिए जीने का हक देंगे कि नहीं?

क्या पुरुष होना इतना बडा़ गुनाह है? कि औरत के सारे गुनाह माफ़ और पुरुष को फांसी !

यह ठीक है कि पिता घोषित हो कर तिवारी जी हार गए हैं। बालेश्वर एक गाना गाते थे कि, 'जे केहू से नाईं हारल/ ते हारि गइल अपने से !' तो तिवारी जी अपनों से हार गए हैं। और जो इसी बात को इस तरह भी देखना चाहें तो देख सकते हैं, कि बेटे से हार कर भी अंतत: पिता की ही जीत होती है। पिता के लिए इस से बडा़ सुख कोई और होता नहीं कि वह अपने ही जाए से हार जाए।


कोई बलात्कारी नहीं हैं नारायणदत्त तिवारी, साझी धरोहर हैं हमारी


तो क्या सामाजिक न्याय की आंच में सहिष्णुता स्वाहा हो गई है?

तो क्या सामाजिक न्याय की हद अब इतना आगे बढ़ चुकी है, इतना विस्तार पा चुकी है कि सहिष्णुता आदि अब बीते दिनों की बात हो चली है? सामाजिक न्याय की आंच में सहिष्णुता स्वाहा हो गई है? यहां बात मायावती की मूर्ति तोड़ने को ले कर अफ़रा-तफ़री को ले कर है। अगर ऐसे ही मूर्तियां तोड़ने की बात होने लगेगी तो देश और समाज कहां जाएगा भला? आज हम आप की मूर्ति तोडे़, कल आप हमारी मूर्ति तोड़ें। यह सिलसिला जो चल निकला तो क्या होगा? और यह मुश्किलें आगे आने वाले दिनों में और आने ही वाली हैं। सत्ता और जनता की जगह सत्ता और प्रजा का रिश्ता समाज को कितना तोड़ेगा इस का अंदाज़ा लगाना बहुत मुश्किल नहीं है। ऐसे कारणों की पड़ताल और निदान जो समय रहते नहीं किया गया तो देश गृहयुद्ध के मुहाने पर कब आ जाए, कहा नहीं जा सकता।

कबीर का कहा, 'जो तोंको कांटा बुए ताहि बुए तू फूल, तोंको फूल को फूल है वाको है तिरसूल!' को अगर मायावती ने कभी पढ़ा और गुना होता अपनी राजनीति के ककहरे में तो शायद जैसे २६ जुलाई के दिन उत्तर प्रदेश आग के मुहाने पर बैठते-बैठते रह गया वह नौबत नहीं आई होती। यहां अखिलेश यादव की तारीफ़ करनी होगी कि समय रहते ही उन्हों ने सकारात्मक बयान और कार्रवाई कर के उत्तर प्रदेश को जलने से बचा लिया। लेकिन सोचिए कि खुदा न खास्ता अगर अखिलेश ने भी ईंट का जवाब पत्थर से देने की नीति अख्तियार की होती या आंख मूंद लिया होता इस घटना से तो उत्तर प्रदेश की आज क्या हालत होती? दलित उभार की आग में समूचा प्रदेश जल रहा होता। देश के बाकी हिस्से भी झुलस सकते थे। चुनाव के तुरंत बाद ही सरकार बनने की रवायतों के दौरान अखिलेश का एक बयान आया था कि सारी मूर्तियां हटा दी जाएंगी। तो मायावती फ़ौरन गरज गई थीं कि, 'तो पूरे देश की कानून व्यवस्था बिगड़ जाएगी।' और तो और भाजपा तो बीच चुनाव में ही हुंकार भर रही थी कि सरकार बनने के बाद सारी मूर्तियां ढहा दी जाएंगी। भाजपा के तत्कालीन प्रदेश अध्यक्ष सूर्य प्रताप शाही यह बयान बार-बार दुहरा रहे थे चुनाव के दौरान। उन की सरकार नहीं बनी यह अलग बात है। पर अगर किसी तरह बन ही गई होती तो क्या वह भी मायावती समेत किसी की मूर्ति हटा या हटवा पाते भला?

भारतीय राजनीति में सर्वदा ही से सहिष्णुता का भाव रहा है। वैष्णव जन तो तेने कहिए, पीर पराई जाणे रे का भाव रहा है। राजनीतिक भेद-मतभेद पहले भी रहते रहे हैं पर सहिष्णुता नहीं जाती थी। पौराणिक गाथाओं में भी यह सहिष्णुता बार-बार मिलती है। महाभारत में जाएं तो सू्र्य अस्त होने के बाद युद्ध स्थगित हो जाता था। तो जो दिन में शत्रु भाव में मारे गए या घायल हो गए के खेमे में दूसरा पक्ष भी दुख जताने जाता ही था। दोनों ही पक्ष यह करते थे। रामायण में भी जाएं तो भले धोखे ही से बालि को राम ने मारा पर उस के पास दुख जताने वह पहुंचे ही। ऐसे ही रावणवध में भी विभीषण की सलाह पर नाभि में तीर मारने के बावजूद दुख जताने और ज्ञान पाने के लिए रावण के पास राम के जाने का विवरण मिलता ही है। यह और ऐसी तमाम घटनाओं से कथाएं और इतिहास भरा पड़ा है।

बहुत पुरानी बात नहीं है। देश आज़ाद हो गया था। विभाजन के बाद लगभग समूचा देश दंगों की आग में दहक रहा था। दंगे रोकने की सारी कोशिशें नाकामयाब हो चली थीं। नेहरु और पटेल आजिज हो गए थे। आखिर उन के पास राजनीति का तो अनुभव था पर प्रशासनिक अनुभव में शून्य थे। हार कर नेहरु और पटेल माऊंटबेटन के पास पहुंचे और बोले, 'संभाल लीजिए फिर से देश की बागडोर। पर इस देश को दंगों की आग से बचाइए। किसी भी तरह।' तो माऊंटबेटन ने दोनों लोगों को समझाया था कि देश की बागडोर मुझे फिर से मत सौंपिए। नहीं यह देश आप लोगों को कभी माफ़ नहीं करेगा।' 'तो देश को ऐसे ही जलने दें?' नेहरु ने विकल हो कर माऊंटबेटन से पूछा था। 'नहीं।' माऊंटबेटन ने उन्हें धीरज बंधाया और कहा कि, 'दंगों पर काबू मैं ही कर दूंगा पर इस के लिए देश की बागडोर मुझे सौंपने की ज़रुरत नहीं है।' उन्हों ने कहा कि आप एक कमेटी बना दीजिए और उस का चीफ़ मुझे बना दीजिए। और जिस-जिस को बता रहा हूं उस-उस को उस कमेटी का सदस्य बना दीजिए।' नेहरु ने ऐसा ही किया। इस तरह बिना राजनीतिक बागडोर हाथ में लिए माऊंटबेटन ने प्रशासनिक बागडोर थाम ली और देश में दंगों पर काबू पा लिया गया। यह भारतीय राजनीति में सहिष्णुता की एक मिसाल है। ऐसी अनेक मिसालें हैं। आप देखिए न कि पाकिस्तान भारत के लिए जब-तब आतंकवाद के कांटे बिछाता ही रहता है पर जब वहां भूकंप या कोई और आपदा आती है तो भारत उस विपदा में उस की खुल कर मदद करता ही है। यह सहिष्णुता ही है। पर क्या मायावती इस सहिष्णुता शब्द से वाकिफ़ भी हैं भला? होतीं तो जो राजनीतिक शिष्टाचार की जगह 'गिव' एंड 'टेक' की खुल्लमखुल्ला शैली विकसित की है उन्हों ने नहीं किए होतीं। वह कभी किसी और पार्टीजन तो छोड़िए अपनी पार्टी के लोगों से भी कोई राजनीतिक या सामाजिक संवाद करती नहीं दिखतीं। कभी किसी के दुख-सुख में शरीक नहीं दिखतीं। वह तो कहती हैं कि संगीत तो संगीत, चिड़ियों की चहचहाहट तक उन्हें पसंद नहीं। उन्हें तो बस सत्ता, पैसा, अपनी हनक, अपनी तानाशाही और हां, अपनी मूर्तियां ही पसंद हैं।

दरअसल मायावती और उन के आका कांशीराम के लिए तो 'तिलक, तराजू और तलवार, इन को मारे जूते चार' ही मुफ़ीद रहा। सहिष्णुता की भाषा और व्यवहार से जैसा उन का कोई सरोकार कभी नहीं रहा। तभी तो गांधी जिन को लगभग समूची दुनिया सम्मान देती है उन को भी मायावती शैतान की औलाद बता देती हैं। और उस कहे पर उन को कोई पछतावा कभी हुआ नहीं। जैसे दलित उभार और दलित वोट ही उन की सांस और ज़िंदगी है। देश, शिष्टाचार आदि से वह जैसे परिचित ही नहीं दीखती। एक समय कांशीराम भी जूते पहन कर गांधी समाधि पर उधम मचा कर सुर्खियां बटोर चुके थे। बताइए कि वह गांधी जिस ने क्विट इंडिया का नारा दे कर ब्रिटशर्स को देश से खदेड़ दिया था, वह ब्रिटिशर्स भी गांधी को क्या तो सम्मान देते हैं। रिचर्ड एटनबरो जैसे बडे निर्देशक उन पर दुनिया की सब से बेहतरीन फ़िल्म तक बनाते हैं। उन गांधी को जिन को देश राष्ट्रपिता मानता है, मायावती एक संवैधानिक पद पर रहते हुए भी, मुख्यमंत्री रहते हुए भी शैतान की औलाद कहने में गुरेज़ नहीं करतीं। उन्हीं दिनों मैं ने एक इंटरव्यू में मायावती से पूछा था कि, 'जिस गांधी को लगभग पूरी दुनिया सम्मान देती है, लगभग पूजती है उस गांधी को आप शैतान की औलाद कह देती हैं। कोई दिक्कत नहीं होती आप को? जनता आप का विरोध नहीं करती कभी?' यह सवाल सुन कर मायावती खिलखिला कर हंसी थीं तब। और मुझ से ही प्रतिप्रश्न कर बैठीं थीं कि, 'क्या कह रहे हैं आप? हमारा समाज तो इस बात को बहुत पसंद करता है। आप को पता है कि इस बयान के बाद हमारी सभाओं में भीड़ बढ़ गई है। हमारा गिफ़्ट बढ़ गया है। पहले जहां हज़ारों की थैली मिलती थी, वहां अब लाखों की थैली मिलने लगी है।' बाद के दिनों में तो खैर उन की यह थैली करोड़ों और फिर अरबों तक पहुंच गई। अंबेडकर जैसे बड़े नेता को उन्हों ने अपने सत्ता और पैसे की चाह में सिर्फ़ दलितों का नेता बना कर रख दिया। सत्ता और पैसे की चाह में वह अंधी हो गईं। जैसे सत्ता और पैसा ही उन की सांस हो गया। लखनऊ को जैसे उन्हों ने हस्तिनापुर बना दिया। धृतराष्ट्र और गांधारी बन गईं। जीते जी अपनी ही मूर्तियां भी वह लगवाने लग गईं। सुप्रीम कोर्ट कहता रहा कि काम बंद कीजिए और यह काम करवाती रहीं। हां, कल्याण सिंह ने जैसे एक समय बाबरी मस्जिद बचाने का शपथ पत्र दिया था, और मस्जिद गिरवा दी थी, उसी तरह यह भी शपथ पत्र देती रहीं कि काम बंद हो गया है। और दिन-रात काम करवाती रहीं। कानून की आंख में धूल झोंकती रहीं। अब तक कामयाब हैं। रहेंगी भी। क्यों कि वह दलित की बेटी हैं। कानून, समाज, परंपरा, शिष्टाचार आदि से ऊपर हैं। अभी कुछ दिन पहले की बात है कि ताज मामले में भी वह क्लीन चिट पा चुकी हैं। सुप्रीम कोर्ट ने आय से अधिक संपत्ति मामले में उलटे सी.बी आई को डांट दिया कि इस मामले को इस में जोड़ने की क्या ज़रुरत है?

खैर यह एक अलग विषय है।

पर सोचिए कि अगर मायावती ने ४० अरब रुपए से अधिक खर्च कर दलित चेतना का यह मायावी और भ्रष्टाचारी संसार अगर न रचा होता तो क्या तब भी वह चुनाव हार गई होतीं? और कि क्या उन की मूर्ति इस तरह तोड़ कर उन्हें अपमानित किया जाता भला? और जो उन्हीं की तरह शठं-शाठ्यम समाचरेत की धुन पर अखिलेश यादव भी चले होते, रातो-रात नई मूर्ति न लगवाए होते तो सोचिए भला आज की तारीख में उत्तर प्रदेश किस कदर जल रहा होता दलित उभार की आग में। सोचना यह भी लाज़िम है कि मायावती ने अगर अपनी इतनी सारी मूर्तियां बनवा कर न रखी होतीं तो क्या हुआ होता? रातो-रात मूर्ति कहां से आती? सवाल यह भी है कि क्या यह इतना संगीन मामला है कि इस बिना पर उत्तर प्रदेश में राष्ट्रपति शासन लगा दिया जाए? जैसा कि राज्यपाल से मिल कर बसपा नेताओं ने मांग की है। यह तो कानून व्यवस्था को हाइजैक करना हुआ। तो क्या सामाजिक न्याय अब इतना आगे बढ़ चुका है कि सहिष्णुता आदि अब बीते दिनों की बात हो चली है? सामाजिक न्याय की आंच में सहिष्णुता स्वाहा हो गई है?

वो जो कहते हैं न कि अभी तो यह अंगड़ाई है, आगे और लडा़ई है, वाली स्थिति है। अगर जैसा कि अखिलेश कह चुके हैं कि स्मारकों का इस्तेमाल वह स्कूल, अस्पताल आदि खोलने में करेंगे। भगवान उन्हें सदबुद्धि दें कि ऐसा वह हरगिज़ नहीं करें। अब जो बन गया है उसे वैसे ही रहने दें। यही देश और प्रदेश के हित में है। हालां कि कई बार मन होता है मायावती और उन के कारिंदों से यह पूछने का कि कबीर और रैदास जैसे लोग भी दलित ही हैं, उन की मूर्तियां या उन की अनुपस्थिति इन स्मारकों से क्यों है आखिर? क्या इस लिए कि यह लोग बैर भुला कर सहिष्णुता की अलख जगाने वाले लोग थे? खरी-खरी कहने वाले लोग थे इस लिए? पर इस पर कोई क्यों जवाब देगा, यह भी जानता हूं। काश कि जो तूंको कांटा बुए ताहि बुए तू फूल का पाठ राजनीति की पाठशालाओं में फिर से पढ़ाने की कवायद होती तो क्या बात होती !

Monday, 23 July 2012

बर्फ़ होती मुश्किलों में धूप

गौतम चटर्जी

यह आकस्मिक नहीं है कि इस दौर में एक बार फिर कहानियां लिखी जा रहीं जो विदग्ध स्थतियों के विपर्यय को पूरी विनम्रता से अपदस्थ कर सके। कथाकार दयानंद पांडेय की अद्यतन कथा-दुनिया में भी यदि कुछ आनुपूर्वी है तो वह यही है। उन के पिछले कहानी संग्रह ‘सुंदर लड़कियों वाला शहर’ की कहानियों को यदि आप याद करें तो हां भी विपर्यय को अपदस्थ करने के लिए नायक या नायिका अपने आसपास कोई शक्ति ढूंढ पाते हैं तो वह है प्रेम। दयानंद के इस बिलकुलल नए कहानी संग्रह में वही प्रेम नहीं है, बल्कि प्रेम नए अर्थ और आंच के साथ उन सब से मिलने आया है जिन्हें हम एक शब्द में कृतघ्नता कह सकते हैं। लेखक को विश्वास है कि आज आदमी में मनुष्य से पहले उस की कृतघ्नता मिलती है, और यह विश्वास भी, कि प्रेम ही इसे अपदस्थ भी करेगा।

दस बहुवांचक कहानियों के इस रोचक संग्रह में सारी कहानियां आप एक सांस में पढ़ जायेंगे और फिर भी आप को एक अस्वस्ति मिलेगी, आश्वस्ति नहीं। बेचैनी मिलेगी, बेफिक्री नहीं। इस से पहले कि मैं अपनी प्राश्निकी स्पष्ट करूं, एक बात कौंधती है कि हिंदी साहित्य के ‘रंगकर्म’ का यह कैसा अंधायुग है कि जिसे कहा जाना चाहिए सच्चे अर्थों में कहानी, उसे युवा कथाकार एक अरसे से लिख रहे हैं और उन्हें कोई सच्चे अर्थों में नोटिस नहीं ले रहा। पुस्तक और समीक्षाओं का महज छपना नोटिस लेना नहीं होता। अच्छी कहानियां समकालीन विमर्श का अर्थगर्भ नाभिक बनती हैं। साठ और सत्तर के दशक में लिखी गई हिंदी कहानियां इस तथ्य के प्रमाण हैं। अस्सी के दौर में युवा कथाकारों के उत्तेजक प्रयोगों ने जो प्रतिगामी यथार्थ बोया था उस का फल तो क्राइसिस के रूप में सामने आ गया। अब अगर हम ऐसी कहानियों को समय रहते नोटिस न लें जो इस आलोच्य संग्रह का परिचय हैं तो फिर हम भविष्य की हिंदी कहांनियों पर विमर्श करने लायक भी नहीं रह जाएंगे। उत्तर आधुनिक वक्तव्यों ने एक बात साफ तौर पर सामने रखी थी कि पूरी दुनिया एक टेक्स्ट है। यह पाठ स्वनिर्मित है, सेल्फ कंस्ट्रक्टेड। इस स्वनिर्मित पाठ का अर्थ भी स्वनिर्मित है। देरिदा, फूको और चॉम्स्की के ऐसे वक्तव्यों को सुन कर भारतीय कथा सचेतक अभी तक स्तब्ध हैं और सब रचे हुए और रचे जाने को व्यर्थ मान रहे। उन्हें अभी तक इस उत्तर आधुनिक वक्तव्य का उत्तर नहीं मिल पाया है। उत्तर भारतीय काव्यशास्त्र ने पहले ही दे रखा है। काव्यशास्त्र ने रचनाकार को अपने इसी स्व को, आत्म को व्याप्ति देने का प्रस्ताव दिया है। जैसा स्व होगा वैसी ही निर्मिति होगी और वैसा ही उसका साधारणीकरण (डी-इन्डिविजुअलाजेशन या मास कम्युनिकेशन) होगा। इसी दृष्टि के तहत रचने वाले लगातार रच रहे। गद्य के सावन में यदि अभी हमारे सामने वरिष्ठ कवि कुँवर नारायण की रचना ‘वाजश्रवा के बहाने’ आई है तो कहानियों के भादो में है ‘बर्फ़ में फंसी मछली।’ संग्रह में शीर्षक कहानी को सब से पहले रखा गया है। इस कहानी में उस नायक का एक स्व स्थापित होता है जिसे व्याप्ति मिलनी है अन्य कहानियों में जिसे कथाकार ने अलग-अलग कथा-चरित्रों में छुपाने की सार्थक कोशिश की है। यद्यपि छुप नहीं सका है प्रेम फिर भी प्रेम की आकुलता ने चरित्र का ऐन्थ्रोपोमॉर्फिक रूप ले लिया है ताकि वह अपनी तमाम सांसारिक विवश स्थितियों में प्रतिक्रिया तो कर ही सके। अपने सुपरिचित रंगशिल्प अर्थात संवादशिल्प के सहारे कथाकार ने अंतत: यहाँ भी आकुलता को व्याकुल ही रहने दिया है, उसे उस के अवचेतन में तृप्त नहीं होने दिया है कलिकथा बाइपास या प्रभा खेतान के मुख्य चरित्रों की तरह। इस कहानी के अंतिम दो संवाद हैं- ‘सारा प्यार भस्म हो गया था। बर्फ़ में फंसी मछली वह खुद बन गया था।’ लगभग इसी मूड में चार अन्य कहानियां भी विराम लेती हैं, संगम के शहर की लड़की, कन्हई लाल, मन्ना जल्दी आना और संवाद। संवाद एक पूरी चिट्ठी की शक्ल में लिखी कहानी है और यह पूरी है अपनी कहानी और कहन दोनों में। यह कथाकार की मोनोटोनी हो सकती है कि एक संग्रह की चार कहानी एक मूड के निकष तक ही आ पाती है लेकिन उन चारों कहानी की खूबसूरती भी उन का ऐसा अंत ही है। मैत्रेयी की मुश्किलें और एक जीनियस की विवादास्पद मौत संग्रह की श्रेष्ठ कहानियां हैं। श्रेष्ठ और सुंदर। आज के दौर में इन्हें कहानी के उत्कृष्ट मॉडल के रूप में किसी भी भारतीय भाषा की कहानी के सामने रख सकते हैं। हाल ही में बांग्ला में इसी कोटि की एक कहानी पढ़ने को मिली थी सात्यकि हाल्दार की कहानी ‘बहुरूपी’। इन तीन कहानियों में भाषा का आर्किटेक्चर एक खूबसूरती तो है किंतु उस से खूबसूरत है कि कहानी स्वयं ही अपने को कहती है, सहज और सात्विक ढंग से, लेखक के अहं की परवाह किए बगैर। हालां कि मैत्रेयी में लेखक कहीं-कहीं चाहता है कि मैत्रेयी उस के आधिपत्य से निकल न जाए जब वह उसे उसी की तरह बहने देता है-
‘मैं तितली बनकर आऊंगी।’
‘तितली बन कर क्या करोगी? ’
‘अजय से मिलूंगी।’
‘मतलब अजय को भी तितली बना दोगी? ’
‘और क्या, तभी तो उस से मिलूंगी। मिल कर खूब उड़ूंगी। पूरे पंख पसार के।’
‘तितली अगर किसी डरती है तो गिरगिट से।’
‘फिर मैं वृक्ष या फूल बन जाऊंगी। नहीं, इसे भी मनुष्य नष्ट कर देता है।’
‘तो? ’
‘मैं प्रकृति का अंश बन कर पूरी प्रकृति में रहूंगी। गंगा में, आकाश में, फूलों में, चिड़ियों में बारिश में, मंत्रों के उच्चार में ... ’
दयानंद के काव्यस्पर्शी संवादों में वह मन प्रकट होता है जो व्याप्ति चाहता है। अपने सेल्फ़ या स्व को सहज ही आकाश बनने देने और उस का उन्हीं क्षणों में साक्षी न हो कर मुग्ध भाव से निहारते रहने में कहीं दृष्टि के ठीक पीछे तैनात अंधेरे अनुभवों की विरक्ति से मुक्ति की वासना भी है। तभी वे अपना संग्रह एक बार फिर अपने अनुपूर्वी कहन ‘सुंदर लड़कियों वाला शहर’ से करते हैं। मानों बात इसी से पूरी हो सकती थी। और अंत में, ये कहानियां प्रेम की साधना को शरत चंद्र की साधनानिष्ठ प्रेमकहानियों की तरह इस मनोविन्यास में प्रशस्त करती हैं कि प्रेम के जिस भी निकष पर चरित्र शुरू हुए हों, उसी क्षण से वांछित प्रेम के योग्य बनना ही आज भारतीय चरित्र का तप है जिसकी धूप बर्फ़ होती मुश्किलों को आसान बना सकती हैं। क्यों कि छवियाँ मुश्किलें पैदा करती हैं और प्रेम अग्निरूप अनुतप्त छवियों से मुक्ति में पिघलना शुरू करता है निर्मल झरने की तरह बहने के लिए।

[ इंडिया टुडे से साभार ]

समीक्ष्य पुस्तक:


बर्फ़ में फंसी मछली
पृष्ठ-192
मूल्य-250 रुप॔ए

प्रकाशक
सर्वोदय प्रकाशन
512-बी गली नंबर- 2, विश्वास नगर
दिल्ली- 110032
प्रकाशन वर्ष-2008



Tuesday, 17 July 2012

मीडिया तो अब काले धन की गोद में

दयानंद पांडेय 

मीडिया के बाबत कुछ कहते हुए अब हिचक होती है। अब कुछ कहते हुए कलेजा कांपता है। पर सच है तो कहना भी ज़रुरी है। इस की तफ़सील बहुत सारी हैं पर जो एक लाइन में कहना हो तो कहूंगा कि मीडिया अब काले धन की गोद में बैठी है। मीडिया मतलब अखबार, चैनल, सिनेमा सभी। काले धन की जैसे हर जगह बाढ आ गई सी है। धरती बदली, पानी बदला, वायुमंडल बदला और यह मीडिया भी। पर्यावरण संतुलन सब का ही बिगड़ा है। पर इन सब की तुलना में मीडिया का पर्यावरण संतुलन बेहिसाब बिगड़ा है। कार्बन इतना इकट्ठा हो गया है कि मीडिया की सांस बची भी है कि नहीं कहना मुश्किल है। आक्सीजन समाप्त है यह भी तय है। इसी लिए मीडिया के सरोकार भी समाप्त हैं। सामाजिक सरोकार की जगह अब सिनेमाई सरोकार मीडिया में घर कर गए हैं। मीडिया में अब क्रिकेट, अपराध और राजनीति की छौंक के साथ सिनेमाई सरोकार की जुगलबंदी अपने चरम पर है।


हद तो यह है कि जो काम मीडिया को करना चाहिए था, अखबारों और खबरिया चैनलों को व्यापक तौर पर करना चाहिए था, वह काम अब मनोरंजन की दुनिया के आमिर खान कर रहे हैं, बरास्ता सत्यमेव जयते। हालां कि वह भी अंगुली कटवा कर शहीद बनने का ही उपक्रम कर रहे हैं। एक नई दुकान चला रहे हैं। लोग भूल गए हैं कि कि कभी यही काम दूरदर्शन पर एक समय कमलेश्वर अपने परिक्रमा कार्यक्रम के तहत बडी शिद्दत और तल्खी से कर गए हैं। लेकिन तब दूरदर्शन की या चैनलों की इतनी पैठ और पहुंच नहीं थी। फिर इसी काम को एक समय दूरदर्शन पर ही मन्नू भंडारी की स्क्रिप्ट पर बासु चटर्जी ने रजनी धारावाहिक नाम से किया। जिस में विजय तेंदुलकर की बेटी प्रिया तेंदुलकर आमिर खान वाली भूमिका में कहीं ज़्यादा तल्ख ढंग से समस्याओं को ले कर उपस्थित होती थीं। बाद के दिनों में मेट्रो दूरदर्शन पर एक समय विनोद दुआ परख पर ऐसे ही विषयों को ले कर थोडी मुलायमियत के साथ आते रहे थे। खबरिया चैनलों का तब न ज़माना था, न ऐसा आतंक। पर अपनी सीमाओं में सही लोग सरोकार से मुठभेड़ करते दिखते थे। हां, यह ज़रूर है कि आमिर खान की तरह कार्यक्रमों की इस तरह पैकेजिंग या मार्केटिंग कर करोड़ों रुपए कमाने की ललक में शायद नहीं ही थे यह लोग। आप जानते ही हैं कि प्रति एपिसोड आमिर खान तीन करोड़ लेते हैं सत्यमेव जयते कहने के लिए। अभी तक सब को करोड़पति बनने का सपना बेचने के लिए अमिताभ बच्चन प्रति एपीसोड डेढ़ करोड़ रुपया लेते रहे हैं। खैर। कुछ दूसरे मसलों पर ही सही एन. डी. टी.वी पर कभी-कभार रवीश कुमार भी जब-तब एक रिपोर्ट ले कर उपस्थित होते रहते हैं। जिस में कभी-कभार सरोकार झलक जाता है।

समूचे देश में शिक्षा और चिकित्सा आम आदमी से कैसे तो दूर हो गए हैं कि एक ईमानदार आदमी न तो अपने बच्चों को अच्छी शिक्षा दे सकता है न अच्छी चिकित्सा पा सकता है। शिक्षा के नाम पर स्कूल और कालेज तथा चिकित्सा के नाम पर बडे या छोटे अस्पताल लूट के सब से बडे अड्डे बन गए हैं। पर किसी मीडिया या सरकार के पास इस की कोई कैफ़ियत या विरोध है भला? बल्कि इस लूट के अड्डों को यह सब मिल कर सुरक्षा देने में लग गए हैं।

एक समय मीडिया को प्रेस नाम से जाना जाता था। यह शब्द अंग्रेजी से आया था। हुआ यह कि पहले छपाई की जो प्रक्रिया थी वह दबा कर ही होती थी। मतलब प्रेस कर के। तो मान लिया गया कि प्रेस का काम दबाव बनाना है। और फिर प्रेस नाम देखते ही देखते लोकप्रिय हो गया। अंगरेजी, हिंदी हर कहीं प्रेस शब्द पॉपुलर हो गया। लेकिन बाद के दिनों मे मीडियम बढ़ते गए। लेखन, थिएटर, संगीत, पेंटिंग आदि माध्यम तो पहले ही से थे पर यह प्रेस के लिए नहीं वरन कला आदि के नाम पर जीवित थे। खैर, अखबार से बात आगे बढ़ी। रेडियो आ गया। सिनेमा आ गया। फिर टी.वी आ गया। अब वेब मीडिया भी आ गया है। इस  वेब मीडिया के भी कई-कई रुप हो गए हैं। पोर्टल, वेबसाइट, ब्लाग, आर्कुट, फ़ेसबुक, ट्विटर आदि-इत्यादि। किस्सा कोताह यह कि अब प्रेस मीडिया के रुप में हमारे सामने उपस्थित है। और उस के 'प्रेस' का मिजाज और रंग अब उलटा हो चला है। पहले मीडिया लोगों पर दबाव बनाने के लिए जाना जाता था, अब मीडिया को हम विभिन्न दबाव में काम करते हुए देखते हैं। और उस के काम का जो हासिल है वह भी अब किस खाते में रखा जाए यह भी एक यक्ष प्रश्न है। अखबारों और चैनलों में काम करने की नित नई तकनीक ईजाद होती जा रही हैं। काम बहुत आसान होता जा रहा है। पर सामाजिक सरोकार शून्य हो गया है।

हमारे देश में एक-दो बहुत बड़े भ्रम हैं। जैसे कि हिंदी हमारी राष्ट्र भाषा है। जब कि नहीं है। कम से कम संवैधानिक हिसाब से तो बिलकुल नहीं। हमारे पास खेल से लगायत, पशु-पक्षी तक राष्ट्रीय हैं पर कोई एक राष्ट्रीय भाषा नहीं है। जाने कैसे कभी मैथिली शरण गुप्त, रामधारी सिंह दिनकर या सोहनलाल द्विवेदी तक को राष्ट्रकवि का दर्जा दिया गया था। खैर इसी तरह का एक और बहुत बड़ा भ्रम है कि प्रेस हमारा चौथा स्तंभ है। जब कि सच यही है कि हमारे संविधान में किसी चौथा स्तंभ की कल्पना तक नहीं है। सिर्फ़ तीन ही स्तंभ हैं। विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका। बस। चौथा खंभा तो बस एक कल्पना भर है। और  सचाई यह है कि प्रेस हमारे यहां चौथा खंभा के नाम पर पहले भी पूंजीपतियों का खंभा था और आज भी पूंजीपतियों का ही खंभा है। हां, पहले कम से कम यह ज़रुर था कि जैसे आज प्रेस के नाम पर अखबार या चैनल दुकान बन गए हैं, कारपोरेट हाऊस या उस के प्रवक्ता बन गए हैं, यह पहले के दिनों में नहीं था। पहले भी अखबार पूंजीपति ही निकालते थे पर कुछ सरोकार, कुछ नैतिकता आदि के पाठ हाथी के दांत के तौर पर ही सही थे। पहले भी पूंजीपति अखबार को अपने व्यावसायिक हित साधने के लिए ही निकालते थे, धर्मखाते में नहीं। पर आज?

आज तो हालत यह है कि एक से एक लुच्चे, गिरहकट, माफ़िया, बिल्डर आदि भी अखबार निकाल रहे हैं, चैनल चला रहे हैं और एक से एक मेधावी पत्रकार वहां कहांरों की तरह पानी भर रहे हैं या उन के लायजनिंग की डोली उठा रहे हैं। और सेबी से लगायत, चुनाव आयोग और प्रेस कौंसिल तक पेड न्यूज़ की बरसात पर नख-दंत-विहीन चिंता की झड़ी लगा चुके हैं। पर हालात मर्ज बढ़ता गया ज्यों-ज्यों दवा की सरीखी हो गई है। नौबत यह आ गई है कि अखबार या चैनल अब काला धन को सफ़ेद करने के सब से बड़े औज़ार के रुप में हमारे समाज में उपस्थित हुए हैं। और इन काले धन के सौदागरों के सामने पत्रकार कहे जाने पालतू बन गए हैं। पालतू बन कर कुत्तों की वफ़ादारी को भी मात दिए हुए हैं यह पत्रकार कहे जाने वाले लोग। संपादक नाम की संस्था समाप्त हो चुकी है। सब से बुरी स्थिति तो पत्रकारिता पढ़ रहे विद्यार्थियों की है। पाठ्यक्रम में उन्हें गांधी, गणेश शंकर विद्यार्थी, पराड़कर, रघुवीर सहाय, कमलेश्वर, मनोहर श्याम जोशी, प्रभाष जोशी, राजेंद्र माथुर आदि सरीखों की बात पढ़ाई जाती है और जब वह पत्रकारिता करने आते हैं तो गांधी, गणेश शंकर विद्यार्थी या पराड़कर, जोशी या माथुर जैसों की जगह राजीव शुक्ला, रजत शर्मा, बरखा दत्त, प्रभु चावला आदि जैसों से मुलाकात होती है और उन के जैसे बनने की तमन्ना दिल में जागने लगती है। अंतत: ज़्यादातर फ़्रस्ट्रेशन के शिकार होते है। बिलकुल फ़िल्मों की तरह। कि बनने जाते हैं हीरो और एक्स्ट्रा बन कर रह जाते हैं। सो इन में भी ज़्यादातर पत्रकारिता छोड़ कर किसी और रोजगार में जाने को विवश हो जाते हैं।

सोचिए कि नोएडा में देश के ज़्यादातर न्यूज़ चैनलों के दफ़्तर-स्टूडियो हैं। ढेर सारे अखबारों के दफ़्तर भी। पर एक समय इसी नोएडा में निठारी कांड हुआ था। लगातार दो साल तक बच्चे गायब होते रहे। अखबारों में, पुलिस में केस दर्ज होने के बाद छिटपुट छोटी-छोटी खबरें भी यदा- कदा उन की गुमशुदगी की छपती रहीं। पर लगातार बच्चे गायब होने के बावजूद किसी अखबार या चैनल ने इस खबर की पड़ताल करने की ज़रुरत नहीं समझी। इस लिए कि यहां से गरीबों के बच्चे गायब हो रहे थे और इन्हें पकी-पकाई खबर कोई फ़ीड नहीं कर रहा था। जब बच्चों के कंकाल मिलने शुरु हुए तब इस सो काल्ड मीडिया की नींद टूटी और यह बात खबर बनी। लेकिन तब तक जाने कितने घरों के चिराग और लाज उजड़ चुके थे। सोचिए कि समय रहते यह मीडिया अगर जाग गया होता तो कितने लाडले और बेटियां बच गई होतीं।

अभी बहुत दिन नहीं हुए कामनवेल्थ गेम में घपलों की फ़ेहरिस्त जाने हम लोगों को। ऐन दिल्ली की नाक के नीचे यह सब होता रहा, पर मीडिया के कान में जूं नहीं रेंगा। देश की लाज जाते-जाते बची। लेकिन यह घपले क्या समय रहते सामने आए? नहीं और बिलकुल नहीं। वह तो टाइम्स आफ़ इंडिया के व्यावसायिक हित सामने आ गए और सुरेश कलमाडी के हितों से टकरा गए। टाइम्स ग्रुप को कामनवेल्थ गेम की पब्लिसिटी का ठेका चाहिए था। कलमाडी ने आदतन सुविधा शुल्क मांग लिया और कुछ ज़्यादा ही मांग लिया। बात नहीं बनी। और टाइम्स ग्रुप नहा धो कर कलमाडी के पीछे पड़ गया।  तो धीरे-धीरे सभी मीडिया को आना पड़ा। कलई खुल गई। नहीं अगर कलमाडी जो टाइम्स ग्रुप से बिना सुविधा शुल्क लिए उसे पब्लिसिटी का ठेका जो दे ही दिए होते तो क्या तब भी कामनवेल्थ घोटाला सामने आ पाया होता भला? कहना कठिन है। तिस पर तुर्रा देखिए कि अब कलमाडी ज़मानत पर जेल से बाहर हैं और ओलंपिक में जाने की दहाड़ ही नहीं मार रहे, खेल मंत्री की टोका-टाकी से भड़क कर अदालत की अवमानना की दुहाई दे कर खेल मंत्री माकन का इस्तीफ़ा भी मांग रहे हैं। और यह बेशर्म मीडिया उन का यह बयान तो दिखाता है पर कलमाडी से प्रति-प्रश्न करने की हैसियत में भी नहीं है। यह कौन सा मीडिया है?


दरअसल इस मीडिया को व्यावसायिकता के फ़न ने डस लिया है। चहुं ओर बस पैसा और पैकेज की होड़ मची है। मीडिया घरानों ने सामाजिक सरोकार की खबरों को जिस तरह रौंदा है और राजनीतिक और अफ़सरशाही के भ्रष्टाचार को जिस तरह परदेदारी की गिरह में बांधा है, वह किसी भी स्वस्थ समाज को अस्वस्थ बना देने, उसे मार डालने के लिए काफी है। यह जो चौतरफ़ा भ्रष्टाचार की विष-बेल लहलहा रही है तो यह आज की कारपोरेट मीडिया का ही कमाल है। नहीं इतने सारे अखबारों और चैनलों की भीड़ के बावजूद यह कैसे हो जाता है कि नीरा राडिया जैसी विष-कन्या न सिर्फ़ राजनीतिक हलकों, कारपोरेट हलकों में अपनी तूती बजाती फिरती है बल्कि मीडिया को भी कुत्ता बना कर लगातार पुचकारती फिरती है। प्रभा दत्त जैसी बहादुर पत्रकार की बेटी बरखा दत्त को भी दलाली की सिरमौर बना देती है। वह बरखा दत्त जिस की मां प्रभा दत्त खतरों से खेल कर 1971 के युद्ध में जा कर युद्ध की खबरें भेजती है। संपादक मना करता है युद्ध की रिपोर्ट पर जाने के लिए तो वह छुट्टी ले कर मोर्चे पर पहुंच जाती है रिपोर्ट करने। उसी प्रभा दत्त की बेटी बरखा भी कारगिल मोर्चे पर जा कर तोपों की गड़गड़ाहट के बीच बंकर में बैठ कर रिपोर्ट करती है और पद्मश्री का खिताब भी पाती है। पर जब नीरा राडिया के राडार पर बरखा दत्त आ जाती है तो बस मत पूछिए। वह शपथ के पहले ही मंत्रियों को उन का पोर्टफ़ोलियो भी बताने लग जाती है। इनकम टैक्स विभाग नीरा राडिया का फ़ोन टेप करता है देशद्रोह की शक में तो मामले कई और भी सामने आ जाते हैं। इनकम टैक्स विभाग बाकायदा प्रेस कांफ़्रेंस कर इस पूरे टेप के मायाजाल को अधिकृत रुप से जारी कर देता है। पर यह टेप किसी भी अखबार, किसी भी चैनल पर एक लाइन की खबर नहीं बनता। सब के सब जैसे आंख मूंद कर यह पूरी खबर पी जाते हैं। सब के अपने-अपने हित हैं। कोई अपने हितों से आखिर टकराए भी कैसे? तो यह क्या है? वेब मीडिया नीरा राडिया के टेप से भर जाता है पर मेन मीडिया कान में तेल डाले पड़ा रहता है। वो तो जब सुब्रमण्यम स्वामी इस मामले को ले कर सुप्रीम कोर्ट में सक्रिय होते हैं और सुप्रीम कोर्ट ए राजा आदि को जेल भेजती है तब मीडिया को लगता है कि कुछ हो गया है। कर्नाटक में, झारखंड में या कहीं भी लाखों करोड़ के घपले भी मीडिया को नहीं दिखते।

इन दिनों हो क्या गया है कि जब तक कोई अदालत या कोई जांच एजेंसी जब तक मीडिया को ब्रीफ़ न करे कोई घोटाला या मामला तब तक मीडिया के लिए कोई खबर नहीं होती। हालत यह है कि मीडिया अपने मालिकों के दबाव में है और मीडिया मालिक सरकारों के दबाव में हैं। जो मीडिया कभी सिस्टम पर दबाव बनाने के लिए मशहूर था, अब वही खुद सिस्टम के दबाव में है। नतीज़ा सामने है। राजनीति और पतित हो गई है, अदालतें बेलगाम हो गई हैं, अमीर और अमीर होता जा रहा है, गरीब और गरीब होता जाने के लिए दिन-ब-दिन अभिशप्त हो गया है। लगता ही नहीं कि हम किसी लोकतंत्रीय देश या संसदीय गरिमा के तहत जी रहे हैं। जिस की लाठी, उस की भैंस का माहौल बन गया है। लगता ही नहीं कि कानून और संविधान के राज में हम जी रहे हैं। संविधान और कानून तो अब जैसे सिर्फ़ मूर्खों और निर्बल के लिए ही रह गए हैं। देश अब चला रहे हैं माफ़िया, धनपशु और धर्म के ठेकेदार। अंबानी, मित्तल और टाटा की नीतियों से चल रहा यह देश जैसे उन और उन जैसों को और-और अमीर बनाने के लिए ही बना है। लोग भूखों मर रहे हैं तो उन की बला से, अनाज सड़ रहा है तो उन की बला से। मंहगाई बेलगाम हो गई है तो उन की बला से। उन को तो बस अपनी पूंजी और एकाधिपत्य के बढते जाने से ही मतलब है। और जो यह सब स्वच्छंद रुप से चल रहा है तो सिर्फ़ इस लिए कि मीडिया गुलाम हो गई है, माफ़िया की गोद में बैठ गई है। काले धन ने उसे डस लिया है। मीडिया में जो ज़रा भी रीढ़ शेष रही होती तो यह सब कुछ ऐसे और इस तरह तो नहीं ही होता।

मीडिया क्या है?

जैसे कोई हाथी हो और उस पर अंकुश हो। बस मीडिया व्यवस्था का वही अंकुश है। अंकुश है कि हाथी यानी व्यवस्था, यह सिस्टम मदमस्त न हो, अराजक न हो कि अपने ही लोगों को कुचल डाले। शीशा दिखाता रहे कि चेहरा काला है कि साफ। अब इसी भूमिका से मीडिया विरत है। इसी लिए अराजकता और दमन का माहौल हमारे सामने उपस्थित है। सिस्टम और सरकारों को मीडिया का यह रुप शूट करता है। कि उन के गलत को गलत न कहे मीडिया। इस बदलते दौर में शक्ति पुरुष कहिए, सत्ता पुरुष कहिए, ने मीडिया की भूमिका को राजा का बाजा बजा में सीमित कर दिया है। मीडिया की भूमिका अब बस राजा का बाजा बजाने, उन का गुण-गान करने तक सीमित कर दी गई है। वह चाहे उद्योग के राजा हों, राजनीति के राजा हों, क्रिकेट के राजा हों, सिनेमा के राजा हों, धर्म के राजा हों, योग के राजा हों, प्रशासन के राजा हों या किसी और फ़ील्ड के राजा। मीडिया को तो बस उन का गुण-गान करते हुए उन का बाजा बजाना ही है। वह चाहे दस-बीस लाख रुपया वेतन पा रहे हों, चाहे एक हज़ार रुपए वेतन पा रहे हों। काम सब का एक ही है। इसी लिए भ्रष्टाचार की खबरें दब जाती हैं। आती भी हैं कभी-कभार तो ऐसे जैसे कहीं दुर्घटना की खबर हो, दस मरे, बीस घायल के अंदाज़ में। बस बात खत्म। किसी दारोगा या एस.डी.एम के खिलाफ़ भी अब अखबारों में खबर छापने की कूवत नहीं रह गई है। अगर गलती से किसी खबर पर एक दारोगा भी सस्पेंड हो जाता है तो दिन भर ‘खबर का असर’ की पट्टी लहराती रहती है। अखबारों में भी यही आलम है। मंहगाई पर यह चैनल इस अंदाज़ में बात करते हैं गोया पिकनिक डिसकस कर रहे हों। अखबारों में भी मंहगाई की चर्चा ऐसे मिलती है गोया मोहल्ले की नाली जाम हो गई हो। कहीं भी मंहगाई के खिलाफ़ धावा या मुहिम नहीं दीखती। मंहगाई न हो गई हो लतीफ़ा हो गई हो। सरकार तो जब करेगी तब करेगी पर चैनल वाले साल भर पहले ही से पेट्रोल के सौ रुपए लीटर तक पहुंचने की हुंकार भर रहे हैं और अखबार वाले दुहरा रहे हैं। बताइए कि सात-आठ साल पहले भूसा आटा के दाम पर पहुंच गया, आटा दाल के दाम पर और दाल काजू-बादाम के भाव पहुंच गई। काजू-बादाम सोने के भाव पर और सोना हीरे के भाव पर पहुंच गया। सब्जियों में आग लग गई। प्रधानमंत्री और वित्त मंत्री हर बार चार छ महीने में दाम के गिर जाने के अश्वासन पर आश्वासन देते रहे, पर दाम नीचे नहीं आए, ऊपर और ऊपर होते गए हैं। उलटे दूसरी तरफ़ कृषि मंत्री दूध से चीनी तक के दामों के बढ़ने से पहले ही अब इस के दाम बढ़ेंगे का ऐलान करते रहे। तो क्या कोई किसान या कोई दूधिया बहुत अमीर हो गया - इन अनाज, सब्जी, दूध के दाम बढ़ने से? हां, बिचौलिए ज़रुर अमीर हो गए। हां, किसानों की आत्महत्या की संख्या ज़रुर बढ़ती जा रही है। जनता टैक्स के बोझ से बेदम है और सरकार भ्रष्टाचार के बोझ से। और मीडिया है कि लाफ़्टर चैलेंज के बोझ से खिलखिला रहा है। लिखते रहें अदम गोंडवी जैसे शायर कि, 'सौ में सत्तर आदमी फ़िलहाल जब नाशाद हैं,  दिल पर रख कर हाथ कहिए देश क्या आज़ाद है !........ पर यह न्यूज़ चैनल तो कामेडी सर्कस दिखा कर आप को हंसाएंगे ही। बताइए भला कि लाइसेंस है न्यूज़ चैनल का पर काम एंटरटेनमेंट चैनल का। न्यूज़ की जगह धारावाहिकों और फ़िल्मों का प्रमोशन, कैटरीना-सलमान के झगड़े, राखी सावंत के नखरे और बदतमीजियां दिखाने में, अमिताभ बच्चन या सचिन तेंदुलकर सरीखों के खांसने-छींकने की खबरों से लदे यह चैनल, सांप बिच्छू की शादी, कुत्ते और लड़की के फेरे, अपराध की खबरों का नाट्य रुपांतरण दिखाने वाले यह चैनल और अखबार समाज को कहां से कहां ले जा रहे हैं? क्यों नहीं इन चैनलों को लाइसेंस देने वाला सूचना प्रसारण मंत्रालय इस पर गौर करता? कि इन के पास न्यूज़ के अलावा सब कुछ है। पर नहीं है तो बस न्यूज़ नहीं है। आधी रात के बाद न्यूज़ के नाम पर फ़र्जी सामानों के अंध्विश्वासी विज्ञापन कथा के कलेवर में कैसे दिखाते हैं यह सारे के सारे चैनल? और जनता को कैसे तो लूटते हैं? कैसे तो रातो-रात निर्मल बाबा से लगायत, आसाराम बापू, स्वामी रामदेव जैसे लोगों की दुकान खडा कर इन्हें सेलीब्रेटी बना देते हैं? बताइए कि जब पूर्व राष्ट्रपति कलाम की तलाशी होती है अमरीकी एयरपोर्ट पर तो संक्षिप्त सी खबर आती है। लेकिन दो कौडी के एक एक्टर शाहरुख खान की वही तलाशी होती है तो जैसे चैनलों पर तूफ़ान बरपा हो जाता है। दिन भर वही खबर चलती रहती है। सचिन तेंदुलकर एक घर खरीदते हैं, उसे बनवाते हैं, अंबानी घर बनवाते हैं, अपनी पत्नी को जन्म-दिन पर जहाज भेंट करते हैं तो क्या यह आधा घंटा का कैप्सूल है इन न्यूज़ चैनलों को दिन भर दिखाने का? यह खबर है? सदी के महानायक बीमार हैं, या कहीं छीक-खांस रहे हैं, यह खबर है? दिन भर दिखाने के लिए? और यह जो ज्योतिष लोग बैठे हैं दुकान खोले? चैनलों के नाम पर जनता को छलते हुए? है किसी की नज़र इस पर?

अखबारों की गति और बुरी है। पैसा दे कर कोई कैसी भी न्यूज़ या विज्ञापन छपवा सकता है और जनता की आंख में धूल झोंक सकता है।

है कोई नीति नियंता? कोई नियामक?

प्रभाष जोशी पेड न्यूज़ के खिलाफ़ बोलते-बोलते पस्त हो गए। पर यह बेशर्म अखबार मालिकान पूरी बेशर्मी से उन की बात पर मुसकुराते रहे। अंतत: वह विदा हो गए। अब पेड न्यूज़ के खिलाफ़ कोई हल्ला बोलने वाला भी नहीं रहा। तमाम बयान आए, कमेटियां बनीं पर नतीज़ा वही ढाक के तीन पात। और अब तो पेड न्यूज़ बारहो महीने का खेल हो गया है। यह नहीं कि सिर्फ़ चुनाव के समय और सिर्फ़ राजनीतिक खबरों के ही बाबत। इस वक्त अगर किसी को कोई धोखाधड़ी करनी है तो वह मीडिया के कंधे पर ही बैठ कर करता है। वह चाहे धार्मिक धोखाधड़ी हो, राजनीतिक धोखाधड़ी या औद्योगिक धोखाधड़ी, सिनेमाई धोखाधड़ी या छोटी-मोटी धोखाधड़ी, सब कुछ मीडिया के ही कंधे पर बैठ कर संभव है। गोया मीडिया न हो धोखाधड़ी का प्लेटफ़ार्म हो, धोखाधड़ी का एयरपोर्ट हो, लाइसेंस हो धोखाधड़ी का। जिस की चौखट पर मत्था टेकते ही सारे काम हो जाते हैं। पब्लिसिटी से लगायत पर्देदारी तक के।

मीडिया का यह कौन सा चेहरा है?

गणेश शंकर विद्यार्थी जैसों की आहुति, शहादत क्या इन्हीं दिनों के लिए थी? ऐसा ही समाज रचने के लिए थी? कि काले धन की गोद में बैठ कर अपने सरोकार भूल जाएं? बताइए कि फ़ाइनेंशियल मामलों के दर्जनों चैनल और अखबार हैं। पर कंपनियां देश का कैसे और कितना गुड़-गोबर कर रही हैं है किसी के पास इस का हिसाब या रिपोर्ट? किस लिए छपते हैं यह फ़ाइनेंशियल अखबार और किस लिए चलते हैं यह फ़ाइनेंशियल चैनल? सिर्फ़ कंपनियों का गुड-गुड दिखाने के लिए? गरीब जनता का पैसा कंपनियों के शेयर और म्युचुअल फंड में डुबोने भर के लिए? क्या ये अखबार और चैनल सिर्फ़ चारा हैं इन कंपनियों की तरफ़ से और निवेशक सिर्फ़ फंसने वाली मछली? बताइए कि सत्यम जैसी कंपनियां रातों-रात डूब जाती हैं दीवालिया हो जाती हैं और इन फ़ाइनेंशियल कहे जाने वाले चैनल और अखबार में इस के पहले एक लाइन की खबर भी नहीं होती? सरकार कुछ नहीं जानती? एयर कंपनियां सरकारी हों या प्राइवेट रोज गोता खा रही हैं, इन अखबारों या चैनलों के पास है कोई रिपोर्ट कि क्यों गोता खा रही हैं? पेट्रोल के करोडों-करोड रुपए बकाया हैं सरकार पर। सरकार के पास है कोई ह्वाइट पेपर इस मसले पर? या कोई इस की मांग कर रहा है? तो किस लिए निकल रहे हैं यह अखबार, यह चैनल? समझना बहुत आसान है। पर कोई क्यों नहीं सोचना चाहता?

यह जो एक सेज़ की बीमारी चली है देश में उद्योगपतियों की सेहत को दिन दूना, रात चौगुना बनाने के लिए इस पर कुछ मेधा पाटकर टाइप एक्टिविस्टों को छोड दें तो इस की किसी मीडिया, किसी राजनीतिक दल या सरकार या किसी अदालत को है किसी किसिम की चिंता? नक्सलवादी हिंसा से निपटने में सरकार जितना पैसा खर्च करती है, उस का एक हिस्सा भी जो वहां के विकास पर खर्च कर देती सरकार तो वहां मासूम लोगों की खून की नदियां नहीं बहतीं। लेकिन इस बारे में भी हमारी मीडिया नि:शब्द है। यह और ऐसे तमाम मामलों में मीडिया गांधी के बंदर बन जाती है। न कुछ देखती है, न कुछ सुनती है, न कुछ बोलती है।

हां, इधर एक नए मीडिया का आगमन हुआ है। वेब मीडिया का। जिस की धड़कन में अभी सामाजिक सरोकार की हलकी सी ही सही धड़कन सुनाई देती है। कम से कम दो मामले अभी बिलकुल ताज़े हैं। जिन की लड़ाई लड़ कर इस वेब मीडिया ने फ़तह हासिल की है। वह भी सोशल साइट फ़ेसबुक के ज़रिए। एक अभिषेक मनु सिंघवी के मामले पर और दूसरे, निर्मल बाबा के मामले पर। प्रिंट और इलेक्ट्रानिक मीडिया ने न सिर्फ़ इन मामलों पर गांधी के बंदर की भूमिका निभाई बल्कि निर्मल बाबा को तो चैनलों ने ही पैदा किया। बरास्ता विज्ञापन। जैसे कभी आसाराम बापू और रामदेव या जाने किन-किन बाबाओं को खड़ा किया बरास्ता विज्ञापन। बताइए कि अब विज्ञापन तय कर रहे हैं कि हमारे सेलेब्रेटी कौन होंगे? अखबार और चैनल मालिकों की दलील है कि विज्ञापन ही उन का आक्सीजन हैं। विज्ञापन न हों तो उन का चलना मुश्किल है। यह कुतर्क उन का गले नहीं उतरता। पर उन से अब कोई सरकार या कोई एजेंसी या अदालत यह पूछ्ने वाली नहीं है कि ठीक है अगर विज्ञापन ही इतना ज़रुरी है तो बिना खबर के सिर्फ़ विज्ञापन ही छापें और दिखाएं। औकात मालूम हो जाएगी। हकीकत तो यही है कि लोग अखबार या कोई न्यूज़ चैनल खबर के लिए देखते-पढ़ते हैं, विज्ञापन के लिए नहीं। विज्ञापन भी एक ज़रुरी तत्व है, पर इतना भी ज़रुरी नहीं है कि आप पेड न्यूज़ पर उतर आएं, काले धन की गोद में बैठ जाएं। सरकार के पालतू कुत्ते बन जाएं। यह तो मुर्गी मार कर सोने के अंडे पाने वाली चालाकी हो गई। जो अंतत: मीडिया नाम की कोई चिड़िया भी थी के नाम से इसे इतिहास में दफ़न करने वाली कार्रवाई है। इसे जितनी जल्दी संभव बने सब को मिल कर इस बीमारी से छुट्टी लेनी ही होगी।


वास्तव में यह दौर मज़दूर विरोधी दौर है, लोकतंत्र के नाम पर हिप्पोक्रेसी का दौर है, ट्रेड यूनियन समाप्त हैं, पूंजीपतियों के मनमानेपन की कोई इंतिहा नहीं है। सब को वायस देने वाले पत्रकार अब खुद वायसलेस हैं। बताइए कि इतने सारे हाहाकारी चैनलों और अखबारों के बावजूद घोटालों पर घोटालों की जैसे बरसात है। पर किसी चैनल या अखबार में खबर जब मामला अदालत या सी.बी.आई जैसी किसी एजेंसी के ब्रीफ़िंग के बाद ही आधी-अधूरी सी क्यों आती है? पहले क्यों नहीं आ पाती? सलमान खान की माशूकाओं, उन की मारपीट की सुर्खियां बनाने वाले इस मीडिया जगत में आज भी कोयला घोटाले के बाबत एक भी खोजी खबर क्यों नहीं है?

मुझे याद है कि 1984 में हिंदुस्तान अखबार में बाज़ार भाव के पन्ने पर एक सिंगिल कालम खबर छपी थी सेना में जासूसी को ले कर। खबर दिल्ली के अखबार में छपी थी। पर लारकिंस बंधु की गिरफ़्तारी लखनऊ के लारेंस टैरेस से सुबह सात बजे तक उसी दिन हो गई थी। यह खबर लिखने वाले रिपोर्टर एस.पी. सिंह से इस बारे में जब पूछा गया कि खबर इतनी छोटी सी क्यों लिखी? तो वह तफ़सील में आ गए। और बताया कि पहले तो वह यह खबर लिखने को ही तैयार नहीं थे। पर सेना में उन के एक मित्र ने जब बहुत ज़ोर दिया तब उन्हों ने प्रमाण मांग कर खबर से कतराने की कोशिश की। लेकिन मित्र ने कहा कि चलो प्रमाण देने के लिए मुझे भी देशद्रोह करना पडे़गा, पर एक बडे़ देशद्रोह को रोकने के लिए मैं छोटा देशद्रोह करने को तैयार हूं। मित्र ने उन्हें सारे प्रमाण दे दिए। अब एस.पी. सिंह की आंखें चौधिया गईं। खैर बहुत सोच-समझ कर खबर लिखी। अब समाचार संपादक ने खबर रोक ली। खबर की संवेदनशीलता का तर्क दे कर। पर मित्र के दबाव के चलते वह समाचार संपादक के पीछे पडे़ रहे और बताया कि सारे प्रमाण उन के पास हैं। कोई पंद्रह-बीस दिन तक यह खबर इधर-उधर होती रही। और अंतत: कट-पिट कर वह खबर बाज़ार भाव के पन्ने पर उपेक्षित ढंग से एक पैरा ही छप पाई। पर यह एक पैरे की खबर भी आग लगा गई। और बड़े-बड़े लोग इस में झुलस गए। इंदिरा गांधी के बहुत करीबी रहे मुहम्मद युनूस तक लपेटे में आ गए। और उन्हें कोई राहत अंतत: मिली नहीं।

एस.पी.सिंह को इस का मलाल तो था कि खबर देर से, गलत जगह और बहुत छोटी छपी। पर वह इस बात से भी गदगद थे कि उन की खबर पर समाचार संपादक ने विश्वास किया और कि देश एक बडे़ खतरे से बच गया। मित्र की लाज भी रह गई। अब न एस.पी. सिंह जैसे रिपोर्टर हैं न वैसे अखबार। नहीं इसी हिंदुस्तान टाइम्स में जब खुशवंत सिंह संपादक बन कर आए तो के.के बिरला के साथ पहली मीटिंग में उन्हों ने कुछ मनपसंद लोगों को रखने और कुछ फ़ालतू लोगों को हटाने की बात कही। तो के.के. बिरला ने खुशवंत सिंह से साफ कहा कि रखने को आप चाहे जैसे और जितने लोग रख लीजिए पर हटाया एक नहीं जाएगा। यह बात खुशवंत सिंह ने अपनी आत्मकथा में बड़ी साफगोई से लिखी है। और अब उसी हिंदुस्तान टाइम्स में क्या-क्या नहीं हो रहा है, लोगों को हटाने के लिए? हिंदुस्तान हो या कोई और जगह, हर कहीं अब एक जैसी स्थिति है। हर कहीं विसात ही बदल गई है। सरोकार ही सूख गए हैं।

एक समय मीडिया को वाच डाग कहा जाता था, अब यह वाच डाग कहां है? क्या सिर्फ़ डाग बन कर ही नहीं रह गया है? इस वाच डाग को आखिर डाग में तब्दील किया किस ने? आखिर डाग बनाया किस ने? स्पष्ट है कि संपादक नाम के प्राणी ने। मालिकों के आगे दुम हिलाने के क्रम में इतना पतन हो गया इस प्राणी का कि अब संपादक नाम की संस्था ही समाप्त हो गई। बताइए कि इंडियन एक्सप्रेस जैसा अखबार एक बे सिर पांव की खबर छाप देता है कि जनरल वी के सिंह दिल्ली पर कब्ज़ा करना चाहते थे और यह सारे चैनल बुद्धि-विवेक ताक पर रख कर दिन भर सेना की गश्त दिखा कर पूरे देश में पेनिक क्रिएट कर देते हैं। पर नीरा राडिया का टेप नहीं दिखा या सुना पाते! उत्तर प्रदेश जैसे कई और प्रदेशों में एनआरएचएम घोटाले के तहत करोड़ों की दवा खरीद कागज़ पर हो जाती है, आपरेशन थिएटर कागज़ पर ही बन जाते हैं, भुगतान हो जाता है, हत्याएं हो जाती हैं, पर इस बारे में कहीं कोई खबर पहले नहीं मिलती। मिलती है, जब सीबीआई या अदालत कुछ बताती या किसी को जेल भेजती है। यह क्या है?

तो जब आप देश की खबरों को, सरोकार की खबरों को व्यवस्था विरोध के खाने में डाल कर व्यवस्था के आगे दुम हिलाएंगे तो कोई एक एक्का-दुक्का खड़ा होगा इस के प्रतिरोध में और कि वह जो आप की तरह दुम नहीं हिलाएगा तो आप उस का गला दबा देंगे? हो तो यही गया है आज की तारीख में। पिछले दस-बारह वर्षों में जो भूत-प्रेत और कुत्तों-बिल्लियों, अंध विश्‍वास और अपराध की बेवकूफ़ी की खबरों से, दलाली की खबरों से समाज को जिस तरह बरगलाया गया है, जिस तरह समाज की प्राथमिकताओं को नष्ट किया गया है, खोखला किया गया है वह हैरतंगेज़ है। यकीन मानिए कि अगर मीडिया इस कदर भड़ुआ और दलाल न हुई होती तो इस कदर मंहगाई और भ्रष्टाचार से कराह नहीं रहा होता यह देश। राजनीतिक पार्टियां इतना पतित नहीं हुई होतीं। मीडिया के बदचलन होने से इस देश के अगुआ और उन का समाज बदचलनी की डगर पर चल पड़ा। जनता कीड़ा-मकोड़ा बन कर यह सब देखने और भुगतने के लिए अभिशप्त हो गई। अब बताइए कि एक औसत सी फ़िल्म आती है और मीडिया को पैसे खिला कर महान फ़िल्म बन जाती है। ऐसा इंद्रधनुष रच दिया जाता है गोया इस से अच्छी फ़िल्म न हुई, न होगी। अब लगभग हर महीने किसी न किसी फ़िल्म को यह तमगा मिल ही जाता है। विज्ञापनों का ऐसा कालाबाज़ार पहले मैं ने नहीं देखा।

यह मीडिया है कि भस्मासुर है?

नहीं बताइए कि मनरेगा से भी कम मज़दूरी में, एक रिक्शा वाले से भी कम मेहनताने में काम कर रहे मीडिया-जनों की वायस आखिर है कोई उठाने वाला भला? मणिसाना की सिफ़ारिशें तक लागू करवा पाने में सरकारी मशीनरी का तेल निकल जाता है और लागू नहीं हो पाता। किसानों के हित में भी न्यूनतम मूल्य सरकार निर्धारित करती है उन की उपज के लिए। पर मीडियाजनों के लिए न्यूनतम मज़दूरी भी नहीं तय कर पाती यह सरकार या व्यवस्था। और ये मालिकान। मीडिया के नाम पर समाज के लिए जो लाक्षागृह रोज ही क्या हर क्षण बनाने में यह मीडिया अनवरत युद्धरत हैं। जो लगे हुए हैं फ़र्जी और अंधविश्वासी खबरों की खेप-दर-खेप ले कर, सांप और कुत्तों का व्याह आदि दिखा कर, अपराधों का नाट्य-रुपांतरण दिखा कर, अब यह देखिए और वह देखिए चिल्ला-चिल्ला कर, चीख-चीख कर, गोया दर्शक अंधे और बहरे हों, दो लाइन की खबर दो घंटे में किसी मदारी की तरह मजमा बांध कर खबरें दिखाने का जो टोटका इज़ाद किया है न और इस की आड़ में सरोकार की खबरों को मार दिया है, भ्रष्टाचार की खबरों को दफ़न किया है न, तिस पर फ़र्जी स्टिंग की खेती भी हरी की है न, इन सब अपराधों की ज़मानत इस मीडिया को कोई  समाज कैसे और क्यों देगा?  मीडिया का भी आखिर एक पर्यावरण होता है। क्या इस नष्ट होते जा रहे पर्यावरण को भी बचाने की ज़रुरत नहीं है? है और बिलकुल है। कारपोरेट और पूंजीवादी पत्रकारिता के खिलाफ़ पूरी ताकत से आज की तारीख में खडा होने की ज़रुरत है। प्रतिरोध की जो पत्रकारिता है उसे फिर से ज़िंदा करने की ज़रुरत है, डायल्यूट करने की नहीं।


अब तो हालत यहां तक आ गई है कि अखबार मालिक और उस का सो काल्ड प्रबंधन संपादकों  और संवाददाताओं से अब खबर नहीं बिजनेस डिसकस करते हैं। सब को बिजनेस टारगेट देते हैं। मतलब विज्ञापन का टारगेट। अजीब गोरखधंधा है। विज्ञापन के नाम पर सरकारी खजाना लूट लेने की जैसे होड मची हुई है अखबारों और चैनलों के बीच। अखबार अब चुनावों में ही नहीं बाकी दिनों में भी खबरों का रेट कार्ड छाप कर खबरें वसूल रहे हैं। खबरों के नाम पर पैसे वसूल रहे हैं। बदनाम बेचारे छोटे-मोटे संवाददाता हो रहे हैं। चैनलों तक में यही हाल है। व्यूरो नीलाम हो रहे हैं। वेतन तो नहीं ही मिलता सेक्यूरिटी मनी लाखों में जमा होती है। तब परिचय पत्र जारी होता है। मौखिक संदेश होता है कि खुद भी खाओ और हमें भी खिलाओ। और खा पी कर मूस की तरह मुटा कर यह अखबार या चैनल कब फ़रार हो जाएं कोई नहीं जानता। तो पत्रकारिता ऐसे हो रही है। संवाद सूत्रों की हालत और पतली है। दलितों और बंधुआ मज़दूरों से भी ज़्यादा शोषण इन का इतनी तरह से होता है कि बयान करना मुश्किल है। यह सिक्योरिटी मनी भी जमा करने की हैसियत में नहीं होते तो इन्हें परिचय-पत्र भी नहीं मिलता। कोई विवादास्पद स्थिति आ जाती है तो संबंधित संस्थान पल्ला झाड लेता है और बता देता है कि उस से उस का कोई मतलब नहीं है। और वह फर्जी पत्रकार घोषित हो जाता है। अगर हाथ पांव मज़बूत नहीं हैं तो हवालात और जेल भी हो जाती है। इन दिनों ऐसी खबरों की भरमार है समूचे देश में। राजेश विद्रोही का एक शेर है कि, 'बहुत महीन है अखबार का मुलाजिम भी/ खुद खबर है पर दूसरों की लिखता है।'


दरअसल पत्रकारिता के प्रोडक्ट में तब्दील होते जाने की यह यातना है। यह सब जो जल्दी नहीं रोका गया तो जानिए कि पानी नहीं मिलेगा। इस पतन को पाताल का पता भी नहीं मिलेगा। वास्तव में भड़ुआगिरी वाली पत्रकारिता की नींव इमरजेंसी में ही पड़ गई थी। बहुत कम कुलदीप नैय्यर तब खड़े हो पाए थे। पर सोचिए कि अगर रामनाथ गोयनका न चाहते तो कुलदीप नैय्यर क्या कर लेते? स्पष्ट है कि अगर अखबार या चैनल मालिक न चाहे तो सारी अभिव्यक्ति और उसके खतरे किसी पटवारी के खसरे खतौनी में बिला जाते हैं। जब जनता पार्टी की सरकार आई तो तबके सूचना प्रसारण मंत्री आडवाणी ने बयान दिया था कि इंदिरा गांधी ने इमरजेंसी में पत्रकारों से बैठने को कहा, पर वह तो लेट गए! पर दिक्कत यह थी कि जनता पार्टी सरकार भी पत्रकारों को लिटाने से बाज़ नहीं आई।

टाइम्स आफ़ इंडिया की एक कहानी की पत्रिका थी 'सारिका'। कमलेश्वर जी उस के संपादक थे। सारिका कहानी की पत्रिका थी, राजनीति से उस का कोई सरोकार नहीं था। पर कहानियों का चूंकि समाज से सरोकार होता है और समाज बिना राजनीति के चलता नहीं सो, कमलेश्वर की 'सारिका' के भी सरोकार में तब राजनीति समा गई। इस राजनीति की कोख में भी कारण एक कहानी बनी। कहानी थी आलमशाह खान की 'किराए की कोख'। डा. सुब्रहमण्यम स्वामी ने इस का विरोध किया कि यह 'किराए की कोख' देने वाली औरत हिदू ही क्यों है? इस के पहले भी डा. स्वामी और कमलेश्वर की भिड़ंत हो चुकी थी एक बार। उपन्यास 'काली आंधी' को ले कर। स्वामी ने कमलेश्वर को बधाई दी थी कि 'काली आंधी' में उन्हों ने इंदिरा गांधी का बहुत अच्छा चरित्र चित्रण किया है। कमलेश्वर ने उन्हें सूचित किया कि उन के उपन्यास में वह जिसे इंदिरा गांधी समझ रहे हैं, दरअसल वह विजयाराजे सिंधिया हैं। स्वामी भड़क गए थे। फिर बात 'किराए की कोख' पर उलझी। बात बढ़ती गई। जनता पार्टी की सरकार आ गई। टकराव बढ़ता गया। मैनेजमेंट का दबाव भी। कमलेश्वर ने 'सारिका' के एक संपादकीय में साफ़ लिखा कि यह देश किसी एक मोरार जी देसाई, किसी एक चरण सिंह, किसी एक जगजीवन राम भर का नहीं है। सारिका छप गई। पर यह अंक बाज़ार में नहीं आया। सारिका बंबई से दिल्ली आ गई। बाद में कमलेश्वर की सारिका से भी विदाई हो गई। यह एक लंबी कथा है। पर कमलेश्वर तब नहीं झुके। यह भी एक तथ्य है।

कमलेश्वर को यह संपादकीय पढ़ाने के लिए एक नई पत्रिका निकालनी पड़ी।कथा-यात्रा। खैर, बात आगे बढ़ी। बाद के दिनों में इंदिरा गांधी की हत्या हो गई। चुनाव में पूरे देश में इंदिरा लहर ही नहीं, आंधी चली। पर तब के प्रधानमंत्री राजीव गांधी और उन के मैनेजरों यथा अरूण नेहरू जैसों को फिर भी यकीन नहीं था अमेठी की जनता पर। बूथ कैपचरिंग पर यकीन था। करवाया भी। यह चुनाव कवर करने लखनऊ से भी कुछ पत्रकार गए थे। आज से अजय कुमार, जागरण से वीरेंद्र सक्सेना और पायनियर से विजय शर्मा। बूथ कैपचरिंग की रिपोर्ट करने के चक्कर में सभी पिटे। फ़ोटोग्राफ़र के कैमरे से रील निकाल ली गई। वगैरह-वगैरह। जो-जो होता है ऐसे मौकों पर वह सब हुआ। हालांकि फ़ोटोग्राफ़र ने पहले ही तड़ लिया था कि रील निकाली जा सकती है। कैमरा छीना जा सकता है। सो वह फ़ोटो खींचते जाते थे और रील झाड़ियों में फेंकते जाते थे। और अंतत: हुआ वही। पिटाई-सिटाई के बाद उन्हों ने रील बटोर लिया। आए सभी लखनऊ। पिटने का एहसास बड़ी खबर पा लेने के गुमान में धुल गया था। पर जब अपने-अपने आफ़िस पहुंचे ये पत्रकार सीना फ़ुलाए तो वहां भी उन की धुलाई हो गई। डांटा गया कि आप लोग वहां खबर कवर करने गए थे कि झगड़ा करने? असल में तब तक सभी अखबारों के दफ़्तर में अरूण नेहरू का धमकी भरा फ़ोन आ चुका था। सभी लोगों को कहा गया कि बूथ कैपचरिंग भूल जाइए, प्लेन-सी खबर लिखिए। 'आज' अखबार के अजय कुमार तब लगभग रोते हुए बताते थे कि अमेठी में पिटने का बिलकुल मलाल नहीं था। दिल में तसल्ली थी कि पिटे तो क्या, खबर तो है! पर जब दफ़्तर में भी आ कर डांट खानी पड़ी तो हम टूट गए।

बाद में जनसत्ता के तब के संवाददाता जयप्रकाश शाही को उस फ़ोटोग्राफ़र ने बताया कि उस के पास फ़ोटो है। शाही ने फ़ोटो ली और खबर लिखी। छपी भी तब जनसत्ता में। पर बाद में वह फ़ोटोग्राफ़र, साफ़ कहूं तो बिक गए। और बता दिया कि वह फ़ोटो फ़र्ज़ी है और ऐसी कोई फ़ोटो उन्हों ने नहीं खींची। खैर।

बोफ़ोर्स की याद है आप सब को? तब जिस तरह कुछ अखबार मालिकों ने लगभग पार्टी बंदी कर अखबारों का इस्तेमाल किया, यह भी याद है ना? फिर तो अखबारों को हथियार बना लिया गया। जब जिस की सत्ता तब तिस के अखबार।

2 जून 1995 को लखनऊ में मुलायम सिंह ने सुबह-सुबह जिस तरह अपने गुंडों को मायावती पर हमले के लिए भेजा था, मुख्यमंत्री रहते हुए भी, वह तो अश्लील था ही, अपने पत्रकारों ने उस से भी ज़्यादा अश्लीलता बरती। पी.टी.आई ने इतनी बड़ी घटना को सिर्फ़ दो टेक में निपटा दिया तो टाइम्स आफ़ इंडिया ने शार्ट डी.सी. अंडरप्ले कर के दिया। बाद में इस के कारणों की पड़ताल की तब के जनसत्ता के संवाददाता हेमंत शर्मा ने। तो पाया कि ऐसा इस लिए हुआ क्यों कि पी.टी.आई के व्यूरो चीफ़ खान और टाइम्स के तत्कालीन रेज़ीडेंट एडीटर अंबिकानंद सहाय ने मुलायम शासनकाल में विवेकाधीन कोष से लाखों रुपए खाए हुए थे। तमाम और पत्रकारों ने भी लाखों रुपए खाए थे। और वो जो कहते हैं कि राजा का बाजा बजा! तो भैय्या लोगों ने राजा का बाजा बजाया। आज भी बजा रहे हैं। खैर, हेमंत शर्मा ने जब इस बाबत खबर लिखी तो टाइम्स आफ़ इंडिया के तत्कालीन रेज़ीडेंट एडीटर अंबिकानंद सहाय ने हेमंत को नौकरी ले लेने की धमकी दी।

पर न हेमंत बदले न बाजा बजाने वाले। आज भी बजा रहे हैं। बस राजा बदलते रहते है, भय्या लोग बाजा बजाते रहते हैं।

सो राजा लोगों का दिमाग खराब हो जाता है। अब जैसे अखबार या चैनल प्रोड्क्ट में तब्दील हैं, वैसे ही अपने नेता भी राजा में तब्दील हैं। सामंती आचरण में लथ-पथ हैं। वो चाहे ममता बनर्जी ही क्यों न हों? ममता बनर्जी को कोई यह बताने वाला नहीं है कि सिर्फ़ हवाई चप्पल और सूती साड़ी पहनने या कुछ कविताएं या लेख लिखने, कुछ इंटेलेक्चुअल्स के साथ बैठ लेने भर से या गरीबों की बात या मुद्दे भर उठा लेने से कोई प्रजातांत्रिक नहीं हो जाता, जब तक वह व्यवहार में भी न दिखे। नहीं तो वज़ह क्या है कि दबे कुचलों की बात करने वाले तमाम नेता आज सरेआम तानाशाही और सामंती रौबदाब में आकंठ डूबते-उतराते दिखते हैं। वह चाहे ममता बनर्जी हों, मायावती हों, जयललिता हों, करूणानिधि हों, लालू या मुलायम, पासवान हों। शालीनता या शिष्टता से जैसे इन सबका कोई सरोकार ही नहीं दीखता!

तो शायद इसलिए कि भडुआगिरी में न्यस्त हमारी पत्रकारिता राजा का बाजा बजाने में न्यस्त भी है और ध्वस्त भी। हमारी एक समस्या यह भी है कि हम पैकेजिंग में सजी दुकानों में पत्रकारिता नाम के आदर्श का खिलौना ढूंढ रहे हैं। जब कि हम जानते हैं कि यह नहीं होना है अब किसी भी सूरत में। पर हमारी ज़िद है कि - मैया मैं तो चंद्र खिलौना लैहों। किसी बंधु को मिले यह चंद्र खिलौना तो भैय्या हमें भी बताना। दूध भात लेकर आ जाऊंगा।
अभी और अभी तो बस राजा का बाजा बजा!

और कि इस आंच में पत्रकारों का जीते जी मर जाना, कैरियर का मर जाना, इस की यातना, इस की मार को हम में से बहुतेरे जानते हैं। कह नहीं पाते, कहते नहीं। दोनों बातें हैं। लेकिन हैं कौन लोग जो यह यातना की पोटली हमें थमा देते हैं कि लो और भुगतो। क्या सिर्फ़ अखबार मालिक और पूंजीपति? जी नहीं। यह दीमक हमारे भीतर से ही निकलते हैं। ये कुकुरमुत्ते हमारे ही घूरे से निकलते हैं और गुलाब बन कर इतराने लगते हैं। और अचानक एक दिन ये इतने बडे़ हो जाते हैं कि हमारे दैनंदिन जीवन में हमारे लिए रश्क का सबब बन बैठते हैं। हमारे भाग्य विधाता बन जाते हैं।

ज़्यादा नहीं एक दशक पहले अखबारों में डी.टी.पी. आपरेटर हुआ करते थे। कहां गए अब? अब सब-एडीटर कंपोज भी कर रहा है, पेज़ भी बना रहा है। अखबारों से भाषा का स्वाद बिसर गया तो क्या हुआ? गलतियां हो रही हैं, खबर कहीं से कहीं कट पेस्ट हुई जा रही है तो पूछता कौन है? अखबार मालिक का तो पैसा बच गया न ! चार आदमी के काम को एक आदमी कर रहा है। और क्या चाहिए? अखबार नष्ट हो रहा है तो क्या हुआ?

अखबार में विज्ञापन कम हो रहा था, तो यह ऐडवोटोरियल की बुद्धि अखबार मालिकों को किसने दी? फिर खुल्लमखुल्ला पैसे ले कर खबरें छापने का पैकेज भी किस ने बताया अखबार मालिकों को? मंदी नहीं थी अखबारों में फिर भी मंदी के नाम पर आप के पैसे कम करने, और जो आप भन्नाएं तो आप को ट्रांसफ़र करने या निकाल देने की बुद्धि भी किसने दी अखबार मालिकों को?

अरे भाई, अभी भी नहीं समझे आप? आप जान भी नहीं पाए? अच्छा जब हमारी सेलरी लाखों में पहुंची, लग्ज़री कारों में हम चलने लगे, आकाशीय उड़ानें भरने लगे बातों में भी और यात्राओं में भी। और ये देखिए आप तो हमारे पैर भी छूने लगे, हमारे तलवे भी चाटने लगे और फिर भी नहीं जान पाए? अभी भी नहीं जान पाए? अरे मेरे भाइयों, हमी ने दी। ये तमाम संवाद सूत्रों की फ़ौज़ भी हमीं ने खड़ी की। अब हम भी क्या करें, हमारे ऊपर भी प्रबंधन का दबाव था, है ही, लगातार। तो भैया हम बन गए बडे़ वाले अल्सेसियन और आप को बना दिया गलियों वाला कुता। बंधुआ कुत्ता। जो भूंक भी नहीं सकता। भूख लगने पर। खुद बधिया बने तो आप को भी बंधुआ बनाया।

बहुत हो गई भूल भूलैया। आइए कुछ वाकए भी याद कर लें। शुरुआती दिनों के।

अब तो स्वतंत्र भारत और पायनियर बरबाद अखबारों में शुमार हैं। और कि अलग-अलग हैं। पहले के दिनों में पायनियर लिमिटेड के अखबार थे ये दोनों। जयपुरिया परिवार का स्वामित्व था। और कि कहने में अच्छा लगता है कि तब यह दोनों अखबार उत्तर प्रदेश के सबसे बडे़ अखबार के रूप मे शुमार थे। हर लिहाज़ से। सर्कुलेशन में तो थे ही, बेस्ट पे मास्टर भी थे। पालेकर, बछावत लागू थे। बिना किसी इफ़-बट के। लखनऊ और बनारस से दोनों अखबार छपते थे। बाद में मुरादाबाद और कानपुर से भी छपे।

तो कानपुर स्वतंत्र भारत में सत्यप्रकाश त्रिपाठी आए। कानपुर के ही रहने वाले थे। कानपुर जागरण से जनसत्ता, दिल्ली गए थे। वाया जनसत्ता स्वतंत्र भारत कानपुर आए रेज़ीडेंट एडीटर बन कर। लखनऊ और बनारस में वेज़बोर्ड के हिसाब से सब को वेतन मिलता था। पर सत्यप्रकाश त्रिपाठी ने यहां नई कंपनी बनाने की तज़वीज़ दी जयपुरिया को। ज्ञानोदय प्रकाशन। और सहयोगियों को कंसोलिडेटेड वेतन पर रखा। किसी को वेतनमान नहीं। तब पालेकर का ज़माना था। तो जितना लखनऊ में एक सब एडीटर को मिलता था लगभग उसी के आस-पास वहां भी मिला। पर पी.एफ़, ग्रेच्युटी आदि सुविधाओं से वंचित। जल्दी ही बछावत लागू हो गया। अब कानपुर के सहयोगियों का हक मारा गया। बेचारे बहुत पीछे रह गए। औने-पौने में। खुद जयपुरिया को यह बुद्धि देने वाले सत्यप्रकाश त्रिपाठी भी लखनऊ के चीफ़ सब से भी कम वेतन पर हो गए। साथ में वह जनसत्ता से अमित प्रकाश सिंह को भी ले आए थे समाचार संपादक बना कर। सब से पहले उन का ही मोहभंग हुआ। वह जनसत्ता से अपना वेतन जोड़ते, नफ़ा नुकसान जोड़ते और सत्यप्रकाश त्रिपाठी की ऐसी तैसी करते। वह जल्दी ही वापस जनसत्ता चले गए। कुछ और साथी भी इधर उधर हो गए। बाद के दिनों में स्वतंत्र भारत पर थापर ग्रुप का स्वामित्व हो गया। अंतत: सत्यप्रकाश त्रिपाठी को भी बाहर का रास्ता दिखा दिया गया। हालांकि उन्हों ने प्रबंधन के आगे लेटने की इक्सरसाइज़ भी बहुत की। पर बात बनी नहीं।

जाते समय एक बार वह लखनऊ आए और वह भी अपना पी.एफ़ ग्रेच्युटी वगैरह अमित प्रकाश सिंह की तरह जनसत्ता से तुलनात्मक ढंग से जोड़ने लगे और कहने लगे कि मेरा तो इतना नुकसान हो गया। जब यह बात उन्हों ने कई बार दुहराई तो मुझ से रहा नहीं गया। उन से पूछा कि यह बताइए कि जयपुरिया को यह बुद्धि किस ने दी थी? और फिर आप सिर्फ़ अपने को ही क्यों जोड़ रहे हैं? अपने उन साथियों को क्यों भूल जा रहे है? आप ने तो संपादक बनने की साध पूरी कर ली, पर वह सब बिचारे? उन का क्या कुसूर था? उन सब को जिन को आप ने छला? और तो और एक गलत परंपरा की शुरुआत कर दी सो अलग !

वह चुप रह गए।

सत्यप्रकाश त्रिपाठी का अंतर्विरोध देखिए कि वह कई बार प्रभाष जोशी बनने का स्वांग करते। जोशी जी की ही तरह लिखने की कोशिश करते। फ्रंट पेज़ एडीटॊरियल लिखने का जैसे उन्हें मीनिया सा था। भले ही कानपुर रेलवे स्टेशन की गंदगी पर वह लिख रहे हों पर जोशी जी की तरह उस में 'अपन' शब्द ज़रूर ठोंक देते। जब कि कानपुर का 'अपन' शब्द से कोई लेना-देना नहीं था। वह तो जोशी जी के मध्य प्रदेश से आता है। उन के इस फ़्रंट पेज़ एडीटोरियल मीनिया पर लखनऊ के साक्षर संपादक राजनाथ सिंह जो तब लायजनिंग की काबिलियत पर संपादक बनवाए गए थे, एक जातिवादी मुख्यमंत्री की सिफ़ारिश पर, अक्सर उन्हें नोटिस भेज देते थे। अंतत: वह एडीटोरियल की जगह बाटम लिखने लगे। खैर, जोशी जी बनने का मीनिया पालने वाले सत्यप्रकाश त्रिपाठी जोशी जी की उदारता नहीं सीख पाए, न उन के जैसा कद बना पाए| पर हां, जयपुरिया की आंखों में चढ़ने के लिए अपने साथियों का अहित ज़रूर कर गए। अपना तो कर ही गए। जोशी जी ने गोयनका की आंखों में चढ़ने के लिए सहयोगियों का कभी वेतन नहीं कम किया। हां, एक बार अपना बढ़ा हुआ वेतन, सुनता हूं कि ज़रूर लेने से इंकार किया।

यहीं कमलेश्वर भी याद आ रहे हैं। एक संस्थान में एक महाप्रबंधक ने उन से कुछ सहयोगियों को हटाने के लिए कहा। पर कमलेश्वर जी टाल गए। पर जब दुबारा उस महाप्रबंधक ने सहयोगियों को फिर से हटाने के लिए कहा तो कमलेश्वर जी ने खुद इस्तीफ़ा दे दिया। पर सहयोगियों पर आंच नहीं आने दी। पर बाद में स्थितियां बद से बदतर हो गईं। रक्षक ही भक्षक बनने लगे।

पत्रकारों के एक मसीहा हुए हैं सुरेंद्र प्रताप सिंह। रविवार के उन के कार्यकाल पर तो उन्हें जितना सलाम किया जाए, कम है। पर नवभारत टाइम्स में उन्हों ने क्या-क्या किया? विद्यानिवास मिश्र जैसे विद्वान को उन्हों ने सहयोगियों को भड़का-भड़का कर गालियां दिलवाईं। उन को वह प्रधान संपादक स्वीकार ही नहीं पाए। चलिए आगे सुनिए। समीर जैन को खुश करने के लिए उसी नवभारत टाइम्स में इन्हीं सुरेंद्र प्रताप सिंह ने पंद्रह सौ से दो हज़ार रुपए में स्ट्रिंगर रखे, खबर लिखने के लिए। तब जब वहां विशेष संवाददाता को उस समय दो हज़ार रुपए कनवेंस एलाऊंस मिलता था। वरिष्ठों की खबरें काट-काट कर फेंक देते, उन्हें अपमानित करते, इन स्ट्रिंगर्स की खबर उछाल कर छापते। इन्हीं उठापटक और राजनीति में नवभारत टाइम्स लखनऊ बंद हो गया। और भी ऐसे कई काम इन एस.पी. ने किए जो सहयोगियों के हित में नहीं थे। लेकिन वह लगातार करते रहे। और अंतत: जब अपने पर बन आई तो उसी टाइम्स प्रबंधन के खिलाफ संसद में सवाल उठवाने लग गए। यह वही सुरेंद्र प्रताप सिंह थे जिन का प्रताप उन दिनों इतना था कि वह अकसर दिल्ली से लखनऊ सिर्फ़ शराब पीने आते थे राजकीय विमान से। रात नौ बजे आते और बारह बजे तक लौट भी जाते। 45 मिनट की फ़्लाइट होती थी। और तब के मुख्यमंत्री मुलायम सिंह यादव से दोस्ती भी निभ जाती थी। वे दिन मंडल की पैरोकारी के दिन थे उन के। सो चांदी कट रही थी। और गरीबों की बात भी हो रही थी। वाया राजकीय विमान और शराब। और कि देखिए न, उन के चेले भी आजकल क्या-क्या नहीं कर रहे हैं?

खैर, चाहे पत्रकारों के मसीहा एस.पी. हों या छुट्भैय्या सत्यप्रकाश त्रिपाठी हों, इन प्रजातियों की अखबार मालिकानों को सहयोगियों के हितों के खिलाफ बुद्धि देने वालों की संख्या में बेतहाशा वृद्धि हुई है। अनुपात वही यहां भी है जो देश में गरीबों और अमीरों के बीच है। जैसे देश के ज़्यादतर लोग बीस रुपए भी नहीं कमा पाते रोज और खरबपतियों की संख्या बढती जाती है। ठीक वैसे ही संवाद सूत्रों की संख्या बढ़ती जाती है और दूसरी तरफ अपने अल्सेसियंस की भी। नहीं समझे? अरे बुद्धि देने वालों की भाई!

और यह बेचारे संवाद सूत्र अपनी यातना कथा में भी कुछ अपने मसीहा टाइप लोगों के चरणों में गिरे पड़े रहते हैं। कि जाने कब उद्धार हो जाए। पर उद्धार नहीं होता, निकाल दिए जाते हैं। सो यातना, कर्ज़ और अपमान का ग्राफ़ ज़रुर बढ़ जाता है। यह संवाद सूत्र बेचारे नहीं जान पाते कि उन के  यह सभी छुटभय्या मसीहा भी उन्हीं बुद्धि देने वालों की कतार में हैं। यहीं धूमिल याद आ रहे हैं:

एक आदमी रोटी बेलता है
एक आदमी रोटी सेंकता है
एक तीसरा आदमी और है
जो इस रोटी से खेलता है
मैं पूछ्ता हूं
यह तीसरा आदमी कौन है
मेरे देश की संसद मौन है

तो  ज़रूरत वास्तव में इस तीसरे आदमी के शिनाख्त की है। पलायन की नहीं। देखिए अब यहीं देवेंद्र कुमार भी याद आ रहे हैं। उन की एक लंबी कविता है- बहस ज़रूरी है। उस में एक जगह वह लिखते हैं:

रानी पद्मावती का इतिहास तुम ने सुना होगा
बीस हज़ार रानियों के साथ जल कर मरने के बजाय
जो वह लड़ कर मरी होती
तो शायद तुम्हारा और देश का इतिहास.
कुछ और होता

हम असल में इतिहास से सबक नही लेते, गलती हमारी है। नतीज़ा सामने है। कभी हम  बता कर मरते हैं तो कभी  खामोश। जैसे हम अभिशप्त हो गए हैं। बीवी-बच्चों को लावारिस छोड़ जाने के लिए। अपनी ज़िंदगी होम कर पूंजीपतियों और भडुओं की तिजोरी भर जाने के लिए। ये पद्मश्री, पद्मभूषण का खिताब ले कर भोगेंगे, हम गांव मे गोबर बटोरने चले जाएंगे। हमारे कुछ मित्र जब बहुत परेशान होते हैं तो कहने लगते हैं कि गांव चले जाएंगे। हमारे गांव में तो गोबर भी अब नहीं है, काछने के लिए। हल बैल की खेती ही खतम हुए ज़माना हो गया। किराए का ट्रैक्टर आ कर जोत देता है, किराए का ही कंबाइन आ कर काट देता है। तो गोबर कहां से रहेगा? हां गांव में गरीबी है, पट्टीदारी है और माफ़ करें दुरूपयोग की हद पार करते हुए हरिजन ऐक्ट भी है। गरज यह कि जितने फन उतनी फ़ुंफकारें ! इतने साल बधिया बन कर व्यर्थ की ही सही पत्रकारिता कर, शहर में रहने के बाद अब गांव में? कैसे रहेंगे गांव में भी ? बिजली के अभाव में, मच्छर के प्रभाव में। और फिर जो गांव वाले अज्ञेय जी की कविता में प्रतिप्रश्न कर बैठें -

सर्प तुम नगर में गए भी नहीं
न ही सीखा तुमने वहां बसना
फिर कहां से तुम ने विष पाया
और कहां से सीखा डंसना

और मेरे गांव में तो नहीं पर पास के एक गांव में दो साल पहले एक आदमी मुंबई में राज ठाकरे के गुंडों से पिट कर गांव की शरण में वापस आ गया। यहां भी गांव वालों ने उसे ताने दे दे कर आज़िज़ कर दिया। अपनों के ही ताने सुन-सुन कर वह बेचारा एक दिन, एक पेड़ से लटका मिला।

तो मेरे भाई  ज़रा गांव भी बच कर जाइएगा। ठीक है कि आज की पत्रकारिता में कुछ नहीं धरा है। जो भी कुछ है, अब वह सिर्फ़ और सिर्फ़ भडुओं के लिए है। अब उन्हीं के लिए रह गई है पत्रकारिता। अब तो कोई गिरहकट भी अखबार या चैनल चला दे रहा है और एक से एक मेधावी, एक से एक जीनियस वहां पानी भर रहे हैं। एक मास्टर भी बेहतर है आज के किसी पत्रकार से। नौकरी के लिहाज़ से। मनरेगा मज़दूर भी।

कब किस की नौकरी चली जाए, कोई नहीं जानता। हर कोई अपनी-अपनी बचाने में लगा है। इसी यातना में जी रहा है। सुविधाओं और ज़रूरतों ने आदमी को कायर और नपुंसक बना दिया है। पत्रकारिता के ग्लैमर का अजगर बडे़-बडे़ प्रतिभावानों को डंस चुका है। किस्से एक नहीं, अनेक हैं।

एक हैं डा. चमनलाल। आज कल जे.एन. यू. में पढ़ाते हैं। हिंदी के आलोचक भी हैं। अनुवाद के लिए भी जाने जाते हैं। पहले मुंबई और तब की बंबई में एक बैंक में हिंदी अधिकारी थे। दिल्ली से जनसत्ता अखबार जब शुरू हुआ 1983 में तब वह भी लालायित हुए पत्रकार बनने के लिए। बडी चिट्ठियां लिखीं उन्हों ने प्रभाष जोशी जी को कि आप के साथ काम करना चाहता हूं। एक बार जोशी जी ने उन्हें जवाब में लिख दिया कि आइए बात करते हैं। चमनलाल इस चिट्ठी को ही आफ़र लेटर मान कर सर पर पांव रख कर दिल्ली आ गए। जोशी जी ने अपनी रवायत के मुताबिक उन का टेस्ट लिया। टेस्ट के बाद उन्हें बताया कि आप तो हमारे अखबार के लायक नहीं हैं। अब चमनलाल के पैर के नीचे की ज़मीन खिसक गई। बोले कि मैं तो बैंक की नौकरी से इस्तीफ़ा दे आया हूं। जोशी जी फिर भी नहीं पिघले। बोले, आप इस अखबार में चल ही नहीं सकते। बहुत हाय-तौबा और हाथ पैर-जोड़ने पर जोशी जी ने उन्हें अप्रेंटिस रख लिया और कहा कि जल्दी ही कहीं और नौकरी ढूंढ लीजिएगा। बैंक की नौकरी में चमनलाल तब ढाई हज़ार रुपए से अधिक पाते थे। जनसत्ता में छ सौ रुपए पर काम करने लगे। बस उन्हों ने आत्महत्या भर नहीं किया, बाकी सब करम हो गए उन के। उन दिनों को देख कर, उनकी यातना को देख कर डर लगता था। आखिर बाल-बच्चेदार आदमी थे। पढे़-लिखे थे। अपने को संभाल ले गए। जल्दी ही पंजाब यूनिवर्सिटी की वांट निकली। अप्लाई किया। खुशकिस्मत थे, नौकरी पा गए। हिंदी के लेक्चरर हो गए। पर सभी तो चमनलाल की तरह खुशकिस्मत नहीं होते न! जाने कितने चमनलाल पत्रकारिता की अनारकली बना कर दीवारों में चुन दिए गए पर अपने सलीम को, अपनी पत्रकारिता के सलीम को, अपनी पत्रकारिता की अनारकली को नहीं पाए तो नहीं पाए। कभी पत्रकारिता के द्रोणाचार्यों ने उन के अंगूठे काट लिए तो कभी शकुनियों ने उन्हें नंगा करवा दिया अपने दुर्योधनों, दुशासनों से। पत्रकारिता के भडुवों के बुलडोजरों ने तो जैसे संहार ही कर दिया।  पहले देखता था कि किसी सरकारी दफ़्तर का कोई बाबू, कोई दारोगा या कोई और, रिश्वतखोरी या किसी और ज़ुर्म में नौकरी से हाथ धो बैठता था तो आ कर पत्रकार बन जाता था। फिर धीरे-धीरे पत्रकारों का बाप बन जाता था।

पर अब?

अब देखता हूं कि कोई कई कत्ल, कई अपहरण कर पैसे कमा कर बिल्डर बन जाता है, शराब माफ़िया बन जाता है, मंत्री-मुख्यमंत्री बन जाता है, और जब ज़्यादा अघा जाता है तो एक अखबार, एक चैनल भी खोल लेता है। और एक से एक मेधावी, एक से एक प्रतिभाशाली उनके चाकर बन जाते हैं, भडुवे बन जाते हैं। उन के पैर छूने लग जाते हैं। हमारा एक नया समाज रच जाते हैं। हमें समझाने लायक, हमें डिक्टेट करने लायक बन जाते हैं। बाज़ार की धुरी और समाज की धड़कन बनने बनाने के पितामह बन जाते हैं।

साहिर लुधियानवी के शब्दों में इन हालातों का रोना रोने का मन करता है :

बात निकली तो हर एक बात पर रोना आया
कभी खुद पे कभी हालात पे रोना आया

यहीं शकील बदायूंनी भी याद आ रहे हैं:

पायल के गमों का इल्म नहीं, झंकार की बातें करते हैं
दो कदम कभी जो चले नहीं रफ़्तार की बातें करते हैं।

जानिए कि कोई पूंजीपति, कोई प्रबंधन आप को कुछ भी कहलवा-सुनवा सकता है क्यों कि उस के हाथ में बाज़ार है, बाज़ार की ताकत है। सो रास्ता बदल लेने में ही भलाई है क्यों कि अब कोई किसी को बचाने वाला नहीं है, बिखरने से बचा कर सहेजने-संवारने वाला नहीं है।  समय रहते नींद टूट जाए तो अच्छा है। हम जैसे लोगों की नींद टूटी तो बहुत देर हो चुकी थी। प्रोड्क्ट की आंधी में बह-बिला गए। बाकी जो बचा भडुए-दलाल गड़प गए। आप बच सकें तो बचिए।

लखनऊ में एक पत्रकार थे, जयप्रकाश शाही। जीनियस थे। पत्रकारिता में उन के साथ ही हम भी बडे़ हुए थे। एक समय लखनऊ की रिपोर्टिंग उन के बिना अधूरी कही जाती थी। पर सिस्टम ने बाद में उन्हें भी बिगाड़ दिया। क्या से क्या बना दिया। एक अखबार में वह ब्यूरो चीफ़ थे। कहते हुए तकलीफ़ होती है कि बाद में उसी अखबार में वह लखनऊ में भी नहीं, गोरखपुर में जो उन का गृहनगर था  स्ट्रिंगर बनने को भी अभिशप्त हुए और बाद के दिनों में अपनी ही टीम के जूनियरों का मातहत होने को भी वह मज़बूर किए गए। अब वह नहीं हैं इस दुनिया में पर तब वह टूट कर कहते थे कि यार अगर कथकली या भरतनाट्यम भी किए होते तो दस-बीस साल में देश में नाम कमा लिए होते। हमारे सामने ही एस.डी.एम. देखते देखते कलक्टर हो गया, चीफ़ सेक्रेट्री भी हो गया, सी.ओ. आज एस.पी. बन गया, डी.आई.जी. आई. जी. से आज डी.जी.पी. हो गया, फलनवा गिरहकटी करते-करते मिनिस्टर बन गया और हम देखिए ब्यूरो चीफ़ से स्ट्रिंगर हो गए।

बताऊं  कि आज आलोक मेहता, मधुसुदन आनंद, रामकृपाल सिंह, कमर वहीद नकवी वगैरह को ज़्यादातर लोग जानते हैं। पर उन्हीं के बैच के लोग और उन से सीनियर लोग और भी हैं। उसी टाइम्स आफ़ इंडिया ट्रेनी स्कीम के जो आज भी मामूली वेतन पर काम कर रहे हैं।

क्यों?

क्यों कि वह बाज़ार को साधने में पारंगत नहीं हुए। एथिक्स और अपने काम के बल पर वह आगे बढ़ना चाहते थे। कुछ दिन बढे़ भी। पर कहा न कि प्रोडक्ट की आंधी आ गई। भडुओं का बुलडोज़र आ गया। वगैरह-वगैरह। तो वह लोग इस के मलबे में दब गए। बताना ज़रा क्या ज़्यादा तकलीफ़देह है कि लखनऊ में एक अखबार ऐसा भी है जहां लोग बीस साल पहले पांच सात हज़ार रुपए की नौकरी करते थे बडे़ ठाट से। और आज भी, बीस साल बाद भी वहीं नौकरी कर रहे हैं पांच हज़ार रुपए की, बहुत डर-डर कर, बंधुओं जैसी कि कहीं कल को निकाल न दिए जाएं?

और मैं जानता हूं कि देश में ऐसे और भी बहुतेरे अखबार हैं। हमारी दिल्ली में भी। अब इस के बाद भी कुछ कहना बाकी रह गया हो मित्रों तो बताइएगा, और भी कह दूंगा। पर कहानी खत्म नहीं होगी। वैसे भी बात बहुत लंबी हो गई है। सो अभी बात खत्म करते हैं। यह चर्चा फिर कभी फिर होगी। तब और आगे की बात होगी।अभी तो बतर्ज़ मुक्तिबोध यही कहूंगा कि, 'मर गया देश, जीवित रहे तुम !' आमीन!

मीडिया तो अब काले धन की गोद में
[आलेख]

लेखक- दयानंद पांडेय

पृष्ठ- 208 मूल्य- 400

प्रकाशक- सर्वोदय प्रकाशन 512-B, गली नं.2 विश्वास नगर दिल्ली-110032

प्रकाशन वर्ष- 2013

Friday, 13 July 2012

कु-व्यवस्था तंत्र में फंसे आदमी की छटपटाहट

विभांशु दिव्याल

दयानंद पांडेय के सद्य: प्रकाशित कहानी संग्रह ‘फ़ेसबुक में फंसे चेहरे’ में संकलित उनकी ताजा प्रकाशित कहानियों से गुज़रते हुए मिश्रित प्रतिक्रिया पैदा होती है। वह अपने परिवेश पर गहरी नज़र रखने वाले कथाकार हैं और अपने आसपास घट रहे को बड़ी शिद्दत से अपनी कहानियों का कथ्य बना देते हैं, फिर चाहे यह परिवार, समाज में आते बदलाव के रूप में घट रहा हो, किसी व्यवसाय की नई प्रवृत्तियों के रूप में अथवा संचार क्षेत्र में हुई क्रांतियों के वैयक्तिक सांस्कृतिक प्रभाव के रूप में। उन की कथा कथ्य इकहरा न हो कर विस्तृत और बहुफलकीय है। शायद इस लिए भी कि वह पेशे से पत्रकार हैं और उन की रचना दृष्टि एक साथ अनेकानेक विषय और क्षेत्रों में पैठ बनाती रहती है।

संग्रह की शीर्षक कहानी ‘फ़ेसबुक में फंसे चेहरे’ यथा नाम लोकप्रिय सोशल साइट जहां एक और फेसबुक की लोकप्रियता को दर्शाती है कि राम सिंगार जैसे व्यक्ति भी अपने बच्चों की मदद से चैट करते हैं, लोगों की कुंठाओं, कामनाओं, वासनाओं और बेहूदगियों का साक्षात्कार करते हैं, तो दूसरी ओर फेसबुक पीढ़ी के जनसरोकार जैसी अनुत्तेजक चीज़ से पूरी तरह विमुख होने पर पीड़ा भी महसूस करते हैं। मगर इस साइट का या इस के बहाने स्वयं अपनी दमित वासनाओं को बाहर उलीचने का आकर्षक दबाव इतना खींचू है कि फेसबुक पर न बैठने की कसम खाने के बावजूद वह इसे छोड़ नहीं पाते। यहां कथाकार ऐसी साइटों के प्रभाव को एक नशे की आदत की तरह सामने रखता है, जिसके सामाजिक सुप्रभाव, विशेषकर भारतीय संदर्भ में स्थापित करना संभव है। इसी तरह ‘बर्फ़ में फंसी मछली’ का कथ्य एक व्यक्ति की कैशौर्य से ले कर पत्नी प्राप्त कर लेने के बावजूद, अधेड़ावस्था तक सतत चलने वाली प्यार की तलाश भले हो, मगर इसके कथ्य की आधारभूमि मोबाइल और इंटरनेट के जरिए ही तैयार होती है। इंटरनेट के माध्यम से कथानायक बिना किसी नस्ल, उम्र, भाषा, भेद के जब रशियन, अमरीकन, अफ्रीकन, इंडियन, नाइजीरियन लड़कियों को एक साथ अपने संपर्क में पाता है तो इसे ग्लोबलाइज़ेशन की पराकाष्ठा के रूप में देखता है। बहरहाल यह कहानी उस समय मार्मिक हो उठती है, जब उस की रशियन प्रेमिका, उस के सान्निध्य में रहने के लिए भारत आना चाहती है। मगर बीमार हो जाने के कारण नहीं आ पाती और जब वह अपनी प्रेमिका से मिलने की आतुरता में रूस जाने की योजना बनाता है तब उसे उस के निधन की सूचना मिलती है।

‘सूर्यनाथ की मौत’ कहानी भी कथित ग्लोबलाइज़ेशन के प्रभाव को उस मॉल संस्कृति के रूप में अभिव्यक्ति देती है, जिस के चलते इस देश की युवा पीढ़ी न अपने गांधी को याद रखना चाहती है, न अपने इतिहास में झांकना चाहती है और न एक देश-समाज के तौर पर अपने भविष्य का अभिकल्पन करना चाहती है। सूर्यनाथ को लगता है कि वह बाज़ार चलाने और बनाने वाली गौडसे जमात से घिर गए हैं और ‘बिना गोली खाए ही मर जाते हैं।’ एक जीनियस की विवादास्पद मौत में विष्णु प्रताप सिंह नाम के जीनियस की मौत होती है, मगर यह मौत सूर्यनाथ की तरह जीते जी मौत नहीं है, बल्कि एक खुद्दार और दिमागदार व्यक्ति के विवाहेतर संबंध की फिसलन में पड़ जाने से हुई भौतिक मौत है, जिस का काला साया उस की पत्नी और बच्चों को घेर लेता है।

‘मैत्रेयी की मुश्किलें’ तथा ‘घोड़े वाले बाऊ साहब’ दोनों कहानियों में परगमन की भरमार है। पहली की पृष्ठभूमि नव उदित शहरी संस्कृति है, जिस में सत्ता, सुरक्षा और महत्व की आकांक्षी औरत पुरुष सत्तात्मक सामाजिक ढांचे में भोग्या की तरह तो हर जगह स्वीकार्य है, परंतु हाड़-मांस की दिल-दिमाग वाली मानुषी की तरह कहीं नहीं। दूसरी कहानी की पृष्ठभूमि वह ग्रामीण सामंती संस्कृति है, जो आसपास घट रहे तमाम परिवर्तनों के बावजूद आदमी को अपनी जकड़ से मुक्त नहीं होने देती और उसे अनेकानेक त्रासद स्थितियों के दलदल में धकेलती रहती है। घोड़े वाले बाऊ साहब अपने घुड़सवारी के शौक में ऐसे डूबते हैं कि कब उन के हाथ से ज़िंदगी को साध कर रखने वाले साधन फिसलते चले गए, उन्हें पता भी नहीं लगता। पहली पत्नी उन्हें संतान का सुख नहीं दे पाती तो वह दूसरा विवाह कर लेते हैं, लेकिन यह स्वीकार नहीं कर पाते कि स्वयं वह अक्षमताग्रस्त हैं। उन की दोनों पत्नियां मिल कर उन्हें सात अनौरस संतानों का पिता बना देती है। उन की दूसरी पत्नी की मृत्यु जब गर्भपात कराने के प्रयास में होती है, तब उन्हें वास्तविकता का पता चलता है। आसमान से ज़मीन पर गिरे बाऊ साहब जब अपने इस दुख को घुड़सवारी जो अब तंगी के कारण बैल सवारी बन गई है, के शौक में ही डुबोने की कोशिश करते हैं तो बेहद दयनीय हो उठते हैं। कहानी अपने मार्मिक अंत तक पहुंचती है।

संग्रह की शेष दो कहानियों ‘हवाई पट्टी के हवा सिंह’ और ‘मन्ना जल्दी आना’ अपनी अधिक प्रामाणिक वस्तु, राजनीतिक-प्रशासनिक तंत्र को अधिक पैनेपन के साथ नंगा करने और अपने अधिक सघन कहानीपन के लिए अधिक उल्लेखनीय है। ‘हवाई पट्टी के हवा सिंह’ में जब आज की चुनावी राजनीति की कोख से उत्पन्न एक हवाबाज़ नेता एक छोटे शहर की चुनावी सभा में भाग लेने के लिए एक पत्रकार मंडली के साथ हवाई यात्रा करते हैं और शहर की असुरक्षित, उपेक्षित हवाई पट्टी को लोगों से घिरा देख कर अपने जहाज की ज़मीन पर उतारने में पायलट को हिचकिचाता देख जिस तरह उसे जहाज उतारने का आदेश देते हैं, असुरक्षित खतरनाक लैंडिंग पर दौड़ते समय जिस तरह एक जाबांज जीप चालक अपनी जीप को जहाज के सामांतर दौड़ाने की जांबाज़ी दिखाता है, जिस तरह आसपास की रिहायशी बस्तियों की भीड़ जहाज को छू कर देखने को ललक पड़ती है, जिस तरह पायलट अपनी चतुराई से जहाज को बचाता है और उस के राजनीति और पत्रकारिता के असली चेहरे को उजागर करता है। भीड़ की जहाज को छू कर और उस के भीतर घुस कर देखने की लंठ औत्सुक्य हास्य पैदा करता है और साथ ही समूचे लोकतंत्र और प्रशासनिक व्यवस्था पर गहरा व्यंग्य बन कर उभरता है।

‘मन्ना जल्दी आना’ का केंद्रीय पात्र बंगाल का बिहारी मुसलमान अब्दुल मन्नान है, जिस की कहानी पूर्वी पाकिस्तान के बांग्लादेश बनने से शुरू हो कर उस के करुण विस्थापन, बांग्लादेशी मुसलमानों के हाथ अपनी दुर्गति, भारत में लंबे समय तक रहने के दौरान विद्वेष और आत्मीयता के उतार-चढ़ाव, भारत से निष्कासन, नेपाल में तस्करी का जीवन और फिर भारत वापस लौटने पर खत्म होने तक विभाजन की त्रासदी, राजनीति और प्रशासन की संवेदनहीनता, हिंदू-मुस्लिम संबंध, अपनों की क्षुद्रता और परायों की दयानतदारी जैसी अनेकानेक स्थितियों को मार्मिकता के साथ उजागर करती है। भारत वापस लौटने पर मन्नान को और तो सब कुछ मिल जाता है, नहीं मिलता तो उनका वह तोता ‘मिट्ठू मियां’ जो उन से कहता था ‘मन्ना जल्दी आना।’ मन्नान और मिट्ठू मियां का रिश्ता जैसे सारी मानवीय क्रूरता पर करुणा की बूंद बन कर बरस जाता है।

वस्तु की संपन्नता और विविधता के बावजूद दयानंद पांडेय की ज़्यादातर कहानियां अच्छी कहानी से बहुत अच्छी कहानी बनने से पहले ही ठहर जाती हैं। पात्रों को अपनी परिस्थितियों और तद्जन्य संवादों के माध्यम से स्वयं अपनी चारित्रिकता को स्थपित करते चलने का अवसर न दे कर जब कहानीकार अपनी टिप्पणियों से पात्र के चरित्र को स्थापित करने का काम करता है तो कहानी के पात्र, पाठक संबंध में शौथिल्य आ जाता है। उदाहरण के लिए ‘मैत्रेयी की मुश्किलें’ कहानी में शुरू में ही कथक पात्र के हवाले से कहानीकार का यह कथन ‘मैत्रेयी दत्ता अब कहां है, नागेंद्र नहीं जानता। लेकिन यह ज़रूर जानता है कि वह जहां कहीं भी होगी, दुख के दरिया में सुख के सपने संजोती अनजाने में अपने लिए कांटे बो रही होगी।’ केंद्रीय पात्र मैत्रेयी के चरित्र की असामान्यता को स्थापित कर देता है, जो पाठक को मैत्रेयी के प्रति रागात्मकता से जुड़ने नहीं देती और उस के सारे दुख-दर्द पाठक की सहानुभूति के दायरे में खिसक जाते हैं। कहानी का वांछित प्रभाव तब ढीला हो जाता है। कथाकार दयानंद पांडेय को धैर्य के साथ इस कमजोरी से उबरना चाहिए।


समीक्ष्य-पुस्तक:
कहानी संग्रह - फ़ेसबुक में फंसे चेहरे
कहानीकार - दयानंद पांडेय
पृष्ठ-216
मूल्य-350 रुप॔ए

प्रकाशक
जनवाणी प्रकाशन प्रा. लि.
30/35-36, गली नंबर- 9, विश्वास नगर
दिल्ली- 110032
प्रकाशन वर्ष-2012

Friday, 6 July 2012

गैंग्स आफ़ वासेपुर : एक बगल में चांद था, एक बगल में रोटियां की जगह फ़िल्म तेरी कह के लूंगा में निपट गई

पहले किसी फ़िल्म को सेंसर बोर्ड अगर 'ए' सर्टिफ़ेकेट देता था तो निर्माता-निर्देशक दुखी हो जाते थे कि फ़िल्म कम चलेगी। लोग परिवार सहित नहीं देखेंगे। पर अब उल्टा हो गया है। फ़िल्म को अगर 'ए' सर्टिफ़िकेट मिल जाता है तो निर्माता-निर्देशक उछल जाते हैं कि लोग खूब देखेंगे। असल में आर्थिक उदारीकरण का व्याकरण अब सिर्फ़ रोटी पर ही नहीं फ़िल्मों के व्याकरण पर भी तारी है। खास कर हिंदी फ़िल्मों के व्याकरण पर। हिंसा और सेक्स अब एक बिकाऊ मैटिरियल है। गैंग्स आफ़ वासेपुर इस की ताज़ी मिसाल है। तिस पर तुर्रा यह कि तेरी कह के लूंगा। नहीं, आप मुझ पर भड़कें नहीं एक गाना है यह इस फ़िल्म का - तेरी कह के लूंगा।

अब आप क्या बनाएंगे, क्या बताएंगे और क्या दिखाएंगे यह भी हम पूछ नहीं सकते। अदभुत घालमेल है। पहले भी फ़िल्में बाज़ार के रथ पर ही सवार थीं। पर अब बाज़ार के सिर पर सवार ही नहीं हैं जैसे दर्शक के सिर पर आग मूत रही हैं। और कोई कुछ कहने या पूछने वाला नहीं है। एक माध्यम मिल गया है इलेक्ट्रानिक मीडिया का। जो पैसा खा कर किसी भी कचरे को फ़िल्म बता देता है, किसी भी ऐरी-गैरी फ़िल्म को महान ही नहीं महानतम बना-बता देता है। और हम बे-बस फ़िल्म का दीदार कर आते हैं। पब्लिसिटी का बुखार देखते समय भी तारी रहता है। देखने के बाद भी उतरता नहीं है। अच्छा जो कोई सवाल फूटता भी है फ़िल्म देख कर तो हम पूछें भी किस से? अगला तो जैसे चल चुका होता है, बाज़ार समेट कर। ठीक वैसे ही जैसे कोई किसी मंदिर के आस-पास अचानक किसी बुढ़िया को मिल जाए और बुढ़िया के सारे ज़ेवर उतार कर उसे दोगुना बनाने का झांसा दे कर ले उड़े।

फ़िल्में पहले भी बनती थीं पर लगभग सभी फ़िल्मों का जैसे एक अनिवार्य पाठ होता था प्रेम और अहिंसा का। कोई न कोई संदेश भी होता ही था। फ़िल्म भी एक रचना ही है। सो फ़िल्मों की फ़ैंटेसी में लाख हिंसा हो, फ़रेब और अत्याचार हो पर संदेश यही आता था कि सत्यमेव जयते। पर अब जो समाज हमारा बन रहा है, फ़िल्में हमारी बता रही है - असत्यमेव जयते का पाठ पढ़ा रही हैं वह। धड़ल्ले से। हिंसा हमारे जीवन और समाज में अभी अनिवार्य हिस्सा नहीं हैं पर अब ज़्यादातर फ़िल्मों की सांस है - हिंसा और सेक्स। फ़िल्म का नया व्याकरण अब कहानी या संदेश नहीं सिर्फ़ हिंसा और सेक्स परोसता है और कमा कर निकल लेता है। गैंग्स आफ़ वासेपुर की फ़िल्मोग्राफ़ी में भी यही तत्व सिर पर आग मूत रहा है। समूची फ़िल्म हिंसा और व्यभिचार के कोलाज का कंट्रास्ट रच कर दर्शक को एक चक्रव्यूह में छोड़ जाती है। और साथ ही बता जाती है कि इस की दूसरी् किस्त में भी हम आप को कुछ 'नया' और नए रंग में दिखाएंगे। क्यों कि सरदार खान का बदला अभी पहली किस्त में पूरा नहीं हुआ है। वह अनगिनत गोलियां खा कर अभी घायल है और ठेलिया पर चढ़ा चला जा रहा है। अर्धमूर्छित है। नीम बेहोश। और जाहिर है जब दूसरी किस्त में आएगा सरदार खान तब उस की मूर्छा टूटेगी और वह फिर कह कर ही सही लेगा ज़रुर।

जो कथ्य उठाया है अनुराग कश्यप ने गैंग्स आफ़ वासेपुर में उस में संभावनाएं असीमित थीं अच्छी फ़िल्म बनने की। मनोज वाजपेयी जैसा असीमित संभावनाओं वाला अभिनेता था उन के पास। उन के पास अच्छे गाने भी थे एक से बढ़ कर एक। संगीत और लोकेशन भी। पैना कैमरा भी और चुटीले-धारदार संवाद भी। पर बस जो एक बात नहीं है अनुराग कश्यप के पास तो बस एक दृष्टि नहीं है। बस फ़िल्म यहीं मार खा कर रह गई। एक बड़ी फ़िल्म बनने की बजाय चालू फ़िल्म बन कर रह गई। एक बगल में चांद था, एक बगल में रोटियां जैसा गाना फ़िल्म को एक नई ऊंचाई पर ले जा सकता था, अगर इस फ़िल्म को एक दृष्टि के तहत बनाया गया होता। पर एक बगल में चांद था, एक बगल में रोटियां की जगह फ़िल्म तेरी कह के लूंगा में निपट गई। पैसा कमाने का शार्टकट एक अच्छी फ़िल्म से महरूम कर गया। सारी संभावनाओं पर जैसे पानी पड़ गया। गैंग जैसी कोई कहानी पूरी फ़िल्म में दिखती नहीं। गैंग्स तो छोडिए एक गैंग भी कायदे से नहीं है। बदला भी नहीं, बदले की बात भर है। वह भी तेरी कह के लूंगा के तर्ज़ पर। एक दृष्य देखिए। एक पात्र सरदार खान के बेटे से बात कर रहा है। और बता रहा है कि बदला ऐसे नहीं लिया जाता। अब देखो कि अमिताभ बच्चन जंज़ीर फ़िल्म में इंस्पेक्टर बनता है, ठीक से बदला नहीं ले पाता पर जब दीवार में गुंडा माफ़िया बनता हैं तो बदला ठीक से ले लेता है। गरज यह कि इस समाज और इस देश में बदला लेना अनिवार्य है और कि उस के लिए तरीका भी नाज़ायज़ ही होना चाहिए। इस फ़िल्म का संदेश यही तो है? चलिए यहां नहीं बात करते मदर इंडिया, मुगले-आज़म, पाकीज़ा या कागज़ के फूल आदि फ़िल्मों या उन के मिजाज की। पर सोचिए कि एक समय हिंदी फ़िल्मों में दो आंखें बारह हाथ का भी था। कि हिंसक और खतरनाक डाकू भी अहिंसा का पाठ पढ़ते थे और मार खा लेते थे पर हाथ नहीं उठाते थे। एक अहिंसक समाज का सपना रचते थे दो आंखें बारह हाथ के मार्फ़त ह्वी शांता राम जैसे फ़िल्मकार। पर अब आज के अनुराग कश्यप जैसे फ़िल्मकार हिंसा और व्यभिचार का अनिवार्य पाठ पढ़ा रहे हैं। और कान महोत्सव में जा कर चर्चा भी बटोर रहे हैं। हिंसा में सनी, फ़ैंटेसी में पगी फ़िल्में पहले भी बनती रही हैं। पर उन फ़िल्मों में भी कुछ तो पाज़िटिव होता ही था। हम याद कर सकते हैं गुलज़ार की फ़िल्म मेरे अपने की। खूब डट कर हिंसा है, पर बेरोजगारी से उपजी हिंसा है। एन चंद्रा की अंकुश या फ़िर महेश भट्ट की तमाम फ़िल्में हैं जिन में हिंसा और सेक्स भरपेट है पर कहीं कुछ तो और भी है। प्रतिघात की भी याद आती है। शोले को भी जोड़ लेते हैं। पर बहुतेरी ऐसी फ़िल्में हैं सेक्स और हिंसा से भरी-पुरी। पर कुछ तो फ़िल्म भी है। कुछ तो सपना भी है। कुछ तो विज़न भी है। और यहीं गैंग्स आफ़ वासेपुर चूक जाती है। कोयला माफ़िया और कोयला मज़दूरों पर पहले भी फ़िल्में बनी हैं। उस में भी हिंसा है, प्यार है पर मज़दूरों का दुख दर्द और उन का अंतरसंघर्ष भी सामने आता है। काला पत्थर एक ऐसी ही फ़िल्म है। मल्टी स्टारर फ़िल्म है।

पर अनुराग कश्यप की इस फ़िल्म में यह अनबूझ ही है कि वह किस बात पर फ़ोकस करना चाहते हैं। किसी माफ़िया पर या मज़दूर पर? किसी समय-काल पर या किसी व्यवस्था पर? या कि सिर्फ़ कोयला तो एक बहाना है, बिहार या झारखंड तो एक बहाना है। इस बहाने सिर्फ़ व्यर्थ की हिंसा की एक नदी भी बहानी थी, सो बहा दी। पर हिंसा की भी एक तार्किकता होती है, यह भी वह भूल गए। कम से कम प्रकाश झा से वह अगर प्रेरित थे तो उन से ही सही हिंसा की तार्किकता का भी फ़न सीख लिए होते। प्रकाश झा के यहां भी हिंसा की चाशनी खूब मिलती है जो बिहार की ज़मीन और उस के समयकाल कहिए या अंतरसंघर्ष से ही उपजती है। और अपनी समूची तार्किकता के साथ एक 'काज़' भी, एक मकसद भी उस का होता ही है। जिस का अंतत: एक सकारात्मक पक्ष भी दिखता है। जो अनुराग कश्यप के यहां अनुपस्थित है। क्यों अनुपस्थित है? यह एक बड़ा सवाल है।

फ़िल्म में कई जगह नैरेशन का इस्तेमाल है, ब्रिटिश पीरियड का ज़िक्र है, वह दौर भी है, सुल्ताना डाकू का दौर है, लूट है, आज़ादी है, नेहरु का भाषण है, जगजीवन राम का ज़िक्र और विज़ुवल है तो एकाध बार भ्रम हो जाता है कि टाइम या पीरियड फ़िल्म तो नहीं है कहीं? पर जल्दी ही भ्रम टूटता है और पता लग जाता है कि यह बे सिर पांव की एक बेहूदा और मसाला फ़िल्म है। जिस ने गलती से कहिए या जान-बूझ कर शेर की खाल ओढ़ ली है। रंगा सियार है, शेर नहीं। फ़िल्म का जो लास्ट हाफ़ है वह तो धीरे-धीरे सी ग्रेड की फ़िल्मों का रुख कर लेती है। अपने अच्छे संवादों और सुंदर गीतों की भी परवाह नहीं करती यह फ़िल्म। कुछ दृष्य भी इतने अच्छे बुने गए थे कि उन की महक भी जाती रहती है। और कई बार गीतों का दृष्य और माहौल से भी कोई सरोकार नहीं रह जाता। आधे-अधूरे गीत भी जब-तब क्यों बज रहे हैं, किस के लिए बज रहे हैं यह सिर्फ़ और सिर्फ़ अनुराग कश्यप ही जान सकते हैं मेरे जैसे सामान्य दर्शक तो हरगिज़ नहीं। अब बताइए कि आप का सो काल्ड नायक गोली खा कर नीम बेहोश, मूर्छित है और गाना बज रहा है जिय हो बिहार क लाला ! यह भी नहीं कि पहले बज चुका हो आप अब दुहरा रहे हों। क्या मतलब है भाई? तिस पर वासेपुर को आप झारखंड में बता चुके हैं नैरेशन में पहले। बाकी तमाम गानों की भी फ़ज़ीहत यही या और तरीकों से हुई है। और जब ऐसा ही था तो गानों की ज़रुरत क्या डाक्टर ने बताई थी? एक बगल में चांद है, एक बगल में रोटियां जैसा मारक गीत भी ऐसी ही धुंध में खो जाता है। कई बार कुछ मोहक संवाद भी इसी तरह पैच-अप के मूड में चस्पा दिखते हैं। और बताइए कि यहां कोयला माफ़िया जो कि मंत्री भी है, कितना ताकतवर है? कि एस. पी. के आफ़िस में, एस पी के सामने ही उस के बेटे को जो कि विधायक भी है, एक मामूली सा गुंडा लपड़िया देता है। और उस का साथी भी हंसते हुए एस पी से पूछता है कि इन को लाफ़ा मारने का कितना सज़ा होता है एस पी साहब? कह कर वह लपड़िया भी देता है। और गिरफ़्तार हो जाता है। अब यह माफ़िया है कि कार्टून? बताइए कि मंत्री भी है और एस पी के आगे मामूली अपराधियों सा खड़ा भी रहता है। एस. पी. के सामने कुर्सी पर बैठ भी नहीं पाता। ऐसे ही माफ़िया मंत्री होते हैं क्या कहीं? हां अनुराग कश्यप के यहां ज़रुर हो गए हैं। और तो और अपने देश में कोयला स्कैम अब सब से बड़ा स्कैम बन कर उभरने को तैयार खड़ा है और इस फ़िल्म में बताया जा रहा है कि व्यवसाय में कोयले के दिन अब विदा हो गए। वह भी अस्सी के दशक के काल में। हद है। सूरजदेव सिंह जैसे माफ़िया राजनीतिज्ञ भी छाया रुप में ही सही कहीं नहीं दिखते।

कुछ भड़कीले, चमकदार और गाली गलौज भरे संवादों और हिंसात्मक दृष्यों का प्रोमो चैनलों पर दिखा कर, सिने समीक्षकों को प्रायोजित कर, अपने इंटरव्यू आदि दिखा कर आप दर्शकों को सिनेमाघरों तक बेवकूफ़ बना कर बुला तो सकते है, पैसा कमा तो सकते हैं पर क्लासिक बनाने का भ्रम भी अगर पाल लेते हैं अनुराग कश्यप तो समझिए कि हिंदी सिनेमा और उस के दर्शक आप को माफ़ करने वाले हैं नहीं। यह शॉर्टकट आप को पैसा, ग्लैमर आदि तात्कालिक रुप से दे क्या सकता है, दे ही दिया है पर आप को ज़रा राजकपूर की याद दिलाता चलता हूं अनुराग कश्यप। राज कपूर बहुत बदनाम थे एक समय अपनी नायिकाओं को एक्स्पोज़ करने के लिए। हालां कि आवारा से लगायत जागते रहो और संगम, सत्यम शिवम सुंदरम या राम तेरी गंगा मैली हो गई तक वह सिर्फ़ नायिकाओं का वक्ष दर्शन ही करवा कर धन्य होते रहे। मेरा नाम जोकर जैसी अपनी सर्वश्रेष्ठ फ़िल्म में भी वह इस नुस्खे कहिए या उन की कमज़ोरी से बाज़ नहीं आए। पर इसी मेरा नाम जोकर के पिट जाने पर जब वह लगभग खुद भी पिट गए थे, दीवालिया हो गए थे और कोई फ़िल्म नहीं बना पा रहे थे तो कुछ लोग उन के पास यह बताने गए कि सोवियत संघ यानी रुस में उन का बड़ा नाम है, वहां आलू का निर्यात हो रहा है। रुस से वह आलू निर्यात करने का लाइसेंस ले लें तो सारा घाटा पूरा हो जाएगा। राजकपूर ने साफ मना कर दिया और कह दिया कि अभी यह दिन नहीं आए हैं कि राज कपूर आलू बेचने लग जाए। राज कपूर फ़िल्म ही बनाएगा, आलू नहीं बेचेगा। कुछ दिन बाद हाजी मस्तान ने राज कपूर को अपने घर खाने पर बुलाया। चार-छ पेग पी-पिला लेने के बाद हाजी मस्तान ने राज कपूर से बड़े आदर से कहा कि राज साहब आप फ़िल्म बनाइए, पैसा मैं देता हूं। फ़िल्म चल जाए तो लौटा दीजिएगा, नहीं भूल जाइएगा। राज कपूर चुप रहे। पर जब हाजी मस्तान ने यही बात दुबारा कही तो राज कपूर ने हाजी मस्तान से साफ कह दिया कि फ़िल्म तो मैं बनाऊंगा पर माफ़ कीजिए आप के पैसे से नहीं। और उठ कर चल दिए। अब सुनता हूं कि राजकपूर के पोते रणवीर कपूर ने विज्ञापनों से ही इतना पैसा कमा लिया है कि राज कपूर उतना अपने जीवन भर में नहीं कमा पाए। पर मैं पूछना चाहता हूं कि जो फ़िल्मोग्राफ़ी राज कपूर की है, रणवीर कपूर क्या उस का नाखून भी छू पाएंगे? तो अनुराग कश्यप और उन के जैसे तमाम फ़िल्मकारों को चाहिए कि पैसा ही जो कमाना है तो दुनिया में बहुतेरे धंधे हैं, एक फ़िल्म ही नहीं। फ़िल्म को रचना ही रहने दें, रंडी न बनाएं।