दयानंद पांडेय
हैं कुछ मूर्खाधिपति जो तुलसी का यह लिखा हरदम कोट करते हुए अपनी सेक्यूलरिज़्म की भांग घोंटते रहते हैं "माँग के खाइबो मसीत में सोइबो।" साथ ही पूछते रहते हैं कि , तुलसी ने राम चरित मानस लिख डाली। राम मंदिर के टूटने का और बाबरी मस्जिद बनने का क्या तुलसी को जरा भी अफसोस नहीं रहा होगा? कहीं लिखा क्यों नहीं? इन नितंब नरेशों को "माँग के खाइबो मसीत में सोइबो।" में तुलसी की विवशता नहीं समझ में नहीं आती। बाबर के समय मंदिर तोड़ कर मस्जिद बनाई जा चुकी थी। अकबर का शासन था और तुलसी उसी मंदिर में सो रहे थे जो , मस्जिद बन चुकी थी। नहीं मस्जिद में सोने की और क्या लाचारी थी भला तुलसीदास को ?
भिक्षा ही से उन का पेट पलता था। राम के भक्त थे सो मस्जिद बन चुके राम मंदिर में सोते थे। लिख कर लोगों को बताते थे , "माँग के खाइबो मसीत में सोइबो।" एक शांति प्रिय और राम को गाने वाला व्यक्ति इस से ज़्यादा और कैसे लिख कर बता सकता था ? सिर तन से जुदा करने के रास्ते पर तो नहीं जा सकता था ? गो कि उस समय भी सिर तन से जुदा करने की तजवीज आम थी। औरंगज़ेब के समय तो उफान पर थी।
कुछ मुस्लिम राजाओं द्वारा मंदिर बनाने के लिए ज़मीन , ईंटें , धन आदि देने के विवरण भी यह नितंब नरेश लोग जब-तब परोसते रहते हैं। मुस्लिम राजा लोग यह ज़मीन , ईंटें , धन लाए कहां से थे ? यह नहीं बताते यह लोग। लूटा हुआ धन तो सुनता हूं , सुल्ताना डाकू भी कुछ मुट्ठी भर लोगों में बांटता था। तो क्या वह डाकू नहीं , धर्मात्मा था ? यह नहीं बताते यह नितंब नरेश लोग कि "माँग के खाइबो मसीत में सोइबो।" लिखने वाले तुलसी ने अकबर की क़ैद में रहने के बावजूद नवरत्न बनने का प्रस्ताव ठुकरा दिया था।