Monday 29 September 2014

ये खत तो जला डालिए , तहरीर तो जलती ही नहीं !


मेरे महबूब शायर वसीम बरेलवी से कल अरसे बाद मुलाकात हुई । वह् खुश हो गए और मैं झूम गया ।  मैं ने उन्हें उन की पुरानी यादों का ज़िक्र करते हुए उन के ही एक गीत का एक मिसरा जब सुनाया कि , ये खत तो जला डालिए  , तहरीर तो जलती ही नहीं ! और कहा कि आप भले भूल जाएं, हम कहां और कैसे भूल सकते हैं आप को भला ? हमारी यादों की तहरीर तो नहीं ही जलने वाली। और उन के ही एक गीत की फिर याद दिलाई कि , इक तो गोरी नदी के जल में दूजे भरी जवानी में , जैसे कंवल खिला हो पानी में । तो यह सुन कर वह मगन हो गए। मुझे गले लगा लिया। कहने लगे कि आप की यही मुहब्बत तो हम शायरों को ज़िंदा रखती है। राम स्वरूप सिंदूर की चौरासवीं जयंती पर आयोजित कार्यक्रम में शिरकत करने कल वह लखनऊ आए थे । मैं ने उन से एक शिकायत भी कि अब वह शेर पढ़ने से ज़्यादा तकरीर करने लगे हैं इस से सुनने में रसाघात होता है , यह गुड बात नहीं है। इस से हम जैसे आप के आशिकों को तकलीफ होती है। लेकिन वह तमाम सफाई देते रहे कि सब को समझाना भी जरूरी है। मैं ने कहा कि अपने चाहने वालों को इतना जाहिल भी मत समझिए । लेकिन वह आधा सहमत हुए इस बात से आधा नहीं  । पर कहा कि ज़रूर आप की बात पर गौर करूंगा।  मैं ने फर उन्हें उन के ही दो शेर सुना दिए :

हर शख्स दौड़ता है यहां भीड़ की तरफ
और चाहता है कि उसे रास्ता मिले

इस दौरे मुंसिफी में जरूरी नहीं वसीम
जिस शख्स की खता हो उसी को सजा मिले

फिर तय हुआ कि उन की अगली लखनऊ यात्रा में इत्मीनान से बैठकी होगी । आप मित्रों के लिए उन की कुछ गज़लें जो मुझे बहुत पसंद हैं , यहां पढ़वाता हूं :




 मैं इस उम्मीद पे डूबा के तू बचा लेगा
अब इसके बाद मेरा इम्तेहान क्या लेगा


ये एक मेला है वादा किसी से क्या लेगा
ढलेगा दिन तो हर एक अपना रास्ता लेगा


मैं बुझ गया तो हमेशा को बुझ ही जाऊँगा
कोई चराग़ नहीं हूँ जो फिर जला लेगा


कलेजा चाहिए दुश्मन से दुश्मनी के लिए
जो बे-अमल है वो बदला किसी से क्या लेगा


मैं उसका हो नहीं सकता बता न देना उसे
सुनेगा तो लकीरें हाथ की अपनी जला लेगा


हज़ार तोड़ के आ जाऊँ उस से रिश्ता वसीम
मैं जानता हूँ वो जब चाहेगा बुला लेगा





 

तुम्हारी राह में मिट्टी के घर नहीं आते
इसीलिए तो तुम्हें हम नज़र नहीं आते

मुहब्बतों के दिनों की यही ख़राबी है
ये रूठ जाएँ तो फिर लौटकर नहीं आते

जिन्हें सलीका है तहज़ीब-ए-ग़म समझने का
उन्हीं के रोने में आँसू नज़र नहीं आते

ख़ुशी की आँख में आँसू की भी जगह रखना
बुरे ज़माने कभी पूछकर नहीं आते

बिसाते -इश्क पे बढ़ना किसे नहीं आता
यह और बात कि बचने के घर नहीं आते

'वसीम' जहन बनाते हैं तो वही अख़बार
जो ले के एक भी अच्छी ख़बर नहीं आते  

 









.

  उसूलों पे जहाँ आँच आये टकराना ज़रूरी है
जो ज़िन्दा हों तो फिर ज़िन्दा नज़र आना ज़रूरी है

नई उम्रों की ख़ुदमुख़्तारियों को कौन समझाये
कहाँ से बच के चलना है कहाँ जाना ज़रूरी है

थके हारे परिन्दे जब बसेरे के लिये लौटें
सलीक़ामन्द शाख़ों का लचक जाना ज़रूरी है

बहुत बेबाक आँखों में त'अल्लुक़ टिक नहीं पाता
मुहब्बत में कशिश रखने को शर्माना ज़रूरी है

सलीक़ा ही नहीं शायद उसे महसूस करने का
जो कहता है ख़ुदा है तो नज़र आना ज़रूरी है

मेरे होंठों पे अपनी प्यास रख दो और फिर सोचो
कि इस के बाद भी दुनिया में कुछ पाना ज़रूरी है 





लहू न हो तो क़लम तरजुमाँ नहीं होता
हमारे दौर में आँसू ज़ुबाँ नहीं होता

जहाँ रहेगा वहीं रौशनी लुटायेगा
किसी चराग़ का अपना मकाँ नहीं होता

ये किस मक़ाम पे लाई है मेरी तनहाई
के मुझ से आज कोई बदगुमाँ नहीं होता

मैं उस को भूल गया हूँ ये कौन मानेगा
किसी चराग़ के बस में धुआँ नहीं होता

'वसीम' सदियों की आँखों से देखिये मुझ को
वो लफ़्ज़ हूँ जो कभी दास्ताँ नहीं होता





1 comment: