Friday 27 March 2020

तो जिन के घर कोई जा नहीं सकता , वह कह रहे हैं कि अपने दरवाज़े पर फ्री फ़ूड लिख दें

रंज दोस्तों को बहुत है मगर आराम के साथ


इन दिनों अजब-अजब लोग , गज़ब-गज़ब मशवरा दिए जा रहे हैं। नकली आह्वान और फर्जी कविताएं , दिखावटी आंसू परोसे जा रहे हैं। टी वी पर , फेसबुक , ट्वीटर या वाट्स अप पर कोई विवरण देखा , चांप दी दू ठो कविता। निकाल दिए आंसू , घर बैठे-बैठे। कर दिया आह्वान। चला दिया फर्जी विमर्श। अब कि जैसे एक नामी एंकर जो अपनी निगेटिविटी के लिए खूब कुख्यात हैं , ने लिख दिया है कि आप अपने दरवाजे पर फ्री फ़ूड लिख दें। और लोगों को फ्री फ़ूड दें। गुड है। पढ़ने में भी बहुत गुड लगता है। लेकिन यह एंकर महोदय क्या तमाम लोग अब ऐसी जगह पर रहते हैं , जहां सामान्य दिनों में भी कोई परिचित , कोई मित्र भी आसानी से बेधड़क , बेरोक-टोक नहीं जा सकता। गार्ड गेट पर ही रोक लेता है और आप से पूछ कर ही , अगले को परिसर में प्रवेश लेने देता है। तो जिन के घर कोई जा नहीं सकता , वह कह रहे हैं कि अपने दरवाज़े पर फ्री फ़ूड लिख दें। 

और इन दिनों तो आलम यह है कि इन सोसाइटियों में घोषित रूप से किसी भी बाहरी के आने पर पाबंदी है। साफ़ कह दिया गया है कि कोई मेहमान भी अब एलाऊ नहीं है। यहां तक कि काम वाली बाई भी एलाऊ नहीं है । बस जो यहां रहता है , स्थाई रूप से वही बाहर-भीतर हो सकता है , एक निश्चित समय सीमा के तहत। तो इस फ्री फ़ूड को कहां लिखने को कह रहे हो पार्टनर ? काहे नाखून कटवा कर शहीद बनने को आतुर हो महराज ! किस की आंख में धूल झोंक रहे हो प्रभु ! फिर बिचारे गरीब प्रवर , किसी अभागे मज़दूर के लिए ही तो फ्री फ़ूड लिख रहे हैं श्रीमान ! वह समझ पाएगा कि इस का मतलब क्या है ? मैं ने तो पाया है कि इसी दिल्ली , इसी एन सी आर में लोग टू-लेट लिखा देख कर को ट्वायलेट समझ लिया है और फारिग होने पहुंच गए हैं। और आप फ्री फ़ूड लिख कर अपनी कांस्टीच्वेंसी एड्रेस कर रहे हैं। उन स्कॉच पीने वालों की कांस्टीच्वेंसी में वाह-वाह बटोर रहे हैं , जो लोग जब देश के अधिकांश लोग राशन , पानी बटोर रहे थे कि महीना भर तो चल जाए , और यह लोग कैरेट की कैरेट स्कॉच , ह्विस्की , रम , काजू, बादाम , पनीर ,चिकेन , मटन आदि-इत्यादि स्टोर कर रहे थे कि आने वाले दिनों में कोटा कम न पड़े। और जो लोग इस में किसी कारण चूक गए। स्टोर नहीं कर पाए , आज खुल्ल्मखुल्ला आह, आह कर रहे हैं। इसी सोशल मीडिया पर। वह लोग जो रोज-ब-रोज मेहनतकशों की पैरवी में , सेक्यूलरिज्म की पिछाड़ी धोने के लिए सरकार की ईंट से ईंट बजाने की फर्जी हुंकार भरते रहते हैं। अकबर इलाहाबादी का वह शेर है न :

क़ौम के ग़म में डिनर खाते हैं हुक्काम के साथ 
रंज लीडर को बहुत है मगर आराम के साथ 

तो कहूं कि रंज दोस्तों को बहुत है मगर आराम के साथ। 

फिर एक जमात हरामखोर कवियों की है। फर्जी संवेदना में भीगी कविताओं का सैलाब आ गया है। मज़दूरों की पैदल जाती भीड़ इन कवियों से देखी नहीं जा रही। कविताओं की खेप की खेप खड़ी हो रही है। जहालत के मारे इन नाशपीटों से यह एक लाइन लिखते नहीं बन रही है कि यह गलत है , तुम्हारा जाना। जहां भी जाओगे , वहां के लोगों को सांसत में डालोगे। यह समय सारा दुःख , सारी भूख समेट कर जहां हो वहीँ रहने का है। कोरोना को फ़ैलाने की चेन मत बनो। संकट मत बनो , अपने परिजनों , अपने गांव , अपने मुहल्ले के लिए। अपने लिए। तमाम उदारवादी लोग यह भी नहीं लिख पा रहे कि मस्जिदों में नमाज इस समय नाजायज है। मौलानाओं , मनुष्यता और देश को संकट में मत डालो। यह समय मस्जिद या कहीं भी मजलिस करने का नहीं। अकेले रहने का समय है यह। घर में दरवाज़ा बंद कर रहने का समय है यह। लेकिन भीड़ की भीड़ पुलिस पीटती हुई निकाल रही है मस्जिदों से। तिस पर तमाम चीनी मौलाना जाने कहां से आ गए हैं इन मस्जिदों में शरण लेने। यत्र-तत्र। अरे , आप सड़क पर , पार्क में , रेलवे स्टेशनों पर , ट्रेन में नमाज पढ़ते रहे हैं। अब ज़रा घर में भी पढ़ लीजिए। घर में भी सबाब मिल जाएगा। अल्ला तो कण-कण में उपस्थित है। यह कैसी ज़िद है कि मस्जिद की नमाज में ही सबाब मिलेगा। अरे ज़िंदगी रहेगी तभी , सबाब भी मिलेगा। एक साथ कितनों की ज़िंदगी जहन्नुम बनाने का इरादा क्यों है भला। 

जब जत्थे के जत्थे लोग सडकों पर पैदल जाते दिखने लगे , इस के पहले ही  दिल्ली की सरकार को ऐलान कर देना था कि किसी को कहीं जाने की ज़रूरत नहीं है। जो भी कहीं जाएगा , उस के खिलाफ कड़ी कानूनी कार्रवाई की जाएगी।  और कि हर किसी के रहने , भोजन की ज़िम्मेदारी सरकार ही की होगी। भारत की बेलगाम पढ़ और अनपढ़ जनता कोई बात कड़ाई और लाठी से जल्दी समझती है। तो यह कोरोना की चेन , देश भर में फैलती चेन , गांव-गांव फैलती चेन आसानी से रोकी जा सकती थी। यही काम सभी प्रदेश सरकारों को सख्ती से करना चाहिए था। पर अफ़सोस कि अब बहुत देर हो चुकी है। जनता-जनार्दन जगह-जगह फ़ैल चुकी है। गरीब मज़दूरों के इस निरंतर प्रस्थान का जाने क्या नतीजा मिलेगा , मैं नहीं जानता। पर खतरा तो सौ गुना बढ़ ही गया है। गांव-गांव इन पहुंचने वालों का विरोध भी शुरू हो चुका है। कहीं यह विरोध लोगों की मार-पीट में न बदल जाए। गाली-गलौज पर तो आ ही चुका है। 

लाखो , करोड़ो डकारने वाले तमाम एन जी ओ हैं देश में। देख रहा हूं कि सोशल मीडिया पर आ कर यह एन जी ओ वाले लोग भीख ही मांगने में अभी संलग्न हैं। मदद जाने कब करेंगे।

दिल्ली में न्यूज़ चैनलों की खबरों पर अगर यक़ीन कर लिया जाए तो मुख्य मंत्री अरविंद केजरीवाल निरंतर प्रशंसनीय काम कर रहे हैं। गरीबों को भोजन के बाबत। बाकी प्रदेश सरकारों को भी केजरीवाल का अनुसरण करना चाहिए। क्यों कि पेट की भूख आदमी की पहली प्राथमिकता होती है। फिर गरीब आदमी के पास एक भूख ही तो है। जिस के लिए वह जीता और मरता है। सारा जीवन भूख से संघर्ष में ही बीत जाता है। तो गरीबों , मज़दूरों की भूख और रहने की पहली प्राथमिकता मान कर सरकारों और सामाजिक संगठनों को काम करना चाहिए। लेकिन इस से भी ऊपर है कोरोना का कैरियर बनने से लोगों को रोकना। भले पुलिस की लाठियों से ही रुके। कोरोना रुकेगा , तभी जीवन शेष रहेगा। सिर्फ कुछ लोगों की मुश्किल और भूख रोकने के लिए समूचे देश को कोरोना की सूली पर चढ़ाना गुड बात नहीं होगी। देवेंद्र कुमार की मशहूर कविता है ; बहस ज़रूरी है। वह लिखते हैं :

समन्वय, समझौता, कुल मिला कर
अक्षमता का दुष्परिणाम है
जौहर का किस्सा सुना होगा
काश! महारानी पद्मिनी, चिता में जलने के बजाए
सोलह हजार रानियों के साथ लैस हो कर
चित्तौड़ के किले की रक्षा करते हुए
मरी नहीं, मारी गई होती
तब शायद तुम्हारा और तुम्हारे देश का भविष्य
कुछ और होता!
यही आज का तकाजा है
वरना कौन प्रजा, कौन राजा है?

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